संध्या के बाद सुमित्रानंदन पंत Sandhya Ke Baad Class 11 Hindi Antra कविता की व्याख्या question answer explanation solutions कविता का सारांश संध्या
संध्या के बाद - सुमित्रानंदन पंत
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संध्या के बाद कविता की व्याख्या
सिमटा पंख साँझ की लाली
जा बैठी तरू अब शिखरों पर
ताम्रपर्ण पीपल से, शतमुख
झरते चंचल स्वर्णिम निझर!
ज्योति स्तंभ-सा धँस सरिता में
सूर्य क्षितिज पर होता ओझल
बृहद जिह्म ओझल केंचुल-सा
लगता चितकबरा गंगाजल!
धूपछाँह के रंग की रेती
अनिल ऊर्मियों से सर्पांकित
नील लहरियों में लोरित
पीला जल रजत जलद से बिंबित!
सिकता, सलिल, समीर सदा से,
स्नेह पाश में बँधे समुज्ज्वल,
अनिल पिघलकर सलिल, सलिल
ज्यों गति द्रव खो बन गया लवोपल!
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ संध्या के बाद कविता से उद्धृत हैं, जो कवि 'सुमित्रानंदन पंत' जी के द्वारा रचित है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि ढलती हुई शाम अपने सुन्दर लाल रंग लिए, किसी पक्षी की तरह अपने पंख समेट कर वृक्ष के सबसे ऊपर वाले शाखाओं में जाकर बैठ गया है। अब संध्या की लाली पेड़ के शाखाओं पर नज़र आ रही है। ताँबे की तरह लाल रंग के पीपल के पत्तों के समान सौ मुख वाले चंचल झरने सुनहरी धाराओं में बह रहे हैं। झरनों के जल पर सूर्य प्रकाश पड़ रहा है तथा दूर क्षितिज पर छुपता हुआ सूर्य नदी में एक स्तम्भ के समान दिखाई दे रहा है | कवि गंगा के जल को चितकबरा बताते हुए कहते हैं कि यह ऐसे लगता है मानो कोई बङा अजगर थका कर लेटा हो। नदी के तट की रेत संध्या के समय धूप-छाँव रंग की दिखाई दे रही है तथा रेत हवा के चलने पर सर्प की जैसी नज़र आती है। नदी के नीले जल की लहरों पर सूर्य का प्रतिबिंब पड़कर उसे पीला बना देता है तथा उस पर बादलों की सफेदी रजत जैसी प्रतीत होती है। रेत, पानी, हवा आपस में चमकते हुए स्नेह सूत्र से बंधे हुए होते हैं और ऐसा लगता है, जैसे हवा पिघलकर पानी बनता है तथा पानी अपनी गति तथा तरल रूप को खोकर ओले के रूप में परिवर्तित हो जाता है। कवि कहते हैं कि प्रकृति हमेशा परिवर्तन शील होती है |
शंख घट बज गया मंदिर में
लहरों में होता कंपन,
दीप शीखा-सा ज्वलित कलश
नभ में उठकर करता निराजन!
तट पर बगुलों-सी वृद्धाएँ
विधवाएँ जप ध्यान में मगन,
मंथर धारा में बहता
जिनका अदृश्य, गति अंतर-रोदन!
दूर तमस रेखाओं सी,
उड़ती पंखों सी-गति चित्रित
सोन खगों की पाँति
आर्द्र ध्वनि से निरव नभ करती मुखरित!
स्वर्ण चूर्ण-सी उड़ती गोरज
किरणों की बादल-सी जलकर,
सनन तीर-सा जाता नभ में
ज्योतित पंखों कंठों का स्वर!
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ 'संध्या के बाद' कविता से उद्धृत हैं, जो कवि 'सुमित्रानंदन पंत' जी के द्वारा रचित है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि संध्या के समय मंदिरों में आरती की तैयारी चल रही है। वहाँ शंख और घंटे बजने लगते हैं, इससे नदी की लहरों में कंपन होेने लगता है और मंदिर का कलश भी सूर्य की लाल प्रकाश के कारण दीपक की लौ की भाँति आकाश में ऊपर उठकर आरती कर रहा हो ऐसा लगता है। नदी के किनारे पर विधवा औरतें बगुलों के समान लगती हैं। वे जप-तप में मग्न रहती हैं। उनके मन में तो दुःख समाया है वे रोती रहती हैं। लेकिन उनके मन की पीड़ा नदी की मन्द धारा में बह जाती है। उनके हृदय का दुःख बाहर से दिखाई नहीं देता है। दूर आकाश में पक्षियों की उड़ती पंक्ति अंधकार में रेखाओं जैसी प्रतीत होती है। पक्षियों की पंक्ति अपनी चहचाहट से शांत आकाश में गुंजार करती है। उनकी चहचाहट से पूरा आकाश गूंज उठता है। जब संध्या के समय गायें घरों की ओर वापस लौटती हैं तो उनके खुरों से जो धूल उड़ती है, वह सूर्य के प्रकाश पड़ने से सुनहरी दिखाई देती है मानो ऐसा लगता है कि बादल की ये किरणें जल गई है। जब आकाश में पक्षियों के कंठ का तेज स्वर गूँजता है तो वह आकाश में तीर के समान सनन-सनन करते हुए निकल जाता है |
लौटे खग, गायें घर लौटीं
लौटे कृषक श्रांत श्लथ डग धर
छिपे गृह में म्लान चराचर
छाया भी हो गई अगोचर!
लौट पैंठ से व्यापारी भी
जाते घर, उस पार नाव पर,
ऊँटों, घोड़ों के संग बैठे
ख़ाली बोरों पर, हुक्का भर!
जोड़ों की सुनी द्वभा में,
झूल रही निशि छाया छाया गहरी,
डूब रहे निष्प्रभ विषाद में
खेत, बाग, गृह, तरू, तट लहरी!
बिरहा गाते गाड़ी वाले,
भूँक-भूँकर लड़ते कूकर,
हुआँ-हुआँ करते सियार,
देते विषण्ण निशि बेला को स्वर!
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ 'संध्या के बाद' कविता से उद्धृत हैं, जो कवि 'सुमित्रानंदन पंत' जी के द्वारा रचित हैं। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि संध्या के समय पक्षी और गायें अपने घर लौट रही हैं, किसान भी सारा दिन मेहनत करके थके हुए कदमों से घर लौट रहे हैं। अब सभी जीव अपने-अपने घरों में घुसकर छिप गए हैं और अंधकार के कारण अब तो उनकी छाया तक दिखाई नहीं दे रही है। गाँव के बाजार से व्यापारी भी नाव में बैठकर अपने-अपने घर लौट रहे हैं। वे ऊँट, घोड़ों के साथ खाली बोरों पर बैठकर हुक्का पी रहे हैं। सर्दियों की रात है, चारों तरफ़ सुनसान पड़ा है। संध्या ढल जाने पर रात की छाया गहरी होती जा रही है। सब कुछ अंधकार में डूबता जा रहा है ! खेत, घर, बाग-बगीचे, पेड़ किनारे तथा लहरें भी अंधकार मय हो गई है। रात के इस वातावरण में गाड़ीवाला विरह का गीत-गाते हुए चलते जा रहे हैं। रास्ते में कुत्ते भी भौं-भौं कर लड़ते दिखाई देते हैं। रात की बेला में सियार हुआँ-हुआँ की आवाज़ निकाल रहे हैं। इनके स्वरों में दुःखी रात को भी मानो आवाज़ मिल रही है |
माली की मँड़इ से उठ,
नभ के नीचे नभ-सी धूमाली
मंद पवन में तिरती
नीली रेशम की-सी हलकी जाली!
बत्ती जल दुकानों में
बैठे सब कस्बे के व्यापारी,
मौन मंद आभा में
हिम की ऊँध रही लंबी अधियारी!
धुआँ अधिक देती है
टिन की ढबरी, कम करती उजियाली,
मन से कढ़ अवसाद श्रांति
आँखों के आगे बुनती जाला!
छोटी-सी बस्ती के भीतर
लेन-देन के थोथे सपने
दीपक के मंडल में मिलकर
मँडराते घिर सुख-दुख अपने!
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ 'संध्या के बाद' कविता से उद्धृत हैं, जो कवि 'सुमित्रानंदन पंत' जी के द्वारा रचित हैं | इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि गाँव में शाम होते ही गांव के माली की झोपड़ी से धुआं-सा उठने लगता है। वह धुएँ की धार हवा में ऐसे तैरती नज़र आती है, जैसे नीले रेशम की हल्की जाली हो। इसी समय गांव-कस्बे का दुकानदार, दुकान में रोशनी के लिए बत्ती जला देते है। यह बत्ती भी रोशनी बहुत कम देती है, लेकिन इसकी आभा ऐसी मन्द पड़ जाती है कि वह रात के अँधेरे में जैसे सर्दियों की रात में मानो हिम का प्रसार ऊँघ रहा हो, जिसके कारण रात का अंधेरा बहुत लम्बा लगता है । गाँव में गरीब लोगों के द्वारा टिन की ढिबरी में बत्ती लगाकर जलाई जाती है, जिससे रौशनी भी बहुत कम होती है और धुआँ अधिक निकलता है। इस धीमी रौशनी में मन का दुःख आँखों के सामने जाल बुनता प्रतीत होता है, क्योंकि यह एक छोटी सी बस्ती है, इसमें लेन-देन की बातें करना बेकार है | यहाँ ग्राहक न के बराबर हैं। दीपक की लौ के चारों ओर सुख-दुःख ही आशाएँ मँडराते रहते हैं |
कँप-कँप उठते लौ के संग
कातर उर क्रंदन, मूक निराशा,
क्षीण ज्योति ने चुपके ज्यों
गोपन मन को दे दी हो भाषा!
लीन हो गई क्षण में बस्ती,
मिली खपरे के घर आँगन,
भूल गए लाला अपनी सुधी,
भूल गया सब ब्याज, मूलधन!
सकूची-सी परचून किराने की ढेरी
लग रही ही तुच्छतर,
इस नीरव प्रदोष में आकुल
उमड़ रहा अंतर जग बाहर!
अनुभव करता लाला का मन,
छोटी हस्ती का सस्तापन,
जाग उठा उसमें मानव,
औ’ असफल जीवन का उत्पीड़न!
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ 'संध्या के बाद' कविता से उद्धृत हैं, जो कवि 'सुमित्रानंदन पंत' जी के द्वारा रचित है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि गाँव में गरीबी का राज है। इसी कारण कापती लौ के साथ उनका हृदय दुःखी होता रहता है। उनके मुख पर निराशा छाई हुई है, परन्तु वे अपने दुख प्रकट नहीं करते चुप ही रहते हैं। इस समय जो हल्का प्रकाश है वही उसके मन में छुपे गुप्त बातों को प्रकट करता हुआ नज़र आता है। कुछ देर बाद ही सारा गाँव अंधकार में डूब जाता है। उनके कच्चे घर-आँगन सब अंधकार में विलीन हो जाते हैं। इस निराशा भरे समय में गाँव का छोटा सा दुकानदार अपनी सुध तक भूल जाता है, वह मूलधन व ब्याज का हिसाब लगाना भी भूल जाता है। गाँव के छोटे-छोटे व्यापारियों की परचून की दुकान सिमटी हुई लगती हैं, क्योंकि उसमें सामान भी बहुत कम है। वह छोटी से छोटी होती जा रही है। संध्या के इस शांत वातावरण में इस समय गांव की दुकान का लाला अपने छोटे ओहदे के कारण अपने अंदर हीन भावना का अनुभव करता है। वह हृदय से बेचैन है, क्योंकि उसमें भी मनुष्यता की भावना है व उसे अपना असफल जीवन का एहसास हो रहा है। जीवन दुःखी हो गया है |
दैन्य दु:ख अपमान ग्लानि
चिर क्षुधित पिपासा, मृत अभिलाषा,
बिना आय की क्लांति बनी रही
उसके जीवन की परिभाषा!
जड़ अनाज के ढेर सदृश ही
वह दीन-भर बैठा गद्दी पर
बात-बात पर झूठ बोलता
कौड़ी-सी स्पर्धा में मर-मर!
फिर भी क्या कुटुंब पलता है?
रहते स्वच्छ सुधर सब परिजन?
बना पा रहा वह पक्का घर?
मन में सुख है? जुटता है धन?
खिसक गई कंधों में कथड़ी
ठिठुर रहा अब सर्दी से तन,
सोच रहा बस्ती का बनिया
घोर विवशता का कारण!
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ 'संध्या के बाद' कविता से उद्धृत हैं, जो कवि 'सुमित्रानंदन पंत' जी के द्वारा रचित है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि गाँव के लोग दरिद्रता में जीवन जी रहे हैं। वे दीनता, दुःख, बेइज्जती और घृणा के भावों को झेल रहे हैं, भूखे-प्यासे रहते हैं। उनकी इच्छाएँ मर गई हैं, क्योंकि वे कभी पूरी नहीं हो पातीं। उनका आय का कोई साधन नहीं है। उनका जीवन ही दुःख की परिभाषा बन गई है। गाँव का दुकानदार मरे हुए अनाज की ढेरी के समान दिनभर दुकान की गद्दी पर बैठा रहता है, उसकी बिक्री बहुत कम है और इसी कारण वह पैसा कमाने के लिए हर बात पर झूठ बोलता है। ग्रामीण इलाके में छोटी-सी दुकानदारी के लिए बहुत ज्यादा प्रयास करने पर भी उसके परिवार का पोषण नहीं हो पाता है, उनको पहनने के लिए साफ कपड़े भी नहीं मिल पाते हैं। अपने रहने के लिए पक्का घर भी नहीं बना सकते। मन में कोई सुख नहीं है और धन भी इकट्ठा नहीं होता है। वे कंधों पर फटे कपड़ों की बनी गुदड़ी डाले हुए है और उसका शरीर सर्दी के कारण काँप रहा है, और वह यह सोचता है कि उसका जीवन इतनी विवशताओं से क्यों भरा है। उसका जीवन इतनी मजबूरी में क्यों बित रहा है |
शहरी बनियों-सा वह भी उठ
क्यों बन जाता नहीं महाजन?
रोक दिए हैं किसने उसकी
जीवन उन्नति के सब साधन?
यह क्यों संभव नहीं
व्यवस्था में जग की कुछ हो परिवर्तन?
कर्म और गुण के समान ही
सकल आय-व्यय का हो वितरण?
घुसे घरौंदे में मिट्टी के
अपनी-अपनी सोच रहे जन,
क्या ऐसा कुछ नहीं,
फूँक दे जो सबमें सामूहिक जीवन?
मिलकर जन निर्माण करे जग,
मिलकर भोग जीवन करे जीवन का,
जन विमुक्त हो जन-शोषण से,
हो समाज अधिकारी धन का ?
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ 'संध्या के बाद' कविता से उद्धृत हैं, जो कवि 'सुमित्रानंदन पंत' जी के द्वारा रचित है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि गाँव का छोटा दुकानदार यह सोचता है कि वह शहरी बनियों व्यापारियों के समान बड़ा क्यों नहीं बन पाता। उसको भी महाजन बनने का अधिकार है, लेकिन बड़ा क्यूँ नहीं बन पा रहा है। उसे यह बात समझ में नहीं आती कि उसकी तरक्की का साधन किसने रोक दिया है। उसके जीवन में उन्नति क्यों नहीं हो पाती ? क्या संसार की जो व्यवस्था चल रही है, उसमें बदलाव नहीं हो सकता। सभी के कर्म और गुण के आधार पर आय का बंटवारा होना चाहिए।गाँव के लोग अपने-अपने घरों में घुसकर सभी अपने बारे में सोच रहे हैं कि किस प्रकार लोगों में सामूहिक जीवन आए सब लोग एक समान सभी सुविधाओं का लाभ ले सकें क्या ऐसा नहीं हो सकता कि सभी लोग मिलकर एक नए संसार का निर्माण करें। सभी लोग शोषण से मुक्त हों । धन पर भी सारे समाज का समान अधिकार रहे |
दरिद्रता पापों की जननी,
मिटे जनों के पाप, ताप, भय,
सुंदर हो अधिवास, वसन, तन,
पशु पर मानव की हो जय?
वक्ति नहीं, जग की परिपाटी
दोषी जन के दु:ख क्लेश की
जन का श्रम जन में बँट जाए,
प्रजा सुखी हो देश देश की!
टूट गया वह स्वप्न वणिक का,
आई जब बुढि़या बेचारी,
आध-पाव आटा लेने
लो, लाला ने फिर डंडी मारी!
चीख उठा घुघ्घू डालों में
लोगों ने पट दिए द्वार पर,
निगल रहा बस्ती को धीरे,
गाढ़ अलस निद्रा का अजगर!
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ 'संध्या के बाद' कविता से उद्धृत हैं, जो कवि 'सुमित्रानंदन पंत' जी के द्वारा रचित है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि गरीबी सब पापों की जड़ है। लेकिन लोगों के जीवन से पाप, दुःख व भय मिटने चाहिए। लोगों को रहने के लिए सुन्दर मकान, कपड़े और स्वस्थ शरीर मिलना चाहिए, इससे पशुता की भावना पर, मानवता की भावना जीत जाएगी। इस स्थिति के लिए कोई एक व्यक्ति दोषी नहीं है बल्कि संसार की पूरी परम्परा ही इसके लिए जिम्मेदार है। लोग दुःखी हैं, मन में पीड़ा है। यदि लोगों में उनकी मेहनत का फल आपस में बँट जाए तो सारे देश की जनता सुखी हो जाएगी।गाँव का छोटा दुकानदार अकेला बैठा हुआ संसार के सभी लोगों को सुख प्राप्त हो, यही सपना देखता रहता है, लेकिन सपना टूट जाता है, जब गाँव की एक बूढ़ी स्त्री उससे आधा पाव आटा खरीदने आती है, तो वही दुकानदार कम तोलकर काटा मार के आटा देता है। कोई कुछ नहीं बोलता क्योंकि शोषक वर्ग की एक घुग्घु उन्हें चुप करा देती है। धीरे-धीरे सारा गाँव नींद में डूब जाता है, ऐसा लगता है कि नींद का अजगर उन्हें निगल रहा है |
इनकी कुछ प्रमुख कृतियाँ --- वीणा’, 'युगांत', ‘पल्लव’, ‘युगवाणी’, ‘ग्राम्या’, ‘ग्रंथि’, ‘स्वर्णकिरण’, ‘गुंजन’ एवं ‘उत्तरा’, 'कला और बुढ़ा चाँद', चिंदम्बरा, लोकायतन नामक महाकाव्य आदि...||
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए ---
प्रश्न-1 संध्या के समय सौमुखों वाला किसे कहा गया है और क्यों ?
उत्तर- प्रस्तुत पाठ के अनुसार, संध्या के समय सौमुखों वाला झरनों को कहा गया है, क्योंकि वह ताँबे की तरह लाल रंग के पीपल के पत्तों के समान सुनहरी धाराओं में बह रहे हैं |
प्रश्न-2 वृद्धाओं को कवि ने बगुलों-सा क्यों कहा है ?
उत्तर- वृद्धाओं को कवि ने बगुलों-सा इसलिए कहा है, क्योंकि वे नदी के तट पर जब जप-तप करते हैं तो उनका समूह बगुलों की तरह प्रतीत होता है |
प्रश्न-3 सोन खगों की पँक्ति कवि को कैसी लगती है ?
उत्तर- प्रस्तुत पाठ के अनुसार, सोन खगों की पँक्ति कवि को ऐसा लगता है मानो दूर आकाश में पक्षियों की उड़ती पंक्ति अंधकार में रेखाओं जैसी प्रतीत होती है। पक्षियों की पंक्ति अपनी चहचाहट से शांत आकाश में गुंजार करती है। उनकी चहचहाहट से पूरा आकाश गूंज उठता है |
प्रश्न-4 'पीला जल रजत जलद से बिंबित!' से कवि का क्या आशय है ?
उत्तर- 'पीला जल रजत जलद से बिंबित!' से कवि का आशय है की नदी के नीले जल की लहरों पर सूर्य का प्रतिबिंब पड़कर उसे पीला बना देता है तथा उस पर बादलों की सफेदी रजत जैसी प्रतीत होती है।
प्रश्न-5 सिकता, सलिल, समीर किसके स्नेह सूत्र से बंधे हुए हैं ?
उत्तर- सिकता, सलिल, समीर आपस में चमकते हुए स्नेह सूत्र से बंधे होते हैं |
प्रश्न-6 निम्नलिखित पंक्तियों के काव्य सौंदर्य स्पष्ट कीजिए ---
(क)- तट पर बगुलों-सी वृद्धाएँ
विधवाएँ जप ध्यान में मगन,
मंथर धारा में बहता
जिनका अदृश्य, गति अंतर-रोदन !
उत्तर- पहली पंक्ति में ‘बगुलों-सी वृद्धाएँ में उपमा अलंकार है। कवि ने इन पंक्तियों में तत्सम शब्दों का प्रयोग किया है एवं प्रकृति का चित्रण किया गया है |
प्रश्न-7 ‘कर्म और गुण के समान …………. हो वितरण’ पंक्ति के माध्यम से कवि कैसे समाज की ओर संकेत कर रहा है ?
उत्तर- इस पंक्ति में कवि कहते हैं मनुष्य के कर्म और गुणों के आधार पर आय का वितरण होना चाहिए। ऐसे में प्रत्येक मनुष्य को उसके गुणों और कार्य करने के आधार पर आय मिलेगा, इससे आय का सही प्रकार से बँटवारा हो सकेगा। ये समाजवाद के गुण हैं, जिससे अच्छा समाज का नवनिर्माण होगा और सभी के पास समान आमदनी और खर्च होगा। कोई गरीब या अमीर नही होगा।
योग्यता-विस्तार
प्रश्न-8 कविता में निम्नालिखित उपमान किसके लिए आए हैं लिखिए ---
उत्तर- (क) ज्यों स्तम्भ-सा -- सूरज
(ख) केंचुल-सा -- गंगा का जल
(ग) दीपशिखा-सा -- कलश
(घ) बगुलों-सी -- वृद्ध विधवा औरतें
(ङ) स्वर्ण चूर्ण-सी -- गायों के पाँव से उड़ने वाली गोधूली
(च) सनन् तीर-सा -- कंठ का स्वर |
• तरुशिखर - वृक्ष का ऊपरी हिस्सा
• ताम्रपर्ण - ताँबे की तरह लाल रंग के पत्ते
• विश्थल - थका हुआ
• जिह्य - मन्द
• ऊर्मियों - लहरों
• लोड़ित - मथित (मथा हुआ)
• सिकता - रेत , बालू
• आद्र - नम
• गोरज - गोधूली
• मँडई - झोपड़ी, कुटिया
• ढिबरी - तेल से जलाने वाला छोटा सा दिया
• खपरा - मिट्टी की मकान में छत बनाने वाला मिट्टी की आकृति
• कथड़ी - गुदड़ी, पुराने कपड़े से बना हुआ
• अधिवास - निवास स्थान, घर
• परिपाटी - परम्परा |
जा बैठी तरू अब शिखरों पर
ताम्रपर्ण पीपल से, शतमुख
झरते चंचल स्वर्णिम निझर!
ज्योति स्तंभ-सा धँस सरिता में
सूर्य क्षितिज पर होता ओझल
बृहद जिह्म ओझल केंचुल-सा
लगता चितकबरा गंगाजल!
धूपछाँह के रंग की रेती
अनिल ऊर्मियों से सर्पांकित
नील लहरियों में लोरित
पीला जल रजत जलद से बिंबित!
सिकता, सलिल, समीर सदा से,
स्नेह पाश में बँधे समुज्ज्वल,
अनिल पिघलकर सलिल, सलिल
ज्यों गति द्रव खो बन गया लवोपल!
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ संध्या के बाद कविता से उद्धृत हैं, जो कवि 'सुमित्रानंदन पंत' जी के द्वारा रचित है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि ढलती हुई शाम अपने सुन्दर लाल रंग लिए, किसी पक्षी की तरह अपने पंख समेट कर वृक्ष के सबसे ऊपर वाले शाखाओं में जाकर बैठ गया है। अब संध्या की लाली पेड़ के शाखाओं पर नज़र आ रही है। ताँबे की तरह लाल रंग के पीपल के पत्तों के समान सौ मुख वाले चंचल झरने सुनहरी धाराओं में बह रहे हैं। झरनों के जल पर सूर्य प्रकाश पड़ रहा है तथा दूर क्षितिज पर छुपता हुआ सूर्य नदी में एक स्तम्भ के समान दिखाई दे रहा है | कवि गंगा के जल को चितकबरा बताते हुए कहते हैं कि यह ऐसे लगता है मानो कोई बङा अजगर थका कर लेटा हो। नदी के तट की रेत संध्या के समय धूप-छाँव रंग की दिखाई दे रही है तथा रेत हवा के चलने पर सर्प की जैसी नज़र आती है। नदी के नीले जल की लहरों पर सूर्य का प्रतिबिंब पड़कर उसे पीला बना देता है तथा उस पर बादलों की सफेदी रजत जैसी प्रतीत होती है। रेत, पानी, हवा आपस में चमकते हुए स्नेह सूत्र से बंधे हुए होते हैं और ऐसा लगता है, जैसे हवा पिघलकर पानी बनता है तथा पानी अपनी गति तथा तरल रूप को खोकर ओले के रूप में परिवर्तित हो जाता है। कवि कहते हैं कि प्रकृति हमेशा परिवर्तन शील होती है |
सुमित्रानंदन पंत |
शंख घट बज गया मंदिर में
लहरों में होता कंपन,
दीप शीखा-सा ज्वलित कलश
नभ में उठकर करता निराजन!
तट पर बगुलों-सी वृद्धाएँ
विधवाएँ जप ध्यान में मगन,
मंथर धारा में बहता
जिनका अदृश्य, गति अंतर-रोदन!
दूर तमस रेखाओं सी,
उड़ती पंखों सी-गति चित्रित
सोन खगों की पाँति
आर्द्र ध्वनि से निरव नभ करती मुखरित!
स्वर्ण चूर्ण-सी उड़ती गोरज
किरणों की बादल-सी जलकर,
सनन तीर-सा जाता नभ में
ज्योतित पंखों कंठों का स्वर!
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ 'संध्या के बाद' कविता से उद्धृत हैं, जो कवि 'सुमित्रानंदन पंत' जी के द्वारा रचित है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि संध्या के समय मंदिरों में आरती की तैयारी चल रही है। वहाँ शंख और घंटे बजने लगते हैं, इससे नदी की लहरों में कंपन होेने लगता है और मंदिर का कलश भी सूर्य की लाल प्रकाश के कारण दीपक की लौ की भाँति आकाश में ऊपर उठकर आरती कर रहा हो ऐसा लगता है। नदी के किनारे पर विधवा औरतें बगुलों के समान लगती हैं। वे जप-तप में मग्न रहती हैं। उनके मन में तो दुःख समाया है वे रोती रहती हैं। लेकिन उनके मन की पीड़ा नदी की मन्द धारा में बह जाती है। उनके हृदय का दुःख बाहर से दिखाई नहीं देता है। दूर आकाश में पक्षियों की उड़ती पंक्ति अंधकार में रेखाओं जैसी प्रतीत होती है। पक्षियों की पंक्ति अपनी चहचाहट से शांत आकाश में गुंजार करती है। उनकी चहचाहट से पूरा आकाश गूंज उठता है। जब संध्या के समय गायें घरों की ओर वापस लौटती हैं तो उनके खुरों से जो धूल उड़ती है, वह सूर्य के प्रकाश पड़ने से सुनहरी दिखाई देती है मानो ऐसा लगता है कि बादल की ये किरणें जल गई है। जब आकाश में पक्षियों के कंठ का तेज स्वर गूँजता है तो वह आकाश में तीर के समान सनन-सनन करते हुए निकल जाता है |
लौटे खग, गायें घर लौटीं
लौटे कृषक श्रांत श्लथ डग धर
छिपे गृह में म्लान चराचर
छाया भी हो गई अगोचर!
लौट पैंठ से व्यापारी भी
जाते घर, उस पार नाव पर,
ऊँटों, घोड़ों के संग बैठे
ख़ाली बोरों पर, हुक्का भर!
जोड़ों की सुनी द्वभा में,
झूल रही निशि छाया छाया गहरी,
डूब रहे निष्प्रभ विषाद में
खेत, बाग, गृह, तरू, तट लहरी!
बिरहा गाते गाड़ी वाले,
भूँक-भूँकर लड़ते कूकर,
हुआँ-हुआँ करते सियार,
देते विषण्ण निशि बेला को स्वर!
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ 'संध्या के बाद' कविता से उद्धृत हैं, जो कवि 'सुमित्रानंदन पंत' जी के द्वारा रचित हैं। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि संध्या के समय पक्षी और गायें अपने घर लौट रही हैं, किसान भी सारा दिन मेहनत करके थके हुए कदमों से घर लौट रहे हैं। अब सभी जीव अपने-अपने घरों में घुसकर छिप गए हैं और अंधकार के कारण अब तो उनकी छाया तक दिखाई नहीं दे रही है। गाँव के बाजार से व्यापारी भी नाव में बैठकर अपने-अपने घर लौट रहे हैं। वे ऊँट, घोड़ों के साथ खाली बोरों पर बैठकर हुक्का पी रहे हैं। सर्दियों की रात है, चारों तरफ़ सुनसान पड़ा है। संध्या ढल जाने पर रात की छाया गहरी होती जा रही है। सब कुछ अंधकार में डूबता जा रहा है ! खेत, घर, बाग-बगीचे, पेड़ किनारे तथा लहरें भी अंधकार मय हो गई है। रात के इस वातावरण में गाड़ीवाला विरह का गीत-गाते हुए चलते जा रहे हैं। रास्ते में कुत्ते भी भौं-भौं कर लड़ते दिखाई देते हैं। रात की बेला में सियार हुआँ-हुआँ की आवाज़ निकाल रहे हैं। इनके स्वरों में दुःखी रात को भी मानो आवाज़ मिल रही है |
माली की मँड़इ से उठ,
नभ के नीचे नभ-सी धूमाली
मंद पवन में तिरती
नीली रेशम की-सी हलकी जाली!
बत्ती जल दुकानों में
बैठे सब कस्बे के व्यापारी,
मौन मंद आभा में
हिम की ऊँध रही लंबी अधियारी!
धुआँ अधिक देती है
टिन की ढबरी, कम करती उजियाली,
मन से कढ़ अवसाद श्रांति
आँखों के आगे बुनती जाला!
छोटी-सी बस्ती के भीतर
लेन-देन के थोथे सपने
दीपक के मंडल में मिलकर
मँडराते घिर सुख-दुख अपने!
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ 'संध्या के बाद' कविता से उद्धृत हैं, जो कवि 'सुमित्रानंदन पंत' जी के द्वारा रचित हैं | इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि गाँव में शाम होते ही गांव के माली की झोपड़ी से धुआं-सा उठने लगता है। वह धुएँ की धार हवा में ऐसे तैरती नज़र आती है, जैसे नीले रेशम की हल्की जाली हो। इसी समय गांव-कस्बे का दुकानदार, दुकान में रोशनी के लिए बत्ती जला देते है। यह बत्ती भी रोशनी बहुत कम देती है, लेकिन इसकी आभा ऐसी मन्द पड़ जाती है कि वह रात के अँधेरे में जैसे सर्दियों की रात में मानो हिम का प्रसार ऊँघ रहा हो, जिसके कारण रात का अंधेरा बहुत लम्बा लगता है । गाँव में गरीब लोगों के द्वारा टिन की ढिबरी में बत्ती लगाकर जलाई जाती है, जिससे रौशनी भी बहुत कम होती है और धुआँ अधिक निकलता है। इस धीमी रौशनी में मन का दुःख आँखों के सामने जाल बुनता प्रतीत होता है, क्योंकि यह एक छोटी सी बस्ती है, इसमें लेन-देन की बातें करना बेकार है | यहाँ ग्राहक न के बराबर हैं। दीपक की लौ के चारों ओर सुख-दुःख ही आशाएँ मँडराते रहते हैं |
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कँप-कँप उठते लौ के संग
कातर उर क्रंदन, मूक निराशा,
क्षीण ज्योति ने चुपके ज्यों
गोपन मन को दे दी हो भाषा!
लीन हो गई क्षण में बस्ती,
मिली खपरे के घर आँगन,
भूल गए लाला अपनी सुधी,
भूल गया सब ब्याज, मूलधन!
सकूची-सी परचून किराने की ढेरी
लग रही ही तुच्छतर,
इस नीरव प्रदोष में आकुल
उमड़ रहा अंतर जग बाहर!
अनुभव करता लाला का मन,
छोटी हस्ती का सस्तापन,
जाग उठा उसमें मानव,
औ’ असफल जीवन का उत्पीड़न!
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ 'संध्या के बाद' कविता से उद्धृत हैं, जो कवि 'सुमित्रानंदन पंत' जी के द्वारा रचित है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि गाँव में गरीबी का राज है। इसी कारण कापती लौ के साथ उनका हृदय दुःखी होता रहता है। उनके मुख पर निराशा छाई हुई है, परन्तु वे अपने दुख प्रकट नहीं करते चुप ही रहते हैं। इस समय जो हल्का प्रकाश है वही उसके मन में छुपे गुप्त बातों को प्रकट करता हुआ नज़र आता है। कुछ देर बाद ही सारा गाँव अंधकार में डूब जाता है। उनके कच्चे घर-आँगन सब अंधकार में विलीन हो जाते हैं। इस निराशा भरे समय में गाँव का छोटा सा दुकानदार अपनी सुध तक भूल जाता है, वह मूलधन व ब्याज का हिसाब लगाना भी भूल जाता है। गाँव के छोटे-छोटे व्यापारियों की परचून की दुकान सिमटी हुई लगती हैं, क्योंकि उसमें सामान भी बहुत कम है। वह छोटी से छोटी होती जा रही है। संध्या के इस शांत वातावरण में इस समय गांव की दुकान का लाला अपने छोटे ओहदे के कारण अपने अंदर हीन भावना का अनुभव करता है। वह हृदय से बेचैन है, क्योंकि उसमें भी मनुष्यता की भावना है व उसे अपना असफल जीवन का एहसास हो रहा है। जीवन दुःखी हो गया है |
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चिर क्षुधित पिपासा, मृत अभिलाषा,
बिना आय की क्लांति बनी रही
उसके जीवन की परिभाषा!
जड़ अनाज के ढेर सदृश ही
वह दीन-भर बैठा गद्दी पर
बात-बात पर झूठ बोलता
कौड़ी-सी स्पर्धा में मर-मर!
फिर भी क्या कुटुंब पलता है?
रहते स्वच्छ सुधर सब परिजन?
बना पा रहा वह पक्का घर?
मन में सुख है? जुटता है धन?
खिसक गई कंधों में कथड़ी
ठिठुर रहा अब सर्दी से तन,
सोच रहा बस्ती का बनिया
घोर विवशता का कारण!
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ 'संध्या के बाद' कविता से उद्धृत हैं, जो कवि 'सुमित्रानंदन पंत' जी के द्वारा रचित है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि गाँव के लोग दरिद्रता में जीवन जी रहे हैं। वे दीनता, दुःख, बेइज्जती और घृणा के भावों को झेल रहे हैं, भूखे-प्यासे रहते हैं। उनकी इच्छाएँ मर गई हैं, क्योंकि वे कभी पूरी नहीं हो पातीं। उनका आय का कोई साधन नहीं है। उनका जीवन ही दुःख की परिभाषा बन गई है। गाँव का दुकानदार मरे हुए अनाज की ढेरी के समान दिनभर दुकान की गद्दी पर बैठा रहता है, उसकी बिक्री बहुत कम है और इसी कारण वह पैसा कमाने के लिए हर बात पर झूठ बोलता है। ग्रामीण इलाके में छोटी-सी दुकानदारी के लिए बहुत ज्यादा प्रयास करने पर भी उसके परिवार का पोषण नहीं हो पाता है, उनको पहनने के लिए साफ कपड़े भी नहीं मिल पाते हैं। अपने रहने के लिए पक्का घर भी नहीं बना सकते। मन में कोई सुख नहीं है और धन भी इकट्ठा नहीं होता है। वे कंधों पर फटे कपड़ों की बनी गुदड़ी डाले हुए है और उसका शरीर सर्दी के कारण काँप रहा है, और वह यह सोचता है कि उसका जीवन इतनी विवशताओं से क्यों भरा है। उसका जीवन इतनी मजबूरी में क्यों बित रहा है |
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शहरी बनियों-सा वह भी उठ
क्यों बन जाता नहीं महाजन?
रोक दिए हैं किसने उसकी
जीवन उन्नति के सब साधन?
यह क्यों संभव नहीं
व्यवस्था में जग की कुछ हो परिवर्तन?
कर्म और गुण के समान ही
सकल आय-व्यय का हो वितरण?
घुसे घरौंदे में मिट्टी के
अपनी-अपनी सोच रहे जन,
क्या ऐसा कुछ नहीं,
फूँक दे जो सबमें सामूहिक जीवन?
मिलकर जन निर्माण करे जग,
मिलकर भोग जीवन करे जीवन का,
जन विमुक्त हो जन-शोषण से,
हो समाज अधिकारी धन का ?
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ 'संध्या के बाद' कविता से उद्धृत हैं, जो कवि 'सुमित्रानंदन पंत' जी के द्वारा रचित है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि गाँव का छोटा दुकानदार यह सोचता है कि वह शहरी बनियों व्यापारियों के समान बड़ा क्यों नहीं बन पाता। उसको भी महाजन बनने का अधिकार है, लेकिन बड़ा क्यूँ नहीं बन पा रहा है। उसे यह बात समझ में नहीं आती कि उसकी तरक्की का साधन किसने रोक दिया है। उसके जीवन में उन्नति क्यों नहीं हो पाती ? क्या संसार की जो व्यवस्था चल रही है, उसमें बदलाव नहीं हो सकता। सभी के कर्म और गुण के आधार पर आय का बंटवारा होना चाहिए।गाँव के लोग अपने-अपने घरों में घुसकर सभी अपने बारे में सोच रहे हैं कि किस प्रकार लोगों में सामूहिक जीवन आए सब लोग एक समान सभी सुविधाओं का लाभ ले सकें क्या ऐसा नहीं हो सकता कि सभी लोग मिलकर एक नए संसार का निर्माण करें। सभी लोग शोषण से मुक्त हों । धन पर भी सारे समाज का समान अधिकार रहे |
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मिटे जनों के पाप, ताप, भय,
सुंदर हो अधिवास, वसन, तन,
पशु पर मानव की हो जय?
वक्ति नहीं, जग की परिपाटी
दोषी जन के दु:ख क्लेश की
जन का श्रम जन में बँट जाए,
प्रजा सुखी हो देश देश की!
टूट गया वह स्वप्न वणिक का,
आई जब बुढि़या बेचारी,
आध-पाव आटा लेने
लो, लाला ने फिर डंडी मारी!
चीख उठा घुघ्घू डालों में
लोगों ने पट दिए द्वार पर,
निगल रहा बस्ती को धीरे,
गाढ़ अलस निद्रा का अजगर!
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ 'संध्या के बाद' कविता से उद्धृत हैं, जो कवि 'सुमित्रानंदन पंत' जी के द्वारा रचित है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि गरीबी सब पापों की जड़ है। लेकिन लोगों के जीवन से पाप, दुःख व भय मिटने चाहिए। लोगों को रहने के लिए सुन्दर मकान, कपड़े और स्वस्थ शरीर मिलना चाहिए, इससे पशुता की भावना पर, मानवता की भावना जीत जाएगी। इस स्थिति के लिए कोई एक व्यक्ति दोषी नहीं है बल्कि संसार की पूरी परम्परा ही इसके लिए जिम्मेदार है। लोग दुःखी हैं, मन में पीड़ा है। यदि लोगों में उनकी मेहनत का फल आपस में बँट जाए तो सारे देश की जनता सुखी हो जाएगी।गाँव का छोटा दुकानदार अकेला बैठा हुआ संसार के सभी लोगों को सुख प्राप्त हो, यही सपना देखता रहता है, लेकिन सपना टूट जाता है, जब गाँव की एक बूढ़ी स्त्री उससे आधा पाव आटा खरीदने आती है, तो वही दुकानदार कम तोलकर काटा मार के आटा देता है। कोई कुछ नहीं बोलता क्योंकि शोषक वर्ग की एक घुग्घु उन्हें चुप करा देती है। धीरे-धीरे सारा गाँव नींद में डूब जाता है, ऐसा लगता है कि नींद का अजगर उन्हें निगल रहा है |
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सुमित्रानंदन पंत का जीवन परिचय
प्रस्तुत पाठ के लेखक सुमित्रानंदन पंत जी हैं | सुमित्रानंदन पंत जी का जन्म सन् 1900 में उत्तरांचल के अल्मोड़ा जिले के कौसानी गाँव में हुआ था। इन्होंने प्रारंभिक शिक्षा 'अल्मोड़ा' में ही प्राप्त किया। लेकिन उच्च शिक्षा इलाहाबाद बनारस से ग्रहण किया था। पंत जी बचपन से ही काव्य रचना करते थे। लेकिन वास्तव में कवि का कार्य बाद में प्रारम्भ हुआ। पंत जी प्रकृति प्रेमी एवं सौन्दर्य के कवि माने जाते हैं। छायावादी कवियों में सबसे भावुक एवं कल्पनाशील कवि पंत जी हैं। इनकी कविताओं में पल-पल बदलते प्रकृति के सजीव चित्रण स्प्ष्ट दिखाई देते हैं। ये प्रकृति के साथ ही मानव सौंदर्य के भी कुशल चितेरे हैं। कल्पनाशीलता, रहस्यानुभूति, और मानवतावादी उनके काव्य के प्रमुख विशेषताएँ हैं। पंत जी का पूरा साहित्य आधुनिक चेतना का वाहक है। पंत जी की भाषा शैली अत्यंत सरल, सहज, भावपूर्ण एवं प्रभावशाली है। उन्होंने अपनी रचनाओं में खड़ी-बोली हिंदी की काव्य-भाषा की व्यंजना शक्ति का विकास किया और उसे भावों तथा विचारों की अभिव्यक्ति के लिए अधिक सक्षम बनाया। इस कारण उन्हें शब्द-शिल्पी कवि भी कहा जाता है। पंत जी को अनेक पुरस्करों से सम्मानित किया गया था, जिनमें --- 'साहित्य अकादमी पुरस्कार', 'भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार', 'पद्मभूषण', 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' प्रमुख है।इनकी कुछ प्रमुख कृतियाँ --- वीणा’, 'युगांत', ‘पल्लव’, ‘युगवाणी’, ‘ग्राम्या’, ‘ग्रंथि’, ‘स्वर्णकिरण’, ‘गुंजन’ एवं ‘उत्तरा’, 'कला और बुढ़ा चाँद', चिंदम्बरा, लोकायतन नामक महाकाव्य आदि...||
संध्या के बाद कविता का सारांश
प्रस्तुत पाठ संध्या के बाद लेखक सुमित्रानंदन पंत जी के द्वारा रचित है। इस कविता में कवि ने गाँव के सौंदर्य का वर्णन किया है | इसमें कवि ने संध्या के समय गाँव में बदलते वातावरण , जनजीवन और प्रकृति का बहुत ही सुंदर चित्रण किया है। सूर्य की लालिमा, नदियों की लहरें, पक्षीयों की चहचाहट आकाश के सफेद बादल नदियों के तट की रेत ठण्ड से कड़कड़ाती रात में जैसे ही सूर्य का प्रकाश छुपता है और धीर-धीरे सारा बस्ती अंधकार में विलीन हो जाता है। ढलते शाम में गाँव की विधवाएं, खेत से लौटते किसान, पशु-पक्षी, का विशेष उल्लेख हुआ है। गाँव के किसानों, और दुकानदारों की दयनीय स्तिथियों, गरीबी और उनके हृदय की पीड़ा को बताया गया है। वे लाचार हैं उनके पास परिवार के पालन-पोषण के लिए आय का साधन नहीं है | फटे-पुराने कपड़ों से गुजारा कर रहें हैं। जीवन जैसे-तैसे चल रहा है। उनका मन बहुत दुखी है | वे सोचते हैं कि वे इतने मजबूर क्यूँ है ? क्या हमें खुश होने का अधिकार नही है ? हमारे जीवन में इतना दुःख क्यों है ? कवि ने पूरे गाँव की समस्याओं को इस कविता के माध्यम से पाठकों को बताने का प्रयास किया है कि गाँव बहुत सुन्दर होता है। लेकिन गाँव के लोगों की दशा बहुत ही दयनीय है। इस कविता में ग्रामीण जन-जीवन को बहुत ही सरल और स्पष्ट भाव में व्यक्त किया गया है...||संध्या के बाद कविता के प्रश्न उत्तर
प्रश्न-1 संध्या के समय सौमुखों वाला किसे कहा गया है और क्यों ?
उत्तर- प्रस्तुत पाठ के अनुसार, संध्या के समय सौमुखों वाला झरनों को कहा गया है, क्योंकि वह ताँबे की तरह लाल रंग के पीपल के पत्तों के समान सुनहरी धाराओं में बह रहे हैं |
प्रश्न-2 वृद्धाओं को कवि ने बगुलों-सा क्यों कहा है ?
उत्तर- वृद्धाओं को कवि ने बगुलों-सा इसलिए कहा है, क्योंकि वे नदी के तट पर जब जप-तप करते हैं तो उनका समूह बगुलों की तरह प्रतीत होता है |
प्रश्न-3 सोन खगों की पँक्ति कवि को कैसी लगती है ?
उत्तर- प्रस्तुत पाठ के अनुसार, सोन खगों की पँक्ति कवि को ऐसा लगता है मानो दूर आकाश में पक्षियों की उड़ती पंक्ति अंधकार में रेखाओं जैसी प्रतीत होती है। पक्षियों की पंक्ति अपनी चहचाहट से शांत आकाश में गुंजार करती है। उनकी चहचहाहट से पूरा आकाश गूंज उठता है |
प्रश्न-4 'पीला जल रजत जलद से बिंबित!' से कवि का क्या आशय है ?
उत्तर- 'पीला जल रजत जलद से बिंबित!' से कवि का आशय है की नदी के नीले जल की लहरों पर सूर्य का प्रतिबिंब पड़कर उसे पीला बना देता है तथा उस पर बादलों की सफेदी रजत जैसी प्रतीत होती है।
प्रश्न-5 सिकता, सलिल, समीर किसके स्नेह सूत्र से बंधे हुए हैं ?
उत्तर- सिकता, सलिल, समीर आपस में चमकते हुए स्नेह सूत्र से बंधे होते हैं |
प्रश्न-6 निम्नलिखित पंक्तियों के काव्य सौंदर्य स्पष्ट कीजिए ---
(क)- तट पर बगुलों-सी वृद्धाएँ
विधवाएँ जप ध्यान में मगन,
मंथर धारा में बहता
जिनका अदृश्य, गति अंतर-रोदन !
उत्तर- पहली पंक्ति में ‘बगुलों-सी वृद्धाएँ में उपमा अलंकार है। कवि ने इन पंक्तियों में तत्सम शब्दों का प्रयोग किया है एवं प्रकृति का चित्रण किया गया है |
प्रश्न-7 ‘कर्म और गुण के समान …………. हो वितरण’ पंक्ति के माध्यम से कवि कैसे समाज की ओर संकेत कर रहा है ?
उत्तर- इस पंक्ति में कवि कहते हैं मनुष्य के कर्म और गुणों के आधार पर आय का वितरण होना चाहिए। ऐसे में प्रत्येक मनुष्य को उसके गुणों और कार्य करने के आधार पर आय मिलेगा, इससे आय का सही प्रकार से बँटवारा हो सकेगा। ये समाजवाद के गुण हैं, जिससे अच्छा समाज का नवनिर्माण होगा और सभी के पास समान आमदनी और खर्च होगा। कोई गरीब या अमीर नही होगा।
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योग्यता-विस्तार
प्रश्न-8 कविता में निम्नालिखित उपमान किसके लिए आए हैं लिखिए ---
उत्तर- (क) ज्यों स्तम्भ-सा -- सूरज
(ख) केंचुल-सा -- गंगा का जल
(ग) दीपशिखा-सा -- कलश
(घ) बगुलों-सी -- वृद्ध विधवा औरतें
(ङ) स्वर्ण चूर्ण-सी -- गायों के पाँव से उड़ने वाली गोधूली
(च) सनन् तीर-सा -- कंठ का स्वर |
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संध्या के बाद कविता से संबंधित शब्दार्थ
• तरुशिखर - वृक्ष का ऊपरी हिस्सा
• ताम्रपर्ण - ताँबे की तरह लाल रंग के पत्ते
• विश्थल - थका हुआ
• जिह्य - मन्द
• ऊर्मियों - लहरों
• लोड़ित - मथित (मथा हुआ)
• सिकता - रेत , बालू
• आद्र - नम
• गोरज - गोधूली
• मँडई - झोपड़ी, कुटिया
• ढिबरी - तेल से जलाने वाला छोटा सा दिया
• खपरा - मिट्टी की मकान में छत बनाने वाला मिट्टी की आकृति
• कथड़ी - गुदड़ी, पुराने कपड़े से बना हुआ
• अधिवास - निवास स्थान, घर
• परिपाटी - परम्परा |
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