महादेवी वर्मा की काव्यगत विशेषताएँ महादेवी वर्मा के काव्य में विरह वेदना महादेवी वर्मा के काव्य महादेवी वर्मा जी की काव्यगत विशेषताएं छायावादी युग
महादेवी वर्मा की काव्यगत विशेषताएँ
महादेवी वर्मा के काव्य में विरह वेदना
वस्तुतः महादेवी वर्मा वेदना भाव की कवियत्री हैं। उन्होंने स्वयं ही स्वीकार किया है कि दुःख मेरे निकट जीवन का ऐसा काव्य है जो संसार को एक सूत्र में बाँधने की क्षमता रखता है। हमारे असंख्य सुख चाहे हमें मनुष्यता की पहली सीढ़ी तक भी न पहुंचा सके ,किन्तु हमारा एक बूँद आँसू भी जीवन को अधिक मधुर ,अधिक उर्वर बनाये बिना नहीं गिर सकता है। महादेवी वर्मा की विशेष शिक्षा - दीक्षा और संस्कारों ने इस वेदना का उदात्तीकरण कर दिया और उन्होंने अपनी व्यक्तिगत पीड़ा को सृष्टि के मूल में व्याप्त वेदना से संपृक्त कर उसे अपने जीवन दर्शन के रूप में अपनाया। कवियत्री को इस वेदना - धन पर सात्विक अभिमान है -
मेरी लघुता पर आती
जिस दिव्य लोक को व्रीड़ा,
उसके प्राणों से पूछो
वे पाल सकेंगे पीड़ा?
उनसे कैसे छोटा है
मेरा यह भिक्षुक जीवन?
उन में अनन्त करुणा है
इस में असीम सूनापन!
सुभग हँस उठ, उस प्रफुल्ल गुलाब ही सा आज,
बीती रजनि प्यारे जाग।
महादेवी वर्मा का रहस्यवाद
महादेवी वर्मा की रचनाओं को प्रायः रहस्यवाद के अंतर्गत रखा जाता है। रहस्यवाद आत्मा और पमरात्मा की मधुर प्रणयलीलाओं की काव्यात्मक अभियक्ति है। जिस प्रकार मध्ययुगीन संतों ने सामाजिक विधि निषेधों के तिरस्कार के लिए भक्ति का दामन पकड़ा है ,ठीक उसी प्रकार छायावादियो ने ज्ञात और परिचित की संकीर्णताओं से उबकर अज्ञात असीम की पुकार लगायी। यद्यपि इस विद्रोह पर रहस्य का आवरण पड़ा हुआ है ,फिर भी कहीं - कहीं असंतोष के स्वर बहुत स्पष्ट हो गए हैं। उदाहरण के लिए महादेवी की कविता का एक अंश दृष्टिगत है -फिर विकल हैं प्राण मेरे!
तोड़ दो यह क्षितिज मैं भी देख लूं उस ओर क्या है!
जा रहे जिस पंथ से युग कल्प उसका छोर क्या है?
क्यों मुझे प्राचीर बन कर
आज मेरे श्वास घेरे?
उस असीम का सुंदर मंदिर मेरा लघुतम जीवन रे!
मेरी श्वासें करती रहतीं नित प्रिय का अभिनंदन रे!
पद रज को धोने उमड़े आते लोचन में जल कण रे!
अक्षत पुलकित रोम मधुर मेरी पीड़ा का चंदन रे!
स्नेह भरा जलता है झिलमिल मेरा यह दीपक मन रे!
मेरे दृग के तारक में नव उत्पल का उन्मीलन रे!
धूप बने उड़ते जाते हैं प्रतिपल मेरे स्पंदन रे!
प्रिय प्रिय जपते अधर ताल देता पलकों का नर्तन रे!
महादेवी वर्मा का भाव पक्ष एवं कला पक्ष
महादेवी वर्मा के काव्य की विषय वस्तु सीमित है। भाव की दृष्टि से उनमें केवल दो ही मूल भाव मिलते हैं - रति और करुणा। उनके काव्य का विभाव पक्ष भी विस्तृत नहीं है। प्रकृति के व्यापक परिदृश्य में से उन्होंने केवल कुछ ही उपादानों का संकलन किया है ,जैसे - संध्या ,निशीथ ,चाँदनी ,उषा ,पावस ,बादल ,विद्युत् आदि। इनका भी उनके काव्य में प्रायः प्रतीकवत प्रयोग हुआ है। इनके अतिरिक्त उन्हें दीपक का प्रतीक अत्यंत प्रिय है। दीप उनकी सम्पूर्ण जीवन साधना का पर्याय है। एक ओर वे अपने जीवन दीप को निरंतर जलाये रखकर प्रियतम के पथ में आलोक बिखेरती रहना चाहती है ,दूसरी ओर अपने आराध्य के प्रति उनका आत्म - निवेदन है -यह चंचल सपने भोले हैं,
दृगजल पर पाले मैंने मृदु,
पलकों पर तोले हैं
दे सौरभ से पंख इन्हें सब नयनों में पहुँचाना
आधुनिक युग की मीरा महादेवी वर्मा
अपनी सफल काव्य शैली के द्वारा ही उन्होंने बहुविधि लाक्षणिक प्रयोग कर सूक्ष्मतर भाओं को भी मूर्तिमता प्रदान की है। उपमा - रूपक आदि अलंकारों का प्रयोग उन्होंने बड़े स्वाभाविक ढंग से किया है। शब्दअलंकारों की छटा सर्वत्र दिखाई पड़ती है।उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हिंदी साहित्य में महादेवी वर्मा का स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण है। उन्हें आधुनिक युग की मीरा कहा जाता है। हिंदी काव्य क्षेत्र में उनकी सेवाएँ निश्चित ही सराहनीय है।
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