दूल्हा बने अंशुमान बाबू माथे पर चमकीले मउरी धारण किये हतप्रद थे I उन्हें तो अपनी व्याह की पड़ी थी, जबकि उनके पिता को अपनी दहेज स्वरूप लक्ष्मी की I
दहेज दानव
बंद करो ये शादी के फेरे-वेरे I अब यह शादी नहीं होगी I” – किसी घायल शेर की दहाड़ के समान बंशी बाबू का गंभीर गर्जन रंग-बिरंगे कपड़ों, कागजों और लघु टिमटिमाते बिजली की रंगीन बत्तियों से सजे विवाह-आँगन में गूंज उठा I वह क्रोधातुर तमतमाए विवाह मण्डप में प्रवेश किये I दूल्हा बने अपने पुत्र अंशुमान बाबू की बाँह पकड़ कर मंडप से खींचने लगे, जो अपनी होने वाली दुल्हन के साथ फेरे ले रहा था I बंशी बाबू की यह असम्भावित क्रिया-कलाप को देखकर विवाह मण्डप में और उसके इर्द-गिर्द बैठे बाराती-सराती के लोग हतप्रद हो गए I मंगल गीत गा रही महिलाओं के स्वर सहित ढोल पर पड़ते ठप्पे भी अचानक बंद हो गए I दो-तीन औरतें जो गीत गाते-गाते नींद की खुमार में अर्धंनिंद्रा की अवस्था में थीं, उनकी लालिमा युक्त आँखें आश्चर्य से बड़ी हो गईं I
“बार-बार कहने पर भी दहेज की बाकी रकम के लिए टाल-बहाना किये जा रहे हैं I पहले कहे, शादी के पहले दे देंगे, फिर द्वार पर बारात के आते ही दे देंगे, फिर बोले मंडप में चौका-पूजन पर दे देंगे, अब तो सिंदूरदान भी हो गया I फेरे लग रहे हैं I अब कब देंगे? मुझे ही आपने बेवकूफ समझ रखा है I हाँ! मैं तो बेवकूफ ही हूँ, अन्यथा बारात आपके द्वार पर क्यों लेकर पहुँचता I” – क्रोध से तमतमाते बड़ी-बड़ी आँखें निकालते वह लगातार गरजते जा रहे थे I क्रोध के कारण उनका चेहरा भी सिन्दुरिया लाल हो चला था I
‘समधी साहब! शुभ कार्य में बाधा न डालिए I जैसे विवाह के अब तक की रस्में पूरी हुईं, उसी तरह से इस रस्म को भी पूर्ण होने दीजिए I आपसी मामला को जग जाहिर करने से क्या लाभ होगा? हमारी और आपकी इज्जत क्या अब अलग-अलग है? हम दहेज़ के एक-एक पाई चूका देंगे I बस थोड़ा-सा मोहलत मुझे और दे दीजिए I’ – बलराज बाबू गिड़गिड़ाते हुए विनयातुर कहे I
‘कैसा समधी? कौन समधी? जब शादी ही नहीं होगी, तो समधी कैसा? जब से बातें हुई हैं, तब से ही मैं देख रहा हूँ कि आप केवल टाल-बहाना बनाये जा रहे हैं I अरे, जब औकात ही नहीं है, तब मेरे द्वार पर आये ही क्यों? क्या मैंने आपको निमंत्रण पत्र देकर बुलावा भेजा था? एक से बढ़कर एक अमीर कुटुंब हमारे द्वार पर आयें I मैंने उन्हें आपकी योग्य कन्या के नाम पर उन सबको मना कर दिया I पर, इसका मतलब तो यह नहीं कि मैं अपना खेत बेच कर अपने सुयोग्य लड़के का व्याह करूँ I मुझे नहीं चाहिए ऐसी योग्य बहु, जो ससुराल आते ही खेत-खलिहान और घर-द्वार नीलम करवा देवे I रखिये अपनी योग्य लड़की अपने पास I’ – क्रोध से बंशी बाबू काँप रहे थे I उनके क्रोध को शांत करना अब किसी के वश में नहीं था I गाँव-समाज की इज्जत की बात थी I अतः गाँव के कई बुजूर्ग आगे बढ़े और हाथ जोड़ कर हो रहे रस्म को पूरी होने देने की प्रार्थना करने लगे I
‘हम आपसे बाहर थोड़े ही हैं I आपके घर अपनी बेटी व्याह रहे हैं, तो हम आपके आजीवन ऋणी ही रहेंगे I आपके ऋण से हम मुक्त भला कैसे हो सकते हैं ?’ – गाँव के ही एक बुजुर्ग हाथ जोड़े बंशी बाबू से निवेदनपूर्वक कहे, जो गोतिया में बलराज बाबू के चाचा शिवचरण जी थे I
पर इस समय बंशी बाबू लोभ जनित दम्भ के ऊँचे हाथी पर सवार थे, जहाँ बलराज बाबू के जमीनी खाली हाथों की प्रार्थना नहीं पहुँच सकती थी I वह तो बलराज बाबू के जमीन पर पड़े उस पगड़ी को भी अपने सिर पर धारण कर लेते, अगर उस पगड़ी में लक्ष्मी का वास होता I
‘नहीं पिताजी! इनकी बातों में आप मत आइये I ये सब हमें बेवकूफ बना रहे हैं, और कुछ नहीं I’ – बड़े ही रोबीले स्वर में बंशी बाबू का दामाद रोहन बाबू ने कहा I आखिर रोहन बाबू को भी तो अपने साले की शादी में रोब-प्रदर्शन का विशेष अधिकार मिलना चाहिए, कि नहीं I अन्यथा, कोई जानेगा कैसे कि यही सज्जन दूल्हा बाबू के बहनोई हैं I रोहन बाबू अपने श्वसुर बंशी बाबू से प्राप्त दहेज रुपी चाँदी के प्रसाद को ही चढ़ाकर आज जिला दफ्तर में एक क्लर्क हैं I अपने श्वसुर का वह आज उतना साथ दे रहे थे, जितना कि उन्होंने कभी अपने पिता का साथ
न दिया होगा I दूल्हा बने अंशुमान बाबू माथे पर चमकीले मउरी धारण किये हतप्रद थे I उन्हें तो अपनी व्याह की पड़ी थी, जबकि उनके पिता को अपनी दहेज स्वरूप लक्ष्मी की I दूल्हा अंशुमान बाबू कुछ समझ न पा रहे थे कि क्या करें? पिता का साथ देवें या फिर अधूरे फेरे को पूरा करें I वह अपनी स्थिति से पूर्ण वाकिफ हैं I अतः वह पितृभक्त बन पिता का ही साथ देना हितकर समझें I पिता के बिना तो वह ‘जल बिन मीन’ हो जायेंगे I पिता के विरूद्ध बगावत नहीं कर सकते हैं I बगावत के लिए हिम्मत आधार होती है, जो उनके पास न थी I
कुछ औरतों में भी कानाफूसी हुई I निष्कर्ष निकला कि औरत के आँसू में पत्थर दिल को भी पिघला देने की शक्ति निहित होती है I आँसू की डोर को भी अजमा कर देखा जाय I फिर पारिवारिक मर्यादा को तोड़कर बलराज बाबू की पत्नी सुलोचना देवी भी बारातियों के बीच मण्डप में जा पहुँची और अपने हाथों से अपने आँचल को पसार कर आँखों से गंगा-जमुनी अश्रूधारा प्रवाहित कर क्रोधातुर बंशी बाबू से अपनी लाडली के सौभाग्य की भीख माँगने लगी I पर जगह और आदमी दोनों ही गलत थे I नारी के आँचल और आँसू भी बंशी बाबू को इस समय लक्ष्मी की चाहत से विमुख न कर सकें I और दूल्हा बने अपने बेटे अंशुमान बाबू के हाथ को पकड़े बंशी बाबू किसी की परवाह किये बिना ही शादी मंडप से निकल पड़े I
पीछे रह गया फूलों से सजा-धजा शादी मंडप, अधूरी व्याही दुल्हन, रोती-तड़पती मातृत्व I पर अभी भी आस की डोर को बलराज बाबू न छोड़े थे I ऐसी अनहोनी घटना उन्होंने अपने जीवन में कभी न देखी थी I शादी व्याह में लोग अक्सर किसी बात पर नाराज अवश्य होते हैं, परन्तु सामाजिकता का भी कुछ ध्यान रखते ही हैं I बलराज बाबू अगर अपने को गिरवी रख कर भी कहीं से उपयुक्त धन पाते तो, लाकर बंशी बाबू के मुँह पर दे मारते I पर लाचार थे I इसीलिए हठी बंशी बाबू के पीछे-पीछे बलराज बाबू अपनी गुलाबी पगड़ी को एक हाथ में थामें चले आ रहे थे, जिसका दूसरा छोर खुल कर जमीन पर साँप-सा लोटता ही जा रहा था I पर बंशी बाबू प्रतिपल उनसे दूर ही होते जा रहे थे I जब कोई उम्मीद न रह गई तब पगड़ी को एक हाथ में थामें वहीं जमीन पर बैठ गए I
आखिर कब तक बैठते रहते I महीनों से बीमारग्रस्त शक्तिहीन रोगी के सामान अपने काँपते पैरों पर उठे I बलराज बाबू तेज गति से धड़कते ह्रदय आँगन में प्रवेश किये I वहीं मुख्य द्वारा की चौखट पर किवाड़ के सहारे ‘धम्म’ से बैठ गए I आँगन से बाराती के सभी लोग तो बंशी बाबू के साथ ही जा चुके थे, सराती के लोग भी अब तक एक-एक कर लोग जा चुके थे I कुछ विशेष सहानुभूति रखने वाले लोग ही रूके हुए थे I अपनी योग्यता के अनुकूल वे लोग बलराज बाबू को समझाने की कोशिश की और फिर वे भी चलते बनें I
विवाह मण्डप की शोभा बढ़ने के लिए जलाये गयें रंगीन दीयों की बत्तियाँ मण्डप में अभी भी जल रही थीं I आंगन में चतुर्दिक फैली बिजली की छोटी-छोटी रंगीन बत्तियाँ भी झिलमिला ही रही थीं I आखिर उनमें कोई मानवीय सम्वेदना थोड़े ही थी? अगर होती, तो अपने सम्मुख हुई असम्भावित घटना को देख कर क्या ये जल पाते? झिलमिला पाते? असम्भव! विवाह-क्रिया में व्यवहृत रंगीन चावल के दाने यत्र-तत्र बिखरे पड़े थे I आँगन में बिछी दरियाँ अस्त-व्यस्त थीं I आठ-दस कुर्सियाँ थीं, जो जहाँ-तहाँ गिरे पड़े थे I जिस आँगन में कुछ समय पहले तक बारातियों व सरातियों के कहकहों तथा मंगल गीतों से रंगीन समाँ बंधा हुआ था, अब वहाँ एक अजीब सा सन्नाटा का आधिपत्य था, जो निरंतर बलराज बाबू को खाए जा रहा था I
सजे-धजे रंगीन आँगन में अब मात्र तीन प्राणी मौजूद थे, तीनों शोकाकुल I दुल्हन बनी लाडली, अभी भी शादी के चौके पर बैठी थी I पर उसका श्रृंगार अब वीभत्स लग रहा था I उसके पीछे ही धरती पर बैठी उसकी माँ सुलोचना निरंतर आँसू बहा रही थी और आँगन के द्वार से ओठंग कर बैठे बलराज बाबू जी I इन तीनों की स्थिरता से प्रतीत हो रहा था कि वे सभी जीवित प्राणी नहीं, बल्कि निर्जीव हैं I खुले दरवाजे से एक कुता प्रवेश किया I बलराज बाबू के सम्मुख कुछ देर ठहरा, उन्हें देखा, फिर निश्चिन्त होकर आंगन में प्रवेश किया और शादी-मंडप के पास पहुँच कर विभिन्न वस्तुओं को सूंघते हुए और अपने खाने के लायक कुछ न पाकर वह जिधर से आया था, उधर ही चला गया I कहीं कोई विरोध नहीं I
बलराज बाबू के बाहर से शांत-गम्भीर शरीर में स्थित मन में विचारों का एक विराट तूफ़ान उमड़ रहा था I इस शोक की घड़ी में भी उनका पागल मन विगत खुशियों के पलों में जा पहुँचा I
आज से कोई बीस वर्ष पहले बलराज बाबू की पहली सन्तान हुई I प्रसव कराने वाली दाई सउरी से बाहर निकली और अपना मुँह लटकाये बलराज बाबू को कन्या जन्म की सूचना दी I बलराज बाबू के दो-चार मित्र, जो सुसंवाद के इंतजार में घर के बाहर बातचीत में लगे थे I
‘लो भाई बलराज! लक्ष्मी जी आ धमकी I आज से ही अब इस लक्ष्मी के लिए लक्ष्मी जमा करो, इसकी व्याह-दहेज के लिए I’ - उन्हीं में से एक ने निराश स्वर में अपना दुःख अभिव्यक्त कर बलराज बाबू के प्रति अपनी सम्वेदना प्रकट की I
‘हम लोग तो यहाँ बैठे रहे कि लड़का होने की ख़ुशी की बधाई देंगे और मिठाइयों पर हाथ साफ करेंगे I अब इस आगत आफत में क्या मिठाई की माँग करें I’ – एक दूसरे व्यक्ति ने अपने गमछे को सम्भाला और लगभग उठते हुए कहा I
पर उस समय बलराज बाबू बहुत प्रसन्न थे I कई वर्षों के बाद उन्हें सन्तान प्राप्ति की मुराद पूरी हुई है I वह अपनी खुशियों को नहीं दबा सकते हैं I उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक कहा, - ‘तो इसमें निराश होने की क्या बात है? लड़का हो या लड़की, यह तो ईश्वर का प्रसाद है I जिसके भाग में जो होता है, उसे वह मिलता ही है I मेरे लिए सन्तान के रूप में यह सरस्वती स्वरूप प्रिय है I और तुम लोग ठहरो, कोई जायेगा नहीं, सभी मिठाई खाकर ही मेरे द्वार से जायेंगे I’ – घर के भीतर प्रवेश किया I उनके हटते ही मित्रों में कानाफूसी होने लगी I
‘क्या करेगा बेचारा? शादी के चार वर्ष बाद घर में कोई सन्तान का जन्म हुआ है I जहाँ कोई उम्मीद ही न हो, वहाँ लड़का हो या लड़की I फिर देखना ही क्या?’ – उनमें से ही किसी ने कहा I
‘बलराज तो खुश इसलिए है कि लड़की के बहाने भी तो घर-आँगन में किलकारियाँ गूँजेगी I अब तो उसे कोई न कहेगा न, कि उसका घर-आँगन बंजर है I’ – गले में गमछे को लपेटते हुए एक मित्र ने कहा I बलराज बाबू को आने की आहत पाकर सब चुप हो गए I बलराज बाबू एक बड़ी थाली में कई लड्डू लेकर आये और अपने मित्रों के बीच रख दिये I
‘लड़का हो या लड़की, मैं तो संतानों में कोई अंतर नहीं मानता हूँ I मेरे लिए दोनों ही प्रिय हैं I जो मिल जाय, स्वीकार कर लो I लो भाई, मिठाई खाओ I’ – सभी को जबरन मिठाई खिलाये और सब को हँसी ख़ुशी विदा किये I
इसके बाद से ही दोनों प्राणी अपने आँगन के इस नये पौधे को प्यार-दुलार से सींचने लगे I अत्यधिक धूप-वर्षा और शीत से अपनी लाडली को अपने स्नेह के दामन से बचाते हुए सुशिक्षित करने लगें I उनकी कमाई के अधिकांश अंश पर अब उनकी बेटी लाडली का ही अधिकार था I वही तो उनके जीवन का आधार थी I माता-पिता के स्नेह की छँव में लाडली बेटी पढ़ाई-लिखाई से लेकर रूप-व्यक्तित्व, गृह कार्य आदि सबमें अब्बल ही रही I स्कूल के मास्टर साहब से लेकर गाँव भर में उसकी बुद्धिमता की चर्चा होती ही रहती थी I देखते ही देखते स्नेही आँखों के सामने कब वह सयानी हो गई, कि पता ही नहीं चला I
बलराज बाबू अपनी योग्य बेटी लाडली के लिए उसी के अनुकूल ही लड़के की तलाश में कई महीने गुजारे I तब जाकर उन्हें बंशी बाबू का पुत्र वर स्वरूप प्राप्त हुआ, जो किसी बड़े शहर में रह कर ऊँची पढ़ाई कर रहा है I समस्त भौतिक सुख-सुविधाओं से पूर्ण ऊँची घराना है I सर्वगुण सम्पन्न लाडली को ही देख कर बंशी बाबू ने अपनी दहेज़ लोलुपता पर कुछ लगाम कसा था I फिर भी उनके लिए सर्वनिम्न दहेज़ परिमाण भी बलराज बाबू हेतु सामर्थ्य से परे ही था I बंशी बाबू भी अपनी सामाजिक स्थिति और पारिवारिक हैसियत के अनुकूल ही बारात लाने, अनुकूल स्वागत तथा शादी सम्बन्धित विशेष तैयारी की हिदायत दी थी, जिसके पीछे काफी अधिक खर्च की सम्भावना भी थी I लाडली के सुख की कल्पना कर बलराज बाबू सब स्वीकार कर लिए थे I
अब किस खर्च में कटौती करें, बलराज बाबू को समझ में नहीं आ रहा था I वह बंशी बाबू की सहृदयता के प्रति आशावान भी थे I उन्हें उम्मीद थी कि लाडली की योग्यता के समक्ष बंशी बाबू की अर्थगत हठता धूमिल हो जाएगी और इसी भरोसे उन्होंने इतने बड़े कारज को अपने सिर पर धारण कर लिया था I
बलराज बाबू ने दहेज़ राशि के इंतजाम हेतु अपने पुरखों के कुछ खेत-बारी पर भी कलम चला दी I कुछ संगे-सम्बन्धियों के सामने भी हाथ पसार कर कुछ रकम एकत्रित किये, पर सब मिलकर बंशी बाबू जैसे ऊँट के मुँह में जीरा से अधिक न थे I कुछ मित्रों तथा रिश्तेदारों ने उन्हें अपनी चादर के अनुकूल ही अपने पैरों पसारने के परामर्श दिए थे I परन्तु अपनी लाडली के सुख के सब्जबागी स्वप्नों में वे डूबते ही चले गए थे I आखिर उसके सिवाय और कौन है, उनका? अतः शादी में वह कोई कसर न छोड़ना चाहते थे I फलतः बंशी बाबू को दहेज स्वरूप दिए गए वादों को भी वे टालते ही गए I
अब क्या करें, बारात द्वार पर आ पहुँची I बंशी बाबू ने खबर भेजवाया दहेज की बाकी धनराशि हेतु I बलराज बाबू की स्थिति बड़ी नाजुक थी I वह बंशी बाबू का सामना करने से कतराते जा रहे थे I सोचा था कि किसी तरह से शादी हो जाए, फिर कुछ समय लेकर कुछ उपाय कर दहेज की बाकी धनराशि को वे अवश्य ही प्रदान कर देंगे I
उधर बंशी बाबू को भी अब लगने लगा कि उन्हें धोखा दिया जा रहा है I अब वे अति व्यग्र हो उठे I कई धनपति कुटुम्बों को उन्होंने केवल बलराज बाबू की योग्य लड़की के नाम पर ही साफ मना कर दिया था I उनमें से कई तो अभी भी आस लगाये बैठे हैं I बंशी बाबू की अमिरियत तथा दम्भ ने उन्हें ललकारा I आखिर कितना घाटा सहें? लड़के की शादी क्या वे खेत बेच कर करेंगे? कदापि नहीं I कुछ विशेष रिश्तेदारों ने उनकी क्रोधाग्नि में में घी डालने का कार्य किया, अग्नि की लपटें और भी तेज धधक उठीं I और फिर भरे आँगन के बीच विवाह-मंडप में उन्होंने अचानक गरजते हुए कहा था, - “बंद करो ये शादी के फेरे-वेरे I अब यह शादी नहीं होगी I”
अपराधबोधता ने बलराज बाबू को शक्तिहीन कर दिया I जो सिर स्वाभिमान से किसी के आगे न झुका, भला अपमान का इतना बड़ा बोझ लिए कैसे उठेगा? उनकी महत्वकांक्षा की सजा उनकी भोली-भाली लाडली को क्यों मिली, जो अब न तो कुंवारी ही रही और न व्याहता ही बनी I अब उसे कौन अपनाएगा? आज वह स्वयं के बनाये चक्रव्यूह में अभिमन्यु जैसे ही बुरी तरह से फँस गये हैं, जिसमें से उन्हें निकल पाने का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा है I गाजे-बाजे, दूल्हा-बाराती सब तो पहुँचे थे द्वार पर, फिर भी उनकी लाडली केवल उनकी उच्चाकांक्षा के कारण त्याज्य रह गई I विचारों का भयंकर भवंडर उन्हें उड़ा ले चला I पता नहीं कहाँ गिराएगा?
माँ सुलोचना अपने पति के अंतर्मन को भाँप भी न पाई I होश ही किसके पास रहा कि एक दूसरे का ख्याल रखे I उस बेचारी का ह्रदय भी तो दहेज के निर्दयी चोट से कम व्यथित नहीं हुई है? वह तो एकटक सोलहों श्रृंगार किये चौके पर स्थिर बैठी अपनी लाडली को निरंतर झरते आँखों से देखती रही I देख क्या रही है, वह तो उसके विकट भविष्य को गुनने की कोशिश कर रही है I अब वह कैसे कहे कि बेटी इन सारे श्रृंगार को उतार दो, ये श्रृंगार तुम्हारे लिए नहीं हैं I हम तुम्हारे लिए दूसरा वर ढूंढेंगे I
मातृत्व भाव से सुलोचना अपने जगह से अनचाहे मन उठी I बेटी के माथे पर अपना कोमल प्रेमपूर्ण हाथ रखी I पर यह क्या? दृढता से रूका हुआ अथाह अश्रू-जल समूह उस कोमल स्पर्श से सिहर उठा और फिर तो अनियंत्रित हो कर अनगिनत धाराओं में बह चला I दारुण क्रुन्दन चीत्कार के स्वर विवाह-मंडप से गूँज उठे I दोनों की बाहें, एक-दूसरे के कारुणिक आलिंगन किये, दोनों के गले एक हुए I शायद कल के लिए कोई अश्रूकण न बचना चाहिए I अब क्रून्दन चीत्कार हिचकियों में बदल गईं I किसी एक की हिचकी दोनों के शरीर को कम्पित करने लगी I
बेटी लाडली अपनी माँ के आँसू पोंछी और हिचकी लेती हुई धीरे से उठी I माँ की क्रूदन हिचकी अभी चल ही रही थी I माँ ने सोचा कि शायद लाडली नियति को स्वीकार कर ली है I वह अब कमरे में जाकर अपने श्रृंगार को उतारेगी I अतः वह पागली वहीं बैठी निःशब्द आँखों से आँसू प्रवाहित करती रही I बेटी तो कमरे में प्रवेश कर गई I माँ इसी इन्तजार में थी कि वह आएगी और उसके गले से पुनः लग कर अपनी व्यथा को लगाम लगाएगी I माँ को लगा समय कुछ ज्यादा हो गया है I अब तक बेटी लाडली कमरे से न लौटी I फिर सोची, क्योंकर लौटेगी? किसके लिए लौटेगी? वहीं कमरे संताप कर रही होगी I
पर माँ की ममता न मानी I वह व्यथित ह्रदय लिए दुर्बलता से धीरे-धीरे उठी I बेजान-सी कमरे की ओर चली I उसकी रंगीन चमचमती बनारसी साड़ी का आँचल जमीन पर पीछे लोटने लगा I कमरे में प्रवेश की, तो किसी के ठंडे पैरों से उसके माथे पर स्पर्श हुआ I अरे! इसमें तो माहवार लगे हुए हैं I तो ... तो क्या मेरी लाडली......ई...ई... I अभी कुछ सम्भाल भी पाती कि आँखों के सामने ही अपने पति का लटकता हुआ शरीर को देखी I उसके कोमल ह्रदय पर पहले से भी ज्यादा और तेज आघात लगा, जिसे वह सहन न कर पायी I फिर उन दोनों के बीच में ही वह भी ऐसी गिरी, ऐसी गिरी कि फिर न उठी I
तीनों की अकाल मृत्यु की खबर देने संदेश वाहक बंशी बाबू के पास भी गया I लेकिन उस समय बंशी बाबू व्यस्त थे अपने लड़के अंशुमान बाबू के लिए कोई नई जगह पर शादी की बात तय करने में I जहाँ से उन्हें अपने बेटे के एवज में एक कार सहित ढेरों दहेज़ मिलने वाले थे I ऐसे शुभ घड़ी में कोई अशुभ खबर सुनना भी न चाहते थे I अतः संदेश वाहक को मकान की चारदीवारी में प्रवेश भी न करने दिया गया I
और इधर गाँव से दहेज़ की बलिवेदी पर अपने प्राण न्योछावर करने वालों की एक साथ तीन अर्थियाँ निकलीं I उनके पीछे पूरे गाँववाले अन्तः क्रुन्दन कर रहे हैं और दहेज़ लोभियों पर थूक रहे हैं, क्योंकि वे भी आखिर बेटी के भी तो पिता हैं I
श्रीराम पुकार शर्मा,
24, बन बिहारी बोस रोड,
हावड़ा – 711101.
सम्पर्क सूत्र – 9062366788.
COMMENTS