भारतीय आम चुनाव 1999 १३वी लोकसभा के लिए जब चुनाव हुए तब साल था १९९९ का । ये चुनाव ०८ दिन तक चले। ०५ सितंबर से ०३ अक्टूबर तक मतदान हुए। १३वी लोकसभा के
1999 का वो चुनाव जब छिड़ी विदेशी सोनिया बनाम स्वदेशी वाजपेयी की लड़ाई
साल 1999 का आम चुनाव विदेशी सोनिया बनाम स्वदेशी वाजपेयी की लड़ाई पर लड़ा गया था। चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को सबसे ज्यादा 182 सीटें मिली और वाजपेयी केंद्र में सरकार बनाने में कामयाब रहे। कांग्रेस के खाते में सिर्फ 114 सीटें आई थीं। सी.पी.आई. ने चुनाव में 33 सीटें जीतीं। यह पहली बार था जब अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में केंद्र में किसी गैर-कांग्रेसी सरकार ने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया।
सोनिया गांधी का विदेशी होना बना बड़ा मुद्दा
इस चुनाव में सोनिया गांधी का विदेशी होना सबसे बड़ा मुद्दा बनकर उभरा। तारिक अनवर, पी.ए. संगमा और शरद पवार ने इस मुद्दे को खूब भुनाया और कांग्रेस से अलग होकर नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (एन.सी.पी.) का गठन किया। एन.डी.ए. को कांग्रेस के भीतर के विवाद का जमकर फायदा मिला। देशभर में विदेशी सोनिया बनाम स्वदेशी वाजपेयी की हवा फैली और भारतीय जनता पार्टी ने इसे भुनाया। इसके अलावा, इस चुनाव का दूसरा सबसे बड़ा मुद्दा करगिल युद्ध था। इस युद्ध में भारत ने पाकिस्तान को हराया था और देश में राष्ट्रवाद की लहर थी। करगिल युद्ध के चलते वाजपेयी की छवि देश में अच्छी बनी और भा.ज.पा. को इसका पूरा फायदा मिला। एन.डी.ए. ने इस चुनाव में 269 सीटें जीतीं। तेलुगु देशम पार्टी को चुनाव में 29 सीटें मिली। टी.डी.पी. के समर्थन से वाजपेयी की सरकार के पास आसानी से पूर्ण बहुमत का जादुई आंकड़ा आ गया। कांग्रेस और सी.पी.आई. की हार ने सबके होश उड़ा दिए। इससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार सिर्फ 13 महीने ही चली थी और ए.आई.ए.डी.एम.के. के समर्थन वापस लेने से सरकार गिर गई थी। 1998 के चुनाव में भी भा.ज.पा. को 182 सीटें मिली थीं। जबकि कांग्रेस के खाते में 141 सीटें आईं। सी.पी.एम. ने 32 सीटें जीती और सी.पा.आई. के खाते में सिर्फ 9 सीटें आई। समता पार्टी को 12, जनता दल को 6 और ब.स.पा. को 5 लोकसभा सीटें मिली। क्षेत्रीय पार्टियों ने 150 लोकसभा सीटें जीतीं थीं। भारतीय जनता पार्टी ने शिवसेना, अकाली दल, समता पार्टी, ए.आई.ए.डी.एम.के. और बिजू जनता दल के सहयोग से सरकार बनाई और अटल बिहार वाजपेयी फिर से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे। लेकिन इस बार अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार 13 महीने में ही गिर गई। लेकिन 1999 में वाजपेयी सरकार ने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया।
एक वोट से गिरी बीजेपी सरकार
करगिल युद्ध के कुछ महीने बाद ही 13वीं लोकसभा का चुनाव हुआ था। करगिल यद्ध के समय अटल बिहारी वाजपेयी ही कार्यवाहक प्रधानमंत्री थे। अटल बिहारी वाजपेयी की 13 महीने पुरानी सरकार सदन में विश्वास मत न साबित कर पाने की वजह से गिर गई। इसके बाद सितंबर-अक्टूबर 1999 में 13वीं लोकसभा के लिए चुनाव हुए। इस बार कांग्रेस की कमान सोनिया गांधी के हाथों में थी हालांकि उन्हें सफलता हाथ नहीं लगी। वह पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की अमेठी सीट से चुनाव लड़ीं और पहली बार सांसद बनीं। 13वीं लोकसभा में वह विपक्ष की नेता थीं। करगिल युद्ध के कुछ महीने बाद ही चुनाव हुआ था। करगिल यद्ध के समय अटल बिहारी वाजपेयी ही कार्यवाहक प्रधानमंत्री थे।
कैसे गिरी थी वाजपेयी सरकार ?
1998 में N.D.A. गठबंधन से अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने थे लेकिन 13 महीने में ही सरकार गिर गई। दरअसल A.I.A.D.M.K. प्रमुख जयललिता लगातार सरकार से कुछ मांगें कर रही थीं। उस वक्त तमिलनाडु में डी.एम.के. की सरकार थी और एम. करुणानिधि मुख्यमंत्री थे। जयललिता तमिलनाडु सरकार को बर्खास्त करने की मांग कर रही थीं। जयललिता ने ऐसा न करने पर N.D.A. से समर्थन वापस ले लिया और बी.जे.पी. को सदन में अविश्सवास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा। 17 अप्रैल 1999 को लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर बहस हुई लेकिन इससे पहले बी.एस.पी. की नेता मायावती ने वोटिंग में हिस्सा न लेने का फैसला किया। फिर थोड़ी ही देर में उन्होंने अपना फैसला बदल दिया और एन.डी.ए. के विरोध में वोट कर दिया। अब सदन की निगाहें कोरापुट से सांसद गिरधर गोमांग पर थीं। दरअसल दो महीने पहले ही गोमांग ओडिशा के मुख्यमंत्री बने थे। ऐसे में छह महीने के भीतर उन्हें ओडिशा में विधानसभा या विधान परिषद का सदस्य चुना जाना था लेकिन अभी उन्होंने लोकसभा से इस्तीफा नहीं दिया था। गोमांग ने बी.जे.पी. सरकार के विश्वास प्रस्ताव के विरोध में वोट कर दिया। बी.जे.पी. सरकार के पक्ष में 269 वोट पड़े थे और विरोध में 270 वोट पड़े थे। इसलिए गिरधर गोमांग की भूमिका आज भी चर्चा का विषय है। सदन में विश्वास मत न साबित कर पाने की वजह से कुछ महीने बाद ही तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर. नारायणन ने संसद भंग कर दी लेकिन वाजपेयी कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने रहे।
करगिल युद्ध
कश्मीर मसले को लेकर पाकिस्तान के साथ हुए करगिल युद्ध को कुछ ही महीने बीते थे कि चुनाव हो गए। ऐसे में युद्ध में भारत की सफलता का लाभ भी अटल बिहारी वाजपेयी को मिला। दरअसल 3 मई 1999 को पाकिस्तान ने इस युद्ध की शुरुआत की। पाकिस्तान ने 5,000 सैनिकों के साथ करगिल की चोटी पर घुसपैठ करके कब्जा कर लिया। इसकी जानकारी सरकार को मिलने के बाद सेना ने उन्हें खदेड़ने का अभियान चलाया। पाकिस्तान के कई ठिकानों पर हमले किए गए। कहा जाता है कि विश्व युद्ध के बाद करगिल का युद्ध ही ऐसा था जिसमें दुश्मन देश पर इतनी ज्यादा गोलाबारी की गई। दो महीने से ज्यादा यह युद्ध चला और 4 जुलाई को भारतीय सेना ने करगिल को वापस ले लिया।
चुनाव के मुद्दे
चुनाव के समय N.D.A. गठबंधन में 20 पार्टियां थीं लेकिन कई और पार्टियां भी इसके समर्थन में आने को तैयार थीं। लंबे समय से केंद्र सरकार में अहम भूमिका में रहने वाली कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी थीं। उनका गठबंधन उस समय N.D.A. से कमजोर था। सोनिया गांधी कांग्रेस में नई-नई शामिल हुई थीं इसलिए चुनाव में उनको निशाने पर लिया गया। महाराष्ट्र में I.N.C. के नेता शरद पवार ने सोनिया के विदेशी होने का मुद्दा उठाया। चुनाव प्रचार ने एक नया मोड़ ले लिया और यह चुनाव विदेशी (गांधी) बनाम स्वदेशी (वाजपेयी) बन गया। करगिल युद्ध में भारत की सफलता का श्रेय भी वाजपेयी के नाम था। इसके अलावा बी.जे.पी. ने आर्थिक उदारवाद, आर्थिक सुधार और औद्योगिक विकास को भी बखूबी भुनाया। कांग्रेस के हाथों में रहने वाले असम, ओडिशा और आंध्र प्रदेश में भी बी.जे.पी. की बढ़त ने अन्य पार्टियों का विश्वास भी N.D.A .में बढ़ा दिया।
चुनाव परिणाम
परिणाम बी.जे.पी. के पक्ष में रहा और N.D.A. गठबंधन को 269 सीटें मिलीं। इसके अलावा तेलुगु देशम पार्टी (29 सीट) ने भी N.D.A. को समर्थन दिया जो गठबंधन का हिस्सा नहीं थी। कांग्रेस का प्रदर्शन बुरा रहा और इसे केवल 114 सीटें हासिल हुईं हालांकि इसे उत्तर प्रदेश में कुछ सीटें वापस मिल गईं। 1998 में तो उत्तर प्रदेश से कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया था। इस चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी भी खत्म होने की कगार पर पहुंच गई थी। C.P.I. को मात्र 4 सीटें मिलीं और वह राष्ट्रीय पार्टी नहीं रही। पहली बार ऐसा हुआ था कि बिना कांग्रेस के कोई गठबंधन बहुमत के साथ सरकार बना रहा था। अटल बिहारी वाजपेयी ने तीसरी बार प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण की और उन्होंने 2004 तक अपना कार्यकाल पूरा किया।
1 वोट ने इतिहास तक बदल कर रख दिया
इतिहास में कई ऐसे उदाहरण हैं जब एक वोट काफी कीमती साबित हुआ। 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार सिर्फ एक वोट से गिर गई थी। आम तौर एक वोट की ताकत को बड़े चुनावों में कम करके आंका जाता है। लोग अक्सर यह कहते सुने जा सकते हैं कि एक वोट से क्या होगा ? लेकिन इतिहास खंगालने पर एक वोट की ताकत क्या होती है ? यह पता चलता है। देश और दुनिया का इतिहास गवाह है कि एक वोट की ताकत कभी कम नहीं रही। एक वोट ने सरकार तक को गिरा दिया तो किसी के मुख्यमंत्री बनने के सपने पर पानी फेर दिया। कहीं एक वोट हिम्मत, साहस और मजबूत इरादे के प्रतीक के तौर पर सामने आया। तो आइए आज आपको इतिहास के पन्नों से कुछ अहम घटनाओं से अवगत कराते हैं जिसमें आप देखेंगे कि एक वोट ने कितना बड़ा खेल कर दिया ताकि एक वोट को कमतर करके न आंका जाए।
अटल सरकार का गिरना
अप्रैल, 1999 भारतीय इतिहास में एक अहम घटना के लिए दर्ज है। इसी दिन 13 महीने पुरानी अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया था। अविश्वास प्रस्ताव सिर्फ एक वोट से पास हुआ था। प्रस्ताव के पक्ष में 270 वोट पड़े थे और खिलाफ 269 वोट। इसके नतीजे में वाजपेयी सरकार गिर गई।
सी.पी.जोशी की हार
2008 के राजस्थान विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस के सीनियर लीडर सी.पी.जोशी सिर्फ एक वोट से हार गए थे। उनके प्रतिद्वंद्वी बी.जे.पी. के कल्याण सिंह चौहान को 62,216 वोट पड़े थे जबकि उनको 62,215। वह उस समय मुख्यमंत्री पद के मजबूत उम्मीदवार थे लेकिन एक वोट ने उनकी सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया।
ए.आर.कृष्णमूर्ति
कर्नाटक विधानसभा के 2004 के चुनाव में ए.आर.कृष्णमूर्ति जनता दल सेक्युलर के टिकट पर लड़े थे। उनके प्रतिद्वंद्वी ध्रुवनारायण को 40752 वोट मिले जबकि उनको 40751। वह विधानसभा चुनाव में एक वोट से हारने वाले पहले शख्स बन गए थे।
अहमद पटेल
2017 में गुजरात की तीन राज्यसभा सीटों के लिए चुनाव हुआ था। एक सीट पर कांग्रेस की ओर से अहमद पटेल लड़ रहे थे। कांग्रेस के ही दो विधायकों ने क्रॉस वोटिंग कर दी थी जिससे अहमद पटेल की जीत मुश्किल हो गई थी। क्रॉस वोटिंग करने वाले दो एम.एल.ए. यह भूल गए थे कि वे वोट करते वक्त भी कांग्रेस के सदस्य थे और वे पोलिंग बूथ पर खड़े होकर अपनी बदली हुई वफादारी का सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं कर सकते। इससे उनके वोट रद्द हो गए जिससे जीतने के लिए वोटों की संख्या 43.5 हो गई। अहमद पटेल को 44 वोट मिले थे, इस तरह वह आधे वोट से जीत गए।
रदरफॉर्ड बी. हेज
1876 में अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में रदरफॉर्ड बी. हेज और टिलडन के बीच मुकाबला था। टिल्डन 2,50,000 के अंतर से पॉप्युलर वोट जीत गए थे। लेकिन जब इलेक्टोरल वोट की बारी आई तो उनको सिर्फ 184 वोट मिले थे जबकि रदरफॉर्ड 185 वोट जिससे उनकी जीत सुनिश्चित हुई।
मजबूत लीडर के तौर पर उभरीं मारग्रेट थैचर
एक वोट ने इंग्लैंड की प्रधानमंत्री रहीं मारग्रेट थैचर की जिंदगी में अहम भूमिका निभाई। साल 1979 की बात है। उन दिनों थैचर विपक्ष की नेता थीं। लेबर पार्टी सत्ता में थी और प्रधानमंत्री जेम्स कैलहैन थे। थैचर ने पी.एम. जेम्स कैलहैन के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया। प्रस्ताव के पक्ष में 311 और खिलाफ 310 वोट पड़े। यानी एक वोट से प्रस्ताव पास हुआ। उसके बाद चुनाव में जीत के साथ मारग्रेट थैचर मजबूत नेता के तौर पर उभरीं।
हिटलर के खिलाफ एक वोट
1919 में नाजी पार्टी की स्थापना हुई थी। 1921 में हिटलर ने नाजी पार्टी की कमान संभाली थी। नाजी पार्टी की कमान संभालने से पहले पार्टी के कई सदस्य हिटलर के खिलाफ थे। उनका मानना था कि वह बहुत महत्वाकांक्षी है और इस वजह से उन लोगों ने हिटलर की शक्तियों को सीमित करने की कोशिश की। इससे नाराज होकर हिटलर पार्टी छोड़कर चला गया। फिर उन लोगों को अहसास हुआ कि हिटलर जैसे प्रभावशाली इंसान के जाने से पार्टी पर असर पड़ेगा। इसके नतीजे में हिटलर पार्टी में लौटा तो सही लेकिन अपनी शर्तों पर। 29 जुलाई को हिटलर को पार्टी का चेयरमैन चुनने के लिए वोटिंग हुई। कुल 554 सदस्यों में से सिर्फ एक सदस्य ने हिटलर के खिलाफ वोट दिया। ऐसे समय में जब सारे सदस्य हिटलर के साथ खड़े थे, एक का उसके खिलाफ जाना वाकई में ऐताहिसक और साहसिक कदम था।
5 बार लोकसभा चुनाव हारे थे वाजपेयी, इन नेताओं ने दी थी मात
अटल बिहारी वाजपेयी अपने जीवन में पांच लोकसभा सीटों से चुनाव हारे | 1952 में पहली बार लखनऊ में और 1984 में ग्वालियर में उन्हें माधवराव सिंधिया के हाथों हार मिली थी | पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी दुनिया को अलविदा चुके हैं | 93 साल की उम्र में गुरुवार को उन्होंने दिल्ली के A.I.M.S. में अंतिम सांस ली | वाजपेयी देश के पहले नेता हैं जो गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने थे | वाजपेयी 1952 से लेकर 2004 तक लोकसभा चुनाव लड़े | इस दौरान उन्होंने कई कीर्तिमान स्थापित किए, लेकिन पांच लोकसभा सीटों पर उन्हें हार का मुंह भी देखना पड़ा था | वाजपेयी देश के एकमात्र ऐसे राजनेता हैं, जो चार राज्यों की छह लोकसभा क्षेत्रों की नुमाइंदगी कर चुके हैं | उत्तर प्रदेश के लखनऊ और बलरामपुर, गुजरात के गांधीनगर, मध्यप्रदेश के ग्वालियर और विदिशा और दिल्ली की नई दिल्ली संसदीय सीट से चुनाव जीतने वाले वाजपेयी एकलौते नेता हैं |
अटल बिहारी वाजपेयी पहली बार 1952 में लखनऊ लोकसभा सीट पर हो रहे उपचुनाव में उतरे थे, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली | कांग्रेस की शिवराजवती नेहरू से जनसंघ से चुनाव लड़ रहे अटल बिहारी वाजपेयी को हार मिली | दिलचस्प बात ये है कि वाजपेयी तीसरे नंबर पर रहे | वाजपेयी के हाथ पहली बार सफलता 1957 में लगी | 1957 में जनसंघ ने उन्हें तीन लोकसभा सीटों लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से चुनाव लड़ाया | लखनऊ में कांग्रेस के पुलिन बिहारी बनर्जी ने जनसंघ प्रत्याशी अटल बिहारी वाजपेयी को मात दी | मथुरा में उनकी ज़मानत जब्त हो गई | मथुरा में उनके सामने कांग्रेस से चौधरी दिगंबर सिंह और सोशलिस्ट पार्टी के राजा महेंद्र प्रताप सिंह भी चुनाव लड़ रहे थे | वाजपेयी के समर्थन में पंडित दीनदयाल उपाध्याय और नानाजी देशमुख ने एक दिन में 14-14 सभाएं की | इसके बाद भी अटल बिहारी वाजपेयी हार गए | उन्हें राजा महेंद्र प्रताप सिंह के हाथों हार का मुंह देखना पड़ा | हालांकि बलरामपुर संसदीय सीट से चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे |वाजपेयी तीसरे लोकसभा चुनाव 1962 में लखनऊ सीट से उतरे | कांग्रेस के बी.के. धवन से उनका मुकाबला हुआ और यहां भी उन्हें हार मिली | इसके बाद वे राज्यसभा सदस्य चुने गए | इसके बाद 1967 में फिर लोकसभा चुनाव लड़े और लेकिन जीत नहीं सके | इसके बाद 1967 में ही उपचुनाव हुआ, जहां से वे जीतकर सांसद बने | 1971 में पांचवें लोकसभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी मध्य प्रदेश के ग्वालियर संसदीय सीट से उतरे और जीतकर संसद पहुंचे | आपातकाल के बाद हुए चुनाव में 1977 और फिर 1980 के मध्यावधि चुनाव में उन्होंने नई दिल्ली संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया | 1984 में अटल बिहारी ने मध्य प्रदेश के ग्वालियर से लोकसभा चुनाव का पर्चा दाखिल कर दिया और उनके खिलाफ अचानक कांग्रेस ने माधवराव सिंधिया को खड़ा कर दिया | जबकि माधवराव गुना संसदीय क्षेत्र से चुनकर आते थे | सिंधिया से वाजपेयी पौने दो लाख वोटों से हार गए |
बता दें कि अटल बिहारी ने एक बार जिक्र भी किया था कि उन्होंने स्वयं संसद के गलियारे में माधवराव से पूछा था कि वे ग्वालियर से तो चुनाव नहीं लड़ेंगे | माधवराव ने उस समय मना कर दिया था, लेकिन कांग्रेस की रणनीति के तहत अचानक उनका पर्चा दाखिल करा दिया गया | इस तरह वाजपेयी के पास मौका ही नहीं बचा कि दूसरी जगह से नामांकन दाखिल कर पाते | ऐसे में उन्हें सिंधिया से हार का सामना करना पड़ा | इसके बाद वाजपेयी 1991 के आम चुनाव में लखनऊ और मध्य प्रदेश की विदिशा सीट से चुनाव लड़े और दोनों ही जगह से जीते | बाद में उन्होंने विदिशा सीट छोड़ दी | हालांकि, 1996 में हवाला कांड में अपना नाम आने के कारण लालकृष्ण आडवाणी गांधीनगर से चुनाव नहीं लड़े | इस स्थिति में अटल बिहारी वाजपेयी ने लखनऊ सीट के साथ-साथ गांधीनगर से चुनाव लड़ा और दोनों ही जगहों से जीत हासिल की | इसके बाद से वाजपेयी ने लखनऊ को अपनी कर्मभूमि बना ली | 1998, 1999 और 2004 का लोकसभा चुनाव लखनऊ सीट से जीतकर सांसद बने |
चुनाव की मुख्य बातें
*१३वी लोकसभा के लिए जब चुनाव हुए तब साल था १९९९ का । ये चुनाव ०८ दिन तक चले। ०५ सितंबर से ०३ अक्टूबर तक मतदान हुए। १३वी लोकसभा के लिए उस समय २५ राज्यों और ०७ केंद्रशासित प्रदेशों में ५४३ सीटों के लिए चुनाव हुए ।
*देश की १३वी लोकसभा १० अक्टूबर १९९९ को अस्तित्व में आई ।
*१३वी लोकसभा के चुनाव हेतु ७,७४,६५१ चुनाव केंद्र स्थापित किए गए थे ।
*उस समय मतदाताओं की कुल संख्या ६१.९५ करोड़ थी ।
*उस समय ५९.९९ % मतदान हुए थे ।
*१३वी लोकसभा के लिए ५४३ सीटों के लिए हुए चुनाव में कुल ४६४८ उम्मीदवार चुनावी मैदान में थे जिन में से ३४०० उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हुई थी।
*इस चुनाव में कुल २८४ महिला उम्मीदवार चुनाव लड़ रही थी जिन में से ४९ महिला उम्मीदवार जीत दर्ज कराने में सफल हुई ।
*५४३ सीटों के लिए हुए इस चुनाव में ७९ सीटे अनुसूचित जाती के लिए और ४१ सीटे अनुसूचित जनजाती के लिए आरक्षित रखी गई थी ।
*१३वी लोकसभा के लिए हुए चुनाव में १६९ राजनीतिक दलों ने भाग लिया था जिन में से राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की संख्या ०७ और राज्य स्तरीय राजनीतिक दलों की संख्या ४० थी जबकि १२२ पंजीकृत अनधिकृत राजनीतिक दल भी इस चुनाव में अपनी किस्मत आज़मा रहे थे ।
*राष्ट्रीय राजनीतिक दलों ने कुल १२९९ उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतारे थे, जिन में से ४३७ उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हुई थी और राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के ३६९ उम्मीदवार जीत दर्ज कराने में सफल हुए थे । इस चुनाव में राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को कुल वोटों में से ६७.११ % वोट मिले थे ।
*इस चुनाव में राजयस्तरीय राजनीतिक दलों ने कुल ७५० उम्मीदवार खड़े किए थे। रिकॉर्ड के अनुसार इन ७५० प्रत्याशीयों में से ४११ प्रत्याशीयों की ज़मानत ज़ब्त हुई थी और १५८ प्रत्याशी लोकसभा में पहुंचे थे। इस चुनाव में राजयस्तरीय राजनीतिक दलों को कुल वोटो में से २६.९३ % वोट मिले थे।
*इस चुनाव में पंजीकृत अनधिकृत राजनीतिक दलों ने ६५४ उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतारे थे। इन ६५४ उम्मीदवारों में से ६२४ उम्मीदवार अपनी ज़मानत बचाने में भी विफल रहे जबकि केवल १० उम्मीदवार लोकसभा तक पहुँचने में सफल हुए । इस चुनाव में पंजीकृत अनधिकृत राजनीतिक दलों को कुल वोटो में से ३.२२ % वोट मिले थे।
*इस चुनाव में कुल १९४५ निर्दलीय उम्मीदवार चुनावी मैदान में थे। इन १९४५ निर्दलीय उम्मीदवारों में से केवल ०६ उम्मीदवार जीत दर्ज कराने में सफल हुआ था । कुल वोटो में से २.७४ % वोट निर्दलीय उम्मीदवारों ने प्राप्त किए थे जबकि १९२८ निर्दलीय उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त होने का रिकॉर्ड मौजूद है।
*इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सब से बड़े दल के रूप में सामने आया। ५४३ सीटों के लिए हुए इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के ३३९ उम्मीदवार चुनावी मैदान में थे। इन में से १८२ उम्मीदवार जीत दर्ज करा कर लोकसभा पहुँचने में सफल हुए तो वही २४ उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त होने का उल्लेख भी रिकॉर्ड में मौजूद है। इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को कुल वोटो में से २३.७५ % वोट मिले थे।
*कांग्रेस दूसरा सब से बड़ा दल बन कर उभरा था। कांग्रेस ने कुल ४५३ उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतारे थे। इन ४५३ उम्मीदवारों में से ८८ उम्मीदवारों की ज़मानत जब्त हुई थी जबकि ११४ उम्मीदवार लोकसभा पहुँचने में सफल हुए थे। कांग्रेस को कुल वोटों में से २८.३० % वोट मिले थे।
*सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि १३वी लोकसभा के लिए हुए इस चुनाव में ९,४७,६८,३१,००० (९ अरब, ४७ करोड़, ६८ लाख, ३१ हज़ार रुपये) रुपये की राशि खर्च हुई थी ।
*उस समय श्री डॉ. एम. एस. गिल भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त हुआ करते थे, जिन्होंने ये चुनाव सफलतापूर्वक संपन्न कराने में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
*१३वी लोकसभा ०६ फरवरी २००४ को विसर्जित की गई।
*इस चुनाव के बाद १३वी लोकसभा के लिए २० और २१ अक्टूबर १९९९ को शपथ ग्रहण समारोह आयोजित किया गया था।
*१३वी लोकसभा के सभापती पद हेतु २२ अक्टूबर १९९९ को चुनाव हुए और श्री जी. एम. सी. बलयोगी को सभापती और पी. एम. सईद को उपसभापती के रूप में चुना गया।
*१३वी लोकसभा के कुल १४ अधिवेशन और ३५६ बैठके हुई। इस लोकसभा में कुल ३०२ बिल पास किए गए थे जिस का रिकॉर्ड मौजूद है।
*१३वी लोकसभा की पहली बैठक २० अक्टूबर १९९९ को हुई थी।
*१३वी लोकसभा की ५४३ सीटों के लिए हुए इस चुनाव में ३६९ सीटों पर राष्ट्रीय राजनीतिक दलों ने, १५८ सीटों पर राज्यस्तरीय राजनीतिक दलों ने, १० सीटों पर पंजीकृत अनधिकृत राजनीतिक दलों ने जबकि ०६ सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की।
All this should be in school history textbooks, very informative and eye opening....
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