साझा हाइकु संग्रह की दुनिया में एक लम्बी लकीर-स्वप्न श्रृंखला स्वप्न श्रृंखला-साझा हाइकु संग्रह -संपादक-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ एवं डॉ.कविता भट्ट
साझा हाइकु संग्रह की दुनिया में एक लम्बी लकीर-स्वप्न श्रृंखला
हिंदी हाइकु ने विगत एक दशक में एक नया प्रतिमान स्थापित किया है,जब इस समय में कई एकल और सामूहिक संकलन विविध प्रदेशों एवं विदेशों से प्रकाशित हुए हैं. इस दौरान हिंदी हाइकु ने अपनी एक नयी पहचान बनाई और अपनी उत्कृष्टता से सभी रचनाकारों को आकर्षित किया. इस समय में इसने सोशल मीडिया का दामन थामकर लम्बी उड़ान भरी और पूरे विश्व को अपने आँचल में समेट लिया. अब लोगों को हाइकु की रचना प्रक्रिया बताने की आवश्यकता नहीं रही; इतना ही कहना काफी होगा कि-‘हाइकु अपने आपमें एक सम्पूर्ण कविता है.’
इस संग्रह-‘स्वप्न श्रृंखला’ में प्रकाशित सम्पादकीय (संपादक-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ एवं डॉ.कविता भट्ट )के अनुसार-
‘..... हाइकु जैसी काव्य विधा का सृजन करना सरल नहीं है. यह गहन अध्ययन,मनन,चिंतन और कल्पना का मणिकांचन संयोग है. अनुभूति की गहनता,सांद्रता और तन्मयता ही उसे उदात्त रूप प्रदान करती है. अन्तः प्रकृति हो या बाह्य प्रकृति,उसे हाइकु में बाँधना श्रमसाध्य नहीं,बल्कि भावसाध्य है.’
‘.....हाइकुकार हमेशा संचेतना से युक्त इस काव्य विधा द्वारा एक आदर्श समाज की संरचना में भी अपना योगदान सुनिश्चित करें, तभी रचना सार्थक होगी.’
30 हाइकुकारों के हाइकु के इस साझा संग्रह- ‘स्वप्न श्रृंखला’ ने कई सपने संजोए हैं जो सम्पादकीय से लेकर सभी के हाइकु में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रहे हैं. यह संग्रह अपने आमुख में अपने स्वर्णिम इतिहास को समेटे हुए है और साथ ही इसने साझा संग्रह की दुनिया में एक नयी लम्बी लकीर खींचकर ये दर्शाया है कि इससे कमतर गुरुत्व वाले कोई भी हाइकु संग्रह, हाइकु को मंज़ूर नहीं है. साझा संग्रह का प्रकाशन अपने आप में एक श्रमसाध्य कार्य है, वैसे भी इन सबकी उत्कृष्टता को एक आकार देना कठिनतम कार्य था. इस महान कार्य के लिए संपादक द्वय बधाई के पात्र हैं.
एक समीक्षक के तौर पर इसे परखना मेरे लिए मुश्किल कार्य रहा इसलिए मैंने इसे एक पाठक बनकर पढ़ा और इस संग्रह में प्रसूत हाइकु की यात्रा के साथ शनैः-शैनः बढ़ता रहा. इस संग्रह में कई मुझे अच्छे बिम्ब,शिल्प और बुनावट के अद्भुत नज़ारे देखने को मिले; वहीं प्रकृति की सुन्दरता को भी जी भर कर निहारते हुए मैं इसके नयेपन का आनंद लेता रहा. इस दौरान मुझे इसकी सबसे बड़ी बात जो पसंद आई कि अब हाइकु, ने अपने पुराने कलेवर से ऊपर उठकर सवाल करने आरंभ कर दिए हैं. इस संग्रह में अपने परिवेश के जीव-जंतुओं की फ़िक्र को भी प्रखरता से रेखांकित किया है जो पहले छिपे हुए से रहते थे.
हिंदी हाइकु ने सदैव अपनी लघुता में पाठकों को अपने वामन रूप के सौन्दर्य का दर्शन कराया है इसलिए यह विधा आरम्भ से ही मुझे अच्छी लगती रही है. इसे प्रकृति वर्णन के लिए जाना जाते रहा है और इस श्रृंखला की सिद्धहस्त हाइकुकार डॉ.सुधा गुप्ता जी ने सदैव से हम सभी का मार्गदर्शन किया है. उन्होंने न केवल इस हेतु अच्छे हाइकु लिखकर उदहारण प्रस्तुत किए बल्कि भूमिका और समीक्षा लिखकर भी सभी का उत्साह वर्धन किया है. इसी श्रेणी में हम रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ के नाम को भी रखते हैं जिन्होंने कईयों को हाइकु लिखने को प्रोत्साहित किया/सिखाया. सोशल मीडिया पर ‘हिमांशु’ जी के साथ डॉ.हरदीप कौर संधु के प्रयासों से भी हिंदी हाइकु को एक नयी उर्जा लगातार प्राप्त होते रहती है. प्रकृति की सुन्दरता को देखने के लिए हमें अपने अंतःकरण की दृष्टि की आवश्यकता होती है इससे होकर निकलने वाले हर शब्द प्रणम्य होते हैं और इन्हें स्वर्णिम आभा भी प्राप्त होती है. आइए हम अब इन हाइकु की साधना का अनुसरण करें जो यह कहती हैं –‘सरसों के खेत में घाघरा फैलाए रानी-ठसक के बैठी है; देखें कि-आम का जोड़ा कैसे टपका है?आँख मटकाता हुआ-
ठसक बैठी/पीला घाघरा फैला/रानी सरसों. -डॉ.सुधा गुप्ता
धम्म से कूदा/अँखिया मटकाता/आम का जोड़ा. -डॉ.जेन्नी शबनम
मेघ वर्णन के बहुत से हाइकु के बीच इन हाइकु की उत्कृष्टता को झाँकिए- नभ शिशु की आँखों में काजल आँज कर बिजली का हँसना, स्वर्णिम मेघों के कुंचित केश से उनकी सघनता का अहसास करना, संयमी मेघ का सावन में संयम टूटना और इन सबके कारण पहाड़ों का हरा दुशाला ओढ़ना-
काजल आँज/नभ शिशु की आँखों/हँसी बीजुरी. -डॉ.सुधा गुप्ता
स्वर्णिम मेघ/लुभाते गगन को/कुंचित केश. -रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
जब भी कौंधे/लहरों को बिजुरी/जी भर रौंदे. -कुमुद बंसल
हवा में नमी/सावन में रोएगा/घन संयमी. -डॉ.कुँवर दिनेश
पहली वर्षा/पहाड़ों ने भी ओढ़े/दुशाले हरे. -कमला निखुर्पा
इस संग्रह में विलक्षण हाइकु के पाठन का आनंद सभी सुधि पाठकों को अवश्य उठाना चाहिए. इसमें भोर की
स्वप्न श्रृंखला |
निकली धूप/उड़ी हिम-चिड़ियाँ/आँगन गीला. -रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
लजाई धूप/पलकें न उठाए/नव वधू-सी. -डॉ.कविता भट्ट
किरणें आईं/खेतों को यूँ जगाया/जैसे हो माई. -डॉ.जेन्नी शबनम
धूप रचाए/किरणों से मेहंदी/धरा हथेली. -शशि पाधा
फागुनी धूप/चोंच से गिरे सुर/बिखरे रंग. -डॉ.हरदीप कौर संधु
ओढ़ लेटी हैं/कलियाँ अलसाई/धूप-रजाई. -डॉ. शैलजा सक्सेना
सर्द मौसम/शर्माती हुई आई/घर में धूप. -सुदर्शन रत्नाकर
अस्ताचल में सूर्य की लाली बिखेरते हुए शांत होने का समय यानि गोधूली वेला से साँझ तक के सौन्दर्य का आनंद लीजिए इन दृश्यों को ये सिद्धहस्त हाइकुकार, हाइकु में इस प्रकार रचते हैं- सूर्य को स्वर्ण कटोरे में डूबो रहा है-साँझ, रात के रथ पर सवार है सूर्य, निशा की लटों पर जुगनू सजे हैं और इन सबसे बढ़कर देखिए- कैसे लोक परंपरा को जोड़कर लिखते हैं-नभ पद में संध्या नाइन आलता रचा रही है. यह सब अद्भूत अनुभूतियों के शब्दांकन का प्यारा नज़ारा है-
संध्या डुबोए/सागर के जल में/स्वर्ण कटोरा. -डॉ.ज्योत्सना शर्मा
छिपा सूरज/रात के रथ पर/आ बैठा चाँद. -सुदर्शन रत्नाकर
नभ पद में/रचा रही आलता/संध्या-नाईन. -डॉ.शिवजी श्रीवास्तव
सजा जुगनू/उलझी लटों पर/निशा दमकी. -भावना सक्सेना
पुष्प का खिलना और उसका मुरझा जाना उसकी एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है लेकिन इसे देखने और लिखने का आनंद लीजिए-भँवरों की रणभेरियाँ और रंगबिरंगी तितलियों को रंगों के नल खुलने से व्यक्त करना तथा पेड़ों की छाया को भी घूमने का मन करता होगा की लाचारी, वाह-
फूली चेरियाँ/बजी हैं भँवरों की/रणभेरियाँ. -डॉ.कुँवर दिनेश
तितली दल/खोल डाले किसने/रंगों के नल. -डॉ.भावना कुँअर
पेड़ों के नीचे/सोई पड़ी थी छाँव/कहीं न जाए. -प्रियंका गुप्ता
इन हाइकु में रेत की गद्दी में विराजे कैक्टस राजा का हँसना और शूल की नोक पर ओस कणों का हीरे सा दमकना वाकई एक नयी छटा की ओर इंगित करता है कि-दुःख में भी कैसे मुस्कुराना है? -
गद्दी रेतीली/ताज ले काँटों-भरा/हँसे कैक्टस. -पुष्पा मेहरा
शूलों की नोक/रुकीं ओस की बूँदें/हीरे-सी सजीं. -पुष्पा मेहरा
प्रकृति की हर घटना का वृक्ष ख़ुशी से स्वागत करते हैं इसकी बानगी देखिए- कैसे बर्फ के गिरने से पत्तियाँ आहत न होकर लाज से झुक रही हैं, पलाश की लाली पद्मिनी के जौहर की याद दिलाते खड़े हैं और युवा होती पत्तियों की लाली से होकर गुलाब कैसे सुर्ख हुए जाते हैं. हमें भी इन्हीं की तरह प्रकृति की हर आहटों का सम्मान करना चाहिए और इनकी सुरक्षा के दायित्व भी निभाने चाहिए.
बेबाक बर्फ/जो गिरी पत्तों पर/झुके लाज से. -ज्योत्सना प्रदीप
पलाश-वन/पद्मिनी का हो मानों/जौहर-यज्ञ. -ज्योत्सना प्रदीप
चढ़ती लाली/पत्ती-पत्ती बिखरा/सुर्ख गुलाब. -डॉ.हरदीप कौर संधु
उपरोक्त हाइकु से पृथक ये हाइकु सवाल उठाते हुए प्रस्तुत हुए हैं जो मुख्यतः पर्यावरण प्रदूषण की पृष्ठभूमि से उपजे हैं. ये हमें अपने कर्तव्यों की याद भी दिला रहे हैं कि हम सबको अपनी प्रकृति एवं परिवेश को संवारना है ताकि यह आने वाली पीढ़ी तक बची रह सके. ये पूछती हैं कि-छाया कहाँ गई? पानी कौन चुरा ले गया? खेत किसने जलाए? नदी का पानी पीने योग्य क्यों नहीं है? इस धरती को आँवा किसने बनाया? और कथित विकास की चिता पर वसुधा क्यों सती हो रही है? वाजिब प्रश्नों की बौछार का जवाब हमें ढूँढना ही होगा-
कौन ले गया/पेड़ों की घनी छाँव/पानी का गाँव. -डॉ.भावना कुँअर
झुलसा खेत/उड़ गई चिरैया/दाना न पानी. -डॉ.जेन्नी शबनम
उगा शहर/खंड-खंड टूटता/गरीब गाँव. -डॉ.जेन्नी शबनम
पूछती नदी/पानी का रंग लाल/क्यों इस सदी. -कृष्णा वर्मा
विकास चिता/सती हो रही धरा/फैली लपटें. -पुष्पा मेहरा
वृक्ष न छाया/आँवा भई धरती/प्यासे हैं कंठ. -पुष्पा मेहरा
बंजर धरा/अकाल की आहट/सूखी नदियाँ. -मञ्जूषा मन
प्रकृति से सवाल पूछने के बाद इंसानी समाज और इसके ठेकेदारों से भी सवाल पूछना तो बनता ही है क्योंकि यहाँ भी विसंगतियाँ हम सबके साथ-साथ इंसानियत को भी शर्मसार करती हैं. इन प्रश्नों में हैं- औरत इतनी सस्ती कैसे हुई? मन चिड़िया,को बहेलिया से कैसे बचाएँ? मैं बड़ी क्यों हुई? नारी अपने घर में सीलिंग फैन से ज्यादा कुछ क्यों नहीं है? बेटियों के जलने से किसे-किसे पीड़ा हुई? और इन सबका समाधान क्या है? इन्ही सवालों को लिए ये हाइकु यहाँ सशक्त आवाज़ के साथ प्रसूत हुई हैं-
कितनी सस्ती/औरतों की अस्मत/तौलती आँखें. -सत्या शर्मा ‘कीर्ति’
याद माँ बाबा/अब रोज़ आते हैं/क्यों बड़ी हुई. -सुषमा गुप्ता
मन चिड़िया/दुनिया बहेलिया/कौन बचाए? -रश्मि शर्मा
चारदीवारी/बनी सीलिंग फैन/घूमती नारी. -डॉ.सुरंगमा यादव
बेटियाँ जलीं/जाने किस-किस की पीर पिघली. -चन्द्रबली शर्मा
संत कबीर ने अपने दोहे में कहा है कि-‘..प्रेम गली अति साँकरी..’ तात्पर्य इस राह में या तो पिया मिलेंगे या ईश्वर. हम सबको यह समझना होगा इसकी पवित्रता को कि इस राह में ईश्वर भी मिल सकते हैं. प्रेम सर्वत्र बिखरा हुआ होता है चाहे वह रिश्तों में बंधा हो या उन्मुक्त हो प्रकृति के आँगन में. प्रकृति के सौन्दर्य को निहारने और उससे प्यार करने के लिए वैसा ही उदात्त ह्रदय चाहिए. इस हाइकु में नव वल्लरी यानि किशोरी के दर्पण देखने और उसके फूलों के भार से झुकने का अद्भूत शब्दांकन का नमूना है-
दर्पण देख/फूलों के भार झुकी/नव-वल्लरी. -डॉ.सुधा गुप्ता
चाँद-चाँदनी की बात के बिना प्रेम की बातें अधूरी ही लगती हैं ये हाइकु कुछ इस तरह अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल हुए हैं कि-इन सभी में प्रेम की महक है जो सर्वत्र बगरी हुई है. कोई लिखते हैं-आपके हँसने से खिड़की में चाँदनी आ गई, दो-दो चाँद के एक साथ दीदार हुए, लहरों को छूकर चाँद ने कैसे उन्हें लजा दिया, निशा प्रीत के धागे से चंदा से कैसे जुड़ी है तो कहीं प्रेम का सुगन्धित फाहा महका रहा है-मन को केसर की तरह.
आप जो हँसी/खिड़की से चाँदनी/झाँकने लगी. -डॉ.शिवजी श्रीवास्तव
ठिठका चाँद/झाँका जो खिड़की से/दूजा भी चाँद. -रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
चाँद ने छुआ/लहर उठ आई/भीगी लजाई. -भावना सक्सेना
तुमने छुआ/महक उठा मन/केसर हुआ. -कृष्णा वर्मा
महका रहा/तेरे प्रेम इत्र का/सुगन्धित फाहा. -डॉ. पूर्वा शर्मा
प्रीत के धागे/चंदा से नैन लगे/रजनी जागे. -कृष्णा वर्मा
प्रेम की पवित्रता उसकी निश्च्छलता में ही निहित होती है; यह महसूस करने का विषय है, यह व्यक्त और अव्यक्त दोनों भावों में निहित होता है. इसके संयोग और वियोग दोनों पहलुओं का अपना अलग महत्त्व ही है जिसके उच्चतम रूपों के भारतवर्ष में कई उदाहरण मिलते हैं. इस हाइकु में- मन की नीरव घाटी में प्रेम की बाँसुरी बज रही है, मन में सावन बरस रहा है, प्यार की नर्म धूप खिली है तथा एक ही छतरी में प्रेम की बारिश में भीगते हुए जोड़े का दृश्य है-
गूँज रही है/मन-नीरव घाटी/प्रेम-बाँसुरी. -डॉ.कविता भट्ट
इक सावन/बरसे मन भीतर/इक बाहर. -कमला निखुर्पा
धुँध है छँटी/प्यार की नर्म धूप/आज है खिली. -अनिता ललित
एक छतरी/रिमझिम फुहार/प्रेम बरषा. -मञ्जूषा मन
प्रेम के कई रंग यहाँ देखने और जीने को मिलते हैं यही इस देश की विशेषता भी है. इन हाइकु ने भी इसी की छवि को यहाँ प्रस्तुत किया है. ये इश्क में जग के झमेले छोड़ने को राजी हैं, लाज की गठरी पल्लू में दबी हुई है, यादें भी किराया में आँसू माँग रहे हैं साथ ही पूरी जिंदगी की साँसें भी उनके नाम करने तक की बातें यहाँ प्रकट हुई हैं. आइए इनके साथ दो कदम प्रेम की राह पर चलकर देखें-
तेरे इश्क में/छोड़ दिए झमेले/जग के मेले. -कुमुद बंसल
लाज गठरी/होठों में दबा पल्लू/रोकती हँसी. -डॉ. शैलजा सक्सेना
हुआ पराया/तेरी यादें भी माँगें/आँसू-किराया. -डॉ. पूर्वा शर्मा
ज़िन्दगी मेरी/साँसे तेरे नाम की/जीवन पूर्ण. -रश्मि शर्मा
आजकल वैश्विक ग्राम की अवधारणा में न्यूक्लियर परिवार की सोच ने रिश्तों को एक षड्यंत्र के तहत ख़त्म करना आरंभ कर दिया है,जब किसी को रिश्तेदारी ही पता नहीं हो तो वो उसे कैसे निभाएगा? वैसे भी रिश्ते नाजुक बंधनों से जुड़े होते हैं चाहे वो रक्त के सम्बन्ध हों या मित्रता के इन सभी को लालच/जरुरत का जंग लगा हुआ है. इन सबके चलते अपेक्षाओं के बोझ तले ये रिश्ते उपेक्षित होकर कराहते पड़े हैं. इन हाइकु ने ऐसे ही संबंधों को बखूबी उकेरने की कोशिश की है-
उधड़ी मिली/रिश्तों की तुरपन/गई न सिली. -डॉ.ज्योत्सना शर्मा
सोई जब तू/गीले बिछौने पर/भीगा है खुदा. -कमला निखुर्पा
चढ़ गया मैं/झुके कंधे पिता के/बढ़ गया मैं. -डॉ.शिवजी श्रीवास्तव
रेत-से रिश्ते/मुट्ठी में बाँधे रखा/फिसल गए. -प्रियंका गुप्ता
रिश्तों की डोर/उलझी, न सुलझी/छूटे थे छोर. -शशि पाधा
दुःख के काँटे/अपने ही चुभोते/गैरों ने बाँटें. -अनीता ललित
हमारी अपनी लोकसंस्कृति ने हमें प्रकृति और परिवेश के साथ-साथ ही जीना सिखाया है इसके चलते हमारे साहित्य में इन सभी जीवों को भी पर्याप्त स्थान मिलता है. हाइकु में पहली बार किसी संग्रह में मुझे इतने सारे इससे सम्बंधित हाइकु पढ़ने को मिला है. इन सभी में जंतुओं को अलग-अलग दृश्यों के साथ जोड़कर इसे प्रस्तुत किया गया है यही इसकी खूबसूरती है. धूप जल में पक्षी का नहाना हो,चमगादड़ का शीर्षासन हो, चील की ख़ुशी हो,धूप के खरगोश हों, भुजंग की फुँफकार हो, कागा की काँव-काँव हो, चूजे का चहकना हो, गिलहरी की चंचलता हो, पिंजरे का तोता हो, नाजुक परिंदा और कस्तूरी मृग की अज्ञानता के साथ बिल्ली की घात हो सभी का सुन्दर शब्दांकन है-
धूप जल में/आँखें मूँदे नहाते/ठिठुरे पंछी. -डॉ.सुधा गुप्ता
पास वन में/देखा चमगादड़/शीर्षासन में. -डॉ.कुँवर दिनेश
टूटा है नीड़/उदास है चिड़िया/खुश है चील. -डॉ.भावना कुँअर
दौड़ लगाएँ/धूप के खरगोश/हाथ न आएँ. -डॉ.भावना कुँअर
किसको कोसें/हर शिला के नीचे/भुजंग बसे. -डॉ.कविता भट्ट
कागा के काँव/आएँगे कान्हा आज/राधा के गाँव. -डॉ.शिवजी श्रीवास्तव
बैठी,फुदकी/फुर्र हुई गौरैया/किलका बच्चा. -डॉ.शिवजी श्रीवास्तव
कस्तूरी मृग/कितना अनजान/नाभि में गंध. -शशि पाधा
एक चिरैया/घात लगा बिल्ली ने/उसे भी लीला. -पुष्पा मेहरा
गुँजा घोंसला/गुलाबी चोंचें खोल/चूज़े चहके. -अनीता मंडा
बिल्ली की गंध/कबूतरों के झुण्ड/फुर्र से उड़े. -अनीता मंडा
मेघ घिरते/गिलहरी-सी धूप/भागी,दुबकी! -डॉ. शैलजा सक्सेना
लम्बी उड़ारी-/पिंजरे वाला तोता/देखे अम्बर. -डॉ.हरदीप कौर संधु
टक्कर लेता/नाजुक सा परिंदा/झुकता नभ. -पूनम सैनी
इन सबसे अलग कुछ ऐसे हाइकु इस संग्रह में अपना स्थान सुनिश्चित करने में सफल हुए हैं जिनकी अपनी अलग सुन्दरता है. इन हाइकु में-उम्र को ठगता वक्त है, यहाँ किसी ख़ास वक्त में कोई रोता है तो कोई हँसता है, किसी को चाँद क्या कह दिया तो वह दूर हो लिए, लाज के मारे शिलाओं की ओट से झाड़ियों का झाँकना हो तथा सागर का बर्फ की चादर ओढ़ने से उपजी सूर्य की नाराजगी को पढ़ा जा सकता है-
केशों में चाँदी/स्वर्ण-मृग मन में/उम्र ठगिनी. -डॉ.शिवजी श्रीवास्तव
कौन किसका/कोई हँस पड़ा तो/कोई सिसका. -ज्योत्सना प्रदीप
हमने तुम्हें/चाँद क्या कह दिया/दूर जा बैठे. -मंजू मिश्रा
झाड़ियाँ झाँके/शिलाओं की ओट से/लाज के मारे. -डॉ. पूर्वा शर्मा
सागर ऊँघे/बर्फ चादर ताने/सूरज ख़फ़ा. -डॉ. पूर्वा शर्मा
इस संग्रह के लिए सभी हाइकुकार ने अपनी डायरी के उत्कृष्ट हाइकु प्रकाशित होने को भेजे हैं साथ ही संपादक द्वय-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ एवं डॉ.कविता भट्ट ने इन सबके साथ सम्पूर्ण न्याय करते हुए उत्कृष्टता को एक सूत्र में पिरोने का अद्भुत कार्य किया है इनकी जितनी भी प्रशंसा की जाए वह कम ही होगी. इस संग्रह ने एक मानक स्थापित किया है कि साझा संकलन के क्या स्तर होने चाहिए. मेरी सुधि पाठकों/नव लेखकों को सलाह यह है कि वे इस ‘स्वप्न श्रृंखला’ संग्रह को अवश्य पढ़ें तथा इसमें उद्धृत हाइकु को समझें और महसूस करें ताकि वे भी अच्छे हाइकु रचने का आनंद ले सकें.
इस पठनीय और संग्रहणीय संग्रह के लिए आप सभी को बधाई एवं शुभकामनाएँ.
रमेश कुमार सोनी
कबीर नगर-रायपुर (छत्तीसगढ़)
9424220209/7049355476
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स्वप्न श्रृंखला-साझा हाइकु संग्रह -संपादक-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ एवं डॉ.कविता भट्ट
प्रकाशक-अयन प्रकाशन-दिल्ली, सन-2019, मूल्य-300=00, पृष्ठ-144
ISBN-978-93-88471-04-06
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