प्रेम कलश शीर्षक की रचना , कल्पना जगत के आकाश से प्राप्त प्रेम कलश नामक कलश से उत्पन्न हुई है ।
प्रेम कलश
प्राक्कथन -- " प्रेम कलश " शीर्षक की रचना , कल्पना जगत के आकाश से प्राप्त प्रेम कलश नामक कलश से उत्पन्न हुई है ।
प्रेम चिन्ह अंकित था ।
स्वस्तिक वन्दनवारों से वह ,
पूरी तरह अलंकृत था--1
विश्व सुगन्धित सुमनों की थी
बनी प्रेम की माला ।
प्रेम कलश पर पड़ी हुई थी ,
बिखराती प्रेम उजाला--2
प्रेम नीर से भरा हुआ था ,
फूलों के मकरन्द घुले ।
आनन्द सुगन्ध सुवासित जल में,
प्रेम शक्ति के छन्द मिले--3
मधु घृत शर्करा समन्वित जल में ,
हल्दी चन्दन साकार हुआ ।
केशर गुलाब औ लिली फूल से,
प्रेम का रस तैयार हुआ--4
प्रेम के रस का प्रेम पात्र ले ,
काम हाथ में आया ।
अपने हाथों प्रेम कलश में ,
प्रेम कलश |
प्रेम का रस है मिलाया--5
प्रेम कलश पर प्रेम दीप ,
अविराम जला करता था ।
मानो पूर्ण अवधि होने का ,
संदेश दिया करता था--6
पूर्ण अवधि होने पर उस ,
प्रेम कलश में ज्वार हुआ ।
प्रेम कलश औ प्रेम दीप से ,
दो जन का अवतार हुआ--7
प्रेम दीप की प्रेम शिखा से ,
शिव प्रेमी अवतार लिया ।
प्रेम कलश के मादक जल से,
शिवा रूप साकार लिया--8
काल चला अपनी गति से ,
दोनों में किशोरता आयी ।
काल नियम अविचल होता है,
दोनों में मादकता छायी--9
एक बार शिव और शिवा ,
दोनों में साक्षात्कार हुआ ।
अपलक दृष्टि बनीं दोनों की,
सिहरन का संचार हुआ--10
दोनों में नामकरण परिचय ,
औ कुछ अनजानी बात हुई ।
बप गया प्रेम का बीज वहीं ,
औ मधुरस की बरसात हुई--11
दोनों के गहरे प्रेम अतल से ,
प्रेम कलश का गीत बना ।
शिव और शिवा के जीवन का ,
आनन्दमयी संगीत बना--12
प्रेम कलश की प्रेम मल्लिका,
बिखरी गीत के वन्दों में ।
माला के सुमनों की लड़ियाँ,
घुली काव्य के छन्दों में--13
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प्राक्कथन -- आपस में सूक्ष्म मुलाकात के पश्चात शिव और शिवा अपने -अपने स्थानों को चले जाते हैं । वहीं से मन के तारों को संचार माध्यम बनाकर एक दूसरे को संदेश सम्प्रेषित कर रहे हैं ।
मैं शिव हूँ तुम शिवा कहो ,
क्या तुमसे मेरा नाता है ।
तेरा कोमल मधुर हास ,
रह रह कर याद दिलाता है-- 1
होठों पे सुधा का प्याला है ,
औ मन तेरा मतवाला है ।
नयन कँटीले , शब्द रसीले ,
केश प्रेम की ज्वाला हैं-- 2
यौवन की मतवाली हो तुम ,
इठलाती बलखाती हो ।
चाल तुम्हारी नागन जैसी ,
अलकों से तरसाती हो --3
हिरनी जैसी आँखों वाली ,
तुमसा कोई मीत नहीं ।
हृदय चीर कर देखो तो ,
तुमसे हटकर प्रीत नहीं--4
रात अँधेरी आती है तो ,
जी मेरा घबराता है ।
आहत हो करुण क्रन्दन से ,
तुमको पास बुलाता है --5
तुम हो जीवन साथी मेरे ,
तुमसे यह जीवन मेरा है।
मेरे इस भोले से उर में ,
तेरा ही बसेरा है -- 6
जब याद तुम्हारी आती है तो,
दर्द जिगर में होता है ।
जब सारी दुनिया सोती है तो ,
दिल मेरा यह रोता है--7
हमराही बन जा तूँ मेरे ,
मैं तेरा साथ निभाऊँ ।
दुखियारे भीगे नयनों से ,
तुमको पास बुलाऊँ --8
दिल से निकले गीतों को ,
हम तुमको अर्पित करते हैं ।
तेरी चाहत में ऐ प्रेयसि ,
जान समर्पित करते हैं --9
आँसू के मनकों की माला ,
तुम्हें समर्पण करता हूँ।
खिला हुआ यह प्रेम पुष्प ,
मैं तुमको अर्पण करता हूँ--10
मैं शिवा आप शिव हो मेरे ,
तेरा आराधन करती हूँ ।
तेरे बिन कैसे ऐ प्रियतम ,
जीवन यापन करती हूँ --11
दिवस मास सम हो जाता ,
पल पल घड़ियों के सम है ।
देख मेरे उर को बोलो कुछ ,
क्या हालत यह कम है--12
शिव है बना शिवा के कारण ,
शिवा आपकी बन आयी।
नियति हमारी प्रकृति तुम्हारी ,
एक मंच पर है लायी --13
आप बताओ मुझे दया कर ,
क्यों हिय पर मेरे डेरा ।
क्षमा करें यह प्रश्न नहीं ,
मेरा ही तुमपे बसेरा--14
हमनें ही जलाये प्रेम दीप ,
अब हम दोनों जलते हैं ।
दोनों ही राह चले काँटों के ,
दोनों को पल पल चुभते हैं--15
आप पूछती कैसी हो ,
क्या अपनी हाल सुनाऊँ ।
मैं रो रो कर सिसक सिसक के,
अपनी रात बिताऊँ--16
दर्द भरी वाणी से कहती ,
अपनी करुण कहानी ।
प्रेम पथिक बन चलती रहती ,
फिरती हूँ अनजानी--17
नयनों में समाया रूप आपका ,
मुझको तरसाता है ।
हृदय आपका प्रेम कलश ,
जो प्रेम बूँद बरसाता है--18
सँवरे बदले बाल घनेरे ,
श्याम घटा बन जाते हैं ।
यही घटायें आँसू बनकर ,
आँखों में छा जाते हैं--19
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प्रेम कलश पर प्रेम दीप ,
अविराम जला करता था ।
मानो पूर्ण अवधि होने का ,
संदेश दिया करता था--6
पूर्ण अवधि होने पर उस ,
प्रेम कलश में ज्वार हुआ ।
प्रेम कलश औ प्रेम दीप से ,
दो जन का अवतार हुआ--7
प्रेम दीप की प्रेम शिखा से ,
शिव प्रेमी अवतार लिया ।
प्रेम कलश के मादक जल से,
शिवा रूप साकार लिया--8
काल चला अपनी गति से ,
दोनों में किशोरता आयी ।
काल नियम अविचल होता है,
दोनों में मादकता छायी--9
एक बार शिव और शिवा ,
दोनों में साक्षात्कार हुआ ।
अपलक दृष्टि बनीं दोनों की,
सिहरन का संचार हुआ--10
दोनों में नामकरण परिचय ,
औ कुछ अनजानी बात हुई ।
बप गया प्रेम का बीज वहीं ,
औ मधुरस की बरसात हुई--11
दोनों के गहरे प्रेम अतल से ,
प्रेम कलश का गीत बना ।
शिव और शिवा के जीवन का ,
आनन्दमयी संगीत बना--12
प्रेम कलश की प्रेम मल्लिका,
बिखरी गीत के वन्दों में ।
माला के सुमनों की लड़ियाँ,
घुली काव्य के छन्दों में--13
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"" द्वितीय सर्ग ""
'''''' मन के तारों के माध्यम से नायक--नायिका का सन्देश सम्प्रेषण ''''''
मैं शिव हूँ तुम शिवा कहो ,
क्या तुमसे मेरा नाता है ।
तेरा कोमल मधुर हास ,
रह रह कर याद दिलाता है-- 1
होठों पे सुधा का प्याला है ,
औ मन तेरा मतवाला है ।
नयन कँटीले , शब्द रसीले ,
केश प्रेम की ज्वाला हैं-- 2
यौवन की मतवाली हो तुम ,
इठलाती बलखाती हो ।
चाल तुम्हारी नागन जैसी ,
अलकों से तरसाती हो --3
हिरनी जैसी आँखों वाली ,
तुमसा कोई मीत नहीं ।
हृदय चीर कर देखो तो ,
तुमसे हटकर प्रीत नहीं--4
रात अँधेरी आती है तो ,
जी मेरा घबराता है ।
आहत हो करुण क्रन्दन से ,
तुमको पास बुलाता है --5
तुम हो जीवन साथी मेरे ,
तुमसे यह जीवन मेरा है।
मेरे इस भोले से उर में ,
तेरा ही बसेरा है -- 6
जब याद तुम्हारी आती है तो,
दर्द जिगर में होता है ।
जब सारी दुनिया सोती है तो ,
दिल मेरा यह रोता है--7
हमराही बन जा तूँ मेरे ,
मैं तेरा साथ निभाऊँ ।
दुखियारे भीगे नयनों से ,
तुमको पास बुलाऊँ --8
दिल से निकले गीतों को ,
हम तुमको अर्पित करते हैं ।
तेरी चाहत में ऐ प्रेयसि ,
जान समर्पित करते हैं --9
आँसू के मनकों की माला ,
तुम्हें समर्पण करता हूँ।
खिला हुआ यह प्रेम पुष्प ,
मैं तुमको अर्पण करता हूँ--10
मैं शिवा आप शिव हो मेरे ,
तेरा आराधन करती हूँ ।
तेरे बिन कैसे ऐ प्रियतम ,
जीवन यापन करती हूँ --11
दिवस मास सम हो जाता ,
पल पल घड़ियों के सम है ।
देख मेरे उर को बोलो कुछ ,
क्या हालत यह कम है--12
शिव है बना शिवा के कारण ,
शिवा आपकी बन आयी।
नियति हमारी प्रकृति तुम्हारी ,
एक मंच पर है लायी --13
आप बताओ मुझे दया कर ,
क्यों हिय पर मेरे डेरा ।
क्षमा करें यह प्रश्न नहीं ,
मेरा ही तुमपे बसेरा--14
हमनें ही जलाये प्रेम दीप ,
अब हम दोनों जलते हैं ।
दोनों ही राह चले काँटों के ,
दोनों को पल पल चुभते हैं--15
आप पूछती कैसी हो ,
क्या अपनी हाल सुनाऊँ ।
मैं रो रो कर सिसक सिसक के,
अपनी रात बिताऊँ--16
दर्द भरी वाणी से कहती ,
अपनी करुण कहानी ।
प्रेम पथिक बन चलती रहती ,
फिरती हूँ अनजानी--17
नयनों में समाया रूप आपका ,
मुझको तरसाता है ।
हृदय आपका प्रेम कलश ,
जो प्रेम बूँद बरसाता है--18
सँवरे बदले बाल घनेरे ,
श्याम घटा बन जाते हैं ।
यही घटायें आँसू बनकर ,
आँखों में छा जाते हैं--19
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""" तृतीय सर्ग """
""बसंत ऋतु के अवसर पर दोनों के सम्मिलित विचार एवं मिलन""
जूही गुलाब गेंदा पलाश ,
बेला कनेर के पुष्प खिले ।
ऋतुओं का राजा वसंत है ,
सबको लेकर हिले मिले--1
शिव गुलाब फूलों का राजा ,
शिवा लिली फूल की रानी ।
चम्पा है कलियों की देवी ,
रूप सुगन्ध सुहानी--2
अढ़वुल कुन्द केतकी बेइल ,
गुलदाउदी चमेली छाये ।
हम दोनों को एक बनाने ,
मानो जाल बिछाये--3
नर्तन करती बसुन्धरा पर ,
खिली हुई हैं सरसों ।
आ जाओ बरसों के भूले ,
मिल जायें हम परसों--4
मन्द पवन के झोंके बन ,
मकरन्द लिये तुम आ जाओ ।
झुरमुट में बैठी हूँ प्यासी ,
आभभषकर प्यास बुझा जाओ--5
शाम हुई जाती है प्यारे ,
पक्षी गण कलरव करते ।
कलरव भी कानों में आकर ,
विरह वेदना भरते--6
धाराएँ आँसू की बहती ,
नयनों से झर झर अविरल ।
होते कपोल से आगे बढ़ती ,
छूती उर के अन्तःस्थल--7
अश्रुबिंदु मिल गये एक में ,
और गले का हार बनें ।
अश्रुबिंदु की माला मुझको ,
तेरा हैं उपहार बनें--8
रजनी आई घोर अँधेरी ,
नीरवता संग में लाई ।
अंग सिथिल होते प्यारे ,
औ नींद नहीं मुझको आई--9
अरे कृपा कर बतलाओ ,
क्यों मन को तुम पकड़ी हो ।
प्रेम शक्ति के जंजीरों में ,
शिवा हमें जकड़ी हो--10
मेरे नयनों में नयन डाल ,
समझो मेरी मजबूरी ।
थोड़े ही दिनों की बात शिवा ,
फिर न रहेगी दूरी--11
शिव की बाधाएँ प्रेयसि ,
ना समझो कुछ कम हैं ।
सहजन प्रियजन जन जन के ,
चलते आँखें ए नम हैं--12
तुमको क्या तुम पुरूष जाति हो ,
तुम पर ना कोई पहरा ।
मुझ पर प्रियजन परिजन सबका ,
पल पल रहता पहरा--13
मैं जब भी अकेला होता हूँ ,
यादों में चली तुम आती हो ।
तन मन में स्पन्दन होता ,
बीते दिन याद दिलाती हो--14
प्रथम बार जब मिलन हुआ तो ,
खुशियों के बादल छाये ।
खुशियों की बारिश में भीगे ,
हम फूले नहीं समाये--15
नयी नवेली नूतन सी नायिका ,
बन सज के शिवा सँवरी थी ।
मानो रति श्रृंगार सजा कर ,
आज अवनि पर उतरी थी--16
रक्तिम वर्ण सजे अधरों से ,
छलक रही थी मधुशाला ।
तिल निशान अधरों के नीचे ,
बना रहे थे मधु प्याला--17
नासिका सुशोभित रत्नों से ,
वह मन्द मन्द मुसकाती थी ।
दमक रही दाँतों की दतियां ,
गीत मिलन के गाती थी--18
लाल नारंगी वासंती मिल ,
रंग कपोल पर छाये ।
रह रह करते प्रणय निवेदन ,
अपनी ओर झुकाये--19
अभरन शोभित था ललाट ,
माथे पे मोती बूँद खिली ।
सतरंगी मोती की बूँदें ,
आपस में थी हिली मिली--20
कजरारे नयनों के कोने ,
कुसुमायुध से दिखते थे ।
चंचल चतुर चपल चालों से ,
मुझको घायल करते थे--21
चमक रहा था आभूषण ,
मस्तक पर जैसे चाँद खिला ।
केश जाल में फँसा हुआ पर ,
बेचारे को नहीं गिला--22
मोती की माला पड़ी गले में ,
कंगन खन खन करते थे ।
कटि प्रदेश से नवल नटी थी ,
नूपुर छन- छन करते थे--23
नाखून विविध रंगों में थी ,
पायल भी शोर मचाती थी ।
शिव शिवा शिवा शिव की निनाद ,
नभ मंडल से आती थी--24
शिवा श्रवण सुन्दर से दिखते ,
कानों में कुन्डल लटक रहे ।
चूमें कपोल को रह रह कर ,
मानों वे रुक रुक अटक रहे--25
आकर्षक परिधानों में वह ,
बनी हुई थी मधुबाला ।
तन के श्रृंगारों से मुझको ,
पिला रही थी मधु प्याला--26
श्रृंगार देखता पल पल मैं ,
मदहोश हुए जाता था ।
व्याकुलता बढ़ती जाती थी ,
मद मस्त हुए जाता था--27
मधुबाला के मधुशाला से ,
निकल रहा रस मधु वाला ।
आकर एकत्रित होते वे ,
भर जाता मधु का प्याला--28
मधु प्याला ले हाथों में ,
जब अधरों से मैं पान किया ।
हुआ शरीर में स्पन्दन औ ,
प्रेम सलिल से स्नान किया--29
नयनों से छलकी मदिरा ,
आ गिरी धरा पर कहती थी ।
अब प्रेम करो ना देर करो ,
रह रह आवाज निकलती थी--30
आलिंगन शिव का करती मैं ,
सुधि बुधि खोती जाती थी ।
शिव के कोमल स्पर्शों से ,
आनन्द मधुर मैं पाती थी--31
प्रेमालाप बढ़ा आगे ,
फिर अनंग अंग में व्याप्त हुआ ।
प्रेम बूँद की बारिश से तब ,
अंग अंग फिर शान्त हुआ--32
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"" चतुर्थ सर्ग ""
" नायक शिव और नायिका शिवा में वियोग एवम उनका बिरह चित्रण "
प्राक्कथन--- बन्धुओं ! जीवन में संयोग और वियोग अकाट्य सत्य है । इसी क्रम में शिव और शिवा जीवन में भी संयोग के उपरान्त वियोग का मर्माहत एवं मर्मस्पर्शी क्षण आ पहुँचा है । बिछुड़न के समय उन दोनों की मनःस्थिति क्या है , प्रकृति ऐसे क्षण में किस प्रकार उनके वियोग में भागीदारी निभा रही है , इन्हीं भावनाओं का चित्रण किया गया है ।
एक बार चलो फिर से मिल लें ,
अब दूर हमें जाना है ।
ना जाने की चाहत मेरी ,
पर ना कोई बहाना है-- 1
क्या करूँ नहीं बस चलता मेरा ,
मैं रीति रश्म से बेबश हूँ ।
जाना तो मुझको होगा ही ,
फिर भी तेरा सर्वश हूँ-- 2
सन्देश मिला जाने का तो ,
आँखें मेरी भर आईं ।
विचलित शरीर के रग रग में ,
विरह वेदना छाई-- 3
दुःख भरा निवेदन शिव मानो ,
सारी बात अतीत हुई ।
बिरह दंश के चिन्तन में ,
सारी रात व्यतीत हुई--4
जब दूर चली जाओगी शिवा ,
तुम याद बहुत आओगी ।
सूना सूना सा दिन होगा ,
रजनी में हमें रुलाओगी--5
तन से दूर भले जाऊँ पर ,
मन तेरे साथ रहेगा ।
पल पल चिन्तन तेरा होगा ,
तन आस लिये तड़पेगा--6
वहाँ पहुँच कर मन मन्दिर में ,
शिव प्रतिमा एक बना लूँगी ।
प्राण प्रतिष्ठा पीछे होगी ,
पहले भव्य सजा लूँगी--7
आँखें हैं भरी हुई मेरी ,
और दैन्य भाव के चलते ।
अवरुद्ध कण्ठ से शब्द मेरे ,
आनन से नहीं निकलते--8
भाव सुमन चुन चुन करके ,
उसका श्रृंगार रचाऊँगी ।
बहते आँसू की धारा से ,
उसको स्नान कराऊँगी--9
वस्त्र पहनाकर प्रेम भाव के ,
प्राण प्रतिष्ठा कर दूँगी ।
नयन ज्योति की प्रेम प्रभा से ,
मन्दिर जगमग कर दूँगी--10
बात चली लम्बी दोनों की ,
पल जाने का हो आया ।
बढ़ी वेदना प्रेमी द्वय की ,
नभ मण्डल थर्राया--11
उस स्थल के जीव चराचर ,
आवाज सुने दौड़े आये ।
स्तब्ध शरीर सभी का था ,
आँखों में आँसू छाये--12
बिपरीत दिशाओं में दोनों ही ,
अपने कदम बढ़ाते थे ।
देख रहे थे आपस में मुड़कर ,
बिरह अश्रु बरसाते थे--13
वह प्रेम दृश्य या बिरह दृश्य था ,
या रजनी के सम था ।
समझ नहीं कोई भी पाया ,
कैसा यह प्रेम समागम था--14
हो चला गगन काला - काला ,
घनघोर घटा घिर आई ।
प्रेमी द्वय की पीड़ा मानों ,
उर मेंघन के छाई--15
घुमड़- घुमड़ कर रोष दिखाते ,
रह रह गर्जन करते ।
ना जाओ तुम ना जाओ ,
मानों यह रह रह कहते--16
क्रोध बिनय करते करते ,
उनको असफलता ज्ञात हुई ।
जाना उनकी मजबूरी है ,
यह बात हृदय में ज्ञात हुई--17
मानी हार बादलों ने भी ,
तब बूँदा बाँदी शुरूँ हुई ।
टपक रहे थे बूँद धरा पर ,
नवल कहानी शुरूँ हुई--18
रह रह झोंके तीब्र पवन के ,
उनके बदन को छूते ।
चले जा रहे दोनों प्रेमी ,
नयी कहानी कहते--19
आशीर्वाद स्वरूप एकाएक ,
बारिश भी अब तेज हुई ।
शिव और शिवा के लिए कँटीली ,
डगर प्रेम की सेज हुई--20
नयी कहानी विरह भाव की ,
आज यहीं शुरुआत हुई ।
नील निलय के सुमन कोश से ,
सुमनों की बरसात हुई--21
शिवा चली मोहनी नगर ,
शिव अपलक उसे निहार रहा ।
हारे और थकी वाणी से ,
शिवा शिवा चीत्कार रहा--22
चली जा रही घायल वियोगिनी ,
तन भी नहीं सँभलता था ।
अस्त व्यस्त थे वसन शिवा के ,
मानों पुतला सा चलता था--23
पैर जमाये खड़ा हुआ था ,
ठगा- ठगा सा लगता था ।
बना हुआ पाषाण मूर्ति सा ,
मुरझाया सा लगता था--24
वह लगा सोचने मन में ,
मैंने क्या खोया क्या पाया ।
मुझको जो था प्राप्त प्रकृति से ,
आज सभी हूँ गँवाया--25
हे दाता मुझको बतलाओ ,
कैसे हम जी पायेंगे ।
शिवा नहीं तो दिवा नहीं ,
रजनी में हम घबरायेंगे--26
सूर्य हुआ अस्ताचलगामी ,
रात अँधेरी आई ।
घनघोर वेदना शिव में थी ,
आँखें भी थी पथराई--27
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प्रेम कलश |
"" पंचम सर्ग ""
'' शिवा के प्रेम नगर ( मोहनी नगर ) का चित्रण एवम नायक- नायिका ( शिव - शिवा ) का महामिलन "
अंत में शिव और शिवा दोनों का महा मिलन होता है ।अंततोगत्वा दोनों उसी प्रेम कलश में समाहित होते हैं , जिस प्रेम कलश से उनकी उत्पत्ति हुई थी । यहीं पर टूटा हुआ प्रेम कलश पूर्ण हो जाता है । साथ ही प्रेम कलश खण्ड काव्य भी पूर्ण होता है । ""
मोहनी नगर था मनमोहक ,
सौन्दर्य नियति से सजा हुआ ।
जहाँ प्रकृति सुषमा बिखेरती ,
वन उपवन से भरा हुआ-- 1
था दृश्य विहंगम हरियाली का ,
तोरण द्वार सजे थे ।
नव किसलय अगवानी करते ,
उनके माथ झुके थे-- 2
सम शीतोष्ण रहा मौसम ,
औ निर्मल धरा गगन था ।
चप्पे चप्पे में चेतना नयी थी ,
कण कण हुआ मगन था-- 3
मोहनी नगर को विश्वकर्मा ने ,
रूप अलौकिक दान किया ।
पग पावन पड़ते ही शिवा के ,
प्रेम नगर का रूप लिया-- 4
प्रेम नगर के प्रेम कुन्ज में ,
प्रेम नाद भर आई ।
कोयल गण के कोमल कंठो नें ,
मुरली मधुर बजाई-- 5
सतरंगी परिधान बनाकर ,
धरती हर्षित होती थी ।
आनन्द अखंड प्रकाश किरण आ ,
बीज प्रेम के बोती थी-- 6
फूलों के छन्दों से प्यारी ,
आवाज़ मधुर आती थी ।
रस भरे सुरीले लय तानो से ,
संगीत प्रेम की आती थी-- 7
शिवा चली तब प्रेम भवन को ,
जिसकी छँटा निराली थी ।
प्रेम रंग में सजा हुआ था ,
जिसकी प्रभा निराली थी-- 8
भवन मध्य में शयनकक्ष था ,
जहाँ शिवा आराम किया ।
अत्यंत थकी हारी थी शिवा ,
सो पूर्ण रूप विश्राम किया-- 9
था स्वच्छ प्रशासन प्रेम नगर का ,
वितरित सबको काम रहा ।
प्रेमा , मृगनयनी , कमला थी ,
और लालिमा नाम रहा--10
सादर मिलना आगन्तुक से ,
मृगनयनी ही करती थी ।
आवभगत के प्रेम सुमन भर ,
डलिया में रखती थी--11
चरण चाप कर सेवा करना ,
जिसका सेवा काम रहा ।
बदन दबा कर दर्द मिटाना ,
प्रेमा उसका नाम रहा--12
नित्य सुबह प्रक्षालन करके ,
गृह को स्वच्छ बनाती थी ।
प्रेम सदन के दीवारों पर ,
सुन्दर चित्र सजाती थी--13
दैनिक मासिक और वार्षिक ,
नित्य सफाई होती थी ।
कमला कुशल सभी कामों में ,
नींद चैन के सोती थी--14
पाककला की पारंगत जो ,
व्यंजन विविध बनाती थी ।
लालिमा दक्ष थी पंडित थी ,
जो गीत मनोहर गाती थी--15
लालिमा स्वच्छ थी सुन्दर थी ,
वह सुडौल शरीर लिये थी ।
मुखमण्डल पर थी अजब लालिमा ,
प्रेम प्रकाश लिये थी--16
प्रेम मूर्ति सी थी प्रेमा ,
जो प्रेम रंग बरसाती थी ।
प्रेम वदन के प्रेम नयन से ,
प्रेम भाव दर्शाती थी--17
मृगनयनी के भाव निराले ,
नयन कँटीले थे उसके ।
कान्ति युक्त था आनन उसका ,
शब्द रसीले थे उसके--18
कमलानन था कमल सरीखे ,
कंज समान खिली थी ।
देवी लगती प्रक्षालन की ,
माथे मोती बूँद खिली थी--19
प्रेमा जगी शिवा से बोली ,
जग जाओ अब भोर हुआ ।
तरुओं की डाली पर देखो ,
पक्षी गण का शोर हुआ--20
नभमन्डल से लाल लालिमा ,
लाल रंग ले आई ।
दिनकर की पावन प्रभा पुन्ज से ,
मोहनी नगर था मनमोहक ,
सौन्दर्य नियति से सजा हुआ ।
जहाँ प्रकृति सुषमा बिखेरती ,
वन उपवन से भरा हुआ-- 1
था दृश्य विहंगम हरियाली का ,
तोरण द्वार सजे थे ।
नव किसलय अगवानी करते ,
उनके माथ झुके थे-- 2
सम शीतोष्ण रहा मौसम ,
औ निर्मल धरा गगन था ।
चप्पे चप्पे में चेतना नयी थी ,
कण कण हुआ मगन था-- 3
मोहनी नगर को विश्वकर्मा ने ,
रूप अलौकिक दान किया ।
पग पावन पड़ते ही शिवा के ,
प्रेम नगर का रूप लिया-- 4
प्रेम नगर के प्रेम कुन्ज में ,
प्रेम नाद भर आई ।
कोयल गण के कोमल कंठो नें ,
मुरली मधुर बजाई-- 5
सतरंगी परिधान बनाकर ,
धरती हर्षित होती थी ।
आनन्द अखंड प्रकाश किरण आ ,
बीज प्रेम के बोती थी-- 6
फूलों के छन्दों से प्यारी ,
आवाज़ मधुर आती थी ।
रस भरे सुरीले लय तानो से ,
संगीत प्रेम की आती थी-- 7
शिवा चली तब प्रेम भवन को ,
जिसकी छँटा निराली थी ।
प्रेम रंग में सजा हुआ था ,
जिसकी प्रभा निराली थी-- 8
भवन मध्य में शयनकक्ष था ,
जहाँ शिवा आराम किया ।
अत्यंत थकी हारी थी शिवा ,
सो पूर्ण रूप विश्राम किया-- 9
था स्वच्छ प्रशासन प्रेम नगर का ,
वितरित सबको काम रहा ।
प्रेमा , मृगनयनी , कमला थी ,
और लालिमा नाम रहा--10
सादर मिलना आगन्तुक से ,
मृगनयनी ही करती थी ।
आवभगत के प्रेम सुमन भर ,
डलिया में रखती थी--11
चरण चाप कर सेवा करना ,
जिसका सेवा काम रहा ।
बदन दबा कर दर्द मिटाना ,
प्रेमा उसका नाम रहा--12
नित्य सुबह प्रक्षालन करके ,
गृह को स्वच्छ बनाती थी ।
प्रेम सदन के दीवारों पर ,
सुन्दर चित्र सजाती थी--13
दैनिक मासिक और वार्षिक ,
नित्य सफाई होती थी ।
कमला कुशल सभी कामों में ,
नींद चैन के सोती थी--14
पाककला की पारंगत जो ,
व्यंजन विविध बनाती थी ।
लालिमा दक्ष थी पंडित थी ,
जो गीत मनोहर गाती थी--15
लालिमा स्वच्छ थी सुन्दर थी ,
वह सुडौल शरीर लिये थी ।
मुखमण्डल पर थी अजब लालिमा ,
प्रेम प्रकाश लिये थी--16
प्रेम मूर्ति सी थी प्रेमा ,
जो प्रेम रंग बरसाती थी ।
प्रेम वदन के प्रेम नयन से ,
प्रेम भाव दर्शाती थी--17
मृगनयनी के भाव निराले ,
नयन कँटीले थे उसके ।
कान्ति युक्त था आनन उसका ,
शब्द रसीले थे उसके--18
कमलानन था कमल सरीखे ,
कंज समान खिली थी ।
देवी लगती प्रक्षालन की ,
माथे मोती बूँद खिली थी--19
प्रेमा जगी शिवा से बोली ,
जग जाओ अब भोर हुआ ।
तरुओं की डाली पर देखो ,
पक्षी गण का शोर हुआ--20
नभमन्डल से लाल लालिमा ,
लाल रंग ले आई ।
दिनकर की पावन प्रभा पुन्ज से ,
रुद्रनाथ चौबे |
धरती है छवि पाई--21
बिखरी ओस कणों की बूँदें ,
ना जानें कब दूर हुई ।
खिली कुमुदिनी की आशाएँ ,
किरणों से अब चूर हुईं--22
चहक रहे खग वृन्द हवा में ,
आनन्दित हो मस्त हुए ।
कुछ क्षुधा तृप्ति की आशा में थे ,
भ्रमण कार्य में व्यस्त हुए--23
सरोवर समीप सूरज की किरणें ,
आकर जल से खेल रहीं ।
बहते शीतल वायु वेग की ,
लहरों को हैं झेल रहीं--24
सविता आकर्षक किरणों ने ,
जल को सुनहरा रंग दिया ।
मानों जीवन यापन करने का ,
एक अनोखा ढंग दिया--25
बन्द गुलाब की पंखुड़ियों में ,
जो भ्रमर रात भर व्याकुल था ।
तम के मारे तड़प रहा जो ,
बाहर आने को आकुल था--26
छिन्न भिन्न कर तिमिर दलों को ,
अलि का बन्धन काट दिया ।
मुक्त कराकर सुमन पाश से ,
रवि ने जीवन दान दिया--27
पर्वत के उन्नत शिखरों पर ,
अब किरणों का ही राज हुआ ।
सिंह गर्जना के साथ धरा पर ,
सविता का ही राज हुआ--28
समय बदलता रहता प्रतिक्षण ,
यह एक अकाट्य नियम है ।
साथ समय के चलना ही तो ,
जीवन का संयम है--29
प्रेमा की प्रेम भरी वाणी का ,
जब शिवा श्रवण रसपान किया ।
उठी तरंगें बेसुध तन में ,
जग कर शिव का नाम लिया--30
नित्य क्रिया से हो निवृत्त ,
ठंडे जल से स्नान किया ।
प्रेम नगर के भ्रमण हेतु वह ,
सखियों संग प्रस्थान किया--31
नये नये कौतूहल पथ में ,
उन सबको आकर्षित करते ।
सौन्दर्य विविध पथ में पड़ते पर ,
नहीं शिवा को हर्षित करते--32
सामने सरोवर आया तो ,
दिखा अनोखा दृश्य वहीं ।
एक पक्षियों का जोड़ा ,
आनन्दित करता नृत्य वहीं--33
बेसुध होने लगी शिवा ,
मन में शिव याद समायी ।
पड़े धरा पर घायल शिव की ,
आज याद है आयी--34
गिर गई अवनि पर हो अचेत ,
अपने शिव को आवाज़ दिया ।
आ जाओ आखिरी मिलन है ,
लटपट स्वर में फरियाद किया--35
हाहाकार पुकार चली ,
शिव जहाँ अचेत पड़ा था ।
कन्टकाकीर्ण कृस गात बना ,
धरती पर निश्चेत पड़ा था--36
वेदना समन्वित मर्माहत ,
वाणी जब मुख से उच्चरित हुई ।
संचार बनाकर मन तारों को ,
गतिमान वहाँ से त्वरित हुई--37
सहसा धधकी बिरह अनल ,
शिव का उर झकझोर उठा ।
खड़ा एकाएक हुआ धरा पर ,
शिवा शिवा का शोर उठा--38
गतिमान हुआ तब वायुवेग से ,
शिवा समीप वह जा पहुँचा ।
रुक जा मत जा छोड़ मुझे ,
मैं तुमसे मिलने आ पहुँचा--39
शिवा सुनी शिव की वाणी ,
तब आशा भरे नयन खोली ।
आर्तनाद औ बुँद बुँद स्वर में ,
शिव को देख रही बोली--40
दो हाथ मेरे हाथों में ,
औ अभी करो यह वादा ।
अन्तिम यात्रा साथ चलेगी ,
टूटेगा ना यह वादा--41
इतना कहते -सुनते ही ,
चारों नम आँखें बन्द हुई ।
इंगला पिंगला और सुषुम्ना ,
इन सबकी गतियाँ मन्द हुई--42
चल पड़े आखिरी बार साथ ,
चर अचर रुदन करते थे ।
गगन झरा दिनकर मिल सारे ,
रह रह आहें भरते थे--43
देख दशा दोनों क सबने ,
हाथ जोड़ सम्मान किया ।
कमला प्रेमा लालिमा मृगी ने ,
नमीभूत प्रस्थान किया--44
प्रेम कलश हो गया पूर्ण ,
दोनों ही उसमें वास किये ।
जगत् देखता रहा उन्हें ,
शिव शिवा आखिरी साँस लिये--45
रचनाकार - पंडित रूद्र नाथ चौबे ( "रूद्र")
सहायक अध्यापक - पूर्व माध्यमिक विद्यालय रैसिंह पुर , शिक्षा क्षेत्र - तहबरपुर , जनपद - आजमगढ़ , उत्तर प्रदेश ( भारत )
ग्राम- ददरा ,पोस्ट- टीकपुर , जनपद- आजमगढ़ , उत्तर प्रदेश ।
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बिखरी ओस कणों की बूँदें ,
ना जानें कब दूर हुई ।
खिली कुमुदिनी की आशाएँ ,
किरणों से अब चूर हुईं--22
चहक रहे खग वृन्द हवा में ,
आनन्दित हो मस्त हुए ।
कुछ क्षुधा तृप्ति की आशा में थे ,
भ्रमण कार्य में व्यस्त हुए--23
सरोवर समीप सूरज की किरणें ,
आकर जल से खेल रहीं ।
बहते शीतल वायु वेग की ,
लहरों को हैं झेल रहीं--24
सविता आकर्षक किरणों ने ,
जल को सुनहरा रंग दिया ।
मानों जीवन यापन करने का ,
एक अनोखा ढंग दिया--25
बन्द गुलाब की पंखुड़ियों में ,
जो भ्रमर रात भर व्याकुल था ।
तम के मारे तड़प रहा जो ,
बाहर आने को आकुल था--26
छिन्न भिन्न कर तिमिर दलों को ,
अलि का बन्धन काट दिया ।
मुक्त कराकर सुमन पाश से ,
रवि ने जीवन दान दिया--27
पर्वत के उन्नत शिखरों पर ,
अब किरणों का ही राज हुआ ।
सिंह गर्जना के साथ धरा पर ,
सविता का ही राज हुआ--28
समय बदलता रहता प्रतिक्षण ,
यह एक अकाट्य नियम है ।
साथ समय के चलना ही तो ,
जीवन का संयम है--29
प्रेमा की प्रेम भरी वाणी का ,
जब शिवा श्रवण रसपान किया ।
उठी तरंगें बेसुध तन में ,
जग कर शिव का नाम लिया--30
नित्य क्रिया से हो निवृत्त ,
ठंडे जल से स्नान किया ।
प्रेम नगर के भ्रमण हेतु वह ,
सखियों संग प्रस्थान किया--31
नये नये कौतूहल पथ में ,
उन सबको आकर्षित करते ।
सौन्दर्य विविध पथ में पड़ते पर ,
नहीं शिवा को हर्षित करते--32
सामने सरोवर आया तो ,
दिखा अनोखा दृश्य वहीं ।
एक पक्षियों का जोड़ा ,
आनन्दित करता नृत्य वहीं--33
बेसुध होने लगी शिवा ,
मन में शिव याद समायी ।
पड़े धरा पर घायल शिव की ,
आज याद है आयी--34
गिर गई अवनि पर हो अचेत ,
अपने शिव को आवाज़ दिया ।
आ जाओ आखिरी मिलन है ,
लटपट स्वर में फरियाद किया--35
हाहाकार पुकार चली ,
शिव जहाँ अचेत पड़ा था ।
कन्टकाकीर्ण कृस गात बना ,
धरती पर निश्चेत पड़ा था--36
वेदना समन्वित मर्माहत ,
वाणी जब मुख से उच्चरित हुई ।
संचार बनाकर मन तारों को ,
गतिमान वहाँ से त्वरित हुई--37
सहसा धधकी बिरह अनल ,
शिव का उर झकझोर उठा ।
खड़ा एकाएक हुआ धरा पर ,
शिवा शिवा का शोर उठा--38
गतिमान हुआ तब वायुवेग से ,
शिवा समीप वह जा पहुँचा ।
रुक जा मत जा छोड़ मुझे ,
मैं तुमसे मिलने आ पहुँचा--39
शिवा सुनी शिव की वाणी ,
तब आशा भरे नयन खोली ।
आर्तनाद औ बुँद बुँद स्वर में ,
शिव को देख रही बोली--40
दो हाथ मेरे हाथों में ,
औ अभी करो यह वादा ।
अन्तिम यात्रा साथ चलेगी ,
टूटेगा ना यह वादा--41
इतना कहते -सुनते ही ,
चारों नम आँखें बन्द हुई ।
इंगला पिंगला और सुषुम्ना ,
इन सबकी गतियाँ मन्द हुई--42
चल पड़े आखिरी बार साथ ,
चर अचर रुदन करते थे ।
गगन झरा दिनकर मिल सारे ,
रह रह आहें भरते थे--43
देख दशा दोनों क सबने ,
हाथ जोड़ सम्मान किया ।
कमला प्रेमा लालिमा मृगी ने ,
नमीभूत प्रस्थान किया--44
प्रेम कलश हो गया पूर्ण ,
दोनों ही उसमें वास किये ।
जगत् देखता रहा उन्हें ,
शिव शिवा आखिरी साँस लिये--45
* " समाप्त " *
रचनाकार - पंडित रूद्र नाथ चौबे ( "रूद्र")
सहायक अध्यापक - पूर्व माध्यमिक विद्यालय रैसिंह पुर , शिक्षा क्षेत्र - तहबरपुर , जनपद - आजमगढ़ , उत्तर प्रदेश ( भारत )
ग्राम- ददरा ,पोस्ट- टीकपुर , जनपद- आजमगढ़ , उत्तर प्रदेश ।
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बहुत सुन्दर काव्य संग्रह है
जवाब देंहटाएं🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
बहुत सुंदर
हटाएंWah kamal ki prem ki abhivyakti awesome dil ko jhakjhor denevala.
जवाब देंहटाएंशानदार अभिव्यक्ति मनमोहक काव्य संकलन
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कविता
जवाब देंहटाएंअनुपम काव्य
जवाब देंहटाएंवाकयी अनुपम खन्ड काव्य है आदरणीय चौबे जी !
जवाब देंहटाएं" प्रेम कलश " जैसी मनमोहक और उत्कृष्ट रचना के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद
वाकयी अनुपम खन्ड काव्य है आदरणीय चौबे जी !
जवाब देंहटाएं" प्रेम कलश " जैसी मनमोहक और उत्कृष्ट रचना के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद
कवि वाणी
जवाब देंहटाएंप्रकृति के प्रति कवि के बढ़ते,
अनुराग को मैं देखता हूं।
उसके समान बनने की,
लालसा मैं रखता हूं।
अक्षुब्द तीव्र गामी उसके,
मन को मैं देखता हूं।
चल उसके समान चलने,
का साहस करता हूं।
उसके सौन्दर्य,स्वच्छ,चंचल,
मन को पढ़ता हूं।
यथा वैसे बनने का,
चाह मैं रखता हूं।
उसके औरों के प्रति धीरे-धीरे,
वाणी को चलते देखता हूं।
मेरे मन की ईर्ष्या,लालच त्यागने,
की अनुराग परीपूर्ण दुवा को मांगता हूं।
गोमुखी गंगा के समान,
बहते प्रवाह को देखता हूं।
मन की तृष्णा को उज्वल,
करता मैं प्रभु फिरता हूं।
शशि-रवि दिशा-दीप्त,
करता कवि का मन देखूं।
उसके प्रभा से विनोद,
हृदय को मैं सींचू।
नीरनिधि मन,तन,जन के प्रति,
बहते वेग को जब देखूं।
पूर्ण स्वार्थ,कठोर हृदय को,
रवि के सम्मुख पिघलाता हूं।
सरस्वती-गंगा जन के प्रति,
बहते उसका देखता हूं।
स्वयं लज्जित मन---
रोदन जल से काया को,
पुनः सिंचता हूं।
आदरणीय विशाल जी ! मेरे खन्ड काव्य ' प्रेम कलश' के प्रति आपके हृदय स्पर्श भाव बहुत ही अनुपम हैं ।
जवाब देंहटाएंआपकी ऐसे मनोहारी भावाभिव्यक्ति के लिए आपको बहुत बहुत सप्रेम धन्यवाद एवं बँधाई मित्र !