Panth Hone Do Aparichit Mahadevi Verma पंथ होने दो अपरिचित कविता की व्याख्या पंथ होने दो अपरिचित कविता का सारांश मूल भाव कविता का अर्थ explanation
पंथ होने दो अपरिचित कविता
पंथ होने दो अपरिचित कविता की व्याख्या
आज कंजल-अश्रुओं में रिमझिमा ले यह घिरा घन
और होंगे नयन सूखे
तिल बुझे औ’ पलक रूखे
आर्द्र चितवन में यहां
शत विद्युतों में दीप खेला
अन्य होंगे चरण हारे
और हैं जो लौटते, दे शूल को संकल्प सारे
दुखव्रती निर्माण उन्मद
यह अमरता नापते पद
बांध देंगे अंक-संसृति
से तिमिर में स्वर्ण बेला
शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोई निशानी
आज जिस पर प्रलय विस्मित
मैं लगाती चल रही नित
मोतियों की हाट औ’
चिनगारियों का एक मेला
हास का मधु-दूत भेजो
रोष की भ्रू-भंगिमा पतझार को चाहे सहे जो
ले मिलेगा उर अचंचल
वेदना-जल, स्वप्न-शतदल
जान लो वह मिलन एकाकी
विरह में है दुकेला!
पंथ होने दो अपरिचित कविता का सारांश
कवियत्री महादेवी वर्मा जी की मान्यता है कि प्रेम और भक्ति का पथ निजी होने के कारण अपरिचित होता है तथा प्रेमी या भक्त को इस पर एकाकी आगे बढ़ना होता है। प्रेम और भक्ति के क्षेत्र में घनत्व की मात्रा अधिक होने के कारण एकाकीपन अनिवार्य है। दोनों ही क्षेत्रों में एकाधिकार की प्रबल भावना विद्यमान रहती है। सच्चा प्रेमी या भक्त प्रिय अथवा आराध्य के लिए मात्र कर्मरत रहता है उसमें प्राप्ति की इच्छा गौण होती है। प्राप्ति की आकांक्षा या मिलन की चाह में जो आनंद की तीव्रता होती है वह प्राप्ति या मिलन के उपरान्त नहीं देखी जाती है। अतः सच्चा प्रेमी या भक्त साधनारत रहता है ,प्राप्ति की अभिलाषा नहीं रखता है। Panth Hone Do Aparichit कविता का मूल भाव
अपने साधना पथ को अपरचित बताकर महादेवी वर्मा जी ने उस मार्ग में आनेवाली विविध कठिनाइयों का विवरण प्रस्तुत करते हुए कहा है कि - साधना पथ को अपरिचित होने दो और उस मार्ग के पथिक प्राण को भी अकेला रहने दो। मेरी छाया आज मुझे भले ही अमावस्या की रात्री के गहन अन्धकार के समान घेर ले और मेरी काजल लगी आँखे बादल के समान आंसुओं की वर्षा करने लगे ,फिर भी चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार की कठिनाइयों को देखकर जो आँखे सूख जाती ,जिन आँखों के तिल बुझ जाते हैं और जिन आँखों की पलकें रुखी रुखी हो जाती हैं ,वे कोई और आँखें होंगी। इस प्रकार के कष्टों के आने पर भी मेरी चितवन आद्र बनी रहेगी क्योंकि मेरे जीवन दीप ने सैकड़ों विद्युतों में भी खेलना सीखा है अर्थात कष्टों से घबड़ाकर पीछे हट जाना मेरे जीवन दीप का स्वभाव नहीं है।प्रिय मिलन के दृढ़ संकल्प का वर्णन करते हुए महादेवी वर्मा ने कहा है कि - हे प्रियतम ! चाहे तुम मुस्कान का मधुरदूत भेज कर मुझे अपनी ओर आकृष्ट करो और चाहे अपनी भौहों की वक्रता से क्रोध प्रकट करते हुए पतझड़ को एकत्रित कर लो अर्थात चाहे तुम प्रसन्न हो जाओ अथवा अप्रसन्न ,किन्तु मेरा अडिग ह्रदय वेदना का जल और स्वप्नों का कमल पुष्प लिए तुम्हारी सेवा में अवश्य उपस्थित होगा। मैं तुम से अवश्य मिलूंगी। विरह की स्थिति में ही मैं दुकेला अनुभव करती हूँ। मिलन के क्षणों में तो मैं इतनी तन्मय हो जाती हूँ कि मैं द्वेत का अनुभव ही नहीं होता और इस प्रकार मैं एकाकिनी बन जाती हूँ यद्यपि मेरा साधना पथ अपरिचित है और मेरे प्राणों का पथिक अकेला है ,फिर भी चिंता की कोई बात नहीं है क्योंकि मुझे यह दृढ़ विश्वास है कि एक न एक दिन मैं अपने प्रियतम को अवश्य पा लूंगी।
persang
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