कई विकसित देशों में महिलाओं को मताधिकार के लिए लंबे समय तक आंदोलन एवं संघर्ष करना पड़ा हैं, जबकि भारत में महिलाओं को संविधान लागू होने के तुरंत बाद मता
सत्ता के गलियारों में दस्तक देती महिलाएँ (1951-2019)
कई विकसित देशों में महिलाओं को मताधिकार के लिए लंबे समय तक आंदोलन एवं संघर्ष करना पड़ा हैं, जबकि भारत में महिलाओं को संविधान लागू होने के तुरंत बाद मताधिकार प्राप्त हुआ l यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता हैं कि, मताधिकार से भारतीय नारी को क्या प्राप्त हुआ ? मताधिकार मिलने के 71 वर्षों बाद भी भारतीय राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में कोई खास सुधार एवं बढ़ोतरी नज़र नहीं आती l भारत में महिलाएँ राजनीति, शासन एवं सत्ता में आज भी उस स्थान और हिस्सेदारी से वंचित हैं जिसकी वे हकदार हैं l भारतीय राजनीति, शासन एवं सत्ता में महिलाओं की भागीदारी के अध्ययन के पश्चात लगता हैं कि, भारत में महिलाओं को मिला मताधिकार केवल एक लोकतांत्रिक औपचारिकता मात्र बन कर रहे गया हैं l लेखक एवं लेखिका के कथन का आधार हैं वे आँकड़े जो महिला सशक्तिकरण की पोल खोलते हैं l भारत को आज़ाद हुए 73 वर्ष से अधिक समय बीत गया परंतू अभी तक जनसँख्या के अनुपात में महिलाओं का प्रतिनिधित्व संसद में देखने को नहीं मिलता l सतरहवीं लोकसभा की बात करें तो संसद के निचले सदन अर्थात लोकसभा में मात्र 78 महिला सांसद अर्थात कुल ताकत का केवल 14.36 % महिलाएँ जीत कर आई हैं l यह स्थिती तब हैं, जबकि मौजूदा लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व अब तक गठीत लोकसभाओं में सर्वाधिक हैं l
*परिचय :-
लोकसभा में स्वतंत्रता के सात दशकों बाद भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व एवं भागीदारी समाधानकारक नहीं हैं l भारत की आधी आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा अपनी मुलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने हेतू संघर्ष करता नज़र आता हैं l इन्हें विकास की मुख्य धारा से जोड़ना समय का तकाज़ा हैं l भारतीय समाज में पितृसत्तात्मक ढाँचे एवं व्यवस्था का अस्तित्व एक बड़ा कारण हैं कि, आज हमें भारतीय राजनीति में पुरुषों का वर्चस्व नज़र आता हैं एवं महिलाएँ अपनी आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व के लिएझुंजती हुई नज़र आती हैं l हालात चौंकाने वाले हैं परंतू ऐसा नहीं हैं कि, महिलाएँ मताधिकार का उपयोग नहीं करती या फिर वोट डालने नहीं जाती l सात दशकों से अधिक के इस लोकतंत्र में चुनाव दर चुनाव मतदान में महिलाओं की हिस्सेदारी में निरंतर इज़ाफ़ा हुआ हैं l ऐसे में यह अनिवार्य हो जाता हैं कि, लोकसभा चुनावों के विभिन्न स्तरों पर महिलाओं की भागीदारी का विश्लेषण किया जाए ताकि यह पता लगाया जा सके कि, जब महिलाएँ वोट देने में आगे हैं तो फिर उन्हें टिकट देने के मामले में राजनीतिक दल क्यों पिछड़ जाते हैं ? आज़ादी के सात दशकों बाद भी भारतीय राजनीति में असमानता क्यों हैं ? प्रस्तुत अनुसंधान पत्र इन्हीं प्रश्नों को ध्यान में रख कर लोकसभा में महिलाओं के प्रतिनिधित्व एवं महिला राजनीति का विश्लेषण करता हैं l साथ ही प्रस्तुत प्रश्नों के उत्तरों की खोज करते हुए वर्तमान महिला स्थिती की जाँच पड़ताल भी प्रस्तुत शोध पत्र करता हैं l
*अनुसंधान :-
*महिला मतदाता :- (1951-2019)
*स्रोत : भारतीय निर्वाचन आयोग (1951-2019)
*NA : Not Available
*यहाँ केवल 1984 में लोकसभा सीटों के लिए संपन्न हुए लोकसभा चुनावों के आँकड़े दर्ज किये गए हैं जबकि आसाम एवं पंजाब की स्थानिक परिस्थितियों को देखते हुए वहाँ लोकसभा के चुनाव 1985 में संपन्न हुए जिन के आँकड़े उपरोक्त सारणी में सम्मिलीत नहीं हैं l
#पंजाब में लोकसभा सीटों के लिए 1992 में चुनाव संपन्न हुए l
देश के चुनावों में मतदान करने के लिए महिलाओं की संख्या बढ़ रही है I खासकर ग्रामीण इलाकों में महिलाएं मतदान करने के मामले में पुरुषों से आगे निकल रही हैं l ऐसे में राजनैतिक दल अब महिला मु्द्दों को घोषणा-पत्रों में शामिल करने पर बाध्य हुए हैं l उत्तर भारत में ग्रामीण राजनीति में 'प्रधान पति' एक बेहद प्रचलित अनौपचारिक पद है l पंचायत में महिलाओं को आरक्षण मिलने के बाद उनकी पद की कागजी दावेदारी तो पक्की हो गई थी लेकिन सामाजिक सोच उनके आड़े आती रही l महिलाओं को वोट डालने का अधिकार तो मिला पर वोट कहां पड़ेगा, इसका फैसला करने का अधिकार उन्हें आज भी कई जगहों पर नहीं है l लेकिन लोकसभा चुनाव में लगातार महिला मतदाताओं की बढ़ती हिस्सेदारी और उनमें आई राजनैतिक जागरूकता से लगने लगा है, सियासत में महिलाओं का 'टाइम' आ गया है l
*मतदान प्रक्रिया में महिलाएँ :- (1951-2019)
पुरुष एवं महिला मतदाताओं मतदाताओं के बीच भले ही अंतर कुछ दशमलव का दिखता हो परंतू यह एक बड़ा परिवर्तन हैं l यह बहुत बड़ा परिवर्तन हैं क्योंकि स्वतंत्रता के पश्चात जितने भी लोकसभा चुनाव हुए उन में पुरुषों का वर्चस्व साफ़ देखा जा सकता हैं l यहीं कारण हैं कि लोकसभा चुनावों में पुरुषों के मतदान का प्रतिशत महिलाओं से अधिक नज़र आता हैं l यह अंतर दशकों तक बहुत अधिक था l पिछले दो दशकों में महिला एवं पुरुष मतदाता के बीच का अंतर कम होना शुरू हुआ हैं l भारतीय राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को ले कर यह बहुत सकारात्मक संदेश हैं l भारत में महिलाओं के पास मताधिकार संविधान के लागू होने के दिन से हैं l परंतु आज महिलाएँ खुल कर अपने मताधिकार का उपयोग कर रही हैं l इस परिवर्तन के कई कारण हैं l
राजनीति विशेषज्ञ प्रवीण राय के अनुसार, "महिलाएँ खुद तो आगे आ रही हैं परंतू सरकार की भुमिका भी इस में काफी अहम रही हैं l भारतीय निर्वाचन आयोग पिछले दशकों से महिलाओं को मतदान हेतू प्रेरित करने के लिए तरह तरह के प्रयास कर रहा हैं l जैसे पिंक बूथ बनाए जाते हैं और विज्ञापन दिखाए जाते हैं आदी l"
"दुसरा एक महत्वपुर्ण कारण यह हैं कि, सरकार ने बहुत सी योजनाएँ केवल महिलाओं के लिए बनाई हैं या महिलाओं को केंद्र में रख कर बनाई हैं l जैसे 'बेटी बचाव, बेटी पढ़ाओं', 'उज्ज्वला योजना', महिला सुरक्षा को ले कर बात करना और कुप्रथाओं के विरुध्द कानून लाने से महिलाओं को लगने लगा हैं कि, सिर्फ उन पर ध्यान दिया जा रहा हैं l इस से महिलाओं का सशक्तिकरण भी हुआ हैं और वे राजनीतिक रूप से जागरूक हो रही हैं l इसलिए भी वे अब अधिक संख्या में वोट डालने के लिए बाहर आ रही हैं l"
*स्रोत : भारतीय निर्वाचन आयोग (1951-2019)
*NA : Not Available
*यहाँ केवल 1984 में लोकसभा सीटों के लिए संपन्न हुए लोकसभा चुनावों के आँकड़े दर्ज किये गए हैं जबकि आसाम एवं पंजाब की स्थानिक परिस्थितियों को देखते हुए वहाँ लोकसभा के चुनाव 1985 में संपन्न हुए जिन के आँकड़े उपरोक्त सारणी में सम्मिलीत नहीं हैं l
#पंजाब में लोकसभा सीटों के लिए 1992 में चुनाव संपन्न हुए l
*लोकसभा चुनावों में उम्मीदवारी के लिए झुंजती महिलाएँ :- (1951-2019)
*स्रोत : भारतीय निर्वाचन आयोग (1951-2019)
*NA : Not Available
*यहाँ केवल 1984 में लोकसभा सीटों के लिए संपन्न हुए लोकसभा चुनावों के आँकड़े दर्ज किये गए हैं जबकि आसाम एवं पंजाब की स्थानिक परिस्थितियों को देखते हुए वहाँ लोकसभा के चुनाव 1985 में संपन्न हुए जिन के आँकड़े उपरोक्त सारणी में सम्मिलीत नहीं हैं l
#पंजाब में लोकसभा सीटों के लिए 1992 में चुनाव संपन्न हुए l
कोई यह प्रश्न उपस्थित कर सकता हैं कि, आखिर हमें महिला सांसद अथवा उम्मीदवारों की आवश्यकता क्या हैं ?
शक्ति की सह-संस्थापक तारा कृष्णस्वामी कहती हैं, ''इस देश में महिला और पुरुष जिन समस्याओं का सामना करते हैं, जिन्हें वो जीते हैं वो बिल्कुल अलग होती हैं. हाल ही में लोकसभा में सेरोगेसी बिल पास किया गया है. संसद में 86 प्रतिशत सांसद पुरुष हैं जो चाहकर भी गर्भधारण नहीं कर सकते. फिर भी, इन पुरुषों ने महिलाओं के शरीर को नियमित करने वाला बिल पास कर दिया है. हमारी नीतियां देश की 48 प्रतिशत आबादी यानि महिलाओं की जरूरतों से मेल नहीं खातीं. इसलिए हमें ज़्यादा महिला नेताओं की जरूरत है.''
70 बरस से ऊपर के इस लोकतंत्र में चुनाव दर चुनाव वोटिंग में महिलाओं की हिस्सेदारी लगातार बढ़ी है। सवाल यह है कि जब महिलाएं वोट देने में आगे हैं तो फिर उन्हें टिकट देने में राजनीतिक पार्टियां क्यों पिछड़ जाती हैं? राजनीतिक दल यह दावा करते हैं कि महिलाओं की चुनाव जीतने की क्षमता यानि ‘विनिबिलिटी’ कम होती है, जबकि आंकड़े कुछ और कहानी कहते हैं।
भारतीय राजनीति में महिलाओं को अभी तक वोटबैंक के रूप में ट्रीट नहीं किया जाता है, जबकि जाति और धर्म भारतीय राजनीति के अहम पहलू हैं। हर पार्टी इस आधार पर अपना चुनावी गणित बनाती है। जाति के आधार पर किसी भी उम्मीदवार को उसकी जाति के वोट मिल जाते हैं, जबकि महिलाओं को महज महिला होने के कारण महिलाओं के वोट नहीं मिलते। भारतीय राजनीति और समाज का ये स्याह पहलू है।
चुनावी बहस में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर चर्चा अक्सर महिलाओं की सुरक्षा और उन्हें सुरक्षित रखने जैसे पैतृक विचारों तक सीमित हो जाती है। समय आ गया है कि महिलाओं की भूमिका नीति-निर्धारण के मामले में बढ़े, जब तक महिलाएं किसी भी संगठन, पार्टी और सरकार में नीतिगत फैसले नहीं लेंगी, यथास्थिति का बदलना दुष्कर होगा। साथ ही चुनावों के आसपास का जो पूरा नैरेटिव है, वो सिर्फ सुरक्षा और महिलाओं को सुरक्षित रखने तक ही सीमित न हो, इसे आगे बढ़ाकर सत्ता में भागीदारी तक ले जाना होगा, और इसके लिए महिलाओं को सत्ता की बात करनी होगी।
*लोकसभा चुनावों में महिलाओं का सफलता दर :- (1951-2019)
*स्रोत : भारतीय निर्वाचन आयोग (1951-2019)
*NA : Not Available
*यहाँ केवल 1984 में लोकसभा सीटों के लिए संपन्न हुए लोकसभा चुनावों के आँकड़े दर्ज किये गए हैं जबकि आसाम एवं पंजाब की स्थानिक परिस्थितियों को देखते हुए वहाँ लोकसभा के चुनाव 1985 में संपन्न हुए जिन के आँकड़े उपरोक्त सारणी में सम्मिलीत नहीं हैं l
#पंजाब में लोकसभा सीटों के लिए 1992 में चुनाव संपन्न हुए l
1947 से भारत एक लोकतांत्रिक देश रहा है, हमारे देश का पहला चुनाव 25 अक्टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 तक हुआ l हालांकि, लोकतांत्रिक स्थापना के बाद से अब तक भारत में केवल एक महिला प्रधानमंत्री और एक महिला राष्ट्रपति बनीं l राज्यों में से, भारत के 18 राज्यों में कभी कोई महिला मुख्यमंत्री नहीं रही l लोकसभा में इस समय केवल 78 महिला सदस्य हैं, जो सदन की कुल ताकत का मुश्किल से 14.36 % है l हमें इसी पर समाधान नहीं मानना चाहिए l
चुनाव आयोग के आंकड़े कहते हैं कि महिला उम्मीदवारों की जीत का अनुपात हमेशा पुरुषों से ज़्यादा रहा है l हालांकि, उम्मीदवारों की संख्या बढ़ने के साथ ही दोनों वर्गों में जीतने का प्रतिशत भी गिरता है l यानी पुरुष हो या महिला जितने ज़्यादा उम्मीदवार खड़े होंगे उनके जीतने की संख्या का अनुपात भी गिरता जाएगा l
वर्तमान लोकसभा में पुरुषों की सफलता दर 6.4 फीसदी है, जबकि महिलाओं की सफलता दर 9.3 फीसदी है। इसके दो अर्थ हो सकते हैं: या तो महिलाओं के जीतने की संभावना अधिक होती है या तो उन्हीं महिलाओं को टिकट दी गई जिनकी जीतने की संभावना अधिक थी। हालंकि आंकड़े एक व्यापक लेकिन महत्वपूर्ण प्रवृत्ति की ओर इशारा करते हैं, आगे निर्वाचन क्षेत्र स्तर तक के आंकड़ों का विश्लेषण अनौपचारिक सम्बन्ध स्थापित कर सकता है। सामान्य महिला राजनेताओं की तुलना में सफल महिला राजनेताओं जो राजनीतिक परिवारों से आती हैं, उनकी प्रतिशत कितनी है? बहरहाल, महिलाएं स्पष्ट रूप से और अधिक राजनीति में प्रवेश करने के लिए उत्सुक हैं, और पहले से कहीं अधिक सफल हो रही हैं। नई पार्टियों के आने के साथ जो परिवारों के राजनीतिक संरक्षण, धन और बाहुबल पर भरोसा नहीं करती हैं, आधी आबादी के लिए महिलाओं का अधिक से अधिक राजनीति में आना उनकी स्थिति को बेहतर बना सकेगा।
*लोकसभा में महिला प्रतिनिधी :- (1951-2019)
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि 1952 के पहले आम चुनाव से लेकर 2019 के आम चुनाव तक महिला सांसदों की संख्या बेहद धीमी रफ्तार से बढ़ी है। 1952 में 20 महिलाए चुनाव जीत पार्इं थी l यह संख्या लोकसभा के कुल सदस्यों का 4.1 % थी। बाद के चुनाव में महिलाओं के मैदान में उतरने की संख्या तो बढ़ती गई, लेकिन उस अनुपात में वे लोकसभा तक नहीं पहुंच सकीं। 1957 में 45 महिलाओं ने चुनाव लड़ा, जिसमें से 22 ने चुनाव जीत कर सदन में अपनी उपस्थिति 4.5 % दर्ज कराई। तीसरे आम चुनाव में 1962 में 31 महिलाएं संसद में पहुंची, जो कुल सांसदों का 63 % थीं। तब 66 महिलाएं चुनावी मैदान में उतरी थीं यानी कुल उम्मीदवारों का महज 3.3 प्रतिशत । 1967 में तो यह फीसद 2.9 रह गया, लेकिन 68 महिलाओं ने चुनाव लड़ा। यह बात अलग है कि उनमें से 29 ही जीत पार्इं और लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व घट कर 5.6% रह गया। यह 1971 में गिर कर 5.% रह गया। कुल उम्मीदवारों का 2.9 % यानी 83 महिलाओं ने चुनाव लड़ा, लेकिन जीत सकीं 29 ही । 1977 में तो स्थिति और गड़बड़ा गई । महिलाओं की उम्मीदवारी सिकुड़ कर 2.8 % पर आ गई। 70 महिलाओं में से 19 ही जीत पार्इं और लोकसभा में उनका हिस्सा सबसे कम 3.5 % रहा। 1980 का चुनाव इस मायने में अहम रहा कि पहली बार महिला उम्मीदवारों की संख्या ने सौ का आंकड़ा पार कर लिया। उस साल 143 महिलाओं ने चुनाव लड़ा। हालांकि यह संख्या कुल उम्मीदवारों का 3.0 % ही था। 28 महिलाएं चुनाव जीत पार्इं। उसके बाद से महिला उम्मीदवारों की संख्या लगातार बढ़ती गई। हालांकि कुल उम्मीदवारी में उनका फीसद कम ही बढ़ा।
1984 में इंदिरा गांधी की हत्या की पृष्ठभूमि में हुए चुनाव में 162 महिलाएं यानी कुल उम्मीदवारों का 03 % मैदान में उतरीं। 42 को सफलता मिली, जिसके बल पर लोकसभा में उन्होंने अपनी हिस्सेदारी 8.2 % कर ली। 1989 में कुल उम्मीदवारों में 3.2 % यानी 198 महिला उम्मीदवार थीं। लेकिन जीत पार्इं केवल 29 ही और पिछली बार लोकसभा में हिस्सेदारी का फीसद 8.2 से घट कर 5.4 पर आ गया। 1991 में कुल 326 महिलाएं मैदान में थीं। उम्मीदवारी में 3.7 % का यह हिस्सा 37 सीटों पर जीत के साथ लोकसभा में महिलाओं की 7.1 % उपस्थिति दर्ज हुई। 1996 में 40 महिलाएं लोकसभा पहुंची। यह कुल सदस्य संख्या का 7.3 % था। लेकिन तब 599 महिलाओं ने चुनाव लड़ा था और कुल उम्मीदवारों में उनका फीसद पहली बार चार को पार कर 4.2 हुआ था। 1998 में महिला उम्मीदवारों की संख्या घट कर 274 रह गई, लेकिन उस चुनाव में 43 महिलाओं ने जीत दर्ज कर लोकसभा में अपनी हिस्सेदारी 7.9 % कर ली।
यह सिलसिला 1999 में भी जारी रहा। तब चुनाव हालांकि 284 महिलाओं ने ही लड़ा, लेकिन कुल उम्मीदवारी में अपना हिस्सा 6.1 % कर लिया। तीन साल में तीन चुनाव होने की वजह से कुल उम्मीदवारों की संख्या वैसे भी उस साल कम रही थी। बहरहाल, 1999 में 49 महिलाओं ने चुनाव जीता और अपना हिस्सा 9 % कर लिया। 2004 में 355 महिलाएं चुनाव लड़ीं और 45 (कुल सांसदों का 8.2 %) जीत गर्इं। 2009 में हुए आम चुनाव में 556 महिलाएं मैदान में उतरीं। यह संख्या कुल उम्मीदवारों का 6.8 % थी। खास बात यह है कि पहली बार महिलाओं ने पचास का आंकड़ा पार कर 59 सीटें जीतीं और पहली बार लोकसभा में उनकी उपस्थिति दहाई तक पहुंच कर 10.8 % हो गई। 2014 में हुए आम चुनाव में 644 महिलाएँ चुनावी मैदान में उतरी थी l अर्थात कुल उम्मीदवारों का केवल 7.8 प्रतिशत l उस समय 61 महिलाओं ने संसद पहुँच कर अपनी हिस्सेदारी 11.2 % तक पहुँचाई l 2019 में लोकसभा में महिलाओं का फीसद 14 को पार कर गया। इस बार उनकी संख्या 14.36 % है। इस तरह 69 साल के सफर में महिला सांसदों की संख्या 20 से 78 हो पाई है।
*स्रोत : भारतीय निर्वाचन आयोग (1951-2019)
*यहाँ केवल 1984 में लोकसभा सीटों के लिए संपन्न हुए लोकसभा चुनावों के आँकड़े दर्ज किये गए हैं जबकि आसाम एवं पंजाब की स्थानिक परिस्थितियों को देखते हुए वहाँ लोकसभा के चुनाव 1985 में संपन्न हुए जिन के आँकड़े उपरोक्त सारणी में सम्मिलीत नहीं हैं l
#पंजाब में लोकसभा सीटों के लिए 1992 में चुनाव संपन्न हुए l
*राजनीति से क्यों दूर हैं महिलाएँ ?
जब हम इस प्रश्न पर विचार विमर्श करते हैं तो कई पहलू और कारण सामने आते हैं l जिन में से चंद महत्वपुर्ण कारण निम्नलिखित हैं l
*महिलाओं को नीति निर्धारण में पर्याप्त प्रतिनिधित्व न मिलने के पीछे निरक्षरता भी एक बड़ा कारण है। अपने अधिकारों को लेकर पर्याप्त समझ न होने के कारण महिलाओं को अपने मूल और राजनीतिक अधिकारों के बारे में जानकारी नहीं हो पाती।
*शिक्षा, संसाधनों/संपत्ति का स्वामित्व और रोज़मर्रा के काम में पक्षपाती दृष्टिकोण जैसे मामलों में होने वाली लैंगिक असमानताएँ महिला नेतृत्व के उभरने में बाधक बनती हैं।
*महिलाओं को राजनीति से दूर रखने में पुरुषों और महिलाओं के बीच घरेलू काम का असमान वितरण भी महत्त्वपूर्ण कारकों में से एक है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं को परिवार में अधिक समय देना पड़ता है और घर तथा बच्चों की देखभाल का ज़िम्मा प्रायः महिलाओं को ही संभालना पड़ता है। बच्चों की आयु बढ़ने के साथ महिलाओं की ज़िम्मेदारियाँ भी बढती जाती हैं।
*राजनीतिक नीति-निर्धारण में रुचि न होना भी महिलाओं को राजनीति में आने से रोकता है। इसमें राजनीतिक दलों की अंदरूनी गतिविधियाँ और इज़ाफा करती हैं। राजनीतिक दलों के आतंरिक ढाँचे में कम अनुपात के कारण भी महिलाओं को अपने राजनीतिक निर्वाचन क्षेत्रों की देखरेख के लिये संसाधन और समर्थन जुटाने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। विभिन्न राजनीतिक दल महिलाओं को चुनाव लड़ने के लिये पर्याप्त आर्थिक सहायता उपलब्ध कराने से कतराते हैं।
*इसके अलावा, महिलाओं पर थोपे गए सामाजिक और सांस्कृतिक दायित्व भी उन्हें राजनीति में आने से रोकते हैं। महिलाएँ भी इसे सामाजिक संस्कृति मानते हुए सहन करने को विवश रहती हैं। जनता का रुझान न केवल यह निर्धारित करता है कि कितनी महिला उम्मीदवार चुनाव जीतेंगी, बल्कि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जनता का रुझान यह भी तय करता है कि किस महिला को कौन सा पद दिया जाना चाहिये।
*कुल मिलाकर देखा जाए तो देश में राजनीतिक दलों का माहौल ऐसा है कि महिलाएँ चाहकर भी राजनीति में हिस्सा लेने से कतराती हैं। उन्हें पार्टी में अपना स्थान बनाने के लिये कड़ी मेहनत तो करनी ही पड़ती है, साथ ही अन्य कई मुद्दों का सामना भी करना पड़ता है।
*आगे की राह :-
*यह समय की मांग है कि भारत जैसे देश में मुख्यधारा की राजनीतिक गतिविधियों में महिलाओं को भागीदारी के समान अवसर मिलने चाहिये।
*महिलाओं को उन अवांछित बाध्यताओं से बाहर आने की पहल स्वयं करनी होगी जिनमें समाज ने जकड़ा हुआ है, जैसे कि महिलाओं को घर के भीतर रहकर काम करना चाहिये।
*राज्य, परिवारों तथा समुदायों के लिये यह बेहद महत्त्वपूर्ण है कि शिक्षा में लैंगिक अंतर को कम करना, लैंगिक आधार पर किये जाने वाले कार्यों का पुनर्निधारण करना तथा श्रम में लैंगिक भेदभाव को समाप्त करने जैसी महिलाओं की विशिष्ट आवश्यकताओं का समुचित समाधान निकाला जाए।
*सभी राजनीतिक दलों को सर्वसम्मति बनाते हुए महिला आरक्षण विधेयक को पारित करना चाहिये, जिसमें महिलाओं के लिये 33% आरक्षण का प्रावधान किया गया है। जब यह विधेयक कानून का रूप ले लेगा तो लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व स्वतः बढ़ जाएगा, जैसा कि पंचायतों में देखने को मिलता है। 73वें संविधान संशोधन के द्वारा महिलाओं को त्रिस्तरीय ग्रामीण पंचायतों और शहरी निकायों में 1993 से 33% आरक्षण मिलता है।
*राज्य विधानसभाओं और संसदीय चुनावों में महिलाओं के लिये न्यूनतम सहमत प्रतिशत सुनिश्चित करने हेतु मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों के लिये इसे अनिवार्य बनाने वाले भारत निर्वाचन आयोग के प्रस्ताव (इसे गिल फॉर्मूला कहा जाता है) को लागू करने की आवश्यकता है। जो दल ऐसा करने में असमर्थ रहेगा उसकी मान्यता समाप्त की जा सकेगी।
*दुनियाभर में कई देशों में राजनीतिक दलों में आरक्षण का प्रावधान है। इनमें स्वीडन, नॉर्वे, कनाडा, UK और फ्रांस भी शामिल हैं।
*विधायिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का आधार न केवल आरक्षण होना चाहिये, बल्कि इसके पीछे पहुँच और अवसर तथा संसाधनों का सामान वितरण उपलब्ध कराने के लिये लैंगिक समानता का माहौल भी होना चाहिये।
*निर्वाचन आयोग की अगुवाई में राजनीतिक दलों में महिला आरक्षण को प्रोत्साहित करने के लिये प्रयास किये जाने चाहिये। हालाँकि इससे विधायिका में महिलाओं की संख्या तो सुनिश्चित नहीं हो पाएगी, लेकिन जटिल असमानता को दूर करने में इससे मदद मिल सकती है।
*स्वतंत्र भारत के इतिहास में देखने पर पता चलता है कि देश की कमान लंबे समय तक महिला प्रधानमंत्री के हाथों में रही है और समय-समय पर राज्यों में मुख्यमंत्री तथा सदन के अध्यक्ष पद पर महिलाएं आसीन होती आई हैं। फिर भी विधायिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में भारत का रिकॉर्ड बेहद खराब रहा है और यह हमें बाध्य करता है कि इस मुद्दे पर बहस कर परिस्थितियों में बदलाव लाया जाए।
*निष्कर्ष :-
राजनीतिक भागीदारी का मतलब न केवल वोट के अधिकार का प्रयोग करना है, बल्कि राज्य के सभी स्तरों पर सत्ता के बंटवारे, सह-निर्णय लेना, सह-नीति बनाना भी है l जिससे प्रमुख रूप से भारतीय नारियां वंचित हैं l इस मुद्दे पर सरकार को भी प्रयास करने चाहिये, जिसमें सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक रूप से महिलाओं की स्थिति में सुधार करना शामिल है ताकि महिलाएँ अपनी आंतरिक शक्ति के साथ, अपने दम पर खड़ी हो सकें। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि शिक्षा महिलाओं की सामाजिक गतिशीलता को प्रभावित करती है। शिक्षण संस्थानों में मिली औपचारिक शिक्षा महिलाओं में नेतृत्व के अवसर तो उत्पन्न करती ही है, साथ ही उनमें नेतृत्व गुणों का विकास भी करती है। भारत को तब तक राजनीतिक रूप से सशक्त नहीं किया जा सकता है जब तक कि दोनों सदनों में स्त्री पुरुष का 50-50 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व न हों l केवल न्यूनतम आरक्षण और व्यापक प्रचार से समस्या हल नहीं होगी l हमें महिला नेतृत्व के बारे में अपनी विचारधारा को बदलना होगा l लोगों को केवल पहली महिला प्रधानमंत्री से संतुष्ट नहीं होना चाहिए, यह एक उच्च समय है कि इस समस्या का निवारण ढूंढ़ा जाए और पुरुषों और महिलाओं की समान संसद प्रतिनिधित्व की सफल योजना धरातल पर उतारी जाए l
*सन्दर्भ सूची :-
1: चन्देल,डॉ. धर्मवीर, “भारतीय महिला की राजनीतिक स्थिति का अध्ययन” 2 May, 2012, http://journalistdharamveer.blogspot.com/2012/05/blog-post.html
2: कुमार, राधा, स्त्री संघर्ष का इतिहास (नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन, 2011) पृष्ठ, 202-238
3: नारंग, ए. एस., भारतीय शासन एवं राजनीति (नई दिल्ली : गीतान्जली पब्लिशिंग हाउस,2009) पृष्ठ, 386
4: Dhanda,Meena(2000).“Representation for Women :Should Feminists Support for Quotas?” Economic and Political Weekly, Vol. XXXV,No.33, pp. 2969-2076
5: मिश्रा, प्रशांत, भारतीय राजनीति में महिलाओं की भागीदारी, http://m.dailyhunt.in/news/india/hindi/poorvanchal+media-epaper-pmedia/bharatiy+rajaniti+me+mahilao+ki+bhagidari-newsid-56223457
6: चन्दन, संजीव, “महिला आरक्षण : मार्ग और मुशकिलें” स्त्रीकाल (स्त्री का समय और सच), http://www.streekaal.com/2016/01/blog-post_5.html?m=1
7: वर्मा, सुषमा, “संसद में महिलाओं की भागीदारी” प्रभात खबर, 22 मार्च, 2015, http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/361546.html
8: John, MaryE., (2007).“Women in Power ? Gender, Caste and Politics of Urban Local Governance”. Economic and Political Weekly, Vol.XLII,No.39, pp. 3986-3993.
9: जोशी, गोपा, भारत में स्त्री असमानता (दिल्ली विश्वविद्यालय : हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशाल्य, 2011) पृष्ठ, 149-179
10: यादव, राजेंद्र एवं अन्य (सं.), पितृसत्ता के नए रूप, स्त्री और भूमंडलीकरण (नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन, 2009) पृष्ठ, 199
11: Deshpande, Rajshveri, “How Gendred was Women’s participation in Election 2004?”, epw, Vol. 39. No. 51 (Dec. 18-24, 2004), page no. 5431-5436, http:// www.jstore.org/stable/4415927
12: National Election Study. (2009). CSDS Data Unit, Delhi.
13: राय, प्रवीन, “क्यों महिलाएं निर्णायक भूमिका में नहीं ?” 31 मई, 2014, http://www.bbc.com/hindi/india/2014/05/140528_women_participation_india_election_rd
14: यादव, योगेन्द्र, “संसद और विधानसभा में महिलाओं की संख्या कैसे बढ़े” नवोदय टाइम्स, नई दिल्ली , 9 मार्च, 2017
15: कुमार, राधा, स्त्री संघर्ष का इतिहास (नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन, 2011) पृष्ठ, 239
16: Sabharwal, Nidhi Sadana, Lal David and Ojha Abhiruchi(2013).Dalit Women in Indian Politics : Making Impact through Parliament ? Research Report,International Development Research Centre,Canada and Indian Institute of Dalit Studies, Delhi. Statistical Report on General Elections to the LokSabha (1951-2019). Vol.1-3, Election Commission, NewDelhi.
17: चन्देल,डॉ. धर्मवीर, “भारतीय महिला की राजनीतिक स्थिति का अध्ययन” 2 May, 2012, http://journalistdharamveer.blogspot.com/2012/05/blog-post.html
18: sharda, Shailvee “40 Women win to create record” TOI, 13 march, 2017, http://m.timesofindia.com/elections/assembly-elections/uttar-pradesh/news/40-women-win-to-create-record/articleshow/57614972.cms
19: यादव, योगेन्द्र, “संसद और विधानसभा में महिलाओं की संख्या कैसे बढ़े” नवोदय टाइम्स, नई दिल्ली , 9 मार्च, 2017
20: World Economic Forum (2005).The Global Gender Report, Geneva : Switzerland.
21: Verma, Tarishi, “Assembly election Result 2017: How did Women Candidate of all states fare” Indian Express, New Delhi, 12 March, 2017, http://indianexpress.com/elections/assembly-election-results-2017-how-did-women-candidates-of-all-states-fare-4566702/
22: यादव, राजेंद्र एवं अन्य (सं.), पितृसत्ता के नए रूप, स्त्री और भूमंडलीकरण (नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन, 2009) पृष्ठ, 62
23: Rai, Praveen (2011). “Electoral Participation of Women in India :Key Determinants and Barriers”,
24: Economic and Political Weekly, Vol. XLVI,No.3, pp. 47-55.
शेख मोईन शेख नईम सुलभा नारायण भालेकर
Soft Skill Trainer Mphil Student
अनुदीप फाउंडेशन डॉ. बाबासाहब आंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय, औरंगाबाद
7776878784 8623000316
सटीक विश्लेषण
जवाब देंहटाएं