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महाकवि देव हँसी की चोट सपना दरबार
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महाकवि देव का जीवन परिचय
महाकवि देव का जन्म सन् 1773 में इटावा उत्तर प्रदेश में हुआ था। इनका पूरा नाम देवदत्त द्विवेदी है। कवि देव जीमहाकवि देव |
इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं --- रसविलास, भावविलास, भवानीविलास, कुशलविलास, अष्टयाम, सुमिलविनोद, सुजान विनोद, काव्य रसायन , प्रेमदीपिका आदि | देव कृत कुल ग्रंथो की संख्या 52 से 72 तक मानी जाती है...||
Hasi ki chot सपना दरबार summary in Hindi सारांश
प्रस्तुत पाठ तीन उपशीर्षक के माध्यम से उल्लेखित है | 'हँसी की चोट' , 'सपना' और 'दरबार' कवि 'देवदत्त द्विवेदी' जी के द्वारा रचित है | प्रथम सवैया ‘हंसी की चोट’ विप्रलंभ श्रृंगार का अच्छा उदाहरण है। कृष्ण के मुँह फेर लेने से गोपियाँ हँसना ही भूल गई हैं। वे कृष्ण को खोज-खोज कर हार या थक गई हैं। अब तो वे कृष्ण के मिलने की आशा पर ही जीवित हैं। उनके शरीर के पंच तत्त्वों में से अब केवल आकाश तत्त्व ही शेष रह गया है।दूसरे सवैया ‘सपना’ में गोपी सपना में बारिश की बूंदे, घनघोर छाए हुए बदल देखती है, जिसमें कृष्ण स्वप्न में गोपी को अपने साथ झूला-झूलने को कहते हैं। तभी गोपी की नींद टूट जाती है और उसका स्वप्न खंडित हो जाता है। तत्पश्चात् गोपी विरह वेदना में रोने लगती है, इसमें संयोग-वियोग का मार्मिक चित्रण हुआ है।
‘दरबार’ में पतनशील और निष्क्रिय सामंती व्यवस्था पर देव ने अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है, जिसमें राजा को अंधा, दरबारी को गूँगा, और राजसभा को बहरा कहकर चापलूसी और पाखंड कला विहीन राजव्यवस्था का चित्रण किया है...||
Hasi ki chot vyakhya हंसी की चोट की व्याख्या
साँसनि ही सौं समीर गयो अरु, आँसुन ही सब नीर गयो ढरि।तेज गयो गुन लै अपनो, अरु भूमि गई तन की तनुता करि।।
‘देव’ जियै मिलिबेही की आस कि, आसहू पास अकास रह्यो भरि,
जा दिन तै मुख फेरि हरै हँसि, हेरि हियो जु लियो हरि जू हरि।।
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ 'हँसी की चोट' शीर्षक से उल्लेखित कविता से उद्धृत हैं, जो कवि 'देवदत्त द्विवेदी' जी के द्वारा रचित हैं | इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि कृष्ण के मुँह फेर लेने से गोपी हँसना ही भूल गई है। गोपी कृष्ण के विरह में व्यकुल हो रही है। अब तो गोपी के शरीर में से पंच तत्व धीरे-धीरे बाहर निकल रहा है। जैसे - सांसों से वायु चली गई हो, रो-रो कर आँसुओं के साथ सारे जल बह गए हों। अपने सारे गुण साथ लेकर शक्ति भी चली गई है, शरीर कमजोर हो गया है, जिसके कारण भूमि तत्व भी चला गया है। कवि देव जी कहते हैं कि गोपी केवल कृष्ण से मिलने की आश में जीवित है। उसके पास केवल आकाश तत्व ही शेष रह गया है। जिस दिन से कृष्ण ने गोपी से मुँह फेर लिया है, उस दिन से गोपी की हँसी ही गयाब हो गई है। कृष्ण ने उसके मन को ही हर लिया है। अब तो गोपी कृष्ण को खोज-खोज कर हार या थक सी गई है |
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सपना व्याख्या
घहरि-घहरि घटा घेरी है गगन में।
आनि कह्यो स्याम मो सौं ‘चलौ झूलिबे को आज’
फूली न समानी भई ऐसी हौं मगन मैं।।
चाहत उठ्योई उठि गई सो निगोड़ी नींद,
सोए गए भाग मेरे जानि वा जगन में।
आँख खोलि देखौं तौ न घन हैं, न घनश्याम,
वेई छाई बूँदैं मेरे आँसु ह्वै दृगन में।।
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ 'सपना' कविता से उद्धृत हैं, जो कवि 'देवदत्त द्विवेदी' जी के द्वारा रचित हैं | इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं, कि गोपी सपना देख रही है सपने में गोपी देखती है कि बरसात की तरह झर-झर बूंदे टपक रहे हैं, हल्की-हल्की बारिश हो रही है। बदल में गड़गड़ाहट के साथ घनघोर घटा छाई हुई है। तभी श्याम आकर मुझे कहते हैं कि आज मौसम बड़ा सुहाना है चलो झूला-झूलते हैं, कान्हा के इस प्रस्तव से मैं तो खुशी से बावरी हो रही थी मगन होकर झूम उठी थी। मैं जाने के लिए उठना ही चाहती थी कि बैरी नींद से उठ गई। जब मैं नींद से जागी मेरे भाग्य ही सो गए क्योंकि जब आँख खुली और मैंने देखा तो न आसमान में घटा छाई थी और ना ही घनश्याम थे। अब तो मेरे आँसू के ही बूंद बारिश की तरह विरह की वेदना में बह रहे थे |
दरबार व्याख्या
भूल्यो तहाँ भटक्यो घट औघट बूढ़िबे को काहू कर्म न बाच्यो।।
भेष न सूझ्यो, कह्यो समझ्यो न, बतायो सुन्यो न, कहा रुचि राच्यो।
‘देव’ तहाँ निबरे नट की बिगरी मति को सगरी निसि नाच्यो।।
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ 'दरबार' कविता से उद्धृत हैं, जो कवि 'देवदत्त द्विवेदी' जी के द्वारा रचित है | इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि दरबार में कला और कला प्रेमी का कोई महत्व नहीं है | सब चाटूकारिता और पाखंड लोग दरबार में भरे पड़े हैं | ऐसे दरबार के राजा अँधे हो चुके हैं। दरबारी गूँगे हैं। तथा राजसभा बहरी हो चुकी है, तथा सब राग रंग में डूब चुके है। सब अपने फर्ज से भटक गए हैं। कला के पारखी का वहाँ कोई महत्व नहीं है। रास्ता कठिन है कोई कर्म के मार्ग पर नहीं चलता है | कोई कर्म ही नहीं बचा है, सब चापलुसी कर रहे हैं। ऐसे दरबार में न तो वेश-भूषा समझ आ रहा, ना ही कुछ कहने से समझ आता है और न बताने से सुनाई देता। राज्य में रुचि ही नहीं | ऐसे दरबार में चापलूसी को अच्छा माना जाता है, अच्छे गुण की कद्र नहीं करते। कवि देव जी कहते हैं कि जहाँ अपनी कला से भटके हुए कलाकार की मति बिगड़ चुकी है, जिसे आधी रात नचाया जा रहा है। राजा और दरबारी अपना कर्त्तव्य को भुला कर रूप सौंदर्य में खो रहे हैं। चापलूस लोग राज्य और राजा को अपने इशारों पर नचा रहे हैं |
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Hansi Ki Chot Sapna Darbar class 11 question and answers प्रश्न अभ्यास
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए ---
प्रश्न-1 'हँसी की चोट' सवैये में चित्रित विरहिणी के कृशता का वर्णन अपने शब्दों में कीजिये |
उत्तर- 'हँसी की चोट' सवैया में कृष्ण के मुँह फेर लेने से गोपी हँसना भूल गई है | कृष्ण के विरह में उसके शरीर के पंच तत्व बाहर निकल रहे हैं । उसका शरीर कमजोर हो गया है। कृष्ण के आने के आस में केवल आकाश तत्व शेष रह गया है।
प्रश्न-2 'सपना' कवित्त में किस प्रसंग का वर्णन हुआ है ?
उत्तर- प्रस्तुत पाठ के 'सपना' कवित्त में कृष्ण और गोपी के संयोग-वियोग का मार्मिक वर्णन हुआ है | जिसमें गोपी कृष्ण से साथ झूला रही है। और नींद खुल जाने से सपना खंडित हो जाता है |
प्रश्न-3 नायिका कब फूली नहीं समा रही थी और आँख खुलने पर क्या हुआ ?
उत्तर- प्रस्तुत पाठ के अनुसार, सपने में कृष्ण गोपी से झूला-झूलने को कहते हैं। गोपी यह प्रस्ताव सुनकर खुशी से फूले नहीं समाती है। वो जैसे ही जाने के लिए उठती है उसका नींद खुल जाता है। और सपना अधूरा रह जाता है, फिर नायिका विरह की वेदना में रोने लगती है।
प्रश्न-4 'दरबार' सवैया में किस प्रकार के दरबारी वातावरण की ओर संकेत है ?
उत्तर- 'दरबार' सवैया में पतनशील और निष्क्रिय सामंती व्यवस्था एवं चाटूकारिता, चापलुसी, पाखंड दरबारी वातावरण की ओर संकेत है।
प्रश्न-5 यहाँ साहिब को अंधा क्यों कहा गया है ?
उत्तर- दरबार में सारे सौंदर्य के रूप-रंग में डूबे हुए हैं। कला और कलाकार का कोई महत्व नहीं है | सब अपने कर्म से भटक चुके हैं। चापलुसों की बात सुनी जाती है, इसलिए राजा को अंधा, दरबारी को गूँगा और राजसभा को बहरा कहा गया है।
प्रश्न-6 'नट की बिगरी मति' से कवि का क्या आशय है ?
उत्तर- 'नट की बिगरी मति' से कवि का आशय यह है कि अपनी कला और प्रतिभा से भटक गया है।
प्रश्न-7 कृष्ण के हँसते हुए मुँह फेरकर चले जाने से गोपिका ने क्या कुछ खो दिया और क्या उसके पास शेष रह गया ?
उत्तर- कृष्ण के हँसते हुए मुँह फेरकर चले जाने से गोपिका कृष्ण के विरह में हँसना भूल गई है वह कृष्ण को खोज-खोज कर हार गई अब तो गोपिका के शरीर से पंच तत्व बाहर निकल रहे हैं केवल कृष्ण के वापस आने की आस में जीवित है, मात्र उसके पास आकाश तत्व शेष रह गया है।
प्रश्न-8 सपना कवित्त का भाव-सौंदर्य और शिल्प-सौंदर्य लिखिए।
उत्तर- • सपना कवित्त का भाव-सौंदर्य ---
सपने में कृष्ण गोपी से झूला-झूलने को कहते हैं। गोपी यह प्रस्ताव सुनकर खुशी से फुले नहीं समाती है। वो जैसे ही जाने के लिए उठती है, उसकी नींद खुल जाती है और सपना अधूरा रह जाता है | गोपी कृष्ण के विरह वेदना में रोने लगती है, इसमें संयोग-वियोग का मार्मिक चित्रण हुआ है। मिलन का वियोग में बदलना इसके भाव-सौंदर्य को निखार देता है। ऐसा अनूठा संगम कम देखने को मिलता है।
• सपना कवित्त का शिल्प-सौंदर्य ---
सयोंग-वियोग का एक साथ चित्रण। ब्रज भाषा का सुंदर प्रयोग किया गया है। ये पंक्तियाँ गयात्मक है।
निगोड़ी नींद, झहरि-झहरि झीनी में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग किया गया है। फूल न समाना में मुहावरे का सुंदर प्रयोग हुआ है। कवि की भाषा भावात्मक एवं चित्रात्मक है |
प्रश्न-9 'सोए गए भाग मेरे जानि वा जगन में' -----की विवेचना कीजिए ?
उत्तर- प्रस्तुत पंक्ति 'सपना' शीर्षक से उल्लेखित कविता से उद्धृत है | इस पंक्ति के अनुसार, जब गोपी कृष्ण के साथ झूला-झूलने जाना चाहती थी, तभी उसका नींद खुल जाता है, और गोपी का सपना टूट जाता है। लेकिन जब वह नींद से जगती है तो न ही बारिश हो रही होती है और न घटा छाई होती है, न ही कृष्ण होता है, तो गोपी कहती है मेरे तो भाग्य ही सो गए हैं। मैं जाना ही चाहती थी कि ये निगोड़ी नींद ही खुल गई मैं कृष्ण के साथ झुला-झूलने का आनंद नही ले सकी |
प्रश्न-10 'वेई छाई बूँदे मेरे आँसु ह्वै दृगन में' --- वेई छाई बूँदैं से कवि का क्या अभिप्राय है ?
उत्तर- 'वेई छाई बूँदैं' से कवि का अभिप्राय यह है कि जब नायिका का सपना टूट जाता है, तो उसकी नींद खुल जाती है, तब कृष्ण के विरह वेदना में उसके आँखो के आँसू ही बारिश की तरह बहने लगते हैं।
प्रश्न-11 देव ने दरबारी चाटुकारिता और दंभपूर्ण वातावरण पर किस प्रकार व्यंग्य किया है ?
उत्तर- प्रस्तुत पाठ के अनुसार, देव ने दरबारी चाटुकारिता और दंभपूर्ण वातावरण पर पतनशील और निष्क्रिय सामंती व्यवस्था, को लेकर दरबार में राजा तथा लोग भोग विलास में लिप्त रहते हैं। दरबारियों के साथ-साथ राजा भी अंधा है, दरबारी गूँगा तथा राजसभा बहरा हो गया है, जो कुछ देख नहीं पा रहा है। बोल नहीं पा रहा और ना ही सुन पा रहा है। कवि ने इस वतावरण पर तीखा प्रहार किया है।
प्रश्न-12 'सगरी निसि नाच्यो' से कवि का क्या आशय है ?
उत्तर- दरबार में कला और प्रतिभा का कोई महत्व नहीं है | सब कला एवं प्रतिभा से भटक गए हैं। पूरा दरबार चापलूसों की बात मानता है और चापलूस लोग दरबार को अपने इशारों पर नचा रहे हैं |
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प्रश्न-1देव की कविता में से अलंकार छाँटिए और उसकी सौदहरण विशेषताएँ बताइए |
उत्तर- (क) पहली सवैया में वियोग से व्याकुल गोपी की दशा को दर्शाने के लिए अतिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग किया है।
(ख) हरि शब्द की दो अलग रूपों में पुनः आवृत्ति के कारण यहाँ पर यमक अलंकार है।
(ग) झहरि-झहरि, घहरि-घहरि आदि में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
(घ) घहरि-घहरि घटा घेरी में अनुप्रास अलंकार का सुंदर प्रयोग है।
(ङ) ‘सोए गए भाग मेरे जानि व जगन में’ विरोधाभास अलंकार का सुंदर प्रयोग किया गया है।
(च) मुसाहिब मूक, रंग रीझ, काहू कर्म, निबरे नट इत्यादि में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है।
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देव हँसी की चोट सपना दरबार पाठ से संबंधित शब्दार्थ
• साँसनि - साँस
• समीर - वायू
• जिये - जिंदा
• अकास - आसमान
• तनुता - दुबलापन, कृशता
• हेरी - देखकर
• हरि- हरने वाला, कृष्ण
• झरहि - बरसते बूंदों जी झड़ी लगना।
• मुसाहिब - राजा के दरबारी
• औघट - कठिन, दुर्गम मार्ग
• निबरे नट - अपने कला या प्रतिभा से भटका कलाकार
• निगोड़ी - निर्दयी
• मूक - चुप
• सगरी - सम्पूर्ण
• निसि - रात |
देव
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