साहित्य, संस्कृति और भाषा – इन तीनों का परस्पर संबंध अटूट है क्योंकि देश-दुनिया की संस्कृति की जितनी प्रभावी अभिव्यक्ति साहित्य के माध्यम से संभव है,
साहित्य, संस्कृति और भाषा
साहित्य, संस्कृति और भाषा – इन तीनों का परस्पर संबंध अटूट है क्योंकि देश-दुनिया की संस्कृति की जितनी प्रभावी अभिव्यक्ति साहित्य के माध्यम से संभव है, उतनी किसी अन्य माध्यम से नहीं; तथा यह अभिव्यक्ति भाषा पर निर्भर है। साथ ही, यह भी महत्वपूर्ण है कि ये तीनों सतत प्रवाहशील है, जड़ नहीं। साहित्य का मूल भाव ‘सहित’ है जो उसे संस्कृति का वाहक बनाता है। साहित्यकार अपने आस-पास के परिवेश से तथा अपने अनुभूत संसार से ही कथ्य ग्रहण करता है और उसे भाषाबद्ध करता है। वह अपनी संस्कृति और परिवेश को अपने अनुभवों के माध्यम से इस तरह शब्दों में पिरोता है कि पाठक को रोचक लगे। इसलिए जब हम किसी रचना को पढ़ते हैं तो उस देश-काल की स्थितियों एवं वहाँ की संस्कृति को आत्मसात करते चलते हैं। अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि साहित्य मनुष्य की संवेदनात्मक क्षमता का परिणाम है।
इसी प्रकार संस्कृति मानव जीवन को संस्कारित करने में सहायक सिद्ध होती है। संस्कृति जीवन के मानवीय मूल्यों का पुंज है। और समय के साथ-साथ इन मूल्यों को संस्कारित करना पड़ता है और यह देखना पड़ता है कि वे आज के युग में कहाँ ठहरते हैं। महादेवी के शब्दों में कहें तो संस्कृति के मूल में मानवीय तत्व हैं। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि हम इन तत्वों का कहाँ तक उपयोग कर पा रहे हैं? इन सब बातों को रचनाकार किसी न किसी साहित्यिक माध्यम के द्वारा अभिव्यक्त करता है।
तीसरे खंड में भारतीय साहित्य के विविध आयामों पर प्रकाश डाला गया है। ‘तुलनात्मक भारतीय साहित्य : अवधारणा और मूल्य’ शीर्षक आलेख में लेखक ने सामान्य साहित्य, राष्ट्रीय साहत्य और विश्व साहित्य की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कहा है कि राष्ट्रीय साहित्य द्वारा तुलनात्मक साहित्य का आधार तैयार होता है तथा तुलनात्मक अध्ययन द्वारा ही राष्ट्रीय साहित्य और उसमें निहित राष्ट्रीयता के तत्वों की पहचान की जा सकती है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि भारतीय साहित्य की पहचान का मूल आधार भारतीयता है। इस आलेख में लेखक ने भारतीय साहित्य के पारंपरिक महत्व पर भी प्रकाश डाला है।
‘आंध्रप्रदेश और तेलंगाना की पत्रकारिता’ शीर्षक आलेख में लेखक ने दोनों तेलुगु भाषी प्रांतों की पत्रकारिता के ऐतिहासिक विकास क्रम को उजागर किया है। प्रामाणिक रूप से उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि तेलुगु पत्रकारिता 19वीं सदी के दूसरे दशक से ही आरंभ हो गई थी। “इसके बाद उर्दू पत्रकारिता का उदय 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दिनों में हुआ जबकि हिंदी पत्रकारिता स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए हिंदी अभियान के दौर में और खास तौर से ब्रिटिश और निजाम शासन के विरुद्ध आर्य समाज की राष्ट्रीय गतिविधियों के साथ बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक के आरंभिक वर्षों में उदित हुई।“ (पृ. 99-100)। निश्चित रूप से यह आलेख दस्तावेजी महत्व का है।
साहित्य, संस्कृति और भाषा (2021)/ ऋषभदेव शर्मा/ अमन प्रकशन, कानपुर/ पृष्ठ 200/ मूल्य : रु 495
समीक्षक : गुर्रमकोंडा नीरजा, सह संपादक ‘स्रवंति’, सहायक आचार्य, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरताबाद, हैदराबाद – 500004. <neerajagkonda@gmail.com>
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