आखिरी पन्ना मैं पहाड़ों की श्रृंखलाओं में कुछ किताबें पढ़ने गया था, कुछ अच्छा सुनने की चाहत मुझे खींचकर ले गयी थी एक वृद्धाश्रम में हाँ,वहीं जहाँ कोई
आखिरी पन्ना
मैं पहाड़ों की श्रृंखलाओं में
कुछ किताबें पढ़ने गया था,
कुछ अच्छा सुनने की चाहत
मुझे खींचकर ले गयी थी
एक वृद्धाश्रम में
हाँ,वहीं जहाँ
कोई आना–जाना नहीं चाहता!
मुझे मेरी सहनशक्ति पर गर्व था,
सुनने की अपार शक्ति थी मुझमें,
चट्टानी छाती में एक बड़ा कलेजा लिए;
मेरी रेगिस्तान जैसी आँखों ने देखा–
शवासन में लेटे
ग्लेशियर जैसे ठहरे हुए लोग;
उन्होंने ना कुछ देखा,ना बोला और
ना ही कुछ सुना
सिर्फ देखते रहे मुझे
ढूँढते रहे मुझमें–
अपना बचपन,अपनी जवानी,
अपनी गलतियाँ और
अपने रिश्तों की दुनिया |
मेरी आँखें सागर हुईं,
जिगर चाक हुआ,
शब्द गूँगे हो गए
मैं लौट रहा हूँ जिंदगी के
इस आखिरी जिन्दा पड़ाव से
इनकी आँखों में
सिर्फ एक ही भाषा जिन्दा है–
ढाई आखर की
उम्मीदों के इस रेगिस्तान में
चिंता,दुःख,हर्ष.....का प्रवेश मना है|
चौकीदार ने पूछा
किनसे मिलना है साहब?
मैंने कहा–
मैं अपने स्वयं के
भविष्य से मिलने आया हूँ
मैंने यहाँ देखा-
मौत के इंतज़ार की मरीचिका में
इन खुली किताबों का
आखिरी पन्ना कोरा है
बिलकुल कोरा
कफ़न जैसा शुभ्र,धवल....|
..... ..... .....
परिवर्तन
सीने में उपजे दर्द के
लावा का बर्फ बन जाना
पर्याप्त होता है
पागल करने के लिए ;
यहीं आवाजें
सिसकियां बन मर जाती हैं
जब आसमानों में
कब्जा करने की होड़ मची हो और
इंसानी चाहतों के लिए
छोटी पड़ने लगे यह धरती
अजीब शगल है श्रीमंत कि-
यहाँ गाँव के गाँव गुमशुदा हो रहे हैं
और वहाँ व्यवस्था का
ऐरावत सुस्ता रहा है।
यहाँ भीतर का कोलाहल
धधकने लगा है और
वहाँ सुखों की चकाचैंध दुनिया
हिंडोले झूल रही है
इसी सभ्यता की कोख से उपजे हैं-
भय, भूख, भ्रष्टाचार जैसे अपराध और
मौत के ग्रास बन चुके हैं-
माफी, धन्यवाद एवं
अदब के शब्दकोष ;
शहरी पर्यावास लोगों को अपनी
सम्मोहनी पाश में बाँधे रखना चाहती है,
ऐसे महान इंसानो की दुनिया में
बोनसाई को देखा तो लगा की
इन्हें कनबुच्ची की सजा दी गई है।
संस्कृति की लहलहाती फसल से दूर
जमीर बेचकर
तलवे चाटती सभ्यता के बीच
मेरे मन का गाँव मरघट को गया
सुधियों के तहखानों से
समर्पण की अभिलाषा अंगड़ाई लेने लगी
अचानक तभी सांसो की सरगम से
शहनाई का स्त्रोत फूट पड़ा और
मेरा पतझर मन बसंत होकर
पुष्पित, पल्लवित होने लगा
इन दिनों मैं अपने रास-उल्लास को
मोरपंख सा रंग देने
विचारों की कूची धो रहा हूँ
क्योंकि मैं परिवर्तन का प्रहरी हूँ
अपने गाँव और हरियाली को
लक्ष्मण रेखा में नहीं रोकना चाहता।
..... ..... ..... .....
इन दिनों
अक्षरी दुनिया के तट पर
अंकों के फैले मायाजाल को
बाजार के मोहपाश ने बाँध रखा है
इनकी छाया में बड़े होते ही लोग
देश छोड़ कर उड़ जाते है।
जैसे हर रात कई भूखे सोते हैं,
जैसे रोज कई
कन्या भ्रूण हत्या होती है,
जैसे रोज कई
भाषाएँ गुम होती हैं और
जैसे रोज कई
एफ.आई.आर.हो जाते है।
ठीक ऐसे ही इन दिनों लोग अपना
रमेश कुमार सोनी |
पासवर्ड और यूसरनेम भूलने लगे हैं
डिलीट मोड में
घुस चुकी है दुनिया
तुम्हें आम, इमली के
बीज का मोल नहीं पता
ये मेरे बचपन के
खिलौने हुआ करते थे
गुमनामी में इस अथाह दलदल में
लोगो को सिर्फ याद है-
मौसम, राजनीति और
इ.एम.आई. की बातें,
सोशल मीडिया के
धोखे की दुनिया में
सिंधुघाटी की संस्कृति के
चित्रलिपि का
नया वर्जन स्माईली
काश तुम्हें मुस्कुराहट दे पाता।
न तो लोग दधीची सा व्रतधारी हैं और
ना ही अहल्या सी शापित
फिर खामोशी का यह नाटक क्यों?
काश तुम्हें याद होता
क्या हो रहा है तुम्हारे आस-पास?
बांबी बन गए हैं घर सारे
शक, संदेह और
अविश्वासों के नाग पाले
काश,तुमने इस दुनिया को
कभी अपना समझा होता,
हर पल का हिसाब लेने
निकल पड़े हैं-यमदूत
फौलादी संकल्पों को डैने में समेटे
परिंदे उड़ चुके हैं
सुकून मॅाल में जब से बिकने लगा
तब से दिल उदास सा है
इन दिनों क्योंकि-
मेरा मन सैलानी पक्षी सा हो गया है...।
..... ..... .....
भूख के आस-पास
भूख लगी है कहने पर
भरी थाली के फोटो भेजे जाते हैं!
काश करमजली भूख
फोटो से मर जाया करती,
सोशल मीडिया की
बेड़ियों में बंधा है आदमी
किसी भटकती हुई आत्मा की तरह
लाइक्स, कमेंट्स और फॉलो की
दुनिया में
खामोशी पसर रही है
ट्रोलिंग के समक्ष
आत्मसमर्पण करती दुनिया के शब्द
लिपि की सखी बन चुकी है।
भूख, सूर्य के साथ आती-जाती है
विरासत में मिली भूख-
तंगहाली और व्याकुल आँसुओं की हाला
दोस्त बन चुकी है
यहाँ काबिलियत एक गाली है साहब,
यहाँ कौड़ी कीमत नहीं ईमानदार डिग्रियों की,
अपना अवशेष लिए घूम रहे हैं लोग,
जबकि चुनावी अतिथि लौट चुके हैं
आश्वासनों को गर्भधारण करवा के।
ओ दुनियावी चौसर के राजा
क्या करोगे इतने बम, बारूद, गोली?
महाभारत पढ़ो, किस पर शासन करोगे?
तुम्हारी शहरी सभ्यता में
चापलूसों की खेती और
संडासों की बदबू तुम्हें मुबारक
और कितनी कन्या भ्रूणहत्या करोगे?
कभी हकीकत में भेजिएगा-
रोशनी के महावर सजाए पाँव,
आशाओं का मधुभास
और बना देना कभी फुरसत में
रोजगार के कबीलों की ओर युवा पगडंडी
जहाँ भोजन पकाती धूप उन्मुक्त हो....।
..... ..... .....
- रमेश कुमार सोनी
रायपुर ,छत्तीसगढ़
पिन -492099
संपर्क -7049355476
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