मराठा आरक्षण का भविष्य क्या होगा ? महाराष्ट्र में जाती, आरक्षण और राजनीति का स्वरुप एक जटील और अनोखी व्यवस्था हैं l आज़ादी के बाद हम ने उम्मीद की थी कि
मराठा आरक्षण : पिक्चर अभी बाकी है
शिक्षा के क्षेत्र एवं नौकरीयों में मराठा समुदाय को आरक्षण प्रदान करने वाले सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग (SEBC) अधिनियम 2018 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा 05 मई 2021 बरोज़ बुधवार को रद्द कर दिया गया l इस अधिनियम के अंतर्गत मराठा समुदाय को महाराष्ट्र में शिक्षा के क्षेत्र में 12 % और सरकारी नौकरीयों में 13 % आरक्षण प्रदान किया गया था l इस अधिनियम को मुंबई उच्च न्यायलय ने 2019 में वैध करार दिया था l मुंबई उच्च न्यायालय के इस निर्णय को अधिवक्ता जयश्री पाटील-सदावर्ते ने उच्चतम न्यायलय में चुनौती दी थी,जहाँ न्या. अशोक भूषण, एल. नागेश्वर राव, एस. अब्दुल नज़ीर, हेमंत गुप्ता और रविंद्र भट की संविधान पीठ ने मुंबई उच्च न्यायालय के इस निर्णय को बदलते हुए इस कानून को रद्द कर दिया l पाँच सदस्यीय पीठ ने 50 % से अधिक आरक्षण को संविधान विरोधी बताते हुए इस क़ानून को इस मर्यादा का उल्लंघन करने वाला बताया l जिस गायकवाड़ आयोग की रिपोर्ट के आधार पर मराठा समुदाय को आरक्षण बहाल किया गया था उस गायकवाड़ आयोग की रिपोर्ट को ही मानने से सुप्रीम कोर्ट ने इनकार कर दिया l सुप्रीम कोर्ट ने अपना निरीक्षण दर्ज करते हुए कहाँ कि, "आरक्षण की निर्धारीत 50 % की मर्यादा का उल्लंघन करते हुए मराठा समुदाय को आरक्षण बहाल करने जैसी असामान्य परिस्थिती गायकवाड़ आयोग की रिपोर्ट एवं मुंबई उच्च न्यायालय के फैसले से ध्वनीत नहीं होती l" साथ ही इंदिरा साहनी केस में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पुनर्विचार हेतु बड़ी बेंच को सौंपने की याचिका को खारिज करते हुए सुप्रीम ने स्पष्ट किया कि, "इस याचिका में कोई तथ्य नहीं हैं l इस से पहले इस निर्णय को चार बेंचों ने मंज़ूरी दी हैं, इस के इलावा विभिन्न मामलों में सुनवाई के दौरान भी सुप्रीम कोर्ट की विभिन्न बेंचों ने इस फैसले से सहमती दर्शाई हैं l" यह भी ध्यान रहे कि, पिछले साल 09 सितंबर 2020 तक हुई महाराष्ट्र सरकार की नौकरीयों में भर्तीयां एवं विगत वर्ष हुए वैद्यकीय स्नातकोत्तर (PG) कोर्सेस में प्रवेशों पर सुप्रीम कोर्ट के 05 मई 2021 को आए फैसले का परिणाम नहीं होगा क्योंकि इन दोनों को सुप्रीम कोर्ट ने बरकरार रखा हैं l स्पष्ट रणनीति एवं बैकअप प्लान के अभाव का नतीजा ये फैसला हैं l परंतू मराठा आरक्षण की लड़ाई अभी समाप्त नहीं हुई l अभी भी कई पर्याय खुले हैं जिन के माध्यम से मराठा समुदाय को आरक्षण का लाभ मिल सकता हैं l प्रस्तुत लेख में मराठा आरक्षण से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर बात की गई हैं साथ ही विभिन्न अंगों से इस सुलगते मुद्दे का जायज़ा लिया गया हैं l
एक नज़र इतिहास पर
मराठा आरक्षण एवं मराठा समुदाय का अध्ययन करने हेतू कई आयोग और समीतीयाँ आई और गई मगर परिणाम वहीं रहा ढाक के तीन पात l मराठा आरक्षण का संवेदनशील मुद्दा कई दशकों से चला आ रहा हैं l आइये डालते हैं इस के इतिहास पर एक नज़र l
-1948 मराठवाड़ा निज़ाम के हाथों से निकल गया l उस समय विभिन्न कारणों से मराठवाड़ा में बसने वाला मराठा समुदाय कई इलाकों में बँट गया l आंध्राप्रदेश, हैदराबाद, मणिपुर और मध्यप्रदेश में बस चुके मराठा समुदाय का आज भी वहाँ अन्य पिछड़ा वर्ग में समावेश होता हैं, किंतु मराठवाड़ा में बसने वाला मराठा समुदाय आज भी अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण से वंचित हैं l
मराठा आरक्षण
-1953 में काका कालेलकर आयोग ने 2399 जातीयों का पिछड़े वर्गों में समावेश किया था l इस रिपोर्ट में मराठा एवं कुनबी इन दो समुदायों का स्वतंत्र एवं स्पष्ट उल्लेख था l
-1962 में जी. डी. देशमख समीती का गठन किया गया था l अध्ययन पश्चात इस समीती ने 180 जातीयों को OBC में शामील करने की सिफारिश की थी l परंतू इन 180 जातीयों में मराठा, तेली और माली समुदायों का समावेश नहीं था l फल स्वरूप इस के विरुद्ध महाराष्ट्र में कई आंदोलन हुए l इन आंदोलनों का परिणाम यह हुआ कि, तेली और माली समुदाय को OBC में शामील कर लिया गया अर्थात मराठा समुदाय को इस बार भी OBC कोटे से वंचित रखा गया l
-मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद देश ने हिंसक आंदोलनों का लंबा दौर देखा और इंदिरा साहनी केस के फैसले द्वारा वि. पी. सिंह सरकार के निर्णय की वैधता पर मुहर लगाते हुए भी देखा l इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अन्य पिछड़ा वर्ग में समावेश हेतू राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन आवश्यक हैं l 1994 में OBC आरक्षण की मर्यादा 16 से बढ़ा कर 19 % कर दी गई परंतू इस बार भी मराठा समुदाय का इस में समावेश नहीं किया गया l
-महाराष्ट्र सरकार ने पहले पिछड़ा वर्ग आयोग (खत्री आयोग) का गठन 1996 में किया था परंतू इस आयोग ने सर्वेक्षण नहीं किया l
-1999 में सराफ आयोग ने मराठा एवं कुणबी समुदाय को पिछड़े वर्ग में शामील करने का निष्कर्ष निकाला l तत्कालीन मुख्यमंत्री सुशील कुमार शिंदे को इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट सौंपी थी जिसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया l
-2004 में बापट आयोग की स्थापना की गई जिस की रिपोर्ट 2008 में आई l यह रिपोर्ट मराठा समुदाय के हक़ में थी जिस से मराठा आरक्षण का रास्ता साफ़ हो सकता था l परंतू इस आयोग के एक सदस्य का निधन होने के कारण राव साहब कसबे को ऐन वक्त पर इस आयोग का सदस्य नियुक्त किया गया l बाद में बापट आयोग की वह रिपोर्ट जो मराठा समुदाय के लिए अनुकूल थी अब प्रतीकूल हो चुकी थी जिस का परिणाम यह हुआ कि रिपोर्ट नकार दी गई l
-इस के बाद 2013 में नारायण राणे की अध्यक्षता में एक समीती गठीत की गई l इस समीती की रिपोर्ट के आधार पर 2014 में मराठा समुदाय को SEBC प्रवर्ग के अंतर्गत 16 % आरक्षण बहाल किया गया, जिसे मुंबई उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई और मुंबई उच्च न्यायालय ने इसे रद्द कर दिया l
-इस के पश्चात 2016 में कोपर्डी की शर्मनाक घटना का प्रगत महाराष्ट्र गवाह बना, इस घटना की निंदा हेतू औरंगाबाद शहर के क्रांति चौक से एक मोर्चा निकला और फिर शुरू हुआ महाराष्ट्र में मोर्चों का सिलसिला l धीरे धीरे इन मोर्चों ने एक अलग रूप ले लिया और अब मराठा आरक्षण की माँग तूल पकड़ने लगी l महाराष्ट्र में मराठों के कुल 58 मोर्चे निकले थे l
-इस के बाद 2016 में महाराष्ट्र सरकार द्वारा मराठा आरक्षण पर विचार एवं अध्ययन करने हेतू फडणवीस सरकार द्वारा म्हसे आयोग का गठन किया गया l किंतु इस आयोग के अध्यक्ष का निधन होने के कारण यह आयोग निरस्त हो गया l
-इस के बाद 2017 में न्या. गायकवाड़ की अध्यक्षता में गायकवाड़ आयोग की स्थापना की गई l इस आयोग ने अपने सर्वेक्षण पश्चात रिपोर्ट तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार को 2018 में सौंपी l इस रिपोर्ट को आधार बना कर तत्कालीन फडणवीस सरकार ने मराठा समुदाय को SEBC प्रवर्ग के अंतर्गत 16 % आरक्षण प्रदान किया l
-मराठा समुदाय के लिए शिक्षा के क्षेत्र में 12 % और सरकारी नौकरीयों में 13 % आरक्षण को मुंबई उच्च न्यायालय ने मान्यता दी थी l मुंबई उच्च न्यायालय के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में पहले स्थगित किया गया और बाद में 05 मई 2021 बरोज़ बुधवार को रद्द कर दिया गया l
प्रभावी मुद्दे
मराठा आरक्षण प्रदान करने वाला क़ानून रद्द होने में निम्नलिखित तीन मुद्दे महत्वपुर्ण सिद्ध हुए l
1: इस क़ानून के विरुध्द याचिका कर्ताओं ने भारतीय संविधान के शिल्पकार डॉ. बी. आर. अंबेडकर के संविधान सभा के समक्ष दिए गए उस कथन को अपना आधार बनाया जिस में डॉ. बी. आर. आंबेडकर ने कहा था कि, "यदि आरक्षण 50 % की मर्यादा का उल्लंघन करता हैं तो यह रिव्हर्स डिस्क्रिमिनेशन सिद्ध होगा l" याचिका कर्ताओं द्वारा प्रस्तुत इस मुद्दे का सुप्रीम कोर्ट द्वारा गंभीरता से विचार किया गया l
-दूसरा मुद्दा जो इस कानून के विरुद्ध प्रभावी सिध्द हुआ वो था महाराष्ट्र में अब तक हुए मुख्यमंत्रीयों में मराठा समुदाय से आने वाले मुख्यमंत्रीयों की संख्या, महाराष्ट्र के शकर कारखानों पर मराठा समुदाय का वर्चस्व, सहकारी बैंको और अन्य क्षेत्रों में मराठों के प्रतिनिधीत्व के आँकड़े l
-तीसरा मुद्दा इंदिरा साहनी केस में सुप्रीम कोर्ट द्वारा ली गई भूमिका का समर्थन था l
उपरोक्त तीनों मुद्दों की इस कानून को रद्द करने में सब से अहम भूमिका रही l
मराठा आरक्षण, सरकार और न्यायालय
यह फैसला आने के बाद विविध मंचों पर केंद्र एवं राज्य सरकारों और उच्चतम न्यायालय को आलोचना का निशाना बनाया जा रहा हैं जो कि सही नहीं हैं l मराठा वोट बँक को मद्दे नज़र रखते हुए तत्कालीन फडणवीस सरकार, विद्यमान ठाकरे सरकार एवं केंद्र सरकार ने अपने अपने स्तर पर हर संभव प्रयास किया की यह कानून सुप्रीम कोर्ट में टिके इसलिए किसी भी सरकार को दोष देना निरर्थक हैं क्योंकि सुप्रीम कोर्ट संविधान और कानून के आधार पर अपने फैसले सुनाती हैं l सुप्रीम कोर्ट कानून एवं संविधान के आधार पर निर्णय देने में सक्षम हैं l इसलिए राज्य में या केंद्र में कौन मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री हैं या सरकारों द्वारा कौन से वकील सुप्रीम कोर्ट में खड़े किये गए थे ? ये चर्चाएँ निरर्थक हैं l
इंदिरा साहनी केस और आरक्षण
जब भी आरक्षण के मुद्दे पर कही कोई चर्चा या बात होती हैं तो इंदिरा साहनी केस का उल्लेख अवश्य किया जाता हैं l आखिर यह प्रकरण था क्या ? इस की पार्श्वभूमी क्या थी ? सुप्रीम कोर्ट की भूमिका क्या थी ? आइये जानते हैं इन प्रश्नों प्रश्नों के उत्तर l
आरक्षण की मर्यादा से संबंधीत यह केस हैं l आपातकाल के पश्चात 1977 में सत्ता में आई जनता दल की सरकार ने छोटी, बड़ी, माध्यम एवं पिछड़ी जातीयों को आरक्षण देने हेतू कदम उठाने शुरू किये l इस उद्देश्य की प्राप्ती हेतू तत्कालीन केंद्र सरकार द्वारा 1979 में दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया गया l इस आयोग के अध्यक्ष थे बिहार के समाजवादी सांसद बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल l यही आयोग मंडल आयोग के नाम से प्रसिध्द हुआ और इसी की प्रतिक्रिया के स्वरुप कमंडल की राजनीती शुरू हुई l इस आयोग ने 1980 में तत्कालीन केंद्र सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी l मंडल आयोग की रिपोर्ट के अनुसार उस समय भारत की 52 % आबादी सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़ी हुई थी और पिछड़े वर्ग में समावेश हेतू योग्य थी l इसी बिच अंतर्गत मतभेदों के चलते यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा करने से पहले ही गिर गई और इंदिरा गाँधी का सत्ता के गलियारों में पुनरागमन हुआ l लगभग एक दशक तक मंडल आयोग की रिपोर्ट पर कोई कारवाई नहीं की गई और रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया l वि. पी. सिंह सरकार द्वारा (जो कि 1989 में बनी) 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कर दिया गया l इन सिफारिशों के लागू होने के पश्चात तत्कालीन सरकार के इस फैसले के खिलाफ देश में हिंसक आंदोलनों का सैलाब सा आ गया l तत्कालीन सरकार के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई और बाद में यही केस इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार के नाम से प्रसिद्ध हुआ l इस याचिका पर सुप्रीम कोर्ट की 09 सदस्यीय बेंच ने 06 बनाम 03 जजों के बहुमत से इस केस पर अपना अंतिम निर्णय 1992 में सुनाया l अपने फैसले में इस बेंच ने तत्कालीन सरकार के फैसले को वैध बताते हुए जाती को सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ेपन का मुख्य निकष माने जाने का मत व्यक्त किया l अन्य पिछड़ा वर्ग हेतू 27 % आरक्षण का प्रावधान भी सुप्रीम कोर्ट ने सही बताया था l कुल उपलब्ध स्थानों में ज़्यादा से ज़्यादा 50 % आरक्षण की मर्यादा भी सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट की l असाधारण परिस्थितीयों में आरक्षण की इस मर्यादा के उल्लंघन की अनुमती भी सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फैसले में दी थी l
सुप्रीम कोर्ट और मराठा आरक्षण
भारतीय संविधान के शिल्पकार डॉ. बी. आर. आंबेडकर ने 30 नवम्बर 1948 को संविधान सभा के समक्ष दिए गए अपने भाषण में 50 % से अधिक आरक्षण को रिव्हर्स डिस्क्रिमिनेशन बताते हुए आरक्षण की मर्यादा 50 % तक ही निश्चित करने का मत व्यक्त किया था l यही बात सुप्रीम कोर्ट ने 1963 के एम. आर. बालाजी बनाम भारत केस से 1992 के इंदिरा साहनी केस तक और फिर 2006 के एम. नागराज केस से 2021 के सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग अधिनियम 2018 के केस में अपना फैसला सुनाते हुए दोहराई l
मराठा समुदाय को आरक्षण की ज़रूरत क्यों महसूस हुई ?
इस प्रश्न के उत्तर की तलाश में हमें 02 दशक पीछे जाना पड़ेगा l
-1990 में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद कई जातीयों को OBC में शामील किया गया l परिणाम स्वरुप सामान्य वर्गों के उम्मीदवारों के लिए सरकारी नौकरीयों में अवसरों की कमी आई और उन्हें आजीविका के लिए कृषी क्षेत्र की तरफ लौटना पड़ा l
-एक तरफ मंडल आयोग की सिफारिशें लागू हो रही थी तो वहीं दूसरी तरफ देश में उदारीकरण की हवाएँ तेज़ थी l सारा बोझ कृषि क्षेत्र पर आने लगा और उसी दशक में कृषी योग्य ज़मीनो का बड़े पैमाने पर बटवारा हुआ l फल स्वरुप कृषी से होने वाली आय में कमी आई l वहीं एक ओर शहरों से नज़दीक ज़मीनों के दाम आसमान छूने लगे l इस का परिणाम यह हुआ कि कई लोगों ने अपनी कृषी योग्य ज़मीने बेच दी l
-एक तरफ सरकारी नौकरीयों में सामान्य वर्ग के लिए कम होते अवसरों की समस्या थी तो वहीं दूसरी तरफ कृषी से होने वाली आय में आई कमी से सामान्य वर्गों में शामील समुदाय परेशानी का शिकार थे l वहीं एक ओर निजी क्षेत्रों में रोज़गार के अवसर और उन से होने वाली आय भी संतोषजनक नहीं थी l
-सरकारी नौकरियों में सामान्य वर्गों के लिए कम होते अवसरों के साथ साथ यह समुदाय सूखे की मार भी झेल रहे थे l महाराष्ट्र में 1972 के बाद 1986, 1992, 2001-03, 2013, 2014 और 2015 इन वर्षों में उल्लेखनीय सूखा पड़ा था, जिसका विपरीत परिणाम कृषी क्षेत्र पर पड़ा l
-कृषी क्षेत्र पर निर्भर वह समुदाय जो सामान्य वर्ग में शामील हैं उसे आशा हैं कि आरक्षण मिलने पर शिक्षा के क्षेत्र और सरकारी नौकरीयों में उन का प्रतिनिधीत्व बढ़ेगा और उन्हें कृषी पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा l
उपरोक्त कारणों से महाराष्ट्र के ज़मींदार मराठा समुदाय को भी आरक्षण की आवश्यकता महसूस हुई l
मराठा आरक्षण और तमिलनाडू का उदहारण
इस प्रकार महाराष्ट्र में फिलहाल आरक्षण का प्रमाण 52 % हैं यदि मराठा समुदाय को 16 % आरक्षण मिल जाता हैं तो भारत में आरक्षण दर वाला महाराष्ट्र दुसरा राज्य होगा l पहले नंबर पर 69 % के साथ तमिलनाडू बना रहेगा l मराठा आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से असहमती दर्शाने हेतू कुछ लोग तमिलनाडू के आरक्षण मॉडल का सन्दर्भ देते हैं l परंतू हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तमिलनाडू की तत्कालीन सरकार ने नरसिंहराव के कार्यकाल में संविधान संशोधन के माध्यम से अपने आरक्षण मॉडल का समावेश भारतीय संविधान के नववे परिशिष्ट में करवा लिया था l यही कारण हैं कि इंदिरा साहनी केस पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के दो दशकों बाद भी तमिलनाडू का आरक्षण मॉडल टिका हुआ हैं l
मराठा आरक्षण : पिक्चर अभी बाकी हैं
भले ही 05 मई 2021 को सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुना दिया हो परंतू मराठा आरक्षण की लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई और ना ही सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला मराठा आरक्षण पर पुर्ण विराम था l अभी भी कई पर्याय खुले हैं l तो चलिए बात करते हैं उन पर्यायों की l
-पहला पर्याय तो यह हैं कि इस फैसले के विरुध्द सुप्रीम कोर्ट ने पुनर्विलोकन याचिका (review petition) दायर की जा सकती हैं l
-दुसरा पर्याय हैं सुपर न्यूमररी कोटा अथवा असाधारण परिस्थिती सिद्ध कर के मराठा आरक्षण का रास्ता साफ करना l
-तीसरा पर्याय हैं मराठा समुदाय को राष्ट्रपती एवं प्रधामंत्री के निर्देशानुसार पिछड़े वर्ग की सूची में शामील करना l
-चौथा पर्याय हैं मराठा समुदाय का अन्य पिछड़ा वर्ग में समावेश कर के आरक्षण प्रदान करना और इस तरीके से यदि सरकार जाती हैं तो इस के लिए उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट की मंज़ूरी की भी आवश्यकता नहीं होगी l राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग भी मराठा समुदाय को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामील करने की सिफारिश राज्य सरकार से कर चूका हैं l यह एक आसान प्रक्रिया होगी परंतू इस रास्ते में राज्य सरकार के समक्ष दो मुख्य चुनौतीयाँ हैं l पहली चुनौती केंद्र सरकार को विश्वास में ले कर इस के लिए मनाना और दुसरी चुनौती हैं यदि सरकार इस रास्ते को अपनाती हैं तो महाराष्ट्र में मराठा बनाम OBC संघर्ष शुरू हो जाएगा l इस का कानून व्यवस्था पर प्रभाव पड़ने के साथ साथ एक प्रभाव यह भी होगा कि विरोधी राजनीतिक दल इस मुद्दे को खूब भुनाएगे और OBC वोट सत्ताधारी दलों के पाले में पड़ने की संभावना अगले चुनाव में धूमील हो सकती हैं l इसलिए शायद सरकार यह रास्ता ना अपनाए परंतू उपरोक्त तीन पर्यायों पर सरकार अवश्य गंभीरता से विचार करेगी l
-मराठा समुदाय की शैक्षणिक स्थिती बयान करने वाली कोई सर्वमान्य रिपोर्ट उपलब्ध नहीं हैं parantu मराठा सेवा संघ के अध्यक्ष पुरुषोत्तम खेडेकर ने जो ज्ञापन और आँकड़े राणे समीती को सौंपे सौंपे थे वह आँकड़े मराठा समुदाय की शैक्षणिक स्थिती की जो तस्वीर पेश करते हैं वह अत्यंत चिंताजनक और निराश करने वाली हैं l एक तरफ यह चित्र हैं तो वहीं दुसरी तरफ महाराष्ट्र की अधिकांश शिक्षण संस्थाएँ मराठा नेताओं के अधीन हैं l व्यवसायिक उच्च शिक्षण संस्थाओं के व्यवस्थापन को 15 % स्थान भरने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट ने प्रदान किया हैं जिसे management quota कहा जाता हैं और यहाँ आरक्षण लागू नहीं होता l यदि यह शिक्षा सम्राट अपनी संस्थाओं में गरीब और मेधावी मराठा छात्र-छात्राओं को मुफ्त में या नाममात्र शुल्क पर प्रवेश देंगे तो यह कदम मराठा समुदाय के शिक्षा एवं रोज़गार के क्षेत्र में विकास की राह में मील का पत्थर सिद्ध हो सकता हैं l
आधुनिक महाराष्ट्र में जाती, आरक्षण और राजनीति का स्वरुप एक जटील और अनोखी व्यवस्था हैं l आज़ादी के बाद हम ने उम्मीद की थी कि लोकतांत्रिक शासन, शिक्षा और आधुनिकीकरण आदि के प्रचार प्रसार से जाती जैसी सामाजिक संस्थाओं का महत्त्व कम होता जाएगा और कमज़ोर हो कर यह धीरे धीरे समाप्त हो जाएगी l परंतू सात दशकों बाद जब हम राजनीति पर नज़र दौड़ाते हैं तो पाते हैं कि हमारी आशाएँ धूमील हो चुकी हैं l आज जाती एवं जाती पर आधारित संगठनों का महत्त्व पहले के मुकाबले बढ़ गया हैं l जाती आज राजनीति का प्रमुख तथ्य हैं जिसे झुठलाना बेमानी होगा l आरक्षण की व्यवस्था ने राजनीति में जाती और जाती में राजनीति के महत्त्व को बढ़ाया हैं l अब देखना हैं कि यह आग और क्या कुछ भस्म करती हैं l फिलहाल मराठा आरक्षण का भविष्य क्या होगा ? यह कह पाना मुश्किल हैं मगर आने वाला समय इन सारे प्रश्नों के उत्तर ले कर आएगा l
तब तक के लिए wait & watch क्योंकि पिक्चर अभी बाकी हैं..........
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