रामधारी सिंह दिनकर की काव्यगत विशेषताएँ ramdhari singh dinkar poems in hindi काव्य पक्ष dinkar ki kavyagat viseshtay दिनकर की साहित्य में देन हिन्दी
दिनकर की काव्यगत विशेषताएँ
रामधारी सिंह दिनकर की काव्यगत विशेषताएँ ramdhari singh dinkar poems in hindi रामधारी सिंह दिनकर जी के काव्य की विशेषताएं Ramdhari singh dinkar ki Kavya important रामधारी सिंह दिनकर के काव्य पक्ष dinkar ki kavyagat viseshtay दिनकर की साहित्य में देन हिन्दी साहित्य का इतिहास - जिन कवियों ने हिंदी कविता को छायावाद की कुहेलिका से बाहर निकालकर उसे प्रसन्न आलोक के लोक में पहुँचाया ,उसमें जीवन का तेज़ भरा और उसे सामायिक प्रश्नों से उलझना सिखाया ,उनमें दिनकर का स्थान बहुत ऊँचा है। सच पूछा जाए तो आधुनिककाल में हिंदी की राष्ट्रीय कविता ने तीन ही मंजिले तय की है। उसकी पहली मंजिल भारतेंदु हरिश्चंद में मिलती है ,जब उसने ब्रज के करील कुंजों को छोड़कर देश दुर्दशा की ओर साश्रुनयन निहारा था ,दूसरी मंजिल के पुरोधा मैथिलीशरण गुप्त बने ,जब उन्होंने वर्तमान की विवशता के साथ अतीत का गौरवपूर्ण स्मरण किया और अपने तीसरी मंजिल में वह दिनकर की उंगली पकड़कर आगे बढ़ी तथा अन्याय ,राजनितिक दासता और आर्थिक शोषण के विरुद्ध उसने खुलकर विद्रोह का शंखनाद किया। एक वाक्य में दिनकर नाम युगधर्म के हुँकार और भूचाल बवंडर के खवाबों से भरी हुई तरुनाई का है।
दिनकर के काव्य की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं -
राष्ट्रीय भावनाओं का उन्मेष
दिनकर राष्ट्रीय भावनाओं के ओजस्वी गायक है। विशेष रूप से पराधीनता के दिनों में हम जो भी दमन और अत्याचार हुए दिनकर के कवि ने उनकी सजग अनुभूति प्राप्त की और अपनी अग्निमायी वाणी द्वारा उसके प्रतिकार का प्रयत्न किया। दिनकर को भारतीय राजनीति की आतंकवादी धारा का सबसे बड़ा प्रतिनिधि माना जाता है। उनका हिंदी में वही स्थान है ,जो बंगला में नजरूल इस्लाम का है। इस अर्थ में दिनकर का कवि ह्रदय बड़ा ही संवेदनशील है। काल का शायद ही कोई ऐसा आघात हो जिसकी प्रतिक्रिया में वह फूट न पड़ा हो। पराधीनता के दिनों में दिनकर ने हिमालय के बहाने देश के नवयुवकों को गुलामी की जंजीरे तोड़ फेंकने के लिए ललकारा था -
ले अंगडाई, उठ, हिले धरा,कर निज विराट स्वर में निनाद,
तू शैलराज, हुंकार भरे,फट जाए कुहा, भागे प्रमाद !
तू मौन त्याग कर सिंघनाद ,रे तापी, आज तप का न काल,
नवयुग-शंख-ध्वनि जगा रही,तू जाग, जाग , मेरे विशाल !
ऐतिहासिक चेतना की विवृति
दिनकर इतिहास के छात्र रहे हैं। अतः उनकी ऐतिहासिक चेतना अत्यंत प्रखर है। यों तो इतिहास का उपयोग साहित्य में अनेक बार हुआ है ,लेकिन दिनकर ने इतिहास से जैसी जीवंत प्रेरणा प्राप्त की है और इतिहास जिस प्रकार उनके काव्य में अपनी गाँठ खोलता हुआ ज्ञात होता है ,वैसा उनके समसामयिक किसी भी दूसरे कवि के काव्य में नहीं है और बदले में कवि ने इतिहास को बड़ी ही आत्मीय दृष्टि से देखा है। यद्यपि कवि की कल्पना इतिहास के भग्न खंडहरों में भटकती फिर रही है ,लेकिन वह अतीत की ओर जब भी जाती है ,अपने कन्धों पर वर्तमान को बैठाये लिए जाती है। इस तरह कवि ने अतीत से वर्तमान का वैषम्य दिखलाकर वर्तमान की पीड़ा को और तीव्र बना दिया है और उसके प्रतिकार की उत्तेजना को भरने की कोशिश की है।
क्रांति का विद्रोही स्वर
दिनकर क्रांति के उपासक है। वे सुधारवाद में विश्वास नहीं रखते हैं। क्रांति में हिंसा अवश्यभावी है ,इसीलिए वे हिंसा को भी एक सीमा तक जीवन में आवश्यक समझते हैं। पर वर्गहीन समाज रचना का साधन अंततः हिंसा ही है। कवि की कामना एक ऐसे आदर्शलोक की रचना है ,जहाँ प्रत्येक प्राणी का सुख भाग सम हो और धरती युद्ध की ज्वर भीती से मुक्त हो जाए। कवि ने हिंसा का दायित्व भी उस पर नहीं रखा है जो तलवार उठाता है ,बल्कि हिंसा के लिए दोषी वह है जो दूसरे के अधिकारों का हरण कर उसका जीवन दूभर बना देता है।
शोषितों तथा उपेक्षितों के प्रति सहानुभूति
व्यवाहरिक जीवन में दिनकर की सहानुभूति शोषितों ,दिनों तथा उपेक्षितों के प्रति रही है। जब वे एक ओर पूंजीपतियों के कुत्तों को राजसी भोग भोगते देखते हैं और दूसरी ओर कृषक के बालकों को माता के सूखे स्तन चूसते और जाड़े की रातों में ठिठुर कर प्राण गँवाते देखते हैं तो उनका खुल खौल जाता है और वे पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था के विनाश के लिए अधीर हो जाते हैं -
हटो व्योम के, मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं
दूध-दूध हे वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं।।
विचार तत्वों की प्रधानता
दिनकर का काव्य केवल भावना प्रधान काव्य ही नहीं ,उसमें चिंतन की गहनता भी है। कवि ने परंपरागत नजरिये की लीक से हटकर नए दृष्टिकोण से युगानुकुल काव्य के कथानक को ढालने का प्रयास किया है। उनके कुरुक्षेत्र ,उर्वशी ,रश्मिरथी और परशुराम की प्रतीक्षा नामक प्रबंधकाव्यो में बिलकुल ही युगानुकुल नवीन दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर कथानक का सृजन किया गया है। दिनकर केवल कल्पना लोक में विचरण करने वाले कवि नहीं है। वे धरती पर उतरकर मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए सर्वदा आतुर दिखाई पड़ते हैं। ह्रदय पक्ष के साथ साथ उनके काव्य में बुद्धि पक्ष का भी प्राबल्य दिखलाई पड़ता है।
प्रकृति चित्रण पर छायावादी प्रभाव
दिनकर के प्रकृति चित्रण पर छायावाद का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। प्रकृति के व्यापारों में ये नारीत्व की कल्पना करते हैं। उषा के मानवीकरण का एक मोहक चित्र देखिये -
कंचन थाल सजा सौरभ से ओ फूलों की रानी!
अलसाई-सी चली कहो,करने किसकी अगवानी?
वैभव का उन्माद, रूप की यह कैसी नादानी!
उषे! भूल जाना न ओस की कारुणामयी कहानी।
प्रकृति चित्रण में दिनकर ने भले ही छायावादी मानवीकरण अपनाने का प्रयास किया है ,किन्तु उनके स्वर में कोमलता और सुकुमारता नहीं आने पायी है। उनका स्वर भले ही ऐसे अवसरों पर हुंकार न बन पाया हो किन्तु उसमें छायावादी गुंजन नहीं सुनाई पड़ती है।
रामधारी सिंह दिनकर की भाषा शैली
दिनकर की भाषा साहित्यिक खड़ी बोली है जिसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है। कहीं कहीं उर्दू के चलते फिरते शब्दों के प्रयोग से भाषा और भी प्रवाहमयी हो गयी है। यथा इंसान ,तकदीर ,कब्र ,आरजू ,अरमान ,गम ,लाश आदि है। दिनकर की भाषा भावों के अनुकूल परिवर्तनशील भी है। उसमें मुहावरों और लोकोक्तियों का भी प्रयोग किया गया है। भाषा में कहीं कहीं व्याकरण सम्बन्धी अशुद्धियाँ भी दिखलाई पड़ती है। उसमें गंभीरता भावों का अभाव अवश्य खटकता है। उनके काव्य की भाषा माधुर्यगुण की अपेक्षा प्रसाद और ओजपूर्ण से अधिक संपन्न है।
दिनकर जी की रचनाओं में विशेषकर वीर ,रौद्र ,करुण और शांत रसों का सफलतापूर्वक प्रयोग हुआ है। रसवंती और उर्वशी में श्रृंगार रस का भी अच्छा परिपाक हुआ है। दिनकर के काव्य में तुकांत और अतुकांत दोनों प्रकार के छंद मिलते हैं। कुरुक्षेत्र में मात्रिक छंदों के साथ साथ वार्णिक छंदों का भी अच्छा प्रयोग हुआ है। अलंकारों में उपमा ,रूपक ,उत्प्रेक्षा ,अनुप्रास आदि का विशेष प्रयोग हुआ है। पाश्चात्य साहित्य के प्रभाव से आये मानवीकरण और विशेषण विपर्य आदि अलंकार भी उनके काव्य में प्रयुक्त हुए है।
भाषा ,भाव और शैली सभी दृष्टियों में दिनकरजी आधुनिक हिंदी के सर्वश्रेष्ठ कवि है। वे इस युग के प्रगतिशील राष्ट्रीय चेतना से संपन्न ,मननशील कवियों में अपना सर्वोच्च स्थान रखते हैं। वे अपने समय के राष्ट्र कवि रह चुके हैं। अपने जीवन काल में अपनी काव्य साधना के कारण वे पर्याप्त गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त कर सम्मानित भी हो चुके हैं।
दिनकर का अवसान नहीं होता , भोर का आह्वान भर है , संझा की ये वेला !
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