शिक्षक और शिक्षार्थी गुरुरबृहमा गुरुर्विष्णु र्गुरुर्देवो महेशवराय गुरुरसाक्षात परम बृहमा तस्मै श्री गुरुदेव नमः गुरु की महिमा अपरम्पार है। प्राचीन काल से ही भारतीय समाज में शिक्षक को एक ऊंचा स्थान दिया गया है। गुरुकुल परंपरा के अनुसार गुरु को ही शिक्षक के चरित्र निर्माण के लिए जिम्मेदार माना जाता रहा है। शिष्य के भविष्य के निर्माण का दायित्व भी गुरु को ही दिया गया है। माता को प्रथम गुरु मानकर भी गुरु को ही सम्मानित किया गया है।
शिक्षक और शिक्षार्थी
गुरुरबृहमा गुरुर्विष्णु र्गुरुर्देवो महेशवराय
गुरुरसाक्षात परम बृहमा तस्मै श्री गुरुदेव नमः
गुरु की महिमा अपरम्पार है। प्राचीन काल से ही भारतीय समाज में शिक्षक को एक ऊंचा स्थान दिया गया है। गुरुकुल परंपरा के अनुसार गुरु को ही शिक्षक के चरित्र निर्माण के लिए जिम्मेदार माना जाता रहा है। शिष्य के भविष्य के निर्माण का दायित्व भी गुरु को ही दिया गया है। माता को प्रथम गुरु मानकर भी गुरु को ही सम्मानित किया गया है।
शिक्षक और शिक्षार्थी |
शिक्षक और शिक्षार्थी समाज के दो अभिन्न अंग हैं। गुरु बिना ज्ञान की प्राप्ति संभव नहीं है। शिक्षार्थी नहीं हो तो शिक्षक का ज्ञान व्यर्थ है। एकलव्य के उदाहरण से गुरु शिष्य संबंधों की मजबूती देखी जा सकती है। परन्तु एक कटु सत्य यह भी है कि शिक्षक और शिक्षार्थी के संबंध अब बदल गए हैं। बदलते समय के साथ सभी कुछ बदला है तो कैसे अछूता रह सकता है यह नाता भी। बदलते समय के साथ हर चीज का बदलना तय है परन्तु वास्तविकता का समूल विनाश, समस्या उत्पन्न करता है। इस बदले परिवेश के लिए शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों ही ज़िम्मेदार है।
शिक्षण आज दायित्व से अधिक आमदनी का स्रोत है। निजी विद्यालयों और कोचिंग के बढ़ते प्रचलन ने शिक्षा को एक उत्पाद बना दिया है। शिक्षक और शिक्षार्थी गुरु शिष्य ना होकर दुकानदार और ग्राहक बनकर रह गए हैं। शिक्षक अपना महत्व अब खो चुका है। जो व्यक्ति जितने अधिक विद्यार्थी जुटा पाता है उतना ही अच्छा शिक्षक माना जाता है। शिक्षार्थी वही है जो शिक्षक को धनार्जन में सहयोग कर रहा है। जो शिक्षार्थी शिक्षक को धन लाभ नहीं दे पाते वो उसकी कृपा नहीं प्राप्त कर पाते। दूसरे शब्दों में शिक्षा को नहीं खरीद पाते हैं। प्रतियोगिता के युग ने शिक्षा को एक विशेष उत्पाद बना दिया है।
अर्चना त्यागी |
जिसे शिक्षार्थी की लगन से ज्यादा उसके अभिभावकों के पास उपलब्ध धन से प्राप्त किया जाता है। जो जितना धन देगा उतने अच्छे शिक्षक से शिक्षा प्राप्त करेगा। इन परिस्थितियों में शिक्षक और शिक्षार्थी के संबंध सामान्य हो ही नहीं सकते हैं।
पूरा दोष शिक्षकों को देना भी ग़लत है। इस दौर में कठिन जीवन यापन को सरल बनाने के लिए ही उन्हें ऐसा करने पर मजबूर होना पड़ रहा है। शिक्षार्थी भी अब शिष्य नहीं हैं। बहुत सारे विकल्प उनके सामने मौजूद हैं। अभिभावक अपनी कमाई का अधिकतम भाग उनकी शिक्षा पर खर्च करते हैं। शिक्षा का उद्देश्य चरित्र निर्माण अब नहीं रह गया है। जीवन निर्माण भी नहीं है। जीवन यापन और ऊंचे पद की लालसा अब शिक्षा का उद्देश्य रह गया है। शिक्षक एक सहायक मात्र है उस उद्देश्य की प्राप्ति का। अभिभावकों द्वारा छात्रों के समक्ष ही शिक्षक की खुलकर आलोचना होती है। अभिवादन, अभिनन्दन और सम्मान जैसे शब्दों से आधुनिक शिक्षार्थी दूरी बनाकर चलते हैं। इस विषय में वास्तव में सोचने की आवश्यकता है। शिक्षा जब तक जीवन मूल्यों से नहीं जुड़ेगी तब तक यह स्थिति यथावत बनी रहेगी। हमारे देश में शिक्षा का महत्व जीवन यापन से बहुत ऊपर रहा है। शिक्षक का महत्व तो भगवान से भी अधिक माना गया है।
" गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लागो पाय,
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताए।"
शिक्षक और शिक्षार्थी इस देश में गुरु शिष्य बनकर ही सम्मान प्राप्त कर सकते हैं।
- अर्चना त्यागी
व्याख्याता रसायन विज्ञान
एवम् कैरियर परामर्शदाता
जोधपुर ( राज.)
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