आधुनिक भारतीय आर्य भाषा का परिचय आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का परिचय आधुनिक भारतीय आर्य भाषा काल भारतीय आर्य भाषा परिवार प्राचीन भारतीय आर्य भाषाओं का
आधुनिक भारतीय आर्य भाषा का परिचय
मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा
मध्यभारतीय आर्यभाषा के प्रारंभ से ही प्रकृति प्रत्यय का ज्ञान धुंधला होने लगा था ,जिसमें स्वरों के मात्राकाल में अनेक परिवर्तन हुए।आर्यभाषा की प्राचीन आर्यभाषा से तुलना करने पर यह पता चलता है कि व्युत्पति ज्ञान के लोप हो जाने पर नवीन आर्यभाषा में स्वरों के मात्राकाल में बहुत अधिक परिवर्तन हुआ। बलात्मक स्वराघात के परिणामस्वरूप वर्तमान भारतीय आर्यभाषा में स्वरों का लोप देखा जाता है। शब्दों की उपधा में बलात्मक स्वराघात होने पर अन्तिम दीर्घ स्वर स्व हो जाता है। जैसे कीरत से कीर्ति शब्द के आदि स्वर का लोप भी बलात्मक स्वराघात का परिणाम है।
स्वरों तथा व्यंजनों के उच्चारण में भी आधुनिक आर्यभाषाओं में नवीनता परिलक्षित होती है। बंगला में 'अ' लुण्ठित निम्न-मध्य-पश्च स्वर है। मराठी में 'च''ज' का उच्चारण कई जगह 'त्स' 'दस' हो गया है। पश्चिमी हिन्दी और राजस्थानी में 'ऐ', 'औ' अन एवं पश्च-निम्न-मध्य ध्वनियाँ हैं। आधुनिक आर्यभाषाओं में परिवर्तन की विशेषता निम्नलिखित रूप में रही -
प्राकृतिक के समीकृत संयुक्त व्यंजनों 'चक', 'क्ख', 'ग्ग"ग्य' इत्यादि में से केवल एक व्यंजन ध्वनि लेकर पूर्ववर्ती हस्व
स्वर का दीर्घ करना पंजाबी सिंधी के अतिरिक्त सम्पूर्ण नवीन भारतीय आर्यभाषाओं में दिखाई देता है। आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में प्रमुखत: वही ध्वनियाँ हैं, जो प्राकृत, अपभ्रंश आदि में थीं, किन्तु उनमें कुछ वैयक्तिक विशेषताएँ भी हैं। पंजाबी आदि में उदासीन स्वर'अ' का प्रयोग होने लगा। अवधी आदि में अघोप स्वरों का प्रयोग होता है। गुजराती में मरमर स्वर का विकास हुआ है। प्राकृत और अपभ्रंश में केवल मूलस्वर थे किन्तु अवहट्ट में 'ऐ''ओ' स्वर विकसित हुए। कई आधुनिक भाषाओं में इनका प्रयोग दिखाई देता है। यद्यपि कुछ बोलियों में केवल मूल स्वरों का प्रयोग होता रहा है। संयुक्त स्वरों का प्रयोग नहीं हो रहा है। 'ऋ' का प्रयोग तत्सम शब्दों में है, किन्तु बोलने में यह स्वर न रहकर 'र' के साथ 'ई''उ' स्वर का योग रह गया है। उत्तरी भारत में जब इसका उच्चारण किया जाता है तब ध्वनियों में जहाँ तक ऊष्म-ध्वनियों का प्रश्न है. इसमें लिखने के स, श, ष ध्वनियों का प्रयोग हो रहा है। लेकिन ध्वनियों के उच्चारण में एकरूपता नहीं है। विदेशी भाषाओं के प्रभाव के कारण आधुनिक आर्य भाषाओं को अनेक भाषाओं में अनेक नई ध्वनियाँ आ गयी हैं। जैसे- क ख, ग, ज, फ, आ आदि। लोक भाषाओं में इसका उच्चारण इस रूप में नहीं हो पा रहा है, किन्तु शिक्षित वर्ग इसको बोलने का प्रयास करता है।जिन शब्दों के उपधा स्वर या अन्तिम स्वर को छोड़कर किसी और पर बलात्मक स्वराघात था, उनके अन्तिम दीर्घ स्वर पर प्राय: हस्व स्वर हो गया है। अन्तिम 'अ' स्वर संयुक्त व्यंजन आदि को छोड़कर प्राय : लुप्त हो गया। जैसे- राम, अब आदि । प्राकृत आदि भाषाओं में जहाँ समीकरण के कारण द्वित्व या दीर्घ व्यंजन हो गये थे, वहीं आधुनिक भाषाओं में द्वित्व व्यंजन में केवल एक व्यंजन शेष रहा और पूर्ववर्ती स्वरों में क्षतिपूरक दीर्घता आ गयी। पंजाबी और सिंधी भाषाओं में इसका अपवाद मिलता है। इनमें प्राकृत से मिलने-जुलते रूप चलते हैं।
आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में बलात्मक स्वराघात पाया जाता है। अपभ्रंश की तुलना में इसमें रूप कम हो गये हैं, जिससे भाषा सरल हो गयी है। संस्कृत में कारक के तीनों वचनों में 24 रूप बनते थे, लेकिन प्राकृत में ये रूप घटकर 12 रह गये। अपभ्रंश में ये रूप छ: शेष बचे और आगे चलकर आधुनिक भाषाओं में इनका रूप केवल तीन या चार हो गया। आधुनिक भाषाओं में क्रियारूपों में भी पर्याप्त कमी हो गयी है।
प्राचीन भारतीय आर्य भाषा
रचना की दृष्टि से संस्कृत, पालि, प्राकृत आदि भाषाएँ योगात्मक थी, लेकिन अपभ्रंश भाषा से लेकर ये अयोगात्मक हो गयीं। आधुनिक आर्यभाषाएँ पूर्णत: अयोगात्मक हो गयी हैं। नामरूपों के लिए परसर्गों का प्रयोग होता था, लेकिन धातुरूपों के लिए कृदन्त और सहायक क्रिया के आधार पर संयुक्त क्रिया का प्रयोग होने लगा। संस्कृत भाषा में तीन वचन थे लेकिन मध्यकालीन आर्यभाषाओं में दो वचन रह गये। संस्कृत भाषा में तीन लिंग थे, लेकिन मध्यकालीन आर्यभाषा तथा आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में दो ही लिंग शेष बचे। सम्भवत: तिब्बत-बर्मी भाषाओं के प्रभाव के कारण बंगला, उड़िया तथा असमिया में लिंग भेद कम दिखाई देता है।
आधुनिक आर्यभाषाओं में प्राचीन तथा मध्ययुगीन भाषाओं से बहुत अन्तर आया है। शब्द भण्डार की दृष्टि से सबसे बड़ी विशेषता यह है कि पश्तो, तुर्की, अरबी, फारसी, पुर्तगाली तथा अंग्रेजी आदि से कई हजार नये शब्द आये हैं। इससे पूर्व भाषाओं का प्रमुख शब्द भण्डार तत्सम, तद्भव और देशज था। मध्ययुगीन भाषाओं की तुलना में आज की भाषा में तत्सम शब्दों का प्रयोग अधिक हो रहा है तथा तद्भव का प्रयोग अपेक्षाकृत कम हो रहा है। इधर पारिभाषिक शब्दावली की कमी को दूर करने के लिए नये शब्दों का निर्माण किया जा रहा है और उसका उपयोग भी किया जा रहा है। अनुकरणात्मक और प्रतिध्वन्यात्मक शब्दों का बहुत प्रयोग होता है।
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