ईश्वरीय चमत्कार Mysterious act of God विभा अपने सरल व गंभीर स्वभाव की वजह से जानी जाती थी और उसका भाई विक्रम अपने चुलबुले स्वभाव के कारण।
ईश्वरीय चमत्कार Mysterious act of God
मेरा घर सामने पसरी चौड़ी सड़क की तरफ उत्तरी दिशा की ओर देखता है। मेरे इस धर की दायीं तरफ याने पूर्वी दिशा में दो मंजिला मकान है, जिसकी खिड़की मेरे घर की खिड़की के ठीक सामने खुलती है। इस खिड़की का उपयोग विभा बिटिया करती है --- मुझे बुलाने के लिये। अभी कुछ दिन पहले मुझेे पुकारा गया था। वह बताना चाहती थी कि उसकी माँ अचानक बेहोश हो गई थी। जब तक मैं पहुँचता, भीतर खामोशी अपना साम्राज्य फैला चुकी थी। बेटी विभा अपनी माँ के पास बैठी सिसक रही थी। माँ गुजर चुकी थी।
विभा के पिताजी सेठ रतनलाल अपने मन को कड़ा किये हुए मूर्तिवत् खड़े थे। मुझे देख वे अचानक अपना धैर्य खो बैठे। मेरा विचलित होना भी स्वाभाविक था।
सेठजी का परिवार सभ्य, शांत, शिक्षित होने के साथ मिलनसार परिवारों में गिना जाता है। इस परिवार की दूसरी पहचान सेठजी के जुड़वा बच्चों के कारण थी। वे बिल्कुल एक से दिखते थे। आधुनिक एक सी वेशभूषा में भाई-बहन भ्रम पैदा कर जाया करते थे। सिर्फ मैं उनको पहचानने में गलती नहीं कर पाता। एक बार सेठजी से मैं शर्त लगा बैठा। जब मैंने शर्त में सौ रुपये जीत लिये तो उन्होंने राज जानना चाहा। राज बताने के लिये मैंने सौ रुपये और ऐंठ लिये। विभा व विक्रम की हाथ की रेखायें अलग-अलग थीं जो मैं देख लिया करता था।
विभा अपने सरल व गंभीर स्वभाव की वजह से जानी जाती थी और उसका भाई विक्रम अपने चुलबुले स्वभाव के कारण। विक्रम पढ़ाई में तेज था और पढ़ाई पूरी कर एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी में नौकरी करने विदेश चला गया था। उसके चले जाने के बाद सेठजी का घर अपनी चुलबुलाहट काफी हद तक खो चुका था। उनके घर का सन्नाटा मेरे घर तक फैल चुका था। मेरे घर की छत पर पतंग उड़ानेवाला, बगीचे से अमरुद तोड़नेवाला और मेरी पत्नी से चुहलबाजी कर लड्डू जीतनेवाला विक्रम अब नहीं दिखता था।
तब से सुबह-शाम सैर करते समय मुुझे सेठजी अपने घर के बरामदे में रखी आराम कुर्सी पर बैठे दिख जाया करते थे और मुझे देख वे कुर्सी छोड़ खड़े हो जाते और इशारे से ‘कुशल क्षेम’ पूछ लिया करते थे। बेटी विभा भी घूप में बैठ किताब पढ़ते दिख जाया करती थी।
लेकिन माँ के गुजर जाने के बाद विभा ने घर के बाहर निकलना ही जैसे त्याग दिया था। मैं पूछना चाह रहा था कि माँ की खबर सुन विक्रम क्यों नहीं आया था।
एक दिन अचानक सेठजी का मकान चहक उठा। ‘विक्रम आनेवाला है, अंकल,’ खिड़की से विभा की आवाज सुनने मिली।
‘कब?’ मैं पूछ न पाया।
परंतु ठीक दूसरे दिन सुबह मुझे विभा की आवाज सुनाई दी। मैंने दौड़कर अपनी खिड़की से देखा --- विभा घबराई हुई दिख रही थी। ‘पापा को कुछ हो गया है, अंकल, जल्दी आईये।’
मैंने तुरंत अपने डॉक्टर को फोन किया और लगभग दौड़ता सेठजी के घर गया। भीतर सेठ रतनलाल फर्श पर बेहोश पड़े थे। पास ही विभा घबराई हुई बैठी थी। शायद उसने देखा नहीं था कि सेठजी के पास उनका मोबाईल पड़ा था। वे किसी से बात करते-करते गिर गये थे। मैंने मोबाईल देखा तो पता चला कि वे किसी मैसेज को पढ़ रहे थे --- मैसेज दूतावास से था --- लिखा था कि विक्रम जिस विमान से आनेवाला था वह इंडोनेशिया के पास सागर में दुर्घटनाग्रस्त हो चुका था। वहाँ की सरकार खोज कर रही थी।
मेरे हाथ कँप रहे थे। डॉक्टर साहब आ चुके थे। उन्होंने मोबाईल मुझे वापस थमाते हुए कहा, ‘आप बेटी को सम्हालिये’ और वे सेठजी को होश में लाने के प्रयास करने में जुट गये। पर मुझे उम्मीद न के बराबर थी। कुछ ईश्वरीय चमत्कार ही कुछ कर सकता था। मुझे डॉक्टर की आवाज सुनाई दी --- वे कह रहे थे कि आँखें ठीक हैं, पर जबान अब भी भारी है।
विभा को सम्हालना मुझे कठिन लग रहा था। बेचारी अभी माँ के सदमे से उभर भी न पायी थी कि भाई के यूँ हादसे में गुजर जाने की खबर दुख का पहाड़ बन आ गई। डॉक्टर की उस पर नजर पड़ी और किसी अनहोनी के भय से मुझसे बोले, ‘उसे सम्हालो ---’ इसके आगे उनके शब्द मूक हो गये।
तभी अचानक सेठजी के ओठों से टूटती आवाज आई ‘वि...क्र...म...’
इस आवाज को सुन विभा का ‘हाँ, पापा’ कहना मुझे व डॉक्टर को चोंका गया। हमने देखा कि इक नन्हीं-सी मुस्कान सेठजीे के लबों पर थिरक उठी थी। तभी एक अद्भुत विचार मेरे मस्तिष्क में उभरा। विभा बेटी को मैं बाजू के कमरे में ले गया और कहा, ‘रो मत, अभी सब कुछ ठीक हो जावेगा। धीरज रखो।’
‘क्या पापा ठीक हो जावेंगे?’ विभा ने प्रश्न किया।
‘हाँ,’ मैंने कहा, ‘बस तुम्हें अपने को वश में रखना है और मेरा कहा मानकर तुम तुरंत विक्रम बनकर आ जावो।’
‘ठीक है,’ यह बहकर उस बहादुर बच्ची ने अपने आँसू पोंछे और विक्रम के कपड़े पहने पापा के सामने आ खड़ी हुई। उसे देख डॉक्टर भी चकित हो उठे।
‘तुम हिम्मत मत खोना,’ मैंने उसे ढाढ़स देते हुए कहा, ‘यह काम कठिन अवश्य है। तुम्हें विक्रम का रोल अदा करना है। हो सकता है कि पिताश्री को पूरा होश आ जावे।’
विक्रम के रूप में विभा को देख सेठजी में हिम्मत लौट आयी। वे उसे सच का विक्रम समझ बैठे। उस समय एक पिता का प्यार अपने बच्चे को जीवित देखकर जिस चरम सीमा पर पहुँचा था, देखने लायक था। बच्ची भी उस समय कैसे अपने पर वश रख पायी होगी, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी। डॉक्टर भी भावुक हो उठ़े थे।
‘यह नाट ्य यहीं समाप्त नहीं हुआ है बेटी,’ मैंने विभा से कहा, ‘तुम्हें कुछ दिन तक इसी तरह कभी विक्रम तो कभी विभा बनकर पिताजी के सामने आना होगा। बोलो कर सकोगी?’ नादान बच्ची की तरह उसने तुरंत ‘हामी’ भर दी।
यहीं से विभा की कठिन परीक्षा आरंभ हो गई। उसे पिता के आदेश का पालन करने कभी विक्रम तो कभी विभा बनकर अपने को प्रस्तुत करना होता था। कभी कभी तो इतनी तेज गति से ये दो रोल निभाने के लिये रूप बदलना पड़ता था कि बेचारी हाँफने लगती थी --- उसकी साँसे फूलने लगती ---सिर चकराने लगता था। तुरंत दूसरे कमरे में दौड़कर जाना, कपड़े बदलना, नारी से मर्द में बनने आवाज पर नियंत्रण करना, चाल-ढाल बदलना वह भी एक साथ एक क्षण में --- सरल काम नहीं था। उस अंतहीन तपस्या से वह बेचारी पूरी तरह से टूट चुकी थी।
सात दिन बीत गये। एक दिन वह कहने लगी, ‘अंकल, ऐसा नाटक कब तक चलेगा? मैं थक गई हूँ। क्या कुछ और उपाय नहीं है?’
इस प्रश्न का उत्तर मेरे पास नहीं था। डॉक्टर को भी कुछ और विकल्प सूझ नहीं रहा था। वे तो बल्कि मेरी इस सूझ की प्रशंसा करते बाज नहीं आते थे और कहते थे कि इस युति के कारण ही सेठजी नया जीवन पा सके थे।
उनका कहना था, ‘सच में सेठजी की हालात ‘वेन्टीलेटर’ पर रखने जैसी है।’ परन्तु उस समय हम दोनों जानते थे कि अकेले सेठजी ही नहीं, उनकी बेटी भी वेन्टीलेटर पर थी। पिताजी का सहारा टूटते ही वह बिचारी भी निष्प्राण हो जावेगी।
‘दोनों के प्राण ‘इंटरलॉक्ड़’ हैं,’ मैंने इंजीनियरिंग परिभाषा उस जटिल परिस्थिति को दे डाली। यह सुन डॉक्टर कुछ हल्का-सा मुस्काये और बोले इस ‘इंटरलॉक्ड़’ को तोड़ कर अलग करना किसी ‘ऑपरेशन’ से भी संभव नहीं है।
‘पर हमें कुछ तो करना ही होगा, बिना किसी विलंब के,’ डॉक्टर ने एक दिन अपनी चिंता मुझसे ‘शेयर’ की। ‘दस दिन बीत चुके हैं। बच्ची की सोचने की प्रक्रिया पर इसका विपरीत प्रभाव परिलिक्षित होने लगा है। यह नई तरह की स्थिति है जिसका अभी तक किसी डॉक्टर को सामना नहीं करना पड़ा है। यह किस बीमारी की ओर संकेत कर रही है, यह बताना अभी नामुमकिन है। इसका इलाज भी क्या है --- भगवान जाने!’ यह कहते वे भावुक हो उठे।
कुछ देर बाद अपने पर संयम लाकर वे कहने लगेे, ‘मैं अंतर्राष्ट्रीय मंच पर इस प्रश्न को रखने का प्रयास कर रहा हूँ।’ इतना कह उन्होंने मुझे विभा के व्यवहार पर बारीकी से ध्यान रखकर उसे लिपिबद्ध कर रखने की सलाह दी। उन्हें अभी तक इंटरनेट पर इस विषय में कोई जानकारी नहीं मिली थी। वे इस दुविधापूर्ण परिस्थिति का जिक्र विश्व के डॉक्टरों के सामने रखना चाहते थे।
उधर सेठजी इन सब चिंताओं से मुक्त जी रहे थे। परन्तु विभा अपने कष्टपूर्ण रोल से ऊब चुकी थी। विभा को हो रही मानसिक प्रताड़ना का अंदाज हम भी ठीक से नहीं लगा पा रहे थे। पिताजी की हर आवाज पर वह चौंक जाती थी --- असमंजस में पड़ जाती कि उसे किस वेश में अपने को प्रस्तुत करना है और क्या करना है। मैंने देखा कि वह कभी दीवार के सहारे स्तब्ध स़ी रह जाती थी। उसे चक्कर का दौर पड़ने लगे थे। उस पर चौबीसों घंटे नजर रखने की जरुरत आन पड़ी थी। डॉक्टर ने मदद के लिये एक नर्स की व्यवस्था कर दी थी। पर इससे विभा की व्याधि को कुछ भी राहत नहीं मिल पाई थी।
एक दिन पिताजी से बात करते विक्रम बनी विभा भूल गई कि उसे मर्दाना आवाज में बात करना था। शुक्र था कि उसी समय सेठजी के मोबाईल पर मैसेज आने की आवाज आई और उनका ध्यान उसे पढ़ने लग गया। मैसेज पढ़ते-पढ़ते उनके हाथ थरथराने लगे और मोबाईल नीचे फिसल गया। मैंने डॉक्टर की तरफ देखा, वे उछलकर सेठजी के पास पहुँच गये थे। सेठजी अपनी पथराई आँखों से ऊपर शून्य में देख रहे थे। सारे कमरे में स्तब्धता छाई हुई थी, सिर्फ सेठजी की भर्राई साँस सुनाई पड़ रही थी। ष्शायद वे लम्बी साँसें ले अपने को संयमित करना चाह रहे थे।
सेठजी के चेहरे पर विचित्र मुस्कान-सी थिरक उठी थी जब उन्होंने विक्रम बनी विभा से कहा, ‘विक्रम बेटा, जाकर अपनी बहन से कह दो कि अब से उसे विक्रम बनने का कष्टदायी नाटक नहीं करना पड़ेगा।’
‘क्या मतलब पिताजी।’
इस प्रश्न का उत्तर सेठजी ने अत्यंत सहज भाव में दिया, ‘बेटी, मैं पहली बार ही पहचान गया था कि तुम मेरे लिये विक्रम बनकर आई थी। तुम्हारे इस अंकल जी ने कभी मुझे बताया था कि तुम्हारे हाथ की रेखाऐं विक्रम की रेखाओं से भिन्न हैं।’
फिर कुछ रुक कर वे बोले, ‘भगवान ने आज मेरी बेटी को परीक्षा में पास कर दिया है और प्रसन्न होकर दूतावास से यह मैसेज भेजा है।’ उन्होंने मोबाईल उठाकर देते हुए कहा, ‘लो, तुम खुद पढ़ लो।’
मैसेज में लिखा था कि विक्रम को इंडोनेशिया सरकार ने ढूँढ़ निकाला था। उसका इलाज चल रहा था। अब वह ठीक है और कल दिल्ली पहुँच रहा है।
यह रचना भूपेंद्र कुमार दवे जी द्वारा लिखी गयी है। आप मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल से सम्बद्ध रहे हैं।आपकी कुछ कहानियाँ व कवितायें आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुकी है। 'बंद दरवाजे और अन्य कहानियाँ', 'बूंद- बूंद आँसू' आदि आपकी प्रकाशित कृतियाँ है।संपर्क सूत्र - भूपेन्द्र कुमार दवे, 43, सहकार नगर, रामपुर,जबलपुर, म.प्र। मोबाइल न. 09893060419.
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