राखी ने प्यार से हल्की चपत लगाते हुए खुशी के गाल चूम लिए। विमाता का अपनी बच्ची के प्रति प्यार देखकर मिश्र जी की शंका निर्मूल साबित हो गई।
विमाता
खुशी अभी छ माह की भी नहीं हुई थी कि उसकी मां नीलिमा को असाध्य रोग ने पकड़ लिया। दीनानाथ मिश्र ने अपनी धर्मपत्नी के इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, उसका इलाज अच्छे से अच्छे अस्पताल में अनुभवी चिकित्सकों से कराया।परंतु नीलिमा का रोग बढ़ता ही जा रहा था, वह दिन प्रतिदिन कमजोर होती जा रही थी। इधर दीनानाथ मिश्र भी अपने व्यवसाय की ओर अधिक ध्यान नहीं दे पा रहे थे।
एक दिन चिकित्सकों ने मिश्र जी को आखिरी जवाब देते हुए कहा कि इस रोग का इलाज हमारी सीमा से बाहर है। अतः आप अपनी पत्नी को घर पर ले जावें और ईश्वर से प्रार्थना करें। दीनानाथ मिश्र अपनी पत्नी को घर पर ही ले आए और आखिरी आस तक सेवा करते रहे।परंतु विधाता को कुछ और ही मंजूर था।एक दिन नीलिमा को ईश्वर ने अपने पास बुला लिया, नीलिमा सबको रोते हुए छोड़ कर चली गई। अब अपनी फूल सी बच्ची की सार संभाल की जिम्मेदारी मिश्र जी पर आ पड़ी थी। वह कभी लोरी गाकर , कभी छोटे छोटे खिलोनों से उसका मन बहलाने लगे।
आज उनके घर पर उन्होंने अपनी पत्नी की आत्मा की शांति के लिए रामायण का पाठ रखा था, इसलिए घर पर रिश्तेदारों और परिवार के सदस्यों के आने से चहल-पहल वह गहमा-गहमी का माहौल बना हुआ था।
मिश्र जी की आंखों में अपनी पत्नी के साथ बिताए गए क्षणों की याद आने से आंसू निकल पड़े थे। इसी बीच उनकी बूआ ने मिश्र जी के कमरे में प्रवेश किया, मिश्र जी ने अपने आंसुओं को छुपाने का भरसक प्रयास किया परन्तु बूआ की नजरों से बच नहीं पाया।
उनकी बूआ ने मिश्र जी के सामने पुनर्विवाह का प्रस्ताव रखा,जिसे मिश्र जी ने इसलिए ठुकरा दिया कि उनके मन में विमाता की गलत छवि छायी थी। उनके विचार में विमाता अपने पति की पहली पत्नी के बच्चों से दुर्व्यवहार करती है और उनके प्रति ममत्व नहीं होता।
मिश्र जी ने अपनी यह शंका बूआ के सामने प्रकट की। बूआ ने मिश्र जी को समझाते हुए कहा कि सभी विमाता ऐसी नहीं होती, मेरी ननद की लड़की है राखी; सभी कार्य में दक्ष है, तुम्हारी बच्ची को मां का पूरा प्यार देगी। इस प्रकार समझाते हुए मिश्र जी के मन में पाली हुई शंका का समाधान करते हुए मिश्र जी को पुनर्विवाह के लिए राजी कर लिया। मिश्र जी ने भी इसके लिए अपनी स्वीकृति प्रदान करदी।
मिश्र जी का विवाह एक साधारण समारोह में राखी से होगया।अब राखी उनकी धर्मपत्नी बनकर घर आ गई और आते ही घर को इस तरह संभाल लिया जैसे इस घर से कोई पुरानी पहचान हो।इधर खुशी भी अब एक वर्ष की हो चुकी थी और अपनी नई मां से काफी घुल मिल गयी थी। राखी भी उसके बिना एक पल भी नहीं रह पाती थी। एक दिन मिश्र जी ने अपनी धर्मपत्नी के समक्ष कहीं बाहर घूमने का प्रस्ताव रखा जिसे राखी ने अपनी सहमति प्रदान करदी।
मिश्र जी अपनी नई पत्नी और बच्ची को लेकर श्रीनाथ जी के दर्शन करने नाथद्वारा की ओर अपनी कार से चल पड़े।रास्ते में हरे भरे वृक्षों की दौड़ती हुई कतारें देखकर वह नन्ही बच्ची अपने छोटे छोटे हाथों से करतल ध्वनि कर अपनी प्रसन्नता प्रकट कर रही थी .मिश्र जी ने नाथद्वारा पहुंच कर नजदीक ही एक धर्मशाला में कमरा आरक्षित करा लिया और कुछ देर सुस्ताने लगे।इसके बाद अपने साथ घर से लाया हुआ नाश्ता किया और श्रीनाथ जी के दर्शन करने को निकल पड़े। मंदिर में काफी भीड़ थी इसलिए देर से दर्शन हुए थे। दर्शन करने के बाद मिश्र जी पत्नी और बच्ची के साथ धर्मशाला की ओर चल पड़े।
रास्ते में अधिक भीड़ होने के कारण राखी पीछे रह गई थी।उसने खुशी को अपनी गोद से उतार दिया और सुस्ताने लगी।खुशी उसकी आंख बचाकर खिलोनों की दुकान पर जा खड़ी हुई और ललचाई नज़रों से खिलोनों को निहारने लगी।
राखी खुशी को वहां न पाकर घबरा गई और उसे तलाश करने लगी। उधर मिश्र जी भी पत्नी को अपने पीछे न आता देख उल्टे पांव मंदिर की ओर ही आरहे थे। जब पत्नी को बदहवास हालत में देखा और मांजरा समझा तो वह भी खुशी को तलाश करने लगे।
आखिर खुशी उन्हें मिल गई थी और वे खुशी को लेकर धर्मशाला की ओर चल पड़े। वहां पहुंच कर राखी ने प्यार से हल्की चपत लगाते हुए खुशी के गाल चूम लिए। विमाता का अपनी बच्ची के प्रति प्यार देखकर मिश्र जी की शंका निर्मूल साबित हो गई।
विनय जी, कहानी पूरा पढ़ा। शुरुआत की निर्मला अगले ही वाक्य में नीलिमा बन गई। सचाई छुप न सकी ऐसालगा।कहानी अच्छी लगी।
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