मकान पर कहानी मैं बिना टॉर्च या बत्ती जलाए दबे पाँव बिस्तर से उतरा । दोनों कमरे के बीच के दरवाज़े के ' की-होल ' से मैंने बगल वाले कमरे में आँख गड़ा कर
मकान
" शाब जी , ये मकान कई शाल शे ख़ाली पड़ा । ये मकान आप क्यूँ
ख़रीदा ? आपको नहीं मालूम ? ये मकान में भूत रहता । " रिक्शे पर से मेरा सामान उतार कर गली का गोरखा चौकीदार बोला ।
मैं मुस्करा दिया ।
नौकरी से रिटायर होने के बाद जब मैंने रहने के लिए शहर के इस मोहल्ले में एक मकान ख़रीदने का इरादा किया तो गली वालों ने भी मुझे यही बात बताई ।
" भाई साहब , दिस प्लेस इज़ हांटेड । भुतहा मकान ख़रीद कर आप ग़लती कर रहे हैं । "
पर भूत-वूत में मेरा यक़ीन कभी नहीं रहा । सारा जीवन इसी शहर में बिताया । इसलिए इस शहर से मोह हो गया था । पत्नी कुछ साल पहले दिल का दौरा पड़ने पर गुज़र गई थी । बच्चे कब पंख लगा कर फुर्र हो गए , पता ही नहीं
चला । यह मकान सस्ते में मिल रहा था , सो ख़रीद लिया । सोचा , जीवन की साँझ यहीं कट जाएगी ।
मैंने लोहे के बड़े दरवाज़े पर लटका ताला खोला और भीतर आ गया । लॉन में बेतरतीबी से उग आई लम्बी घास किसी जंगल का लघु-संस्करण लग रही थी ।
बंद गली के इस आख़री मकान में कबूतरों और चमगादड़ों ने डेरा जमाया हुआ था । गोरखा कहीं से दो लड़के पकड़ लाया । दोनों यहाँ सफ़ाई करने की बात से कुछ आशंकित लग रहे थे । पर पैसों के लालच में दोनों ने दो-तीन घंटों में ही झाड़-पोंछ कर मकान को रहने लायक बना दिया ।
इस बीच पड़ोस में रहने वाले शर्मा दंपत्ति से परिचय हुआ और उन्होंने दोपहर के खाने पर मुझे अपने यहाँ बुला लिया । मैं भी कुछ थक-सा गया था । इसलिए हाँ कर दी ।
नहा-धो कर मैं शर्माजी के यहाँ पहुँचा । शर्मा दंपत्ति बड़े मिलनसार स्वभाव के लगे । खाना खाते हुए श्री शर्मा ने मेरे मकान में पहले रहने वालों के बारे में बड़ी दारुण कहानी सुनाई ।
पहले वहाँ देवगन परिवार रहता था । उस परिवार के सदस्य व्यापारी थे । किसी चीज़ के इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट का व्यवसाय करते थे । परिवार के मुखिया की किसी ने ऑफ़िस में घुस कर हत्या कर दी । कोई व्यावसायिक झगड़ा था । पत्नी सदमे से पागल हो गई । जवान बेटी के प्रेमी ने उसे धोखा दिया तो उसने बेड-रूम के पंखे से लटक कर आत्म-हत्या कर ली । बेटा-बहू बचे थे । उन्होंने मकान को अभिशप्त मान कर उसे किसी को औने-पौने दाम पर बेच कर उससे पीछा छुड़ाया । जिसे यह मकान बेचा गया उसने भी बाद में घाटे पर ही मकान उस व्यक्ति को बेच दिया जिससे मैंने इसे ख़रीदा था ।
शर्मा दंपत्ति ने शुभ-चिंतक होने के नाते मुझे भी सलाह दी कि मैं इस मकान में रहने का इरादा त्याग दूँ और पहला मौक़ा मिलते ही इसे किसी को बेचकर कोई सही मकान ख़रीदूँ । उनके अनुसार भी यह मकान तो भुतहा था , अपशकुनी था । रात में ख़ाली मकान में से लोगों के बातें करने की , रोने की आवाज़ें आती थीं । इस मकान में रहने वालों का कभी भला नहीं हो सकता था । वग़ैरह ।
मैंने मुस्करा कर उनकी बातों को सुना और कहा कि मैं कुछ समय इस मकान में रह कर स्वयं इसका रहस्य जानना चाहूँगा । आख़िर इस मकान में ऐसा क्या है कि लोग इसे भुतहा बताते हैं ? व्यक्तिगत तौर पर मुझे शकुन-अपशकुन जैसी बातों में कोई यक़ीन नहीं है ।
मैंने मकान में रहना शुरू किया । वाकई कई बार बीच रात में अजनबी लोगों की बातचीत की आवाज़ें सुनकर मेरी नींद खुल जाती । ऐसा लगता जैसे साथ वाले कमरे में कोई खुसरो-फुसुर कर रहा हो । पर जब मैं टॉर्च लेकर कमरे में पहुँचता तो वहाँ कोई नहीं मिलता । केवल सन्नाटा वहाँ मेरा स्वागत करता ।
पहले मुझे लगा कि शायद ये आवाज़ें मेरा भ्रम हैं । मेरे थके-बूढ़े दिमाग़ की उपज हैं । शायद मैं लोगों द्वारा कही गई बातों की रात में फिर से कल्पना करता हूँ । पर ये आवाज़ें तो सभी गली वालों ने भी सुनी थीं । कहीं-न-कहीं कुछ तो था ।
फिर अक्सर बीच रात में मेरी नींद आवाज़ें सुनकर टूटने लगी । कभी-कभी मुझे ऐसा लगता जैसे कोई बड़े दारुण स्वर में रो रहा हो । पर पूरा मकान छानने पर भी कुछ नहीं मिलता ।
बचपन से ही मैं मानता आया हूँ कि भूत-वूत कुछ नहीं होते । ये डरपोक लोगों के वहम भर हैं ।
तो क्या उम्र के इस पड़ाव पर आ कर मेरी यह सोच ग़लत साबित होने वाली थी ?
एक रात इसी तरह दो बजे के आस-पास मेरी नींद खुली । बगल वाले कमरे में वही खुसर-फ़ुसर चल रही थी । बीच-बीच में कोई सिसकियाँ ले रहा था ।
इस बार मैं बिना टॉर्च या बत्ती जलाए दबे पाँव बिस्तर से उतरा । दोनों कमरे के बीच के दरवाज़े के ' की-होल ' से मैंने बगल वाले कमरे में आँख गड़ा कर देखना चाहा । कुछ दिखाई नहीं दिया । भीतर घुप्प अँधेरा था । पर बातचीत और रुदन अब भी जारी था । इस बार मैंने अपना कान ' की-होल ' से सटा कर बातचीत सुनने का प्रयास किया ।
घोर आश्चर्य । वे मेरे ही बारे में बातें कर रहे थे ।
" ... पिछले परिवार के चले जाने के बाद बरसों से हम अनाथ थे । जब सुना कि कोई नया आदमी हमें ख़रीद रहा है तो उम्मीद बँधी थी कि यहाँ फिर से रौनक़ लौट आएगी , चहल-पहल लौट आएगी , जीवन लौट आएगा । पर अफ़सोस । ये साहब तो अकेले यहाँ रहने आ गए । ऊपर से बूढ़े हैं । पता नहीं कब क्या हो जाए । भगवान जाने फिर से हमारे दिन कब फिरेंगे ? फिर से यहाँ ख़ुशियाँ कब लौटेंगी... ? "
मैं जितना सुनता गया , उतना हैरान होता गया । आप यक़ीन नहीं करेंगे । मकान की दीवारें आपस में बातें कर रही थीं । क्या यह सम्भव था ?
उस रात मैं काफ़ी देर तक उन्हें बातें करते हुए सुनता रहा । उस रात ही नहीं , अगली कई रातों में भी । और मेरा शक यक़ीन में बदलता चला गया कि दीवारें बातें कर रही थीं । मकान बोल रहा था । यह तो सुना था कि दीवारों के भी कान होते हैं पर यह पहली बार पता चला कि दीवारों के मुँह भी होते हैं ।
दस-पंद्रह दिन बाद एक दिन अचानक बड़े बेटे की चिट्ठी मिली कि उसका ट्रांसफ़र इसी शहर में हो गया है । और वह पत्नी और बच्चे के साथ जल्दी ही यहाँ रहने आ रहा था । मेरी खुशी का ठिकाना न रहा ।
और फिर वह दिन भी आ पहुँचा । मैंने बेटे , बहू और पोते का खुले दिल से स्वागत किया । रहने की कोई समस्या नहीं थी । दो-मंज़िला मकान था । ऊपर वाली मंज़िल पर बेटे, बहू और पोते के रहने का बंदोबस्त हो गया ।
पर बेटे ने भी मकान के बारे में कुछ उड़ती-उड़ती-सी बातें सुनी थीं । वह कुछ आशंकित था । कहने लगा , " डैड , बच्चा छोटा है । आपकी बहू भी साथ है । कोई ऐसी-वैसी बात हो तो बता दीजिए । हम कोई मकान किराए पर ले लेंगे । हम यहाँ तभी रहेंगे अगर यहाँ रहना ' सेफ़ ' हो । "
तब मैंने उसे आश्वस्त किया -- " यहाँ रहना बिल्कुल सुरक्षित है । मैं जो रह रहा हूँ इतने महीनों से यहाँ । मुझे कुछ हुआ क्या ? "
देखते-ही-देखते मकान मेरे पोते की किलकारियाँ से गूँजने लगा ।
उस रात फिर मेरी नींद बीच रात में ही टूट गई । बगल वाले कमरे में वही खुसर-फुसर हो रही थी । मैंने ' की-होल ' से अपना कान सटाया । सिसकियों की जगह आज उल्लास भरे स्वर थे । दीवारें खुश थीं कि युवक, युवती और एक बच्चा अब यहाँ रहने आ गए थे । फिर अँधेरे में ही कोई धीमे , पर स्पष्ट स्वर में एक उमंग भरा गीत गुनगुनाने लगा ।
पाठको , हम सब एक ऐसे युग में जी रहे हैं जहाँ हाड़-मांस के अधिकांश लोगों की संवेदनाएँ मर गई हैं । उनकी आत्माएँ मर गई हैं । पर ईंट-पत्थर के मकान संवेदनशील हो गए हैं । उनमें जैसे आत्माएँ आ गई हैं । ये मकान शून्य में नहीं रहते बल्कि अपने यहाँ रहने वालों के जीवन से पूरी तरह जुड़े होते हैं । हमारे हँसने पर ये हँसते हैं , हमारे रोने पर ये रोते हैं । अपने यहाँ रहने वाले बच्चे की किलकारी सुनकर ये भी किलकते हैं । अपने यहाँ रहने वाले ज्वर-ग्रस्त बूढ़े की खाँसी इन्हें भी बीमार कर देती है । आदमी चाहे पत्थर-दिल हो गया हो , ईंट-पत्थर से बने ये मकान अब पत्थर-दिल नहीं रहना चाहते । वे धड़कन, स्पंदन , उल्लास और उमंग चाहते हैं । वे घर होना चाहते हैं । मेरे मकान में भी अब रौनक़ लौट आई थी । वह अब घर हो गया था ।
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प्रेषक : सुशांत सुप्रिय
A-5001 ,
गौड़ ग्रीन सिटी ,
वैभव खंड ,
इंदिरापुरम ,
ग़ाज़ियाबाद - 201014
( उ. प्र. )
मो : 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com
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ब्लॉग तो बहुत पढ़े है पर ऐसा ब्लॉग नही पढ़ा जिसको पढ़के खो गया, में खुद एक ब्लॉगर हों पर लिखने की कला बहुत कम लोगो में देखी है मेने, जैसी आप में है🙏
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