भारत में आरक्षण की वर्तमान स्थिति भारत में आरक्षण एक कभी ना समाप्त होने वाली चर्चा का विषय हैं l हर राज्य में आरक्षण की नीति एवं समस्या भिन्न हैं l
भारत में आरक्षण : एक जायज़ा
भारत में आरक्षण एक संवेदनशील विषय रहा हैं l पिछले कुछ दशकों में आरक्षण का मुद्दा सामाजिक और राजनीतिक दृष्टी से बहुत संवेदनशील बन चूका हैं l भारत में आरक्षण पर राजनीति के एक लंबे दौर के हम गवाह हैं l भारत ने आरक्षण के लिए आंदोलनों का एक लंबा दौर देखा हैं l आरक्षण के लिए अलग अलग राज्यों में आरक्षण के लिए आंदोलन होते रहे हैं, जिन में राजस्थान में गुर्जरों का, हरियाणा में जाटों का, गुजरात में पाटीदारों का और महाराष्ट्र में मुसलमानों एवं मराठों के आंदोलन मुख्य आंदोलनों में शामील हैं l
आरक्षण का अर्थ
आरक्षण (Reservation) का अर्थ है अपनी जगह सुरक्षित करना | प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा हर स्थान पर अपनी जगह सुरक्षित या सुनिश्चित करने या रखने की होती है, चाहे फिर वह रेल के डिब्बे या बस में यात्रा करने के लिए हो या किसी अस्पताल में अपनी चिकित्सा कराने के लिए, किसी संस्था में शिक्षा प्राप्त करने के लिए हो या फिर विधानसभा या लोकसभा का चुनाव लड़ने की बात हो या किसी सरकारी विभाग में नौकरी पाने की । अर्थात आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षणिक क्षेत्र में आज हर नागरिक अपना स्थान सुनिश्चित करना चाहता हैं और अपना स्थान पहले ही सुनिश्चित करने का नाम आरक्षण हैं l
भारत में आरक्षण का इतिहास
भारत में आरक्षण की बहस एवं शुरुआत आज़ादी के बहुत पहले से हो चुकी थी l आज आरक्षण का जो मॉडल भारत में हैं यह मॉडल कई चरणों में विकसित हुआ हैं l आइये इन चरणों पर बात करते हैं -
- *भारत में आरक्षण की शुरूआत 1882 में हंटर आयोग के गठन के साथ हुई थी | उस समय विख्यात समाज सुधारक महात्मा ज्योतिराव फुले ने सभी के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा तथा अंग्रेज सरकार की नौकरियों में आनुपातिक आरक्षण/प्रतिनिधित्व की मांग की थी ।
- *1891 के आरंभ में त्रावणकोर के सामंती रियासत में सार्वजनिक सेवा में योग्य मूल निवासियों की अनदेखी कर के विदेशियों को भर्ती करने के खिलाफ प्रदर्शन के साथ सरकारी नौकरियों में आरक्षण के लिए मांग की गई ।
- *1901 में महाराष्ट्र के सामंती रियासत कोल्हापुर में शाहू महाराज द्वारा आरक्षण की शुरूआत की गई | यह अधिसूचना भारत में दलित वर्गों के कल्याण के लिए आरक्षण उपलब्ध कराने वाला पहला सरकारी आदेश है ।
- *1908 में अंग्रेजों द्वारा बहुत सारी जातियों और समुदायों के पक्ष में (प्रशासन में जिनका थोड़ा-बहुत हिस्सा था के लिए) आरक्षण शुरू किया गया|
- *1909 और 1919 के भारत सरकार अधिनियम में आरक्षण का प्रावधान किया गया |
- *1921 में मद्रास प्रेसीडेंसी ने जातिगत सरकारी आज्ञापत्र जारी किया, जिसमें गैर-ब्राह्मणों के लिए 44 प्रतिशत, ब्राह्मणों के लिए 16 प्रतिशत, मुसलमानों के लिए 16 प्रतिशत, भारतीय-एंग्लो/ईसाइयों के लिए 16 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के लिए 8 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई थी |
- *1935 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रस्ताव पास किया, (जो पूना समझौता कहलाता है) जिसमें दलित वर्ग के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग की गई थी |
- *1935 के भारत सरकार अधिनियम में आरक्षण का प्रावधान किया गया था |
- *1942 में बी. आर. अम्बेडकर ने अनुसूचित जातियों की उन्नति के समर्थन के लिए अखिल भारतीय दलित वर्ग महासंघ की स्थापना की | उन्होंने सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग की |
- *1946 के कैबिनेट मिशन प्रस्ताव में अन्य कई सिफारिशों के साथ आनुपातिक प्रतिनिधित्व का प्रस्ताव दिया गया था |
- *26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ | भारतीय संविधान में सभी नागरिकों के लिए समान अवसर प्रदान करते हुए सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछले वर्गों या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए संविधान में विशेष धाराएं रखी गई हैं । इसके अलावा 10 सालों के लिए उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए गए थे | (हर दस साल के बाद सांविधानिक संशोधन के जरिए इन्हें बढ़ा दिया जाता है) |
- *1953 में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए कालेलकर आयोग का गठन किया गया था | इस आयोग के द्वारा सौंपी गई अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों से संबंधित रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया गया, लेकिन अन्य पिछड़ी जाति (OBC) के लिए की गई सिफारिशों को अस्वीकार कर दिया गया |
- *1979 में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए मंडल आयोग की स्थापना की गई थी | इस आयोग के पास अन्य पिछड़े वर्ग (OBC) के बारे में कोई सटीक आंकड़ा नहीं था और इस आयोग ने ओबीसी की 52% आबादी का मूल्यांकन करने के लिए 1930 की जनगणना के आंकड़े का इस्तेमाल करते हुए पिछड़े वर्ग के रूप में 1,257 समुदायों का वर्गीकरण किया था |
- *1980 में मंडल आयोग ने एक रिपोर्ट पेश की और तत्कालीन कोटा में बदलाव करते हुए इसे 22% से बढ़ाकर 49.5% करने की सिफारिश की | 2006 तक पिछड़ी जातियों की सूची में जातियों की संख्या 2297 तक पहुंच गई, जो मंडल आयोग द्वारा तैयार समुदाय सूची में 60% की वृद्धि हुई है ।
- *1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों को विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा सरकारी नौकरियों में लागू किया गया। छात्र संगठनों ने इसके विरोध में राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन शुरू किया और दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह की कोशिश की थी |
- *1991 में नरसिम्हा राव सरकार ने अलग से अगड़ी जातियों में गरीबों के लिए 10% आरक्षण की शुरूआत की |
- *1992 में इंदिरा साहनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण को सही ठहराया |
- *1995 में संसद ने 77वें सांविधानिक संशोधन द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की तरक्की के लिए आरक्षण का समर्थन करते हुए अनुच्छेद 16(4)(ए) का गठन किया | बाद में आगे भी 85वें संशोधन द्वारा इस में पदोन्नति में वरिष्ठता को शामिल किया गया था।
- *12 अगस्त 2005 को उच्चतम न्यायालय ने पी. ए. इनामदार और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य के मामले में 7 जजों द्वारा सर्वसम्मति से फैसला सुनाते हुए घोषित किया कि राज्य पेशेवर कॉलेजों समेत सहायता प्राप्त कॉलेजों में अपनी आरक्षण नीति को अल्पसंख्यक और गैर-अल्पसंख्यक पर नहीं थोप सकता है। लेकिन इसी साल निजी शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लिए आरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए 93वां सांविधानिक संशोधन लाया गया। इसने अगस्त 2005 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को प्रभावी रूप से उलट दिया |
- *2006 से केंद्रीय सरकार के शैक्षिक संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण शुरू हुआ।
- *10 अप्रैल 2008 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारी धन से पोषित संस्थानों में 27% ओबीसी (OBC) कोटा शुरू करने के लिए सरकारी कदम को सही ठहराया | इसके अलावा न्यायालय ने स्पष्ट किया कि "क्रीमी लेयर" को आरक्षण नीति के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए |
- *वर्ष 2019 में 103वें संविधान संशोधन के माध्यम से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 और अनुच्छेद 16 में संशोधन किया गया। संशोधन के माध्यम से भारतीय संविधान में अनुच्छेद 15 (6) और अनुच्छेद 16 (6) सम्मिलित किया, ताकि अनारक्षित वर्ग के आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को आरक्षण का लाभ प्रदान किया सके।
आरक्षण और भारतीय संविधान
भारतीय संविधान में आरक्षण से संबंधित स्पष्ट प्रावधान मौजूद हैं l भारत में आरक्षण को संवैधानिक दर्जा, संरक्षण एवं आधार प्राप्त हैं l संविधान के भाग तीन में समानता के अधिकार की भावना निहित है। इसके अंतर्गत अनुच्छेद 15 में प्रावधान है कि किसी व्यक्ति के साथ जाति, प्रजाति, लिंग, धर्म या जन्म के स्थान पर भेदभाव नहीं किया जाएगा। अनुच्छेद 15(4) के मुताबिक यदि राज्य को लगता है तो वह सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े या अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के लिए विशेष प्रावधान कर सकता है।
- अनुच्छेद 16 में अवसरों की समानता की बात कही गई है। अनुच्छेद 16(4) के मुताबिक यदि राज्य को लगता है कि सरकारी सेवाओं में पिछड़े वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो वह उनके लिए पदों को आरक्षित कर सकता है।
- *अनुच्छेद 330 के तहत संसद और 332 में राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित की गई हैं।
आरक्षण की आवश्यकता
अब इस के बाद किसी के मन में यह सवाल उपस्थित हो सकता हैं कि, आरक्षण की आवश्यकता क्या हैं ? अथवा आरक्षण क्यों दिया जाता हैं ? भारत में सदीयों तक कुछ जातियां सामाजिक भेदभाव का शिकार रही l वे शिक्षा एवं पसंदीदा व्यवसाय जैसे अधिकारों से भी वंचित थी l इस व्यवस्था के चलते यह जातियां विकास और मुख्य धारा से बहुत दूर थी l भारत में आरक्षण का उद्देश्य केंद्र और राज्य में सरकारी नौकरियों, कल्याणकारी योजनाओं, चुनाव और शिक्षा के क्षेत्र में इन पिछड़े वर्गों की हिस्सेदारी को सुनिश्चित करना था ताकि समाज के पिछड़े वर्गों को आगे आने एवं मुख्य धारा में शामील होने का अवसर प्रदान किया जा सके l भारत में सरकारी सेवाओं और संस्थानों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं रखने वाले पिछड़े समुदायों तथा अनुसूचित जातियों और जनजातियों के सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए भारत सरकार ने सरकारी तथा सार्वजनिक क्षेत्रों की इकाइयों और धार्मिक/भाषाई अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को छोड़कर सभी सार्वजनिक तथा निजी शैक्षिक संस्थानों में पदों तथा सीटों के प्रतिशत को आरक्षित करने के लिए कोटा प्रणाली लागू की है। भारत के संसद में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधित्व के लिए भी आरक्षण नीति को विस्तारित किया गया है।
भारत में आरक्षण का मॉडल
संविधान सभा के समक्ष जब यह मुद्दा उठा कि, आरक्षण किसे दिया जाए तो उस समय गहन विचार विमर्श के बाद कुछ जातीयों को अनुसूचित जातीयों में शामील कर के उन के लिए 15 % आरक्षण का प्रावधान किया गया l वही दूसरी तरफ कुछ जातीयों का समावेश अनुसूचित जनजातीयों में कर के उन के लिए 7.5 % आरक्षण का प्रबंध किया गया l शुरुआत में यह आरक्षण केवल 10 वर्षों के लिए था परंतू हर बार इसे 10 वर्षों के लिए बढ़ा दिया गया, इस आरक्षण की इस बार की समय सीमा 2026 में समाप्त होने वाली हैं l शुरुआत में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए आरक्षण का प्रावधान नहीं था l मोरारजी देसाई सरकार ने मंडल कमीशन का गठन किया परंतू कई सालों तक इस आयोग की रिपोर्ट एवं सिफारिशें ठंडे बस्ते में रही मगर वी. पी. सिंह की सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कर अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 % आरक्षण का प्रावधान किया जिसे उच्चतम न्यायलय ने वैध करार दिया l इस के बाद 2019 में मोदी सरकार ने आर्थिक रूप से पिछड़ेवर्ग के लिए 10 % का प्रावधान किया और आज के समय में आरक्षण की मर्यादा 49.5 % से बढ़ कर 59.5 % हो गई l बाकी 49.5 % जगह सामान्य वर्ग के लिए हैं जो कि आरक्षित वर्गों से आने वाले उम्मीदवारों के लिए भी खुली हैं l आइये आरक्षण के इन आंकड़ों को निम्नलिखित आँकड़ो से समझने का प्रयास करते हैं l
वर्ग
आरक्षण
अनुसूचित जाती (SC)
15 %
अनुसूचित जनजाती (ST)
7.5 %
अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC)
27 %
आर्थिक पिछड़ा वर्ग (EWS)
10 %
कुल
59.5 %
*Source : Government of India
आरक्षण : तर्क तर्क :-
आरक्षण के समर्थन और विरोध में अनेक तर्क दिए गये हैं। एक पक्ष की ओर से दिए गये तर्कों को दूसरे पक्ष द्वारा खंडित किया जाता है, जबकि अन्य दोनों पक्षों से सहमत हुए हैं, ताकि दोनों पक्षों को समायोजित करने के लिए एक संभाव्य तीसरा समाधान प्रस्तावित हो।
*आरक्षण समर्थकों द्वारा प्रस्तुत तर्क :-
-आरक्षण भारत में एक राजनीतिक आवश्यकता है क्योंकि मतदान की विशाल जनसंख्या का प्रभावशाली वर्ग आरक्षण को स्वयं के लिए लाभप्रद के रूप में देखता है। सभी सरकारें आरक्षण को बनाए रखने या बढाने का समर्थन करती हैं। आरक्षण कानूनी और बाध्यकारी हैं। गुर्जर आंदोलनों (राजस्थान, 2007-2008) ने दिखाया कि भारत में शांति स्थापना के लिए आरक्षण का बढ़ता जाना आवश्यक है।
-हालांकि आरक्षण योजनाएं शिक्षा की गुणवत्ता को कम करती हैं लेकिन फिर भी अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, मलेशिया, ब्राजील आदि अनेक देशों में सकारात्मक कार्रवाई योजनाएं काम कर रही हैं। हार्वर्ड विश्वविद्याल में हुए शोध के अनुसार सकारात्मक कार्रवाई योजनाएं सुविधाहीन लोगों के लिए लाभप्रद साबित हुई हैं। अध्ययनों के अनुसार गोरों की तुलना में कम परीक्षण अंक और ग्रेड लेकर विशिष्ट संस्थानों में प्रवेश करने वाले कालों ने स्नातक के बाद उल्लेखनीय सफलता हासिल की। अपने गोरे सहपाठियों की तुलना में उन्होंने समान श्रेणी में उन्नत डिग्री अर्जित की हैं। यहां तक कि वे एक ही संस्थाओं से कानून, व्यापार और औषधि में व्यावसायिक डिग्री प्राप्त करने में गोरों की तुलना में जरा अधिक होनहार रहे हैं। वे नागरिक और सामुदायिक गतिविधियों में अपने गोरे सहपाठियों से अधिक सक्रिय हुए हैं।
-हालांकि आरक्षण योजनाओं से शिक्षा की गुणवत्ता में कमी आई है लेकिन विकास करने में और विश्व के प्रमुख उद्योगों में शीर्ष पदों पर आसीन होने में, अगर सबको नहीं भी तो कमजोर या कम प्रतिनिधित्व वाले समुदायों के अनेक लोगों को सकारात्मक कार्रवाई से मदद मिली है। शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण एकमात्र समाधान नहीं है, यह सिर्फ कई समाधानों में से एक है। आरक्षण कम प्रतिनिधित्व जाति समूहों का अब तक का प्रतिनिधित्व बढ़ाने वाला एक साधन है और इस तरह परिसर में विविधता में वृद्धि करता है।
-हालांकि आरक्षण योजनाएं शिक्षा की गुणवत्ता को कमजोर करती हैं, लेकिन फिर भी हाशिये में पड़े और वंचितों को सामाजिक न्याय प्रदान करने के हमारे कर्तव्य और उनके मानवीय अधिकार के लिए उनकी आवश्यकता है। आरक्षण वास्तव में हाशिये पर पड़े लोगों को सफल जीवन जीने में मदद करेगा, इस तरह भारत में, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी व्यापक स्तर पर जाति-आधारित भेदभाव को ख़त्म करेगा। (लगभग 60% भारतीय आबादी गांवों में रहती है)
-आरक्षण-विरोधियों ने प्रतिभा पलायन और आरक्षण के बीच भारी घाल-मेल कर दिया है। प्रतिभा पलायन के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार बड़ी तेजी से अधिक अमीर बनने की "इच्छा" है। अगर हम मान भी लें कि आरक्षण उस कारण का एक अंश हो सकता है, तो लोगों को यह समझना चाहिए कि पलायन एक ऐसी अवधारणा है, जो राष्ट्रवाद के बिना अर्थहीन है और जो अपने आप में मानव जाति से अलगाववाद है। अगर लोग आरक्षण के बारे में शिकायत करते हुए देश छोड़ देते हैं, तो उनमें पर्याप्त राष्ट्रवाद नहीं है और उन पर प्रतिभा पलायन लागू नहीं होता है।
-आरक्षण-विरोधियों के बीच प्रतिभावादिता (meritrocracy) और योग्यता की चिंता है। लेकिन प्रतिभावादिता समानता के बिना अर्थहीन है। पहले सभी लोगों को समान स्तर पर लाया जाना चाहिए, योग्यता की परवाह किए बिना, चाहे एक हिस्से को ऊपर उठाया जाए या अन्य हिस्से को पदावनत किया जाए, उसके बाद, हम योग्यता के बारे में बात कर सकते हैं। आरक्षण या "प्रतिभावादिता" की कमी से अगड़ों को कभी भी पीछे जाते नहीं पाया गया। आरक्षण ने केवल "अगड़ों के और अधिक अमीर बनने और पिछड़ों के और अधिक गरीब होते जाने" की प्रक्रिया को धीमा किया है। चीन में, लोग जन्म से ही बराबर होते हैं। जापान में, हर कोई बहुत अधित योग्य है, तो एक योग्य व्यक्ति अपने काम को तेजी से निपटाता है और श्रमिक काम के लिए आता है जिसके लिए उन्हें अधिक भुगतान किया जाता है। इसलिए अगड़ों को कम से कम इस बात के लिए खुश होना चाहिए कि वे जीवन भर सफेदपोश नागरिक हुआ करते हैं।
आरक्षण-विरोधियों के तर्क
-जाति आधारित आरक्षण संविधान द्वारा परिकल्पित सामाजिक विचार के एक कारक के रूप में समाज में जाति की भावना को कमजोर करने के बजाय उसे बनाए रखता है। आरक्षण संकीर्ण राजनीतिक उद्देश्य की प्राप्ति का एक साधन है।
-कोटा आवंटन भेदभाव का एक रूप है, जो कि समानता के अधिकार के विपरीत है।
-आरक्षण ने चुनावों को जातियों को एक-दूसरे के खिलाफ बदला लेने के गर्त में डाल दिया है और इसने भारतीय समाज को विखंडित कर रखा है। चुनाव जीतने में अपने लिए लाभप्रद देखते हुए समूहों को आरक्षण देना और दंगे की धमकी देना भ्रष्टाचार है और यह राजनीतिक संकल्प की कमी है। यह आरक्षण के पक्ष में कोई तर्क नहीं है।
-आरक्षण की नीति एक व्यापक सामाजिक या राजनीतिक परीक्षण का विषय कभी नहीं रही। अन्य समूहों को आरक्षण देने से पहले, पूरी नीति की ठीक से जांच करने की जरूरत है और लगभग 60 वर्षों में इसके लाभ का अनुमान लगाया जाना जरूरी है।
-शहरी संस्थानों में आरक्षण नहीं, बल्कि भारत का 60% जो कि ग्रामीण है उसे स्कूलों, स्वास्थ्य सेवा और ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी सुविधाओं की जरूरत है।
-"अगड़ी जातियों" के गरीब लोगों को पिछड़ी जाति के अमीर लोगों से अधिक कोई भी सामाजिक या आर्थिक सुविधा प्राप्त नहीं है। वास्तव में परंपरागत रूप से ब्राह्मण गरीब हुआ करते हैं।
-आरक्षण के विचार का समर्थन करते समय अनेक लोग मंडल आयोग की रिपोर्ट का हवाला देते हैं। मंडल आयोग के अनुसार, भारतीयों की 52% आबादी ओ.बी.सी. श्रेणी की है, जबकि राष्ट्रीय सर्वेक्षण नमूना 1999-2000 के अनुसार, यह आंकड़ा सिर्फ 36% है l (मुस्लिम ओ.बी.सी. को हटाकर 32%)
-सरकार की इस नीति के कारण पहले से ही प्रतिभा पलायन में वृद्धि हुई है और आगे यह और अधिक बढ़ सकती है। पूर्व स्नातक और स्नातक उच्च शिक्षा के लिए विश्वविद्यालयों का रुख करेंगे।
-अमेरिकी शोध पर आधारित आरक्षण-समर्थक तर्क प्रासंगिक नहीं हैं क्योंकि अमेरिकी सकारात्मक कार्रवाई में कोटा या आरक्षण शामिल नहीं है। सुनिश्चित कोटा या आरक्षण संयुक्त राज्य अमेरिका में अवैध हैं। वास्तव में, यहां तक कि कुछ उम्मीदवारों का पक्ष लेने वाली अंक प्रणाली को भी असंवैधानिक करार दिया गया था। इसके अलावा, सकारात्मक कार्रवाई कैलिफोर्निया, वाशिंगटन, मिशिगन, नेब्रास्का और कनेक्टिकट में अनिवार्य रूप से प्रतिबंधित है l "सकारात्मक कार्रवाई" शब्दों का उपयोग भारतीय व्यवस्था को छिपाने के लिए किया जाता है जबकि दोनों व्यवस्थाओं के बीच बड़ा फर्क है।
-आधुनिक भारतीय शहरों में व्यापारों के सबसे अधिक अवसर उन लोगों के पास हैं जो ऊंची जातियों के नहीं हैं। किसी शहर में उच्च जाति का होने का कोई फायदा नहीं है।
-आरक्षण वैसे खत्म नहीं होना चाहिए सिर्फ आर्थिक स्थिति देखकर आरक्षण देना चाहिए जाति के आधार पर नहीं l
*तीसरा पक्ष :-
-आरक्षण का निर्णय उद्देश्य के आधार पर लिया जाना चाहिए।
-प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा को यथोचित महत्व दिया जाना चाहिए ताकि उच्च शिक्षा संस्थानों में और कार्यस्थलों में अपेक्षाकृत कम प्रतिनिधित्व करने वाले समूह स्वाभाविक प्रतियोगी बन जाएं l
-प्रतिष्ठित उच्च शिक्षा संस्थानों (जैसे IITs) में सीटों की संख्या को बढ़ाया जाना चाहिए।
-आरक्षण समाप्त करने के लिए सरकार को दीर्घकालीन योजना की घोषणा करनी चाहिए।
-जाति व्यवस्था के उन्मूलन के लिए सरकार को बड़े पैमाने पर अंतर्जातीय विवाह को बढ़ावा देना चाहिए, जैसा कि तमिलनाडु सरकार द्वारा शुरू किया गया हैं।ऐसा इस कारण है क्योंकि जाति व्यवस्था की बुनियादी परिभाषिक विशेषता सगोत्रीय विवाह है। ऐसा सुझाव दिया गया है कि अंतर्जातीय विवाह से पैदा हुए बच्चों को आरक्षण प्रदान किया जाना समाज में जाति व्यवस्था को कमजोर करने का एक अचूक तरीका होगा।
-जाति आधारित आरक्षण के बजाए आर्थिक स्थिति के आधार पर आरक्षण होना चाहिए लेकिन मध्यम वर्ग (जो वेतनभोगी हैं) को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा और सभी जमींदार तथा दिग्गज व्यापारी वर्ग इसका लाभ उठा सकते हैं l
-वे लोग, जो करदाता हैं या करदाताओं के बच्चों को आरक्षण का पात्र नहीं होना चाहिए। इससे यह सुनिश्चित होता है कि इसका लाभ गरीबों में गरीबतम तक पहुंचे और इससे भारत को सामाजिक न्याय प्राप्त होगा l इसका विरोध करने वाले लोगों का कहना है कि यह लोगों को कर भुगतान न करने के लिए प्रोत्साहित करेगा और यह उनके साथ अन्याय होगा जो ईमानदारी से टैक्स का भुगतान करते हैं।
-आई.टी. (IT) का उपयोग कर सरकार को जातिगत आबादी, शिक्षा योग्यता, व्यावसायिक उपलब्धियों, संपत्ति आदि का नवीनतम आंकड़ा इकट्ठा करना होगा और इस सूचना को राष्ट्र के सामने पेश करना होगा। अंत में यह देखने के लिए कि इस मुद्दे पर लोग क्या चाहते हैं, जनमत संग्रह करना होगा।
इस प्रकार भारत में आरक्षण एक कभी ना समाप्त होने वाली चर्चा का विषय हैं l हर राज्य में आरक्षण की नीति एवं समस्या भिन्न हैं l
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