मैथिलीशरण गुप्त की नारी भावना nari bhawna maithili sharan gupt yashodhara कैकेयी, सीता उर्मिला माण्डवी राधा कुंती द्रोपदी उत्तरा यशोधरा नारियाँ आदर्
मैथिलीशरण गुप्त की नारी भावना
नारी का आदर्श रूप
गुप्त जी की रचनाओं में नारी के जो भी रूप है, चाहे ये पत्नी के हो या माँ के आदर्श रूप में चित्रित हैं। इन्होंने प्राचीन नारी चरित्रों को नए परिवेश और नवीन ढंग से प्रस्तुत किया है। साकेत, यशोधरा, द्वापर, जयद्रथ वध, सिद्धराज सभी रचनाओं के स्त्री पात्र प्राचीन होकर भी नवीन है। यही कारण है कि कैकेयी, सीता, उर्मिला, माण्डवी, राधा, कुंती द्रोपदी, उत्तरा, यशोधरा आदि नारी पात्र अविस्मरणीय बन गये हैं।गुप्त जी के प्रायः सभी काव्य पात्र ऐतिहासिक अथवा पौराणिक हैं । परन्तु उनमें आधुनिक युग की सम्वेदना और मानवता है। ये सभी अलौकिक न होकर लौकिक जगत की साधारण नारियाँ हैं। इनमें भारतीयता तथा भारतीय संस्कृति का प्रबल आग्रह निहित है। यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि अपनी नारी भावना को मूर्त करने की दृष्टि से कवि ने साकेत, यशोधरा तथा द्वापर जैसे काव्यों की रचना की है। इनकी नारी विषयक भावना यशोधरा में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। यशोधरा में नारी के सच्चे त्याग का आदर्श दिखाया गया है। गौतम बुद्ध ने यशोधरा को आदर्श पत्नी कहा है -
मैंने मन का यह मन्त्र-
तने, पर इतना, जो टूटे नहीं
तन्त्री, तेरा वह तन्त्र ।
बतलाऊं मैं क्या अधिक तुम्हें तुम्हारा कर्म,
पाला है तुमने जिसे, वही बधू का धर्म ।
यशोधरा की व्यथा
यशोधरा जैसी पुत्र वधु को प्राप्त कर शुद्धोधन जैसा श्वसुर धन्य हो गया था। इसीलिए वह पुत्र से भी प्रिय है -आँसू दे रही हूं, कह और क्या अदेय है?
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
आँचल में है दूध और आँखों में पानी"
यही पढ़ सुन जागा पुरुष
आगे पीछे फिर भागा पुरुष||
पिया दूध उस आँचल का
उसी को फिर ताका पुरुष||
परिवर्तन नियम है सृष्टि का
नारी नही पृथक है सृष्टी से||
प्रियतम को, प्राणों के पण में,
हमीं भेज देती हैं रण में -
क्षात्र-धर्म के नाते
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
तेरी गोद में ही अम्ब मैंने सब पाया है। ब्रह्म भी मिलेगा कल आज मिली माया है।
बल हो तो सिन्दूर-बिन्दु यह--यह हरनेत्र निहारो!
रूप-दर्प कंदर्प, तुम्हें तो मेरे पति पर वारो,
लो, यह मेरी चरण-धूलि उस रति के सिर पर धारो!
नारी भावना प्रेम का मूल्य
गुप्त जी नारी प्रेम के मूल्य को जानते और मानते भी है। उर्मिला कहती है - सखि दोनों ओर प्रेम पलता है। प्रेम की जय हो जीवन में।हमारा इतिहास और हमारी संस्कृति प्रमाण है कि नारियों ने निरंतर त्याग और बलिदान करके पुरुषों को गौरव दिया है। गुप्त जी ने अपनी रचनाओं के माध्यम से इस अतीत के गौरव को गाया है। नारी को दासी बनाने के वे विरुद्ध है। द्वापर काव्य में विधृता के शब्दों में कवि की व्यथा व्यक्त हुई है। विधृता अपने पति से अपने पास के विषय के पूछती है। इस पर पति अधिकार का प्रश्न उठाता है। इस पर वह नारी के स्वत्व की समस्या उठा देती है -
उपजा किन्तु अविश्वासी नर हाय! तुझी से नारी।
जाया होकर जननी भी है तू ही पाप-पिटारी।।
एक नहीं दो-दो मात्राएँ, नर से भारी नारी ॥
माँ, बहन और बेटी क्या संग नहीं वो जायी।।
अविश्वास हा अविश्वास ही, नारी के प्रति नर का।
नर के तो सौ दोष क्षमा हैं, स्वामी है वह घर का।।
इस प्रकार गुप्त जी नारी को समाज में स्वाभिमान तथा सम्मानपूर्वक जीने के अधिकार समर्थक दिखाई पड़ते है। इनकी दृष्टि में स्त्री - पुरुष दोनों एक दूसरे के पूरक और सहयोगी है।
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