Uniform Civil Code समान नागरिक संहिता समान नागरिक संहिता को संविधान के भाग चार के नीति निदेशक तत्वों में शामिल किया गया। अनुच्छेद 44 में प्रावधान किया
यूनिफॉर्म सिविल कोड : कहाँ शुरू कहाँ खतम
इस समय देश कोरोना महामारी और सरकार अपनी घटती लोकप्रियता से झुंज रही हैं l इस समय देश को इम्युनिटी बूस्टर और सरकार को राजनीतिक बूस्टर की ज़रूरत हैं l आज सरकार को इम्युनिटी बूस्टर से ज़्यादा राजनीतिक बूस्टर की चिंता हैं शायद यहीं वजह हैं कि सरकार जनता के बीच अपनी छवी सुधारने के लिए ठोस कदम उठा रही हैं l कश्मीर को विशेषाधिकार प्रधान करने वाली धारा 370 समाप्त करना, अयोध्या में विवादित स्थल पर राम मंदिर का निर्माण और समान नागरी संहिता (Uniform Civil Code) लागू करना तीन ऐसे मुद्दे हैं जो भाजपा की स्थापना से ले कर आज तक भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र का अहम हिस्सा रहे हैं l इन में से भाजपा के दो ख्वाब तो पूरे हो चुके हैं और एक ख्वाब पूरा होना अभी बाकी हैं l यह तीनों मुद्दे समय समय पर भाजपा के लिए राजनीतिक बूस्टर साबित हुए हैं l अब ऐसे समय में जबकि कई राज्यों के चुनाव सर पर हैं, पिछले चुनावों का नतीजा सामने हैं और जनता में सरकार के प्रति एक बेचैनी और आक्रोश हैं तो ऐसे समय में भाजपा राजनीतिक बूस्टर हासिल करने के लिए यूनिफार्म सिविल कोड का ट्रम्प कार्ड खेल सकती हैं l तो आइये विस्तार से समझते हैं यूनिफार्म सिविल कोड और इस से जुड़े अहम मुद्दों को .
समान नागरिक संहिता का परिचय
देश में प्रचलित कानूनों को दो अहम हिस्सों में बाँटा गया हैं l पहला हैं क्रिमिनल लॉ या क्रिमिनल कोड और दूसरा हैं सिविल लॉ या सिविल कोड l क्रिमिनल कोड के अंतर्गत गंभीर अपराध जैसे हत्या, बलात्कार आदि और इन अपराधों से संबंधित सज़ाए एवं कुछ प्रशासकीय मुद्दे आते हैं l यह क़ानून हर भारतीय नागरिक पर समान रूप से लागू होते हैं l किसी भी आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाता यदि असामान्य परिस्थितीया ना हो तो l दूसरे भाग सिविल कोड के अंतर्गत वो क़ानून या मामले आते हैं जिन का संबंध शादी ब्याह, तलाक, संपत्ती आदि से हैं l यह क़ानून भी बहुत हद तक सभी भारतीय नागरिकों पर समान रूप से लागू होते हैं मगर इस प्रकार के एक हिस्से में देश के अल्पसंख्यकों को उन के धर्म के लिहाज़ से कुछ विशेष क्षेत्रों में धार्मिक कानूनों एवं नियमों के अनुसार आचरण करने का अधिकार दिया गया हैं l इसी को व्यक्तिक क़ानून (personal law) भी कहा जाता हैं l पर्सनल लॉ के अंतर्गत विवाह, तलाक, संपत्ती, वसीयत, बच्चे गोद लेने का अधिकार आदि मामले आते हैं l एक सवाल यह भी होता हैं कि मुस्लिम पर्सनल लॉ क्या हैं ? आए दिन इस मुद्दे पर चर्चाएँ भी होती रहती हैं l तो आइये इसे एक आसान उदाहरण द्वारा समझने का प्रयास करते हैं l अगर अदालत में (ऊपर उल्लेख किये गए पर्सनल लॉ से संबंधित किसी मामले पर) कोई याचिका दायर की जाए और दोनों पक्ष मुसलमान हो तो अदालत ऐसे मामलों में शरीयत के अनुसार अपना फैसला सुनाती हैं l ऐसे मामलों में जिन कानूनों और नियमों के आधार पर फैसला सुनाया जाता हैं उन कानूनों और नियमों के संग्रह को ही मुस्लिम पर्सनल लॉ बोला जाता हैं l
आइये अब बात करते हैं यूनिफार्म सिविल कोड पर l सबसे पहले आपको बता दें कि संविधान के अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता की चर्चा की गई है। 23 नवंबर 1948 को संविधान में अनुच्छेद-44 जोड़ा गया था l राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्व से संबंधित इस अनुच्छेद में कहा गया है कि ‘राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा’। समान नागरिक संहिता में शादी, तलाक तथा जमीन-जायदाद के बँटवारे आदि में सभी धर्मों के लिए एक ही कानून लागू होता है। अभी देश में जो स्थिति है उसमें सभी धर्मों के लिए अलग-अलग नियम हैं। संपत्ती, विवाह और तलाक के नियम हिंदुओं, मुस्लिमों और ईसाइयों के लिए अलग-अलग हैं। इस समय देश में कई धर्म के लोग विवाह, संपत्ति और गोद लेने आदि में अपने पर्सनल लॉ का पालन करते हैं। मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदाय का अपना-अपना पर्सनल लॉ है जबकि हिंदू सिविल लॉ के तहत हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध आते हैं। गोवा भारत का एकमात्र राज्य हैं जहाँ फ़िलहाल यूनिफार्म सिविल कोड लागू हैं l
यूनिफॉर्म सिविल कोड का इतिहास
भारत में कानून निर्माण और कानूनों को कोडीफाई करने का एक लंबा इतिहास रहा हैं l जब हम यूनिफार्म सिविल कोड पर बात करते हैं तो भारत में कानून निर्माण और कानूनों को कोडिफाई करने के इतिहास पर एक नज़र डालना ज़रूरी हो जाता हैं l तो आइये बात करते हैं भारत में कानून बनाने और कानून को कोडिफाई करने के आधुनिक इतिहास पर l
- आधुनिक भारत में विधि निर्माण का काम अंग्रेजों ने शुरू किया था । अंग्रेजों ने एक आपराधिक दंड संहिता बनाई लेकिन निजी क़ानूनों को एकरूपता नहीं दी। रामचंद्र गुहा के शब्दों में, ‘साम्राज्यवादी शासन के तले पूरा हिंदुस्तान एक अपराध संहिता के तले आ गया था जिसे सन् 1830 में इतिहासकार थॉमस मैकाले ने तैयार किया था। लेकिन बहुत सारे धर्मों और पंथों के निजी क़ानूनों को एक समान नागरिक संहिता के द्वारा बदलने की कोशिश नहीं की गई थी। यहाँ अंग्रेजों की राय में ब्रिटिश राज की भूमिका क़ानूनों की अलग-अलग व्याख्याओं के तहत महज किसी मामले पर फ़ैसला सुनाने तक सीमित थी।’
- अंग्रेज़ों ने सबसे पहले ईसाई समुदाय के लिए नागरिक क़ानून बनाया। 1872 में बना ईसाई मैरिज एक्ट आज भी लागू है। अंग्रेजी राज में दो सबसे बड़े समुदायों; हिन्दू और मुसलमानों के निजी मसलों को सुलझाने के लिए धर्मग्रंथों, परंपराओं और रीति-रिवाज़ों को आधार बनाया गया।
- 1936 में पारसी मैरिज एंड डाइवोर्स एक्ट आया। इन तमाम समुदायों के निजी क़ानूनों को एक समान नागरिक संहिता के तहत लाने के उद्देश्य से संविधान सभा में क़ानून बनाने की पहल की गई। लेकिन इसमें सफलता नहीं मिली। इसके कुछ बुनियादी कारण थे।
- 1937 में वजूद में आया मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत एप्लीकेशन एक्ट 1937) मुस्लिम समाज का निजी क़ानून है। इसे मोहम्मडन लॉ भी कहा जाता है। क्या इसका आधार शरीयत है? ज़्यादातर लोग ऐसा ही मानते हैं। सदियों तक राज करने वाले मुसलमानों ने कभी शरीयत लागू नहीं की। इस काल में भी धर्म से ज़्यादा सामाजिक और राजनीतिक ज़रूरतों के मुताबिक़ क़ानून बनाए गए। अंग्रेजी राज में पहली बार मुस्लिम पर्सनल लॉ बनाया गया। रफीक जकारिया के अनुसार, ‘मुसलिम लॉ' लार्ड मैकाले के उकसावे पर कुछ मौलवियों द्वारा तैयार किया गया दस्तावेज़ है। कई मायनों में यह लॉ 'फुतुहात-ए-आलमगीरी' यानी मुगल बादशाह औरंगजेब के राज में सुनाए गए न्यायिक फतवों पर आधारित है। इसके बाद प्रिवी काउंसिल के फ़ैसलों और बँटवारे से पूर्व सेंट्रल असेंबली के मुसलमान सदस्यों द्वारा पेश किए गए विधायी उपायों के सहयोग से इसमें सुधार किया गया।’
- 1938 के हरिपुर अधिवेशन में कांग्रेस ने घोषणा की थी कि, 'बहुसंख्यकों की तरफ से मुस्लिम पर्सनल लॉ में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं किया जाएगा l'
- इसी तरह हिन्दू धर्म की मान्यताओं और परंपराओं में सुधार करते हुए अंग्रेजों ने हिंदू नागरिक क़ानून बनाया। 1829 में सती प्रथा उन्मूलन से लेकर हिंदू महिला संपत्ती अधिकार अधिनियम 1937 जैसे अलग-अलग समय पर बनाए गए क़ानूनों को एक निजी क़ानून कोड में तब्दील करने के उद्देश्य से 1941 में एक हिंदू लॉ कमेटी बनाई गई। डॉ. आंबेडकर के जीवनीकार क्रिस्तोफ जाफ्रलो के अनुसार, ‘बी. एन. राव की अध्यक्षता में गठित इस कमेटी (हिंदू लॉ कमेटी) ने 1944 के अगस्त महीने में हिंदू कोड का एक मसविदा भी प्रकाशित किया था। इस मसविदे के मुख्य प्रावधानों के अनुसार, बेटियों और बेटों को पिता की मृत्यु पर उत्तराधिकार मिलना चाहिए, विधवाओं को निर्बाध संपदा का अधिकार मिलना चाहिए। एकल विवाह का नियम बनाया गया था और निश्चित हालात में तलाक़ की भी अनुमति दी गई थी। अप्रैल 1947 में इस कोड को विधायिका के सामने पेश किया गया लेकिन राजनीतिक हालात, आज़ादी और विभाजन की वजह से इसकी विषयवस्तु पर कोई चर्चा नहीं हो पाई थी।’
- स्वतंत्र भारत में स्त्रियों की सामाजिक और आर्थिक आज़ादी के लिए समुचित प्रावधान करने की ज़रूरत थी। परंपराओं, धार्मिक मान्यताओं और पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्रियों के विवाह, तलाक़ और उत्तराधिकार संबंधी आधुनिक क़ानूनों की ज़रूरत जवाहरलाल नेहरू और डॉ. आंबेडकर महसूस करते थे। रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब 'गाँधी के बाद भारत' में लिखा है, ‘आज़ादी के बाद जो लोग एक समान नागरिक संहिता के पक्ष में थे, उनमें प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और क़ानून मंत्री बी. आर. आंबेडकर भी शामिल थे। दोनों ही आधुनिक विचारों के व्यक्ति थे और दोनों ही पश्चिमी न्यायिक परंपरा में प्रशिक्षित हुए थे। दोनों ही के लिए धर्मनिरपेक्षता और आधुनिकता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता एक परीक्षा की घड़ी के समान खड़ी हुई।’
यूनिफॉर्म सिविल कोडऔर संविधान सभा
औपनिवेशिक भारत में सांप्रदायिक और विभाजनकारी राजनीति के कारण देश का बँटवारा हुआ। मुसलिम अस्मिता के आधार पर एक नए मुल्क पाकिस्तान का जन्म हुआ। लेकिन भारत अपने मौलिक स्वरूप में बहुल-सांस्कृतिक राष्ट्र बना। भारत में रह गए मुसलमान, अपने आप को थोड़ा बेबस और थोड़ा गुनाहगार महसूस कर रहे थे। यही कारण था कि अपनी कमज़ोर होती स्थिति के बावजूद मुसलमानों ने संविधान सभा में मुस्लिम आरक्षण का खुलकर विरोध किया। लगभग एक स्वर में मुस्लिम प्रतिनिधियों ने कहा कि वे देश का एक और विभाजन नहीं
चाहते। इसी तरह से हिंदुस्तानी राजभाषा और फारसी लिपि के सवाल पर मुस्लिम प्रतिनिधि खामोश रहे। देवनागरी लिपि में लिखित हिंदी को राजभाषा बनाया गया। मगर जब संविधान सभा में यूनिफार्म सिविल कोड का मुद्दा बहस के लिए आया तो मुस्लिम प्रतिनिधियों ने इसका पुरजोर विरोध किया। दरअसल, मुसलमान आशंकित थे कि यूनिफार्म सिविल कोड के आधार पर उनकी पहचान मिटाने की कोशिश की जा रही है। 23 नवंबर, 1948 को यूनिफार्म सिविल कोड पर बहस शुरू हुई। क़रीब एक दर्जन प्रतिनिधियों ने बहस में हिस्सा लिया। पाँच मुस्लिम प्रतिनिधियों ने यूनिफार्म सिविल कोड के विरोध में तर्क पेश किए। मुहम्मद इस्माइल का कहना था कि, 'भारत पंथनिरपेक्ष बनाया जा रहा है तब राज्य को धर्म के मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।' नजीरूद्दीन अहमद ने तर्क दिया कि, 'मुस्लिम समाज की सहमती से ही निजी क़ानूनों को समान नागरिक संहिता में तब्दील किया जाना चाहिए।' उन्होंने आगे कहा कि, 'संविधान का अनुच्छेद-25 प्रत्येक नागरिक को धर्म और आस्था की स्वतंत्रता का अधिकार देता है। लेकिन समान नागरिक संहिता धार्मिक स्वतंत्रता को बाधित करता है।' महमूद अली बेग ने कहा कि, 'पंथनिरपेक्ष राज्य में धार्मिक स्वतंत्रता के साथ-साथ निजी क़ानूनों के अनुरूप आचरण करने की आज़ादी भी होनी चाहिए।' एक अन्य प्रतिनिधि हुसैन इमाम का कहना था कि, 'जब तक देश में साक्षरता और आर्थिक उन्नति की विषमता दूर नहीं हो जाती, तब तक समान क़ानून बनाने का कोई मतलब नहीं हैl'*मुस्लिम प्रतिनिधियों के तर्कों का जवाब देते हुए कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने कहा कि, 'सामाजिक सुधार के लिए बनाए गए क़ानूनों से अल्पसंख्यकों के मूलाधिकारों का उल्लंघन नहीं होता। समान नागरिक क़ानून की ज़रूरत को रेखांकित करते हुए मुंशी ने जोर देकर कहा कि, ‘अगर ऐसा नहीं किया गया तो महिलाओं को समानता प्रदान करना असंभव हो जाएगा। संविधान में लिंग के आधार पर भेदभाव ना करने की बात कही गई है। उन्होंने अंग्रेजों द्वारा स्थापित मान्यता को दूषित करार दिया कि निजी क़ानून पंथ का हिस्सा हैं।’ मुसलमान प्रतिनिधियों की आपत्तियों का खंडन करते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा, ‘मैं निजी तौर पर यह नहीं समझ पाता कि धर्म को इतना व्यापक, इतना सर्वसमावेशी अधिकार क्यों दे दिया जाता है कि पूरा जीवन उसके खोल में समा जाता है और यहाँ तक कि विधायिका भी उस दायरे में घुसपैठ नहीं कर सकती ? आख़िरकार हमें यह मुक्ति मिली ही क्यों है ? हमें यह मुक्ति इसलिए मिली है कि हम अपनी सामाजिक व्यवस्था को सुधार सकें जो कि ग़ैर- बराबरी, भेदभाव और दूसरी चीजों से भरी पड़ी है और ये सारी प्रवृतियाँ हमारे मौलिक अधिकारों के विरुद्ध हैं।’
*अलबत्ता मुसलिम प्रतिनिधियों की आशंकाओं और विरोध को देखते हुए नेहरू, आंबेडकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी आदि सदस्य समान नागरिक संहिता को स्थगित करने के लिए सहमत हो गए। मुसलमानों की आशंकाओं और डर से उपजे जवाहरलाल नेहरू की भावनाओं को दर्ज करते हुए रामचंद्र गुहा ने लिखा है कि, “देश के बंटवारे के बाद हिंदुस्तान के मुसलमान असुरक्षित मानसिकता और भ्रम की स्थिति में जी रहे थे। ऐसी स्थिति में उनके क़ानूनों से छेड़छाड़; जिसे वे पवित्र परंपरा और अल्लाह की जुबान से निकला हुआ शब्द मानते थे- उन्हें और भी असुरक्षित महसूस करवाने जैसा होता। इस मुद्दे पर जब उनसे संसद में पूछा गया कि वे पूरे देश में तत्काल एक समान नागरिक संहिता क्यों नहीं लागू करते ? तो उन्होंने कहा कि 'उनकी पूरी सहानुभूति इस तरह के क़ानून के प्रति है लेकिन उन्हें नहीं लगता कि वर्तमान हालात इसके लिए उचित हैं। मैं इसके लिए माहौल बनाना चाहता हूँ और इस तरह के काम उसी दिशा में एक क़दम है।"
*इस प्रकार समान नागरिक संहिता को संविधान के भाग चार के नीति निदेशक तत्वों में शामिल किया गया। अनुच्छेद 44 में प्रावधान किया गया कि 'भारत के समूचे भू-भाग में राज्य अपने नागरिकों के लिए एक यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड सुनिश्चित करने के लिए प्रयास करेगा।' संविधान सभा की अल्पसंख्यक सलाहकार समिति ने भी अनुशंसा की थी कि मुसलमानों की आशंका और ग़लतफ़हमी दूर होने के बाद उनकी सहमति से ही यूनिफार्म सिविल कोड को लागू किया जाए। यूनिफार्म सिविल कोड का मुद्दा अल्पसंख्यकों के विवेक पर छोड़ दिया जाए। ग़ौरतलब है कि इस समिति के सदस्यों में डॉ. आंबेडकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी प्रमुख थे।
इस प्रकार कानून निर्मिती से ले कर यूनिफार्म सिविल कोड का एक लंबा इतिहास भारत में रहा हैं l हमें यह नहीं भूलना चाहिए की यूनिफार्म सिविल कोड नाम की या उस जैसे कोई व्यवस्था कभी भारत में नहीं रही l ना मुस्लिम शासन काल में ना ब्रिटीश काल में l संविधान लागू हुए 71 साल बीत चुके हैं मगर आज भी हम बिना यूनिफार्म सिविल कोड के रहे रहे हैं l
कुछ लोग संविधान का अध्ययन किये बिना ही यूनिफार्म सिविल कोड का राग अलापने लगते हैं l कुछ लोग यूनिफार्म सिविल कोड को संविधान निर्माताओं की अपेक्षा से जोड़ते हैं जो कि सच भी हैं मगर वे लोग भूल जाते हैं कि संविधान निर्माताओं ने दिशानिर्देशक तत्वों को लागू करने के संदर्भ में किस वरीयता क्रम की अपेक्षा की थी l इसी प्रकार सुप्रीम कोर्ट भी कई मामलों की सुनवाई करते हुए यूनिफार्म सिविल कोड की पैरवी करते हुए नज़र आती हैं वही कुछ नेता अपनी राजनीति चमकाने और इस से राजनीतिक लाभ उठाने के लिए गाहे बगाहे यूनिफार्म सिविल कोड की वकालत करते हैं l सुप्रीम कोर्ट ने कई अहम मामलों की सुनवाई के दौरान यूनिफार्म सिविल कोड लागू ना करने पर सरकारों के खिलाफ नाराज़गी जताई हैं l तो चलिए बात करते हैं संविधान निर्माताओं को अपेक्षित राज्यों के दिशानिदेशक तत्वों के वरीयता क्रम और सुप्रीम कोर्ट के चंद अहम फैसलों एवं केसों की l
यूनिफॉर्म सिविल कोड और संविधान निर्माताओं की अपेक्षा
भारतीय संविधान के भाग IV के 16 अनुच्छेदों में जो 25 दिशानिर्देशक तत्व हैं उन में से हर एक के शुरू में विभिन्न प्रकार के शब्द जान बुझ कर इस्तेमाल किये गए हैं, जिस से यह तय होता हैं कि, संविधान सभा ने किस दिशानिर्देशक तत्व की कितनी तीव्रता (intensity) तय की हैं और उस का प्राधान्य क्रम क्या होना चाहिए ? इस नहज पर इन 25 दिशानिर्देशक तत्वों को निम्नलिखित उतरते क्रम (categories in descending order) में 9 वर्गों में बाँटा जा सकता हैं l याद रहे कि इन दिशानिर्देशक तत्वों में "राज्य" को संबोधित किया गया हैं l अनुच्छेद 12 के अनुसार राज्य में केंद्र और राज्य दोनों सरकारें शामील हैं l
*दिशानिर्देशक तत्वों के पहले वर्ग में आता हैं अनुच्छेद 47 का पहला भाग जिस के शुरू के शब्द हैं "The state shall regard among its primary duties" अर्थात राज्य अपना प्रथम कर्तव्य समझ कर नागरिकों के जीवन, स्वास्थय आदि का दर्जा सुधारने का प्रयास करेगा l
*दूसरे वर्ग में अनुच्छेद 46 आता हैं, जिस में सरकार की ज़िम्मेदारी तय करने के लिए जो शब्द इस्तेमाल किये गए हैं वह हैं " The state shall promote with special care" अर्थात सरकारों की यह ज़िम्मेदारी होगी कि वे कमज़ोर वर्गों के शैक्षणिक और आर्थिक हितों पर विशेष तवज्जोह दे कर उन्हें बढ़ावा दे और हर प्रकार के अन्याय एवं शोषण से कमज़ोर वर्गों की रक्षा करें l
*तीसरे वर्ग में आता हैं अनुच्छेद 39 (a) (b) (c) जिस के शुरू के शब्द हैं "The state shall direct its policy" अर्थात राज्य की ज़िम्मेदारी होगी की वह अपनी नीति इस प्रकार बनाए कि
a: महिला और पुरुष नागरिकों को मुनासीब ज़िंदगी गुज़ारने का समान अवसर मिले l
b: भौतीक संसाधनों का स्वामीत्व और उन पर नियंत्रण का नागरिकों में इस प्रकार विभाजन करें कि, जिस से जनहित को बढ़ावा मिले ना कि सिर्फ चंद लोगों के हितों को l अब इस अनुच्छेद की नज़र से आज की सरकार की नीतियाँ देखे तो यह नीतियाँ संविधान निर्माताओं की अपेक्षाओं को धूमील करती हुई नज़र आती हैं l
c: देश की आर्थिक व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि, देश की दौलत और कारखाने सिर्फ चंद लोगों के हाथों में ना सिमट कर रहे जाए l यहाँ भी वर्त्तमान सरकार की नीतियाँ संविधान निर्माताओं की अपेक्षाओं के विरुध्द नज़र आती हैं l
*दिशानिर्देशक तत्व के चौथे वर्ग के तहत अनुच्छेद 39A आता हैं l इस अनुच्छेद में शुरू के शब्द हैं "The state shall secure" अर्थात राज्य की ज़िम्मेदारी होगी कि वह मुफ्त कानूनी मदद के लिए योजनाएँ बनाए ताकि किसी भी नागरिक को इंसाफ हासील करने में दिक्कतों का सामना ना करना पड़े l
*दिशानिर्देशक तत्व के पाँचवे वर्ग के तहत अनुच्छेद 49 आता हैं l इस अनुच्छेद में शुरू के शब्द हैं "It shall be the obligation of the state" अर्थात यह राज्य का कर्तव्य होगा कि हर उस प्राचीन ईमारत और धरोहर को जिसे संसद राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित करें उसे ख़राब या बरबाद होने, बिकने या देश के बाहर जाने से बचाए l यहाँ भी सरकार की नीतियाँ संविधान निर्माताओं की अपेक्षाओं की हत्या करती हुई नज़र आती हैं l
*दिशानिर्देशक तत्व के छठे वर्ग में अनुच्छेद 41 और 42 आते हैं l इस अनुच्छेद में शुरू के शब्द हैं "The state shall make provision" मतलब राज्य की ज़िम्मेदारी होगी कि वह नागरिकों को अधिकार दिलाए (i) रोज़गार का, (ii) शिक्षा का और (iii) बेरोज़गारी, बुढ़ापे और बीमारी आदि में सरकारी सहायता का l साथ ही यह भी राज्य की ज़िम्मेदारी हैं कि, (iv) रोज़गार के दौरान सहानुभूति का वातावरण कायम रहे और (v) डिलीवरी के लिए महिलाओं को योग्य मदद मिले l
*दिशानिर्देशक तत्व के सातवे वर्ग के तहत चार अनुच्छेद 40, 43A, 48(ii) और 50 आते हैं l इन अनुच्छेद में शुरूआती शब्द हैं "The state shall take steps" अर्थात राज्य का कर्तव्य हैं कि वह इस की व्यवस्था करें कि (i) गावों में स्वायत्त पंचायतें अस्तित्व में आए l (ii) कारखानों की व्यवस्थापिका में मज़दूरों की हिस्सेदारी हो l (iii) कृषी एवं पशु पालन के लिए आधुनिक वैज्ञानिक व्यवस्था की जाए साथ ही गाय और अन्य दूध देने वाले पशु तथा वज़न उठाने वाले पशुओं के वध पर पाबंदी लगाईं जाए और (iv) न्यायपालिका एवं व्यवस्थापिका को स्वतंत्र रखा जाए l
आखरी के दो वर्गों में शुरू के 07 वर्गों के मुकाबले काफी भिन्न शब्दों का प्रयोग किया गया हैं l
*दिशानिर्देशक तत्वों के वर्ग 8 में अनुच्छेद 38 (1) और अनुच्छेद 38 (2)(i) आते हैं l इन अनुच्छेदों के शुरूआती शब्द हैं "The state shall strive" मतलब राज्य खूब कोशिश करें कि (i) वो देश में एक ऐसा समाज निर्माण करें जिस में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन के हर क्षेत्र में मौजूद हो और (ii) विभिन्न लोगों की आमदनी (income) में कम से कम असमानता रहे जाए l
*दिशानिर्देशक तत्वों के वर्ग 9 के अंतर्गत आठ अनुच्छेद 38 (2)(ii), 43, 44, 45, 47 (ii), 48 (i), 48A और अनुच्छेद 51 आते हैं l जिन के शुरूआती शब्द हैं, "The state shall endeavour" अर्थात राज्य कोशिश करें कि,
(i) नागरिकों का दर्जा, उन के लिए उपलब्ध सुविधाओं और अवसरों में विद्यमान असमानता समाप्त हो जाए l
(ii) कृषी, औद्योगिक और अन्य काम करने वाले मज़दूरों को रोज़गार मिले साथ ही उन को उचित जीवन, फुरसत का समय, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अवसर प्राप्त हो और गृह उद्योगों को बढ़ावा मिले l
(iii) सभी नागरिकों के लिए यूनिफार्म सिविल कोड हो l
(iv) 14 वर्ष की आयु तक के तमाम बच्चों के लिए मुफ्त एवं लाज़मी शिक्षा उपलब्ध हो l
(v) शराब पर पाबंदी हो l
(vi) कृषी और पशु पालन के लिए आधुनिक वैज्ञानिक तरीके अपनाए जाए l
(vii) जलवायू, जंगलों और जैव विविधता की रक्षा की जाए l
(viii) अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा एवं शांती को बढ़ावा मिले, देशों के बिच न्यायपुर्ण और आदरयुक्त संबंध हो, अंतरराष्ट्रीय कानूनों और करारों का पालन किया जाए साथ ही अंतरराष्ट्रीय विवाद एवं संघर्षों का निपटारा मध्यस्थता (arbitration) के द्वारा शांतिपूर्ण ढंग से किया जाए l
मामूली अक्ल रखने वाला इंसान भी आसानी से जान सकता हैं कि, संविधान सभा ने बहुत सोच समझ कर इन दिशानिर्देशक तत्वों का विभाजन इन 9 वर्गों में किया हैं l हालांकि इन दिशानिर्देशक तत्वों को लागू करना सरकार के लिए लाज़मी नहीं होता और ना ही सरकार द्वारा इसे लागू ना करने पर अदालत का दरवाज़ा खटखटाया जा सकता हैं मगर इन दिशानिर्देशक तत्वों के शुरूआती शब्दों से राज्य का वरीयता क्रम तय हो जाता हैं l इन दिशानिर्देशक तत्वों का मकसद सामाजिक एवं आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना करना हैं जिन के अभाव में राजनीतिक लोकतंत्र बेमानी हैं l इन दिशानिर्देशक तत्वों को लागू करने से पहले देश की नब्ज़ को जानना बेहद ज़रूरी हैं l अगर देश के नागरिकों का एक बड़ा तबका किसी दिशानिर्देशक तत्व को पसंद नहीं करता तो उस को ज़बरदस्ती लागू करना या थोपना संविधान की आत्मा और उस के ढाँचे को चोट पहुँचाना हैं l किसी दिशानिर्देशक तत्व का प्रयोग राजनीतिक लाभ के लिए करना संविधान का मज़ाक उड़ाने जैसा हैं l
यूनिफॉर्म सिविल कोड और सुप्रीम कोर्ट
अब बात करते हैं यूनिफार्म सिविल कोड के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका और चंद अहम केसों की जिन में यूनिफार्म सिविल कोड पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना पक्ष रखा l
शाहबानो केस
मोहम्मद अहमद खान बनाम शाहबानो बेगम केस”, जिसे मुख्य रूप से “शाहबानो केस” के रूप में जाना जाता है, एक ऐसा मामला हैं जिस की चर्चा किये बिना यूनिफार्म सिविल कोड की कोई बहस आगे ही नहीं बढ़ती | शाहबानो एक 62 वर्षीय मुसलमान महिला और पाँच बच्चों की माँ थीं जिन्हें 1978 में उनके पति ने शादी के 40 साल बाद तलाक दे दिया था। अपनी और अपने बच्चों की जीविका का कोई साधन न होने के कारण शाहबानो पति से गुज़ारा भत्ता लेने के लिये अदालत पहुचीं। उच्चतम न्यायालय में यह मामला 1985 में पहुँचा| न्यायालय ने अपराध दंड संहिता (CrPC) की धारा 125 के अंतर्गत निर्णय दिया जो हर किसी पर लागू होता है चाहे वो किसी भी धर्म, जाति या संप्रदाय का व्यक्ति हो। न्यायालय ने निर्देश दिया कि शाहबानो को निर्वाह-व्यय के समान जीविका दी जाए । तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वाई.वी. चंद्रचूड़ ने कहा कि समान नागरिक संहिता से भारतीय कानून में व्याप्त असमानता दूर होगी जिससे राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में मदद मिलेगी| अतः उच्चतम न्यायालय ने संसद को समान नागरिक संहिता से संबंधित कानून बनाने का निर्देश दिया था| दूसरी ओर तत्कालीन राजीव गांधी की सरकार अदालत के इस फैसले से संतुष्ट नहीं थी, सरकार ने इस फैसले का समर्थन करने के बजाय शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अमान्य ठहराया और मुस्लिम महिला (तलाक अधिकार संरक्षण) कानून, 1986 को लागू किया एवं तलाक मामले में निर्णय लेने का अधिकार मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को दे दिया| इस की वजह यह थी कि उस समय मुलमान सड़कों पर उतर आए थे और राजीव गाँधी सरकार से मांग कर रहे थे कि राजीव गाँधी की सरकार संसद में कानून ला कर सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को बदल दे, क्योंकि मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार तलाक के बाद पती को सिर्फ इद्दत अर्थात चार महीने दस दिन तक ही गुज़ारा भत्ता देना होता हैं जब कि सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि पती मरते दम तक गुज़ारा भत्ता दे जिसे मुसलमानों ने शरीयत और अपने पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप माना और इस के खिलाफ सड़कों पर उतर आए l मुस्लिम महिला (तलाक अधिकार संरक्षण) कानून, 1986 के वर्णित प्रयोजन के अनुसार जब एक मुसलमान तलाकशुदा महिला इद्दत के समय के बाद अपना गुज़ारा नहीं कर सकती है तो न्यायालय उन संबंधियों को उसे गुज़ारा देने का आदेश दे सकता है जो मुसलमान कानून के अनुसार उसकी संपत्ति के उत्तराधिकारी हैं। परंतु अगर ऐसे संबंधी नहीं हैं अथवा वे गुज़ारा देने की हालत में नहीं हैं, तो न्यायालय प्रदेश वक्फ़ बोर्ड को गुज़ारा देने का आदेश देगा। इस प्रकार से पति के गुज़ारा देने का उत्तरदायित्व इद्दत के समय के लिये सीमित कर दिया गया था।
सरला मुद्गल केस
यह दूसरा उदाहरण है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने फिर से अनुच्छेद 44 के तहत सरकार को निर्देश दिया था| “सरला मुद्गल बनाम भारत संघ” वाले इस केस में सवाल यह था कि क्या एक हिन्दू पति जिसने हिन्दू कानून के तहत शादी की हो लेकिन दूसरी शादी करने के लिए इस्लाम धर्म को कबूल कर सकता है ? सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि दूसरी शादी के लिए इस्लाम को कबूल करना निजी कानूनों का दुरुपयोग है| इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हिन्दू विवाह को केवल हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 के तहत ही भंग किया जा सकता है अर्थात इस्लाम कबूल करने के बाद फिर से की गई शादी हिंदू विवाह कानून के तहत भंग नहीं की जा सकती है और इसे भारतीय दंड संहिता की धारा 494 [5] के तहत एक अपराध माना जाएगा|
जॉन वल्लामेट्टम बनाम भारत संघ केस
केरल के पुजारी, जॉन वल्लामेट्टम ने वर्ष 1997 में एक रिट याचिका दायर की थी जिसमें कहा गया था कि भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 118 ईसाइयों के खिलाफ भेदभावपूर्ण है और यह ईसाइयों को अपने इच्छा से धार्मिक या धर्मार्थ प्रयोजन हेतु संपत्ति के दान पर अनुचित प्रतिबंध लगाता है| इस याचिका पर सुनवाई करते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश वी.वी.खरे, न्यायमूर्ति एस.बी.सिन्हा और न्यायमूर्ति ए.आर.लक्ष्मणन की पीठ ने धारा 118 को असंवैधानिक घोषित कर दिया| इसके अलावा न्यायमूर्ति खरे ने कहा कि “अनुच्छेद 44 में वर्णित है कि राज्य भारत के सम्पूर्ण राज्यक्षेत्र में सभी नागरिकों को एकसमान नागरिक संहिता प्रदान करने का प्रयास करेगा| लेकिन दुखः की बात यह है कि संविधान में वर्णित अनुच्छेद 44 को सही ढंग से लागू नहीं किया गया है| लेकिन एकसमान नागरिक संहिता से विचारधाराओं के आधार पर विरोधाभास को दूर करके राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में मदद मिलेगी|
आइये अब हम देखते हैं कि किशोर न्याय अधिनियम 2014 क्या था और क्या यह एकसमान नागरिक संहिता को लागू करने की दिशा में उठाया गया एक कदम था ?
किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम को लागू करने का फैसला एकसमान नागरिक संहिता की दिशा में एक प्रयास प्रतीत होता है क्योंकि यह अधिनियम मुस्लिम समुदाय के व्यक्तियों को बच्चों को गोद लेने की अनुमति देता है जबकि मुस्लिमों को उनके व्यक्तिगत कानूनों के तहत बच्चे को गोद लेने की अनुमति नहीं है| भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने लैंगिक असमानता को दूर करने और व्यक्तिगत कानूनों के तहत होने वाले गलत प्रथाओं को समाप्त करने के लिए एकसामान नागरिक संहिता लागू करने हेतु पुनः केंद्र सरकार से प्रश्न पूछा है|
इन सभी मामलों में सुप्रीम कोर्ट अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए यूनिफार्म सिविल कोड की वकालत कर चुकी हैं l
जब भी यूनिफार्म सिविल कोड को लागू करने की बात होती हैं तो मुसलमानों को शक की निगाह से देखा जाता हैं और मुजरिम के कटघरे में खड़ा कर दिया जाता हैं l मगर यहाँ दो अहम सवाल हैं कि आखिर आज मुसलमानों की यूनिफार्म सिविल कोड के संदर्भ में जो भूमिका हैं उस के लिए कौन से फॅक्टर्स ज़िम्मेदार हैं ? दूसरा सवाल यह कि क्या कोई भी सरकार यूनिफार्म सिविल कोड को ले कर ईमानदार रही हैं ? क्या हर समुदाय यूनिफार्म सिविल कोड के लिए तैयार हैं ? इसी प्रकार यूनिफार्म सिविल कोड को ले कर कुछ गलत फहमिया भी भारत में पाई जाती हैं l जब भी यूनिफार्म सिविल कोड पर बहस होती हैं तो ज़्यादा तर बहसें हमरी तुमरी से शुरू हो कर हमरी तुमरी पर ही समाप्त हो जाती हैं l इसे हमें व्यावहारिक दृष्टिकोण से भी देखना पड़ेगा तथा यूनिफार्म सिविल कोड लागू करने कि राह में कौन सी चुनौतीया हैं ? इस पर भी विचार करना पड़ेगा l
यूनिफॉर्म सिविल कोड और मुसलमान
सवाल उठता है कि मुसलमानों ने समान नागरिक संहिता के लिए आवाज़ क्यों नहीं उठाई ? यह भी पूछा जाना चाहिए कि नीति निर्देशक तत्वों में शामिल यूनिफार्म सिविल कोड पर संसद में क़ानून बनाने की पहल क्यों नहीं की गई ? अधिकांश समय सत्ता में रहने वाली धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस ने क्या मुसलमान मर्दों और मौलवियों का तुष्टिकरण करने के लिए ऐसा किया ? क्या मुस्लिम प्रतिनिधी और मौलवी घरेलू जुल्म और ज़्यादतियों की शिकार अपनी औरतों की हिफाजत नहीं करना चाहते थे ? दरअसल, यूनिफार्म सिविल कोड पर क़ानून नहीं बन पाने या पहल नहीं होने की एक दूसरी वजह है। 1960 के दशक से उत्तर भारत में होने वाले सांप्रदायिक दंगों ने मुसलमानों को आत्मरक्षा में अधिक संकीर्ण बना दिया। 1980 के दशक में शुरू हुई राम मंदिर की राजनीति के कारण सांप्रदायिकता का उन्माद पूरे देश में फैल गया। 1992 में कट्टरपंथियों द्वारा बाबरी मस्जिद ढहा दी गई। 2002 में गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार किया गया। ऐसे हालातों में मुसलिम समाज आधुनिक मूल्यों और राजनीतिक नेतृत्व से ज़्यादा धार्मिक गुरुओं और मज़हब की सरहदों में सिमटता चला गया। कांग्रेस सरकारों और अन्य दलों ने भी यूनिफार्म सिविल कोड पर न तो कोई पहल की और न ही इसके लिए मुसलमानों को प्रेरित करने का प्रयास किया।
यूनिफार्म सिविल कोड के मुद्दे को मुस्लिम समुदाय के ख़िलाफ़ प्रचारित किया जाता है। लेकिन मुस्लिम समुदाय ही नहीं बल्कि ईसाई प्रतिनिधि भी यूनिफार्म सिविल कोड का विरोध करते रहे हैं। पारसी समुदाय संख्या में ज़रूर छोटा है लेकिन आर्थिक और शैक्षिक रूप से बहुत समृद्ध है। क्या यूनिफार्म सिविल कोड पर ईसाई और पारसी समुदाय से कोई राय-मशविरा किया जाएगा ? सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि समान नागरिक संहिता में क़ानूनों की समानता का आधार क्या होगा ? क्या यह बहुसंख्यक समाज यानी हिंदू धर्म की मान्यताओं के आधार पर होगा ? जैसा कि ईसाई और मुस्लिम धर्मगुरुओं की आशंका है ? अथवा यूनिफार्म सिविल कोड आधुनिक और पश्चिमी मान्यताओं के आधार पर होगा ? क्या मोदी सरकार, नेहरू और आंबेडकर के सपनों का यूनिफार्म सिविल कोड लाएँगे ? दरअसल, मोदी सरकार का यूनिफार्म सिविल कोड हिंदू धर्म ही नहीं बल्कि हिंदुत्व के मानकों पर आधारित होगा। तब अल्पसंख्यकों की आशंका को निर्मूलन कैसे किया जा सकता है ?
यूनिफॉर्म सिविल कोड और गलतफहमियां
यूनिफार्म सिविल कोड के संदर्भ में भारत में तीन बातें मुख्य रूप से कही जाती हैं l
1: यूनिफार्म सिविल कोड से राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा मिलेगा l
2: जब यूरोप और अन्य देशों में यूनिफार्म सिविल कोड हो सकता हैं तो भारत में क्यों नहीं ?
3: भारत एक पंथनिरपेक्ष राष्ट्र हैं और पंथनिरपेक्ष राष्ट्र में धार्मिक कानूनों की कोई गुंजाइश नहीं l
मेरी नज़र में यह तीन बातों की अहमियत गलत फहमी से ज़्यादा कुछ नहीं हैं l आइये बारी बारी इन तीनों बातों का जायज़ा लेते हैं l
*कानून से राष्ट्रीय एकता स्थापित नहीं होती बल्की एकता स्थापित होती हैं सहिष्णुता और एक दूसरे के निजी मामलों में हस्तक्षेप ना करने से l पहला और दूसरा विश्वयुद्ध मुख्य रूप से जिन देशों के बीच हुए उन के धर्म, संस्कृतीया, कानून और जीवन पध्दतीयाँ समान थी l इतनी समानताए होने के बावजूद यह समानताए उन में युद्ध रोकने और एकता की भावना को बढ़ावा देने में असफल हुई l इस के इलावा अगर हम मुस्लिम राष्ट्रों की बात करें तो ईरान-ईराक में लंबे समय तक युद्ध का उदाहरण हमारे सामने मौजूद हैं l इस के इलावा शाम, अफगानिस्तान, पाकिस्तान आदि देशों में उन देशों में बसने वाले विभिन्न गुटों में आए दिन खुनी झड़पों की खबरे आती रहती हैं l जबकि उन के धर्म, संस्कृती, कानून आदि सब समान हैं l फिर क्या वजह हैं कि इतनी समानताए होने के बावजूद यह समानताए उन्हें एक सूत्र में नहीं बाँध पाई ? उन में यह समानताए राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में असफल हुई ? अगर हम भारत की बात करें तो यहाँ भी समान धर्म, संस्कृती, धार्मिक मान्यताओं और जीवन पध्दती वाले राजाओं में युध्द का लंबा इतिहास मौजूद हैं l यह तो थी इतिहास की बात l अगर हम भारत के परिदृश्य में व्यावहारिक दृष्टी से देखे तो राष्ट्रीय एकता को खतरा विभिन्न पर्सनल लॉ से नहीं बल्की सांप्रदायिक विचारधारा और झूठी खबरों के प्रचार आदि से हैं, क्योंकि आज भारत में दंगे इसलिए नहीं होते कि विभिन्न धर्म अनुयायियों के लिए विभिन्न पर्सनल लॉ हैं बल्की दंगे सांप्रदायिक विचारधारा रखने वाले लोगों के द्वारा झूठी खबरों के प्रचार से होते हैं और यह दंगे भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा तथा बड़ी चुनौती हैं l राष्ट्रीय एकता इस बात से स्थापित होगी कि हर गुट को अपने धर्म का पालन करने की आज़ादी और अपनी संस्कृती को परवान चढ़ाने का मौका दिया जाए l इस से हर गुट संतुष्ट होगा l हर गुट महसूस करेगा कि वह इस देश में बराबर का हिस्सेदार हैं, इस से देशप्रेम की भावना को बढ़ावा मिलेगा l इस से भाईचारे का माहौल होगा और इसी से राष्ट्रीय एकता स्थापित होगी l भारत की खूबसूरती और विशेषता अनेकता में एकता में हैं और यहीं हमारी पहचान हैं l
*यूनिफार्म सिविल कोड के संदर्भ में भारत के लिए यूरोप और अन्य देशों का जो उदाहरण दिया जाता हैं वह भी अव्यवहारिक हैं l भारत इतना विस्तृत देश हैं कि पूरा यूरोप इस में समा जाए और भारत की जनसँख्या इतनी ज़्यादा हैं कि पूरा यूरोप भी इस की बराबरी नहीं कर सकता l अगर इस मामले में हमें किसी दूसरे देश को आदर्श बनाना ही हैं तो अमेरिका को बनाना चाहिए, जो विश्व का दूसरा सब से बड़ा लोकतांत्रिक देश हैं और भारत की ही तरह बहुल संस्कृतीक भी l अमेरिका के हर राज्य में अलग अलग कानून लागू हैं l अगर किसी ऐसे राज्य का नागरिक जहाँ दूसरी शादी की इजाज़त नहीं हैं दूसरी शादी करना चाहता हैं तो वह दूसरे किसी ऐसे राज्य में जा कर शादी कर सकता हैं जहाँ दूसरी शादी पर पाबंदी नहीं हैं l इसलिए भारत जैसे देश के लिए सही कदम यहीं होगा कि अनेकता में एकता को बरकरार रखा जाए l
दूसरा पहलू यह हैं कि पूर्व और पश्चिम के देशों में एक बुनियादी फर्क हैं l पश्चिमी देशों के लोगों का अपने धर्म से उतना गहरा और जज़बाती रिश्ता नहीं हैं जितना पूर्व के देशों का हैं l पश्चिमी देशों में एक दो धार्मिक त्योहारों के सिवा धर्म से रिश्ता बाकी नहीं रहा, जनगणना के समय पारिवारिक रिवायत के तहत अपने धर्म का नाम दर्ज करवा दिया जाता हैं l यहीं कारण हैं कि उन देशों में धार्मिक कानून रद्द कर दिए जाने पर भी सरकार को शदीद प्रतिक्रिया का सामना नहीं करना पड़ता और ना लॉ एंड आर्डर की समस्या का सामना करना पड़ता हैं l जबकि भारत के हालात पश्चिमी देशों से बिल्कुल अलग हैं l भारत में बसने वाले लोगों का अपने धर्म से गहरा जज़बाती रिश्ता हैं l जब भी पर्सनल लॉ से छेड़छाड़ की गई तो सरकारों को शदीद प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ा l इस के दो मुख्य उदाहरण हमारे सामने मौजूद हैं l पहला उदाहरण हैं जब हिन्दू कोड बिल को प्रस्तुत किया गया उस के बाद के अनियंत्रित हालातों का और दूसरा उदाहरण हैं शाह बानो केस में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद के हालातों का l
*यूनिफार्म सिविल कोड के पक्ष में एक बात यह भी कही जाती हैं कि भारत एक सेक्युलर देश हैं और सेक्युलर देश में किसी भी धार्मिक कानून या पर्सनल लॉ की कोई गुंजाइश नहीं l यह भी महज़ एक गलत फहमी हैं क्योंकि सेक्युलरिज़्म का कोई एक अर्थ निश्चित नहीं हैं, बल्की विभिन्न देशों में वहा के हालात के हिसाब से पंथनिरपेक्षता का अर्थ निश्चित किया गया हैं l पंथनिरपेक्षता का एक अर्थ वह हैं जो फ्रांस ने अपनाया हैं l जिस की आधारशीला ही धर्म का विरोध हैं l जो चाहता हैं कि सार्वजनिक जीवन में कोई धार्मिक पहचान बाकी ना रहे तो बेहतर हैं l जो इस बात को पसंद नहीं करता कि, इंसान अपने जीवन के किसी भी क्षेत्र में धर्म की किसी हिदायत का पालन करें l पंथनिरपेक्षता का दूसरा अर्थ यह हैं कि, सरकार का कोई धर्म नहीं होगा और ना ही सरकार किसी धर्म विशेष की पुश्त पनाही करेगी और ना किसी धर्म विशेष का प्रचार प्रसार, मगर देश के हर नागरिक को धर्म का पालन की आज़ादी होगी l अधिकांश यूरोपीय देशों और भारत ने इसी अर्थ में पंथनिरपेक्षता को स्वीकारा हैं l इसलिए यह तीसरी बात भी अव्यवहारिक और गलत फहमी से अधिक कुछ भी नहीं l
यूनिफार्म सिविल कोड और चुनौतियां
अब चर्चा करते हैं उन चुनौतीयों की जो यूनिफार्म सिविल कोड लागू करने की राह में बाधा बने हुए हैं l इस चर्चा के बाद पाठक आसानी से निष्कर्ष तक पहुँच सकते हैं कि यूनिफार्म सिविल कोड किस हद तक व्यावहारिक हैं ?
*स्वतंत्रता के बाद से संसद द्वारा अधिनियमित सभी केंद्रीय पारिवारिक कानूनों में प्रारंभिक खंड में यह घोषणा की गई है कि वे ‘जम्मू-कश्मीर राज्य को छोड़कर पूरे भारत में लागू होंगे।’ इन सभी अधिनियमों में 1968 में एक दूसरा अपवाद जोड़ा गया था, जिस के मुताबिक ‘अधिनियम में शामिल कोई भी प्रावधान केंद्रशासित प्रदेश पुद्दुचेरी पर लागू नहीं होगा।’ एक तीसरे अपवाद के मुताबिक, इन अधिनियमों में से कोई भी गोवा और दमन एवं दीव में लागू नहीं होगा। नगालैंड और मिज़ोरम से संबंधित एक चौथा अपवाद, संविधान के अनुच्छेद 371A और 371G में शामिल किया गया है, जिसके मुताबिक कोई भी संसदीय कानून इन राज्यों के प्रथागत कानूनों और धर्म-आधारित प्रणाली का स्थान नहीं लेगा।
*समान नागरिक संहिता का मुद्दा किसी सामाजिक या व्यक्तिगत अधिकारों के मुद्दे से हटकर एक राजनीतिक मुद्दा बन गया है, इसलिये जहाँ एक ओर कुछ राजनीतिक दल इस मामले के माध्यम से राजनीतिक तुष्टिकरण कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कई राजनीतिक दल इस मुद्दे के माध्यम से धार्मिक ध्रुवीकरण का प्रयास कर रहे हैं।
हिंदू या किसी और धर्म के मामलों में बदलाव उस धर्म के बहुसंख्यक समर्थन के बगैर नहीं किया गया है, इसलिये राजनीतिक तथा न्यायिक प्रक्रियाओं के साथ ही धार्मिक समूहों के स्तर पर मानसिक बदलाव का प्रयास किया जाना आवश्यक है, जो कि कभी नहीं किया गया l
*संस्कृति की विशेषता को भी वरीयता दी जानी चाहिये क्योंकि समाज में किसी धर्म के असंतुष्ट होने से अशांति की स्थिति बन सकती है।
*विधि और न्याय मंत्रालय द्वारा वर्ष 2016 में समान नागरिक संहिता से संबंधित मुद्दों के समग्र अध्ययन हेतु विधि आयोग का गठन किया गया था। विधि आयोग ने कहा था कि, समान नागरिक संहिता का मुद्दा मूलाधिकारों के तहत अनुच्छेद 14 और 25 के बीच द्वंद्व से प्रभावित है।
*यूनिफार्म सिविल कोड से अल्पसंख्यकों के धार्मिक आज़ादी के अधिकार प्रभावित होंगे जो कि संविधान की आत्मा के खिलाफ हैं l
*यूनिफार्म सिविल कोड एक ऐसे देश के लिए मुनासीब हो सकता हैं जहाँ एक ही धर्म के मानने वाले और एक ही संस्कृती से संबंध रखने वाले लोग बसते हैं, मगर भारत एक बहुल सांस्कृति वाला देश हैं जहाँ हर धर्म को मानने वाला और विभिन्न संस्कृतियों में में विश्वास रहने वाला इंसान बसता हैं l अनेकता में एकता ही भारत की खूबसूरती और पहचान हैं l इसलिए यूनिफार्म सिविल कोड भारत के संदर्भ में अव्यवहारिक मालूम होता हैं l
*संविधान की प्रस्तावना में साफ लिखा हैं कि भारत एक सेक्युलर देश हैं और भारत के सेक्युलर मॉडल की ऊपर चर्चा हो चुकी हैं l इस के इलावा मौलीक अधिकारों में दर्ज अनुच्छेद 25-28 भी धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकारों की ज़मानत देता हैं l
*भारत में कभी भी यूनिफार्म सिविल कोड नहीं रहा l ना मुस्लिम शासकों के राज में, ना ब्रिटिशों के राज में और ना आज़ादी के 73 सालों के बाद से आज तक l जब हम पिछले हज़ारों सालों से बिना यूनिफार्म सिविल कोड के रहे रहे हैं और ना यूनिफार्म सिविल कोड का ना होना हमारे जीने मरने का सवाल हैं तो फिर आज इस बहस की ज़रूरत ही क्या हैं ?
*पिछले 70 सालों में कोई भी सरकार यूनिफार्म सिविल कोड का प्रारूप नहीं बना पाई और बनाती भी कैसे ? क्योंकि भारत में हर कोस पर रीति रिवाज बदलते हैं l सब के लिए समान नागरिक संहिता बनाना शेर के पंजे से गोश्त छुड़ाने जैसा हैं l अब देखिये दक्षिण भारत के हिंदुओ में मामा और भांजी की शादी की प्रथा आम बात हैं l अगर उत्तर भारत का कोई हिंदू अपनी भांजी से शादी करें तो उस का अंजाम क्या होगा ? पूर्वोत्तर में हिंदू महिलाएँ एक से अधिक पुरुषों से शादी करती हैं l यह वहा आम बात हैं और इस का आधार वो द्रौपदी का उदाहरण बताते हैं l जबकि शेष भारत के हिन्दुओं में बहु पतीत्व की प्रथा अयोग्य हैं l इसी प्रकार कैथोलिक ईसाईयों में तलाक का तसव्वुर ही नहीं हैं l जबकि प्रोटोस्टेंट ईसाईयों में तलाक जायज़ हैं l हिंदू मैरिज एक्ट का सेक्शन 02 आदिवासियों पर लागू नहीं होता और उन्हें दूसरी शादी की इजाज़त हैं l यह केवल कुछ उदाहरण हैं ताकि पाठकों को समझ आए कि यूनिफार्म सिविल कोड व्यावहारिक हैं या अव्यवाहरिक ?
*भारत में हर कोस पर परंपराएँ बदलती हैं l यहीं वजह हैं के धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को मौलीक अधिकारों में शामिल किया गया l अगर कोई सरकार यूनिफार्म सिविल कोड लाना चाहती हैं तो वो कोई प्रारूप तो बताए ? क्या भारत जैसे देश में यूनिफार्म सिविल कोड का कोई ऐसा प्रारूप भी हो सकता हैं जिसे भारत के सब नागरिक मानने को तैयार हो जाए ? क्या दक्षिण भारत के हिंदू उत्तर भारत के हिन्दुओं के तौर तरीके अपनाएगे ? क्या मुल्क भर के आदिवासी अपने सदियों से चले आ रहे तौर तरीके छोड़ने के लिए राज़ी होंगे ?
आज देश कई गंभीर समस्याओ से झुंज रहा हैं l आज हमारे पड़ोसी देश चीन की तरफ जा रहे हैं l देश में महंगाई आसमान छू रही हैं l आरोग्य व्यवस्था बदहाल हैं l युवाओं को रोज़गार नही मिल रहा हैं l देश का बड़ा तबका बुनियादी सहूलतों से वंचित हैं l इन सारे मुद्दों का संबंध हमारे जीने मरने से हैं ना कि यूनिफार्म सिविल कोड का l इन सारे मोर्चों पर सरकार विफल रही हैं, शायद इसीलिए इन मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए और राजनीतिक बूस्टर हासील करने के लिए यूनिफार्म सिविल कोड का राग अलापा जा रहा हैं l
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