भारत में हाशिये पर खड़े मुसलमान और आरक्षण मुसलमान भारत का अटूट अंग हैं l मुसलमानों की अपनी भाषा, संस्कृती और जीवन शैली हैं lमुसलमान आज़ादी के बाद राजनी
भारत में हाशिये पर खड़े मुसलमान और आरक्षण
भारत आबादी और क्षेत्रफल की दृष्टी से एक बड़ा देश हैं l भारत के कोने कोने में मुसलमान बसते हैं l मुसलमान भारत का अटूट अंग हैं l मुसलमानों की अपनी भाषा, संस्कृती और जीवन शैली हैं l इस के बावजूद मुसलमानों को भारत में हमेशा नज़र अंदाज़ किया गया l मुसलमानों को कदम कदम पर भेदभाव का शिकार होना पड़ता हैं और भारत में तो सामाजीक भेदभाव का सदीयों पुराना इतिहास रहा हैं l मुसलमान आज़ादी के बाद से ले कर आज तक पिछड़ेपन का शिकार रहे हैं l आज़ादी के बाद से ले कर आज तक देश के दूसरे नंबर के बहुसंख्य समुदाय की राजनीतिक भागीदारी एवं सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक परिस्थिती बड़ी चिंताजनक रही हैं l आज अगर इस समुदाय को शिक्षा, रोज़गार एवं राजनीतिक क्षेत्र में आरक्षण दिया जाए तो यह समुदाय मुख्य धारा में आ सकता हैं जो कि, संसाधनों के अभाव में इन क्षेत्रों में मुख्य धारा से बहुत दूर हैं l प्रस्तुत लेख में मुसलमानों की भारत और महाराष्ट्र में राजनीतिक भागीदारी के साथ साथ वर्तमान परिस्थितियों का जायज़ा लिया गया हैं l
भारत में मुसलमानों का समावेश अल्पसंख्यकों में होता हैं l विभीन्न राजनीतिक विशेषज्ञों ने अल्पसंख्यकों की विभीन्न व्याख्याएँ की हैं l सुभाष सी. कश्यप और विश्वप्रसाद गुप्त के अनुसार,
"अल्पसंख्यक मतलब बहुमत के विरुध्द मतदान करने वाली छोटी संख्या अथवा भाग l किसी देश या जनसमुदाय में लोगों का अल्पसंख्यक वर्ग l वह जनसमुदाय जो संख्या में अपेक्षाकृत कम हो परंतु जिस की अपनी भाषागत, धार्मिक, सांस्कृतिक, सांप्रदायिक अथवा जातीगत विशेषताएँ हो और वे उन का संरक्षण चाहते हो l"
देश में मुसलमानों की राजनीतिक भागीदारी एवं वर्तमान स्थिती को समझने के लिए मुसलमानों की जनसँख्या की जानकारी होना बेहद आवश्यक हैं ताकि हमें पता चल सके कि, भारत में बसने वाली आबादी का कितना प्रतिशत इस समुदाय से आता हैं एवं उन की समस्याएँ क्या हैं ?
भारत की जनगणना 2011 जनगणना आयुक्त सी. चंद्रमौली द्वारा राष्ट्रराज्य को समर्पित भारत की 15वी राष्ट्रीय जनगणना थी l अंतिम जारी प्रतिवेदन के अनुसार भारत की आबादी 2011 में 01,21,01,93,422 थी l 2011 की जनगणना के लिए कुल 27 लाख अधिकारीयों एवं कर्मचारीयों ने 7000 नगरों, कस्बों और 06 लाख गावों के परिवारों के यहाँ पधार कर आँकड़े जुटाए l इस काम में कुल 22 अरब रुपये खर्च हुए थे l 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल जनसँख्या 01,21,01,93,422 थी l इन में मुसलमानों की संख्या 17.22 करोड़ मतलब कुल जनसँख्या का 14.23 % थी l वही दूसरी तरफ 2011 की जनगणना के अनुसार महाराष्ट्र की कुल आबादी 11,23,72,972 मतलब देश की कुल जनसँख्या का 9.29 % थी l इस में मुसलामनों की कुल संख्या 01,29,71,152 मतलब राज्य की कुल आबादी का 11.54 % थी l इसे निम्नलिखित सारणी से समझा जा सकता हैं l
*Source : Census 2011
अगर हम शिक्षा के क्षेत्र की बात करें तो इस क्षेत्र में मुसलमान बाकी सभी समुदायों से काफी पीछे हैं l चाहें फिर हम भारत की बात करें या महाराष्ट्र की l मुसलमान अन्य समुदायों से शिक्षा के मामले में बहुत पीछे हैं l इस के कई कारण हैं, जिन में से मुख्य कारण हैं संसाधनों का अभाव l संसाधनों के अभाव के कारण मुस्लिम छात्र एवं छात्राएँ अपनी पढ़ाई मुकम्मल नहीं कर पाते और बिच में ही शिक्षा अधूरी छोड़ कर कमाने के लिए निकल जाते हैं l आज अगर हम बाल मज़दूरी की बात करें तो इस में मुस्लिम बच्चों की संख्या काफी चिंताजनक हैं, जो छोटे मोटे काम कर के अपनी आजीविका हेतू संघर्ष करते नज़र आते हैं l दुसरा बड़ा कारण हैं आरक्षण l आरक्षण ना होने के कारण मुसलमानों को आरक्षित वर्गों से अधिक फीस चुकानी पड़ती हैं जो चुकाने में अधिकांश मुस्लिम परिवार सक्षम नहीं होते l इस का परिणाम ये होता हैं कि, या तो वे शिक्षा को बिच में ही छोड़ देते हैं या ना चाहते हुए भी अन्य कोर्सेस में प्रवेश लेने पर मजबूर हो जाते हैं l यहाँ एक पहलू छात्रवृत्ती का भी हैं l मुस्लिम छात्र एवं छात्राओं को आवश्यकता के अनुरूप छात्रवृत्ती नहीं मिल पाती या जहाँ मिलती भी हैं तो वो समय पर नहीं मिलती l तीसरा मुख्य कारण हैं वह सोच जो भेदभाव एवं शासक दल की विचारधारा और उस के खुल-ए-आम प्रचार के कारण मुसलमानों में पनप रही हैं कि, पढ़ाई मुकम्मल होने के बाद भी मुसलमानों को नौकरीयाँ नहीं मिलती l इस सोच को पूरी तरह से स्वीकारा नहीं जा सकता मगर पूरी तरह से नकारा भी नहीं जा सकता क्योंकि ऐसे कई उदाहरण हमारे सामने मौजूद हैं कि, केवल धर्म विशेष के अनुयायी होने के कारण उन्हें नौकरी नहीं दी जाती या घर किराए पर नहीं दिया जाता l ऐसे कई कारण हैं जिस की वजह से मुसलमान शिक्षा के क्षेत्र में बाकी समुदायों से पिछड़े हुए हैं l इसे निम्नलिखित सारणी द्वारा आसानी से समझा जा सकता हैं l
*source : Census of India, Data on religious communities.
यदि हम रोज़गार की बात करें तो इस क्षेत्र में भी मुसलमानों की दुर्दशा नज़र आती हैं l रोज़गार के मामले में भी मुसलमान अन्य समुदायों से पिछड़े हुए नज़र आते हैं l रोज़गार का कोई भी क्षेत्र हो वहाँ मुसलमानों की भागीदारी बेहद चिंताजनक हैं l फिर चाहें वह कृषी क्षेत्र हो, उद्योग हो, पारंपारिक अथवा आधुनिक सेवाओं का क्षेत्र हो या फिर चाहें संघटीत या असंघटीत सेवाओं का क्षेत्र हो l हर क्षेत्र मेमुसलमान अन्य समुदायों से पिछड़े हुए हैं l आइये निम्नलिखित सारणी से इसे समझते हैं l उपरोक्त सारणी से हम अंदाज़ा लगा सकते हैं कि, कैसे मुस्लिम समुदाय भारत में रोज़गार के क्षेत्र में अपनी आजीविका के लिए संघर्ष करता हैं और क्यों छोटे मोटे काम करने पर मजबूर हैं l रोज़गार के हर क्षेत्र में आज मुसलमान अनुसूचित जाती एवं जनजातीयों से भी अधिक पिछड़ा हुआ हैं l उपरोक्त आंकड़ों के आधार पर कहाँ जा सकता हैं कि, आज भारत में मुसलमानों के हालात अनुसूचित जाती एवं जनजातीयों से भी बदतर हैं l इन हालात को बदलने में आरक्षण महत्वपुर्ण भूमिका निभा सकता हैं l
अगर हम सार्वजनीक सेवाओं में मुसलमानों की भागीदारी की बात करें तो यहाँ भी निराशा ही हाथ लगती हैं, क्योंकि सार्वजनीक सेवाओं में भी मुसलमानों की भागीदारी नगण्य ही हैं l स्वास्थय विभाग में मुसलमानों की संख्या केवल 4.5 % हैं, जबकि न्यायालयीन सेवाओं में मुसलमानों की भागीदारी 7.8 %, प्रशासकीय सेवाओं में 3 प्रतिशत, पुलिस विभाग में 4 %, विदेश सेवाओं में 1.8 %, शिक्षा के क्षेत्र में 6.5 %, रेल्वे सेवाओं में 4.5 %, गृह विभाग में 7.3 प्रतिशत मुसलमानों की भागीदारी हैं जबकि आबादी में यही भागीदारी 14.23 % हैं l इन आँकड़ों से साफ़ स्पष्ट हैं कि, रोज़गार एवं सार्वजनीक सेवाओं में आज भी मुसलमान आबादी के अनुपात में भागीदारी से वंचित हैं l आइये इसे निम्नलिखित सारणी से समझते हैं l
*Source : National Sample Survey (NSS)
अगर मुसलमानों की राजनीतिक भागीदारी की बात की जाए तो और भी ज़्यादा निराशाजनक आँकड़े सामने आते है l भारत की संसद में मुस्लिम सांसदों का प्रतिनिधीत्व आज़ादी के बाद से ले कर आज तक कभी भी 10 % से अधिक नहीं रहा l मुस्लिम सांसदों की सब से अधिक संख्या (49 सांसद) 1980 की 7वीं लोकसभा में थी जो की कुल सीटों का 9.26 % थी l यदि 1951-2019 तक की 17 लोकसभा में मुस्लिम प्रतिनिधीत्व की बात की जाए तो आज़ादी के बाद से आज तक मुसलमानों का प्रतिनिधीत्व संसद में आबादी के अनुपात में नहीं रहा जो कि चिंताजनक है l एक वह समय था जब भाजपा को अल्पसंख्यकों से संबंधित विचारों के कारण राजनीति में अछूत समझा जाता था और कोई भी राजनीतिक दल (अपवाद छोड़ कर) उस के साथ गठबंधन करने या उसे समर्थन देने हेतू राज़ी नहीं था l यही कारण था कि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार केवल एक मत से गिर गई थी l इस घटना से व्यथीत हो कर ज्येष्ठ पत्रकार बलबीर पुंज ने कहा था कि, "देश में कौन सा दल सत्ता में आएगा ये मुस्लिम निश्चित करते है l" धीरे धीरे देश के राजनीतिक हालात बदलते गए l फिर साल 2004 आया और कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार बनी l कांग्रेस के नेतृत्व वाली इस सरकार को वामपंथी दलों का भी समर्थन प्राप्त था और इस समर्थन ने बलबीर पुंज के इस भ्रम को और मज़बूती प्रदान की l यह स्थिती 10 सालों तक बनी रही l देश का राजनीतिक चित्र तेज़ी से बदलने लगा था और अब भाजपा की धुरी आई अमित शाह और मोदी के हाथों में l इस जोड़ी ने इस भ्रम को तोडा l इस जोड़ी ने देश की राजनीति को एक नया फॉर्मूला दिया l इस फॉर्मूले के अनुसार अब सरकार बनाने या सत्ता प्राप्त करने हेतू मुस्लिम मतों की आवश्यकता नहीं पड़ती l इस फॉर्मूले के तहत भारत में मुसलमानों को राजनीतिक तौर पर अछूत बनाया जा रहा है l लेखक के इस दावे की दलील हैं, मुसलमानों के प्रती विश्व के सब से बड़े राजनीतिक दल होने का दावा करने वाली भाजपा का रवैय्या l अब ना मुसलमानों की बात होती हैं, ना उन्हें टिकट दिए जाते हैं और ना सत्ता में भागीदारी l मोदी और शाह की जोड़ी ने मुस्लिम मतों के बिना भी सत्ता प्राप्ती का फॉर्मूला ढूंढ निकाला हैं जिस की कीमत देश अपने सांप्रदायिक सौहार्द और सहिष्णुता की बली दे कर चूका रहा हैं l लोकसभा में अनुसूचित जाती (SC) के लिए 84 और अनुसूचित जनजाती (ST) के लिए 47 सीटें आरक्षित हैं जो कि प्रतिनिधीत्व का क्रमशः 15 एवं 7.5 प्रतिशत हैं l आज़ादी के बाद से आज तक लोकसभा में मुस्लिम प्रतिनिधीत्व को निम्नलिखित सारणी द्वारा समझा जा सकता हैं l
*Source : Lokniti - CSDS
2021 यह इतिहास के उन अस्वाभाविक पलों में से हैं जब राष्ट्रपती, उपराष्ट्रपती, लोकसभा अध्यक्ष, सशस्त्र बलों के प्रमुख, सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों, निर्वाचन आयोग या न्यायपालिका में किसी भी अहम पद पर कोई भी मुस्लिम नहीं हैं l मोदी सरकार का यह छठा साल हैं और इस सरकार में इस समय केवल एक मुस्लिम मंत्री हैं मुख्तार अब्बास नकवी l देश के 37 राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों में केवल 02 मुस्लिम राज्यपाल हैं l नजमा हेपतुल्लाह एवं मोहम्मद आरीफ खान l जबकि इन 37 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में एक भी मुस्लिम मुख्यमंत्री नहीं हैं l
अगर भारत के राज्यों की राजनीति में मुसलमानों की सत्ता में भागीदारी की बात की जाए तो भारत के 15 राज्य ऐसे हैं जहाँ कोई भी मुस्लिम मंत्री नहीं हैं l यह 15 राज्य हैं, आसाम, अरुणाचल प्रदेश, गोवा, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, उड़ीसा, सिक्किम, त्रिपुरा और उत्तराखंड l भारत के 10 राज्य ऐसे हैं जहाँ केवल एक एक मुस्लिम मंत्री हैं l इन 10 राज्यों में आंध्रप्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्यप्रदेश, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडू, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश और दिल्ली शामिल हैं l जबकि महाराष्ट्र में 04, केरला में 02 और सब से अधिक पश्चिम बंगाल में 07 मुस्लिम मंत्री हैं l
अगर महाराष्ट्र में मुसलमानों के राजनीतिक प्रतिनिधीत्व एवं हिस्सेदारी की बात की जाए तो महाराष्ट्र के गठन से ले कर आज मुसलमानों की सत्ता में भागीदारी के आँकड़े चौंकाने वाले हैं l आज तक महाराष्ट्र की विधान सभा में जनसँख्या के अनुपात में प्रतिनिधीत्व के लिए मुसलमान संघर्ष करते हुए नज़र आते हैं l यही वह राज्य हैं जिस ने भेदभाव के विरुद्ध कई आंदोलन देखे और समानता की स्थापना हेतू कई आन्दोलनों का गवाह बना l आइये निम्नलिखित सारणी द्वारा इस राज्य की विधान सभा में मुस्लिम प्रतिनिधीत्व का जायज़ा लेते हैं जो कि, कभी भी आबादी के अनुपात में नहीं रहा l
फिलहाल महाराष्ट्र की विधान सभा की 288 सीटों में से 29 सीटें अनुसूचित जाती (SC) और 25 सीटें अनुसूचित जनजाती (ST) हेतू आरक्षित हैं l
अगर हम महाराष्ट्र के स्थानिक स्वराज्य संस्थाओं में मुसलामनों की भागीदारी एवं प्रतिनिधीत्व की बात करें तो यहाँ भी निराशा ही हाथ लगती हैं l महाराष्ट्र में 26 महानगर पालिकाएँ, 230 नगर परिषदें, 104 नगर पंचायतें, 34 जिला परिषदें, 351 पंचायत समितीयाँ और 27,709 ग्राम पंचायतें हैं l इन स्थानिक स्वराज्य संस्थाओं की कुल संख्या 28,454 बनती हैं l इन 28,454 संस्थाओं में कुल 2 लाख 10 हज़ार 747 सीटें हैं l इन 2,10,747 सीटों में से 27,397 सीटें अनुसूचित जातीयों के लिए आरक्षित है जिन में से 50 प्रतिशत सीटें मतलब 13,698 सीटें इसी वर्ग की महिलाओं के लिए आरक्षित हैं l वहीं 14,752 सीटें अनुसूचित जनजाती (ST) हेतू आरक्षित हैं जिन में से 50 प्रतिशत अर्थात 7376 सीटें इसी वर्ग की महिलाओं के लिए आरक्षित हैं l जबकि इन 2,10,747 सीटों में से 40,041 सीटें अन्य अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए आरक्षित हैं जिन में से 50 प्रतिशत अर्थात 20,020 सीटें इसी वर्ग से आने वाली महिलाओं हेतू आरक्षित हैं l इन आरक्षित सीटों पर मुसलमान चुनाव नहीं लड़ सकते l इन आँकड़ों को आसानी से समझने हेतू निम्नलिखित श्रेणी में दर्शाया गया हैं l
*Source : Election Commission of Maharashtra
उपरोक्त आँकड़ों से भारत के विभीन्न क्षेत्रों में मुसलमानों के प्रतिनिधीत्व एवं भागीदारी का अंदाज़ा लगाया जा सकता l ऐसा नहीं हैं कि, यह मुसलमानों की आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक एवं राजनीतिक दुर्दशा को बयान करने वाली पहली रिपोर्ट या पहले अध्ययन हैं l मुसलमानों की आर्थिक एवं शैक्षणिक परिस्थिती जानने हेतु आज़ादी के पहले से ले कर आज तक कई आयोग एवं समितियाँ गठीत की गई l इन सब आयोगों एवं समीतीयों के अध्ययन में जो बात समान रूप से निकल कर सामने आई वह यह थी कि, भारत में मुसलमान हर क्षेत्र में अन्य समुदायों से पीछे हैं l रंगनाथ मिश्रा आयोग ने तो मुसलमानों के लिए आरक्षण की भी माँग की थी परंतु इन सब आयोगों एवं समीतीयों के अध्ययन और सिफारिशों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया l समीतीयों एवं आयोगों के गठन का यह खेल आज़ादी के पहले से शुरू हुआ था जो अब भी जारी हैं l
सब से पहले 1871 में विलीयम विल्सन हंटर का का अध्ययन पेश किया गया l इस के बाद 1886 में रॉयल कमीशन की स्थापना की गई l सर सय्यद अहमद खान और काज़ी शहाबुद्दीन इस आयोग के अन्य सदस्यों में से थे l इस आयोग ने विशेष तौर पर न्यायीक सेवाओं में मुसलमानों की कम भागीदारी पर गहरी चिंता जताई थी l 1912 में इस्लिंग्टन आयोग गठीत हुआ l इस आयोग की रिपोर्ट 1917 में प्रकाशित हुई, जिस में यह बताया गया कि, हिंदुओं की तुलना में मुसलमान 18 में से 13 विभागों में पिछड़े हुए हैं l 1924 में मुद्दीमान आयोग की स्थापना की गई l इस प्रकार मुसलमानों की आर्थिक, शैक्षणिक एवं रोज़गार में भागीदारी जानने के लिए और उन्हें उचित स्थान दिलाने सिफारिशों के लिए आज़ादी से पहले भी अनेक आयोग एवं समीतीयाँ गठीत की गई l
आज़ादी के बाद 1965 में प्रकाशित एक दस्तावेज़ में इंदर मल्होत्रा ने रोज़गार के क्षेत्र में मुसलमानों के घटते प्रतिनिधीत्व पर गहरा दुःख व्यक्त किया था l 1968 में अमेरिकी पत्रकार जोसफ लेलीवेल्ड ने भी इस स्थिती के लिए मुसलमानों के गिरते मनोबल और देश में उन के साथ हो रहे खुले भेदभाव को ज़िम्मेदार ठहराया था l 10 मई 1980
को इंदिरा गाँधी की सरकार द्वारा गोपाल सिंह आयोग की स्थापना की गई l उस समय आयोग के कार्य पर 57.77 लाख रुपये खर्च हुए थे l 10 जून 1983 को आयोग ने सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी l सरकार ने इस रिपोर्ट को दबाने का हर संभव प्रयास किया परंतु गोपाल सिंह के निधन के पश्चात दुःख और अल्पसंख्यकों के क्रोध के वातावरण में सरकार ने मजबूरन इस रिपोर्ट को 24 अगस्त 1990 को लोकसभा के समक्ष प्रस्तुत तो किया परंतु तत्कालीन सरकार ने आयोग की सभी महत्वपुर्ण सिफारिशों को अस्वीकार कर दिया l 1989 में सुरेंद्र नवलखा का प्रसिध्द अध्ययन भी प्रकाशित हुआ l फिर 2005 में मनमोहन सिंह सरकार द्वारा दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रहे जस्टीस राजिंदर सच्चर की अध्यक्षता में देश के मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक दशा जानने के लिए एक समीती गठीत की जिस ने अपनी रिपोर्ट 30 नवंबर 2006 को तत्कालीन सरकार को सौंपी l इस अध्ययन के सामने आने के बाद पहली बार पता चला कि देश में मुसलमानों की दशा अनुसूचित जाती (SC) एवं जनजाती (ST) से भी बदतर और ख़राब हैं l इस समीती की रिपोर्ट भारतीय मुसलमानों के आर्थिक, सामाजिक तथा शैक्षणिक हालात का आइना हैं l इस रिपोर्ट के आने के 15 सालों बाद भी देश के मुसलमानों के हालात में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया, मगर इतना ज़रूर हुआ कि, इस रिपोर्ट के आने के आने के बाद मुख्य धारा के तबके में मुसलमानों के पिछड़े पन और विकास के मुद्दों पर खुल कर बात होने लगी हैं l इस रिपोर्ट ने मुसलमानों के आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक विकास के नज़रिये और संवाद में काफी हद तक तब्दीली लाई हैं l "सच्चर की सिफारिशें" नामक पुस्तक के लेखक अब्दुल रहमान अपनी इस पुस्तक के द्वितीय संस्करण की प्रस्तावना में लिखते हैं कि, "तथ्य कभी पुराने नहीं होते l विशेष कर जब तक उन्हें सुधारा ना जाए या बेहतर तथ्यों या परिणामों से बदल ना दिया जाए l" यही बात सच्चर समीती की रिपोर्ट पर भी लागू होती हैं l इस के पश्चात 2007 में रंगनाथ मिश्रा आयोग का गठन किया गया, जिस का हाल आप सब जानते ही हैं l इस के इलावा विभिन्न राज्यों में भी इस मकसद के तहत समय समय पर विभिन्न आयोग एवं समीतीयों का गठन किया जाता रहा हैं l मुसलमान और आरक्षण
उपरोक्त आँकड़ों की रौशनी में यह बात चमकते हुए सूरज की मानिंद बिल्कुल साफ़ हो जाती हैं कि, आज मुसलमान अन्य समुदायों के मुकाबले हर क्षेत्र में काफी पिछड़े हुए हैं l रोज़गार, शिक्षा एवं राजनीतिक क्षेत्रों में मुसलमानों का प्रतिनिधीत्व कभी भी आबादी के अनुपात में नहीं रहा l आज भारत में मुसलमानों की हालत दलीत एवं आदिवासीयों से भी बदतर हैं l ऐसे हालात में मुसलमानों को मुख्य धारा में लाने के लिए आरक्षण एक बहतरीन उपाय हैं l आरक्षण से एक लाभ ये होगा कि, शिक्षा, राजनीति एवं रोज़गार के क्षेत्र में मुसलमानों का प्रतिनिधीत्व सुनिश्चित हो जाएगा l
भारत में आरक्षण एक संवेदनशील विषय रहा हैं l पिछले कुछ दशकों में आरक्षण का मुद्दा सामाजिक और राजनीतिक दृष्टी से बहुत संवेदनशील बन चूका हैं l भारत में आरक्षण पर राजनीति के एक लंबे दौर के हम गवाह हैं l भारत ने आरक्षण के लिए आंदोलनों का एक लंबा दौर देखा हैं l आरक्षण के लिए अलग अलग राज्यों में आरक्षण के लिए आंदोलन होते रहे हैं, जिन में राजस्थान में गुर्जरों का, हरियाणा में जाटों का, गुजरात में पाटीदारों का और महाराष्ट्र में मुसलमानों एवं मराठों के आंदोलन मुख्य आंदोलनों में शामील हैं l
आरक्षण (Reservation) का अर्थ है अपनी जगह सुरक्षित करना | प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा हर स्थान पर अपनी जगह सुरक्षित या सुनिश्चित करने या रखने की होती है, चाहे फिर वह रेल के डिब्बे या बस में यात्रा करने के लिए हो या किसी अस्पताल में अपनी चिकित्सा कराने के लिए, किसी संस्था में शिक्षा प्राप्त करने के लिए हो या फिर विधानसभा या लोकसभा का चुनाव लड़ने की बात हो या किसी सरकारी विभाग में नौकरी पाने की । अर्थात आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षणिक क्षेत्र में आज हर नागरिक अपना स्थान सुनिश्चित करना चाहता हैं और अपना स्थान पहले ही सुनिश्चित करने का नाम आरक्षण हैं l
भारत में आरक्षण की बहस एवं शुरुआत आज़ादी के बहुत पहले से हो चुकी थी l आज आरक्षण का जो मॉडल भारत में हैं यह मॉडल कई चरणों में विकसित हुआ हैं l आइये इन चरणों पर बात करते हैं l
*भारत में आरक्षण की शुरूआत 1882 में हंटर आयोग के गठन के साथ हुई थी | उस समय विख्यात समाज सुधारक महात्मा ज्योतिराव फुले ने सभी के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा तथा अंग्रेज सरकार की नौकरियों में आनुपातिक आरक्षण/प्रतिनिधित्व की मांग की थी ।
*1891 के आरंभ में त्रावणकोर के सामंती रियासत में सार्वजनिक सेवा में योग्य मूल निवासियों की अनदेखी कर के विदेशियों को भर्ती करने के खिलाफ प्रदर्शन के साथ सरकारी नौकरियों में आरक्षण के लिए मांग की गई ।
*1901 में महाराष्ट्र के सामंती रियासत कोल्हापुर में शाहू महाराज द्वारा आरक्षण की शुरूआत की गई | यह अधिसूचना भारत में दलित वर्गों के कल्याण के लिए आरक्षण उपलब्ध कराने वाला पहला सरकारी आदेश है ।
*1908 में अंग्रेजों द्वारा बहुत सारी जातियों और समुदायों के पक्ष में (प्रशासन में जिनका थोड़ा-बहुत हिस्सा था के लिए) आरक्षण शुरू किया गया|
*1909 और 1919 के भारत सरकार अधिनियम में आरक्षण का प्रावधान किया गया |
*1921 में मद्रास प्रेसीडेंसी ने जातिगत सरकारी आज्ञापत्र जारी किया, जिसमें गैर-ब्राह्मणों के लिए 44 प्रतिशत, ब्राह्मणों के लिए 16 प्रतिशत, मुसलमानों के लिए 16 प्रतिशत, भारतीय-एंग्लो/ईसाइयों के लिए 16 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के लिए 8 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई थी |
*1935 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रस्ताव पास किया, (जो पूना समझौता कहलाता है) जिसमें दलित वर्ग के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग की गई थी |
*1935 के भारत सरकार अधिनियम में आरक्षण का प्रावधान किया गया था |
*1942 में बी. आर. अम्बेडकर ने अनुसूचित जातियों की उन्नति के समर्थन के लिए अखिल भारतीय दलित वर्ग महासंघ की स्थापना की | उन्होंने सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग की |
*1946 के कैबिनेट मिशन प्रस्ताव में अन्य कई सिफारिशों के साथ आनुपातिक प्रतिनिधित्व का प्रस्ताव दिया गया था |
*26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ | भारतीय संविधान में सभी नागरिकों के लिए समान अवसर प्रदान करते हुए सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछले वर्गों या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए संविधान में विशेष धाराएं रखी गई हैं । इसके अलावा 10 सालों के लिए उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए गए थे | (हर दस साल के बाद सांविधानिक संशोधन के जरिए इन्हें बढ़ा दिया जाता है) |
*1953 में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए कालेलकर आयोग का गठन किया गया था | इस आयोग के द्वारा सौंपी गई अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों से संबंधित रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया गया, लेकिन अन्य पिछड़ी जाति (OBC) के लिए की गई सिफारिशों को अस्वीकार कर दिया गया |
*1979 में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए मंडल आयोग की स्थापना की गई थी | इस आयोग के पास अन्य पिछड़े वर्ग (OBC) के बारे में कोई सटीक आंकड़ा नहीं था और इस आयोग ने ओबीसी की 52% आबादी का मूल्यांकन करने के लिए 1930 की जनगणना के आंकड़े का इस्तेमाल करते हुए पिछड़े वर्ग के रूप में 1,257 समुदायों का वर्गीकरण किया था |
*1980 में मंडल आयोग ने एक रिपोर्ट पेश की और तत्कालीन कोटा में बदलाव करते हुए इसे 22% से बढ़ाकर 49.5% करने की सिफारिश की | 2006 तक पिछड़ी जातियों की सूची में जातियों की संख्या 2297 तक पहुंच गई, जो मंडल आयोग द्वारा तैयार समुदाय सूची में 60% की वृद्धि हुई है ।
*1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों को विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा सरकारी नौकरियों में लागू किया गया। छात्र संगठनों ने इसके विरोध में राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन शुरू किया और दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह की कोशिश की थी |
*1991 में नरसिम्हा राव सरकार ने अलग से अगड़ी जातियों में गरीबों के लिए 10% आरक्षण की शुरूआत की |
*1992 में इंदिरा साहनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण को सही ठहराया |
*1995 में संसद ने 77वें सांविधानिक संशोधन द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की तरक्की के लिए आरक्षण का समर्थन करते हुए अनुच्छेद 16(4)(ए) का गठन किया | बाद में आगे भी 85वें संशोधन द्वारा इस में पदोन्नति में वरिष्ठता को शामिल किया गया था।
*12 अगस्त 2005 को उच्चतम न्यायालय ने पी. ए. इनामदार और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य के मामले में 7 जजों द्वारा सर्वसम्मति से फैसला सुनाते हुए घोषित किया कि राज्य पेशेवर कॉलेजों समेत सहायता प्राप्त कॉलेजों में अपनी आरक्षण नीति को अल्पसंख्यक और गैर-अल्पसंख्यक पर नहीं थोप सकता है। लेकिन इसी साल निजी शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लिए आरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए 93वां सांविधानिक संशोधन लाया गया। इसने अगस्त 2005 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को प्रभावी रूप से उलट दिया |
*2006 से केंद्रीय सरकार के शैक्षिक संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण शुरू हुआ।
*10 अप्रैल 2008 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारी धन से पोषित संस्थानों में 27% ओबीसी (OBC) कोटा शुरू करने के लिए सरकारी कदम को सही ठहराया | इसके अलावा न्यायालय ने स्पष्ट किया कि "क्रीमी लेयर" को आरक्षण नीति के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए |
*वर्ष 2019 में 103वें संविधान संशोधन के माध्यम से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 और अनुच्छेद 16 में संशोधन किया गया। संशोधन के माध्यम से भारतीय संविधान में अनुच्छेद 15 (6) और अनुच्छेद 16 (6) सम्मिलित किया, ताकि अनारक्षित वर्ग के आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को आरक्षण का लाभ प्रदान किया सके।
भारतीय संविधान में आरक्षण से संबंधित स्पष्ट प्रावधान मौजूद हैं l भारत में आरक्षण को संवैधानिक दर्जा, संरक्षण एवं आधार प्राप्त हैं l संविधान के भाग तीन में समानता के अधिकार की भावना निहित है। इसके अंतर्गत अनुच्छेद 15 में प्रावधान है कि किसी व्यक्ति के साथ जाति, प्रजाति, लिंग, धर्म या जन्म के स्थान पर भेदभाव नहीं किया जाएगा। अनुच्छेद 15(4) के मुताबिक यदि राज्य को लगता है तो वह सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े या अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के लिए विशेष प्रावधान कर सकता है।
*अनुच्छेद 16 में अवसरों की समानता की बात कही गई है। अनुच्छेद 16(4) के मुताबिक यदि राज्य को लगता है कि सरकारी सेवाओं में पिछड़े वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो वह उनके लिए पदों को आरक्षित कर सकता है।
*अनुच्छेद 330 के तहत संसद और 332 में राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित की गई हैं।
अब इस के बाद किसी के मन में यह सवाल उपस्थित हो सकता हैं कि, आरक्षण की आवश्यकता क्या हैं ? अथवा आरक्षण क्यों दिया जाता हैं ? भारत में सदीयों तक कुछ जातियां सामाजिक भेदभाव का शिकार रही l वे शिक्षा एवं पसंदीदा व्यवसाय जैसे अधिकारों से भी वंचित थी l इस व्यवस्था के चलते यह जातियां विकास और मुख्य धारा से बहुत दूर थी l भारत में आरक्षण का उद्देश्य केंद्र और राज्य में सरकारी नौकरियों, कल्याणकारी योजनाओं, चुनाव और शिक्षा के क्षेत्र में इन पिछड़े वर्गों की हिस्सेदारी को सुनिश्चित करना था ताकि समाज के पिछड़े वर्गों को आगे आने एवं मुख्य धारा में शामील होने का अवसर प्रदान किया जा सके l भारत में सरकारी सेवाओं और संस्थानों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं रखने वाले पिछड़े समुदायों तथा अनुसूचित जातियों और जनजातियों के सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए भारत सरकार ने सरकारी तथा सार्वजनिक क्षेत्रों की इकाइयों और धार्मिक/भाषाई अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को छोड़कर सभी सार्वजनिक तथा निजी शैक्षिक संस्थानों में पदों तथा सीटों के प्रतिशत को आरक्षित करने के लिए कोटा प्रणाली लागू की है। भारत के संसद में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधित्व के लिए भी आरक्षण नीति को विस्तारित किया गया है।
संविधान सभा के समक्ष जब यह मुद्दा उठा कि, आरक्षण किसे दिया जाए तो उस समय गहन विचार विमर्श के बाद कुछ जातीयों को अनुसूचित जातीयों में शामील कर के उन के लिए 15 % आरक्षण का प्रावधान किया गया l वही दूसरी तरफ कुछ जातीयों का समावेश अनुसूचित जनजातीयों में कर के उन के लिए 7.5 % आरक्षण का प्रबंध किया गया l शुरुआत में यह आरक्षण केवल 10 वर्षों के लिए था परंतू हर बार इसे 10 वर्षों के लिए बढ़ा दिया गया, इस आरक्षण की इस बार की समय सीमा 2026 में समाप्त होने वाली हैं l शुरुआत में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए आरक्षण का प्रावधान नहीं था l मोरारजी देसाई सरकार ने मंडल कमीशन का गठन किया परंतू कई सालों तक इस आयोग की रिपोर्ट एवं सिफारिशें ठंडे बस्ते में रही mgr वी. पी. सिंह की सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कर अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 % आरक्षण का प्रावधान किया जिसे उच्चतम न्यायलय ने वैध करार दिया l इस के बाद 2019 में मोदी सरकार ने आर्थिक रूप से पिछड़ेवर्ग के लिए 10 % का प्रावधान किया और आज के समय में आरक्षण की मर्यादा 49.5 % से बढ़ कर 59.5 % हो गई l बाकी 49.5 % जगह सामान्य वर्ग के लिए हैं जो कि आरक्षित वर्गों से आने वाले उम्मीदवारों के लिए भी खुली हैं l आइये आरक्षण के इन आंकड़ों को निम्नलिखित आँकड़ो से समझने का प्रयास करते हैं l
*Source : Government of India
वही दूसरी तरफ महाराष्ट्र में आरक्षण की सीमा 52 % हैं जबकि 16 % मराठा आरक्षण का मुद्दा न्यायलय में सुनवाई हेतू अधीन हैं l महाराष्ट्र में इस 52 % के विभीन्न वर्गों में विभाजन को निम्नलिखित चार्ट से समझा जा सकता हैं l
इस प्रकार महाराष्ट्र में कुल 52 % आरक्षण हैं यदि उच्चतम न्यायलय मराठा आरक्षण को हरी झंडी दिखा देता हैं तो यह आरक्षण 52 % से बढ़ कर 68 % हो जाएगा l
उपरोक्त आँकडे मुसलमानों की आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक एवं राजनीतिक हालात को बयान करते हैं l यह आँकड़े भारत में मुसलमानों की दुर्दशा की केवल झलक मात्र हैं l इन आँकड़ों से साफ़ ज़ाहिर हैं कि, आज मुसलमान हर क्षेत्र में अन्य समुदायों से पिछड़े हुए हैं और अनुसूचित जाती एवं जनजातीयों से बदतर हालात में ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं l यदि मुसलमानों को मुख्य धारा में लाना हैं या विकास के धारे से जोड़ना हैं तो निःसंदेह इस में आरक्षण एक अहम भूमिका अदा कर सकता हैं l अब यहाँ एक दिक्कत यह हैं कि, जब भी मुस्लिम आरक्षण की बात की जाती हैं तो कई लोग यह तर्क देते हैं कि भारत में धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता जबकि तथ्य कुछ और ही बयान करते हैं l
अनुसूचित जातीयों में अभी तक हिंदू, सिख और बौध्द ही शामील हैं l हालांकि अनुसूचित जाती आदेश 1950 के पैरा 03 में शुरू में लिखा गया था कि, "ऐसा कोई व्यक्ती अनुसूचित जाती में शामील नहीं होगा जो हिंदू धर्म से इतर किसी और धर्म को मानता हो l" फिर बाद में सिखों की माँग पर 1955 में इस में हिंदू शब्द के साथ सिख शब्द जोड़ा गया और 1990 में नवबौध्द शब्द जोड़ कर बौध्द धर्म अपनाने वाले दलितों को भी अनुसूचित जाती के आरक्षण का लाभ देने का रास्ता साफ कर दिया गया l 1996 में नरसिंह राव सरकार ने एक अध्यादेश के माध्यम से ईसाई धर्म अपनाने वाले दलितों को भी अनुसूचित जातीयों में शामील करने की कोशीश की थी मगर भाजपा के तीखे तेवर एवं विरोध के चलते इस अध्यादेश को ठंडे बस्ते में डालना पड़ा l तब से आज तक दलित ईसाई एवं वे मुसलमान जिन के पूर्वज कभी दलित हुआ करते थे खुद को इस वर्ग में शामील करने के लिए आंदोलन एवं मांगों के माध्यम से सरकारों पर दबाव बनाने का प्रयास कर रहे हैं l उपरोक्त संदर्भ में यदि बात की जाए तो भारत में बहुत हद तक आरक्षण का आधार धर्म ही रहा हैं l यह तथ्य उन लोगों की आँखें खोलने के लिए काफी हैं जो धर्म को मुस्लिम आरक्षण की राह में बाधा मानते हैं l खैर... मुसलमानों एवं ईसाईयों के इन आंदोलनों का ही नतीजा था कि, केंद्र सरकार ने 2007 में रंगनाथ मिश्रा आयोग को इस मसले पर विचार कर के सिफारिश करने का ज़िम्मा सौंपा था l जस्टीस रंगनाथ मिश्रा ने अपनी रिपोर्ट में साफ लिखा हैं कि, धर्म के आधार पर मुसलमानों एवं ईसाईयों को आरक्षण से वंचित रखना संविधान के खिलाफ हैं l" जस्टिस रंगनाथ मिश्रा ने यह भी कहाँ हैं कि, "संविधान में संशोधन किये बगैर ही ईसाई और इस्लाम धर्म अपनाने वाले दलीतों को भी अनुसूचित जातीयों में शामील किया जा सकता हैं l" रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफारिशों पर अनुसूचित जाती आयोग भी अपनी मुहर लगा चूका हैं l यदि रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफारिशों को मान लिया जाता हैं तो अनुसूचित जातीयों को मिलने वाली तमाम सुविधाएँ बेहद गरीब तबके के मुसलमानों को भी मिलने लगेगी लोकसभा की 79 और देश भर की विधान सभाओं की 1050 से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने का रास्ता भी साफ हो जाएगा जो अनुसूचित जातीयों के लिए आरक्षित हैं l इस चर्चा से यह बात भी साफ हो जाती हैं कि धर्म मुस्लिम आरक्षण की राह में बाधा नहीं हैं l
उपरोक्त विवेचन से साफ स्पष्ट हैं कि सरकार चाहे केंद्र की हो या राज्य की, दोनों ही सरकारों ने मुस्लिम आरक्षण एवं विकास के मामले में हमेशा अपना ठंडा रवैया कायम रखा हैं l स्वतंत्रता के पश्चात से ही मुस्लिम आरक्षण समय की मांग और आवश्यकता थी और आज भी मुसलमानों के शैक्षणिक एवं राजनीतिक विकास के लिए आरक्षण ज़रूरी हैं l सरकारी नौकरियों के क्षेत्र में मुसलमानों के नगण्य प्रतिनिधीत्व के नकारात्मक प्रभावों से मुस्लिम समुदाय की रक्षा और इस चित्र को बदलने हेतू मुस्लिम आरक्षण समय की मांग हैं l लेखक इस बात से भी सहमत हैं कि आरक्षण मुसलमानों की समस्यायों का मुकम्मल समाधान नहीं हैं परंतू आरक्षण से मिलने वाली सुविधाओं और आरक्षित सीटों पर चुनाव लड़ने के रास्ते के साफ होने के लाभों को भी नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता जो कि मुसलमानों की हर क्षेत्र में मौजूद दुर्दशा में सुधार हेतू रामबाण उपाय अथवा मील का पत्थर सिध्द हो सकते हैं l फिलहाल इस शेर पर कलम रोक रहा हूँ कि -
"वक्त कम हैं... जितना हैं ज़ोर लगा दो
कुछ को मैं जगाऊँ कुछ को तुम जगा दो"
COMMENTS