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डॉ नगेन्द्र का जीवन परिचय
डॉ नगेन्द्र का जीवन परिचय डॉ नगेन्द्र की कविता भाषा शैली आलोचना दृष्टि रस सिद्धान्त डॉ नगेन्द्र आधुनिक हिन्दी साहित्य के श्रेष्ठ समीक्षक एवं निबन्ध लेखक डॉ. नगेन्द्र अलीगढ़ जिलान्तर्गत अतरौली में सन 1915 में पैदा हुए। शुरू में उनकी शिक्षा घर पर ही हुई। विद्यालय सम्बन्धी अनेक परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने के पश्चात् उन्होंने नागपुर तथा आगरा विश्वविद्यालयों में हिन्दी एवं अंग्रेजी विषयों से एम. एम. की परीक्षाएँ उत्तीर्ण की। शोध की ओर झुकाव होने के कारण उन्होंने 'रीति काव्य की भूमिका एवं 'देव और उनकी कविता' जैसे विद्वतापूर्ण ग्रन्थ लिखे। उनके इस ग्रन्थ पर आगरा विश्वविद्यालय ने उन्हें डी. लिट. की उपाधि प्रदान की। यह पुस्तक उत्तरप्रदेश की सरकार द्वारा पुरस्कृत भी हुई है।
नगेन्द्र जी सर्वप्रथम दिल्ली कामर्शियल कालेज में प्राध्यापक पद पर नियुक्त हुए। इस पद के अनेक वर्षों तक कार्यरत रहे । इसके उपरान्त इस पद को छोड़कर वे भारतीय रेडियो स्टेशन, दिल्ली में नियुक्त हुए। बाद में वे दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष बने। 1999 को नई दिल्ली में उनका निधन हुआ।
डॉ. नगेंद्र की प्रमुख कृतियाँ
साहित्य रचना के क्षेत्र में नगेन्द्र ने प्रारम्भ में कविताएँ लिखीं। उनकी कविताओं का संग्रह 'बनमाला' नाम से प्रकाशित है। नगेन्द्र जी की प्रसिद्धि का आधार है, उनके द्वारा लिखित निबन्ध एवं आलोचना साहित्य । उन्होंने अनेक पुस्तकों का सम्पादन भी किया है।
डॉ. नगेन्द्र की रचनाओं को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-(1) सम्पादित, (2) मौलिक।
सम्पादित ग्रन्थ- हिन्दी ध्वन्यालोक', 'हिन्दी काव्यालंकार सूत्र', 'हिन्दी वक्रोक्ति जीवित', 'भारतीय काव्यशास्त्र की परम्परा','कवि भारती (आधुनिक काव्य संग्रह)', 'रीति शृंगार', भारतीय नाट्य साहित्य' आदि ।
मौलिक ग्रन्थ- 'सुमित्रानन्दन पन्त', 'साकेत एक अध्ययन', 'आधुनिक हिन्दी नाटक','आधुनिक हिन्दी कविता की मुख्य प्रवृत्तियाँ', 'रीति काव्य की भूमिका', 'देव और उनकी कविता', 'भारतीय काव्यशास्त्र की भूमिका', 'अरस्तू काव्यशास्त्र' आदि।
डॉ नगेन्द्र |
रस सिद्धान्त डॉ नगेन्द्र
नगेन्द्र मूलत: रसवादी आलोचक हैं। फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद को उन्होंने उपकार के रूप + ग्रहण किया और उसी के मनोविश्लेषण के आधार पर उन्होंने नाटक एवं नाटककारों की आलोचना की। फिर वें साहित्यिक आलोचना की ओर उन्मुख हुए। वे काव्य में रस सिद्धान्त को अन्तिम मानते हैं। नगेन्द्र ने भारतीय एवं पाश्चात्यकार दोनों की पद्धतियों को अपनाया एवं इनका समन्वय किया।
वे एक सुलझे हुए विचारक हैं तथा विश्लेषक हैं। उलझनों से वे दूर हैं। वे नई उदभावनाओं से विवेचन करते हुए उसे विचारोत्तेजक बनाते हैं। भारतीय काव्यशास की भूमिका द्वारा उन्होंने हिन्दी में एक बडे अभाव की पूर्ति की है। उन्होंने पाश्चात्य काव्यशास्त्र का अनुवाद किया तथा भारतीय काव्यशास्त्र से उसकी तुलना द्वारा उसे और भी उपयोगी बना दिया।
उनकी शैली तर्कयुक्त, विश्लेषणात्मक तथा प्रत्यात्मक है। वे अपने निबन्धों और प्रवन्धकों को जब तक अपनी अनुभूति का अंग नहीं बना लेते तब तक उन्हें अभिव्यक्ति नहीं देते। उनके निवन्ध भी उनकी सार्थकता का परिचय देते हैं। उनका स्थान आज के साहित्यकारों में अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
डॉ नगेन्द्र की भाषा शैली
डॉ. नगेन्द्र ने नूतन शैली का प्रयोग किया है। कहीं सिद्धान्तों या तथ्यों की गम्भीरता को बोधगम्य बनाने हेतु उन्होंने वांछित वातावरण प्रस्तुत किया है, कहीं संताप शैली का व्यवहार है तथा कहीं हास-परिहास की स्थिति है। हास-परिहास के मध्य व्यंग्य का भी उन्होंने उपयोग किया है।
नगेन्द्र जी की भाषा में अनुपम सौन्दर्य, सौष्ठव एवं अभिव्यंजना शक्ति है। कहीं चित्र-विधान की क्षमता से पूर्ण भाषा का प्रयोग उन्होंने किया है और कहीं हास्य युक्त, व्यंग्यपूर्ण भाषा का। उनकी भाषा व्यावहारिक है। उसमें अंग्रेजी, उर्दू के शब्दों का भी प्रयोग है। शैली के अनुरूप उनकी भाषा परिवर्तित होती रही है। उनकी विविध भाषा-शैली का एक उदाहरण देखिए -
“शान्त गम्भीर सागर जो अपनी आकुल तरंगों को दबाकर धूप में मुस्करा उठा है, या फिर गहन आकाश जो झंझा और विद्युत को हृदय में समाकर चाँदनी की हँसी हंस रहा है, ऐसा ही कुछ प्रसाद का व्यक्तित्व था।"
डॉ नगेन्द्र की आलोचना दृष्टि
आलोचक के रूप में कृतिकार की आलोचना करते समय वे उसकी परिस्थितियों मनोवैज्ञानिक अन्तर्द्वन्द्वों आदि का पूर्ण ध्यान रखते हैं। उनकी समीक्षा विश्लेषणात्मक होती है। प्राचीनता की दृष्टि से नगेन्द्र जी एक-एक रसवादी समीक्षक हैं और नवीनता की दृष्टि से उनके समीक्षा साहित्य में वैज्ञानिकता का समावेश है। नगेन्द्र जी ने पाश्चातय एवं भारतीय दोनों ही शाखों के समन्वय की उपयुक्तता बतलाते हुए कहा है-"इस प्रकार ये दोनों एक दूसरे के विरोधी न होकर सहायक या पूरक है। इनके तुलनात्मक अध्ययन की सबसे बड़ी उपयोगिता यह हो सकती है कि इनका समन्वय करके एक पूर्णतर काव्य-शास्त्र का निर्माण किया जाये, जिसमें दृष्टा और भोक्ता के पक्षों का व्यापक विवेचन किया है।"
उनकी आलोचना यथार्थ की ठोस पृष्ठभूमि पर आधारित है। उनकी आलोचना में भारतीय तथा पाश्चात्य आलोचना सिद्धान्तों का समन्वय हआ है। उन्होंने संस्कृत और हिन्दी के आचार्यों के सिद्धान्तों का भी हृदयंगम किया है और यूरोप के आलोचकों के सिद्धान्तों का भी गम्भीन चिन्तन किया है। साहित्य में अतिवाद का विरोध डॉ. नगेद्र ने किया। पूर्ववर्ती आचार्यों के विषय में स्पष्टत: वे कहते हैं कि इन आचाया ने रस के कर्ता कलाकार की उपेक्षा की है। वे उन आधुनिक समीक्षकों के विरुद्ध हैं जो कलाकारों के व्यक्तित्व के निश्चित और अनिश्चित तथ्यों में इस प्रकार उलझ जाते हैं कि कृति सर्वथा उपेक्षित हो जाती है । इस प्रकार पूर्व और पश्चिम की आलोचनात्मक पद्धति की त्रुटियों तथा उनके गुणों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत कर नगेन्द्र ने हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में नवीन दृष्टिकोण उपस्थित किया है।
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