साहित्य समाज का दर्पण है Sahitya Samaj Ka Darpan In Hindi निबंध इन हिंदी sahitya par nibandh Hindi nibandh for board exams all competitive exams
साहित्य समाज का दर्पण है निबंध इन हिंदी
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मनुष्य विधाता की अनुपम कलाकृति का सिरमौर है। सामाजिकता उसकी प्रगति है ,उसका लालन पालन समाज में ही संपन्न होता है। जिस प्रकार विटप अपनी समृधि के लिए पृथ्वी से निरंतर रस ग्रहण किया करता है ,ठीक उसी भाँती समाज से मनुष्य अपनी मानसिक अतृप्ति को तृप्त करता है। साहित्यकार समाज का प्रतिनिधि होता है। यही कारण है कि उनके द्वारा जिस साहित्य की सर्जना होती है ,उसमें समाज का सच्चा रूप परिलक्षित होता है, क्योंकि साहित्य अच्छे-बुरे विचारों का समूहमात्र ही तो है, जिसका एकमात्र आधार-भूमि समाज ही है।
साहित्य का उद्देश्य
साहित्य समाज |
साहित्य और समाज परस्पर एक दूसरे के पूरक है, इसमें चोली-दामन का साथ है। साहित्य का मूल उद्देश्य रससृष्टि के द्वारा समाज को आनन्दित करना ही होता है। यह वैसी ही विषय वस्तुओं को अपने साहित्य का आधार बनाता है, जिनसे हमारा अत्यधिक सामीप्य होता है जिसमें भावनायें झलकती हैं। समाज राष्ट्र या युग की भावनाओं के प्रति जो साहित्य उपेक्षा भाव बर्तता है वह कदापि स्थायी और लोकप्रिय नहीं हो सकता। सच्चे और उत्कृष्ट प्रतिभा सम्पन्न कलाकार किसी देश या काल विशेष का परिस्थितियों से परे होते हैं, विश्वबन्धुत्व की भावनाओं से विभोर होकर वे आलोक दान करते हैं उससे केवल वर्तमान ही प्रकाशित नहीं होता अपितु वह दिव्य प्रकाश युग-युग के लिये प्रकाश-स्तम्भ बन जाता है। हिन्दी साहित्य जगत् के सूर, तुलसी, कबीर, केशवदास और जायसी आदि ऐसे अमर प्रतिभासम्पन्न विशिष्ट कलाकार हैं।
साहित्य और संस्कृति
साहित्यकार समाज की अभिरुचि का अनादर नहीं करता, वह अपने समाज रूपी वायुमण्डल में व्याप्त सम्पूर्ण विचारों को ग्रहण करता है और उसे कलात्मक ढंग से शब्दबद्ध कर समाज के लिए संदेश बना देता है। हर देश का साहित्य अपनी संस्कृति और संस्कारों से परिपूर्ण होता है। उदाहरणार्थ अरब प्रदेश के बन्जर में रहने वाला कवि श्रृंगार वर्णन में जहाँ नायिका की लम्बी गर्दन की उपमा सुराही से, रानों और चाल का सादृश्य ऊंट से प्रस्तुत करता है, वहीं प्रकृति की गोद में स्थित भारतीय कवि सौन्दर्य प्रदर्शन में गजगामिनी, पिकबैनी, चन्द्रमुखी जैसे सादृश्यमूलक शब्दों का सहारा लेते देखे जाते हैं।
साहित्य समाज का दर्पण
जिस प्रकार स्वच्छ आदमकद दर्पण के समक्ष खड़े होकर मनुष्य अपनी शारीरिक बनावट एवं अग-प्रत्यंगों की सुन्दरता का अवलोकन करता है ठीक उसी प्रकार हम किसी देश के सामाजिक क्रिया-कलापों, उत्थान-पतन, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक या राजनीतिक परिस्थितियों से अवगत होना चाहें, उसका अतीत कैसा था, वर्तमान स्थिति कैसी है, तो इसके लिए हमें उस देश या जाति के साहित्य का अवलोकन करना पड़ेगा। वीरगाथा कालीन राजनीतिक परिस्थितियों कवि चन्द्र, जगनिक, नरपतनाल्ह आदि की रचनाओं में विद्यमान हैं। भक्ति कालीन इतिहास सूर, तुलसी, जायसी और कबीर की रचनाओं में युग-युग के लिए अक्षुण्ण है। रीतिकाल की श्रङ्गारिकता बिहारी, देव, मतिराम की रसमयी रचनाओं में विद्यमान है, वहीं आधुनिक काल के वृहजयी (निराला, पन्त और प्रसाद) के काव्यामृत का जब हम पान करते हैं, तो देश की पराधीनता और राष्ट्रीय जागरण के स्वर से पूर्णतया परिचित हो उठते हैं। यही कारण है कि साहित्य को समाज-दर्पण की संज्ञा प्रदान की जाती है।
साहित्य के विविध रूप
साहित्य को मुख्य दो भागों में विभाजित किया जा सकता है।
- जड़ साहित्य, जिसका उद्देश्य जन-मनोरंजन करना और बाहवाही प्राप्त करना है उसे वर्तमान से ही व्यामोह होता है, भविष्य की उसे चिन्ता नहीं होती।
- निरन्तर गतिशील साहित्य जो समाज के वर्तमान की अवहेलना कर निरन्तर भविष्य की ओर कल्याणमयी दृष्टि रचना है। वह समाज की कुण्ठाओं, असुन्दरताओं के प्रति अपना असन्तोष और आक्रोश व्यक्त करता है, वह एक देदीप्यमान मशाल जलाता है जो वर्तमान का तो कोना-कोना प्रकाशित कर ही देता है, भविष्य में आने वाली पीढ़ियों के पथ-प्रदर्शक में भी वह सक्षम रहता है। अगर ज्योति के रूप में यही दूसरे कोटि का साहित्य है तथा सामाजिक स्वस्थता और समृद्धि में सहायक है, तो आज हर समाज को ऐसे ही उपदेश साहित्य की नितान्त अपेक्षा है।
साहित्य की सार्थकता
साहित्य और जीवन का अटूट-सम्बन्ध है। दोनों ही अपने स्वरूप और सन्देश के लिए एक दूसरे पर आश्रित हैं। एक बिम्ब है तो दूसरा दर्पण है। एक स्रष्टा है तो दूसरा रचना है। दोनों का एक दूसरे का प्रेरक और पूरक बन कर रहता है। साहित्य के माध्यम से ही समाज सत्यम शिवम् सुन्दरम् भव्य साधना कर सकता है और समाज को लक्ष्य बनाकर चलने पर ही साहित्य अपनी सार्थकता प्रमाणित कर सकता है।
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