बेचारी सिद्धिमा देवी की आँखें आश्चर्य से फटी की फटी ही रह गईं। फिर तो अचेत होकर वह गिरने ही वाली थी, कि आगन्तुक युवक उन्हें तुरंत थाम लिया।
वे आँखें
“अरे तुम? मेरा मतलब है, आप? ... आ ....प।” – बेचारी सिद्धिमा देवी की आँखें आश्चर्य से फटी की फटी ही रह गईं। फिर तो अचेत होकर वह गिरने ही वाली थी, कि आगन्तुक युवक उन्हें तुरंत थाम लिया।
“यह तो बेहोश हो गईं। घर में कोई है? देखिये, ये बेहोश हो गईं हैं।” - आगन्तुक युवक ने कुछ ऊँची आवाज में लगभग किसी को पुकारते हुए कहा। पर उसे अपनी आवाज का कोई प्रति उत्तर न मिला। पुनः पूर्व की भाँति ही पुकारा। इस बार भी कोई उत्तर न पाकर वह उन्हें सम्भाले किसी तरह से घर के अंदर प्रवेश किया और उन्हें पास में ही पड़ी एक साधारण पुरानी कुर्सी पर बैठा दिया। फिर पहले की ही भांति एक बार और आवाज लगाई, - “घर में कोई है क्या? ये बेहोश हो गईं हैं।”
तभी दस-बारह वर्षीय एक बालिका भीतर के कमरे से निकली। अपरिचित आगन्तुक को देख कर कुछ पल के लिए वह भी कुछ असमंजस में पड़ गई, पर अपनी माँ को कुर्सी पर निढाल देख कर - “माँ – माँ” कहती हुई उनसे जा लिपटी।
“सुनो, जल्दी से पानी ले आओ। ये बेहोश हो गईं हैं।”
“पर आप कौन हैं?” – कुछ डर मिश्रित आश्चर्य से वह बच्ची पूछी I
“पहले तुम जल्दी से पानी लेकर आओ। देखती नहीं हो, तुम्हारी माँ बेहोश हो गई हैं। पहले इन्हें होश में लाना जरुरी है I फिर मेरा परिचय। जल्दी करो।”- लगभग आदेशात्मक स्वर में आगन्तुक ने कहा।
वह बालिका भागती हुई सामने के कमरे में प्रवेश की और तुरंत ही एक बड़े जग में पानी लेकर अपनी माँ के पास आ खड़ी हुई। आगन्तुक उसके हाथ से जग को लेकर पानी के कुछ छींटें बेहोश सिद्धिमा देवी के चहरे पर फेंकने लगा। पानी के शीतल स्पर्श से कुछ ही देर में सिद्धिमा देवी की चेतना लौट आई। पर वह तो अभी भी अपनी आँखें बड़ी की हुई निरंतर आगंतुक युवक को देखे ही जा रही थी। और “कौ....न? कौ....न? .... मे ... री ....... बे ...टी, ... मेरी उपु, मेरी बेटी उपासना।” - की टूटी-फूटी आवाज में अब भी रट लगाये ही जा रही थी। जबकि वह छोटी बालिका निरंतर ‘माँ ..... माँ ..’ - कहती हुई अपनी माँ को सम्भालने की भरसक प्रयास करती रही।
“आपलोग घबराइये नहीं। मेरा नाम श्रीनिवास विशेष है। मैं जयपुर के दुर्गापुरा का रहने वाला हूँ। मैं आप लोग से ही मिलने के लिए इतनी दूर से यहाँ पर आया हूँ। आप लोग जरा इत्मिनान रखिये और अपने आप को सम्भालिये, फिर मैं सारी बातें आपको विस्तार से बताता हूँ I” – श्रीनिवास ने उन्हें हिम्मत और विश्वास दिलाया।
धीरे-धीरे सिद्धिमा देवी सामान्य हुईं। परन्तु अभी भी वह चकित नजरों से श्रीनिवास की आँखें को ही घूर ही रही थीं। यही दशा उस छोटी बालिका की भी थी। वह भी एकटक श्रीनिवास के चहरे पर आश्चर्य से अपनी नजरें गड़ाये हुए थी। दोनों की आँखें श्रीनिवास की आँखों में कुछ और ही देखने की कोशिश रहीं थीं, पर श्रीनिवास की स्थिति पूर्णतः सामान्य थी। सम्भव है कि वह पूर्व से ही इन अनहोनी बातों के लिए तैयार था।
“बेटी साध्वी, जरा पानी पिला। मेरा गला सुख रहा है।” – अवरूद्ध गले से बहुत ही मुश्किल से सिद्धिमा देवी कह पाईं।
हाँ, ‘साध्वी’ यही उस प्यारी परी-सी छोटी बालिका का नाम था। साध्वी तुरंत अपनी माँ के आदेश का पालन करती हुई सामने के कमरे गई और हाथ में एक स्टील के गिलास में पानी लेकर प्रकट हुई। उसे अपनी माँ के हाथों में थमा दी। सिद्धिमा देवी उस आगन्तुक को एकटक निहारते हुए गटागट पानी पी गईं। फिर धीरे-धीरे सामान्य हुईं।
“बेटे, तुमने अपना नाम क्या बताया?”
“श्रीनिवास विशेष। माता जी, मैं जयपुर के पास के दुर्गापुरा का रहने वाला हूँ। पिछले कुछ माह पूर्व ही एक कार दुर्घटना में मेरी दोनों आँखें हमेशा के लिए नष्ट हो गयी थीं। ऐसे में मेरे जीवन में चतुर्दिक घोर अँधेरा ही अँधेरा फ़ैल गया था। मेरे लिए दिन के उजाले और रात की अंधियारी का कोई महत्व न रह गया था। मैं तो पुनः दुनिया को देख पाने की उम्मीद ही खो चूका था। फिर एक दिन देवयोग से अस्पताल से मुझे सूचना मिली कि किसी द्वारा दान की गईं आँखें उन्हें प्राप्त हुई हैं, जिन्हें आपरेशन के जरिये मुझमें स्थापित कर दी जायेंगी और मैं फिर से देख पाने में समर्थ हो जाऊँगा। माँ जी, कहा जाता है न, कि अंधे को क्या चाहिए, आँखें और क्या? सचमुच यह खबर मेरे जीवन की सबसे सुखद खबर थी, जिसके सामने संसार के सब धन-दौलत तुच्छ थे। मेरा फिर से आपरेशन हुआ और मैं संसार की खूबसूरती को पुनः देखने लगा I माँ जी, मुझे सिर्फ ये आँखें ही नहीं मिलीं, बल्कि मुझे तो अपने जीवन का उद्देश्य ही मिल गया।” – श्रीनिवास उल्लास में कहता ही जा रहा था। सचमुच उसे तो दुनिया का अनमोल खजाना ही मिल गया था, जिसके बिना उसकी करोड़ों की चल-अचल सम्पति निरर्थक थी।
“बेटे, पहले तुम बैठो और बताओ, तुम यहाँ तक पहुँचे कैसे?” – सिद्धिमा देवी की वाणी में अब मातृत्व ने स्थान ले लिया था। अब अपनत्व भाव से वह श्रीनिवास को एकटक निहार रही थीं I उन्हें यह सब हकीकत नहीं, बल्कि एक सपना ही लग रहा था, जिसे वह जागृतावस्था में देख रही थीं।
श्रीनिवास पास की ही कुर्सी पर बैठ गया और अपनी बातें कहना जारी रखा, - “माता जी। आपरेशन के बाद कुछ महीनों तक तो मैं डॉक्टरों की विशेष निगरानी में ही रहा। पर मेरा हृदय बार-बार उस नेत्रदाता परिजन को देखने के लिए बेचैन था, जिनकी अनुकम्पा से मुझे फिर से दुनिया को देखने के लिए ये दिव्य-ज्योति मिले थे। जब डॉक्टरों के अनुसार मैं पूर्णतः स्वस्थ हो गया, तब मेरे जीवन का एकमात्र उद्देश्य जल्दी से जल्दी उस घर-द्वार, उस परिवार को उसकी ही चिर-परिचित आँखों से देखना ही रह गया।
पर अस्पताल वाले इस विषय में किसी भी तरह से बताने को तैयार ही न थे। बहुत कोशिश करने पर मुझे इतना ही पता चल पाया कि ये आँखें देहरादून के ‘नेत्र भण्डारण’ से उन्हें प्राप्त हुई हैं। फिर मैं देहरादून के ‘नेत्र भंडारण’ में जा पहुँचा। जहाँ पुनः बहुत ही कोशिश करने पर पता चला कि देहरादून, लैंसडाउन और अल्मोड़ा से उन्हें तीन जोड़ी आँखें प्राप्त हुई थीं। तीनों के ठिकाने मुझे प्राप्त हो गए I विगत चार दिनों से विभिन्न स्थानों पर भटकते हुए आज मैं अपने गन्तव्य तक पहुँच पाया हूँ। और यह मेरा परम सौभाग्य ही रहा है कि आपकी चिर-परिचित आँखों से ही आप सब देख रहा हूँ।” – श्रीनिवास यह सब बताते हुए बड़ा गर्व अनुभव कर रहा था।
सिद्धिमा देवी बिना पलकें गिराए श्रीनिवास की कथा को ध्यान से सुन रही थीं, जिसे उनकी प्यारी दिवंगत ‘उपु’ अर्थात उपासना की आँखें उनके पास तक जबरन खींच लाई थीं। कुछ पल के लिए उन्होंने अपनी आँखें बंद कीं और मन ही मन कुछ मनन कीं। फिर वह धीरे से उठ कर भीतर के कमरे में गईं। श्रीनिवास कुछ न समझा। छोटी साध्वी भी अपनी माँ के भाव-विचार को न समझ पाई। शायद आँखों में एकत्रित अश्रू-कण को वह कहीं नियोजित करने गईं थीं। जब वह कमरे से बाहर आयीं, तो उनके हाथ में पुराने अखबार में लिपटा एक चित्र-पट था, उसे लाकर वह श्रीनिवास के सम्मुख औंध कर रख दीं और बहुत ही गम्भीरता से कुर्सी पर बैठ गईं। फिर वह बोलीं, - “बेटा! हमारे आश्चर्य का मूल कारण यही है। देखो, स्वयं ही इसे देखो।”
श्रीनिवास कुर्सी से ही कुछ झुक कर अखबार में लिपटे उस चित्र-पट को आहिस्ते से उठाया। उस पर लिपटे कागज को धीरे-धीरे दूर किया और फिर उस चित्र-पट को अपने सम्मुख सीधा करके देखा। इस बार आश्चर्य चकित रहने की बारी सिद्धिमा देवी और साध्वी को न थी, बल्कि श्रीनिवास की आँखों की थी। वह कुछ क्षणों के लिए अपना सुध-बुध खो कर आश्चर्य से उस चित्र को देख रहा था, जो उसका अपना ही तो था। वही मुखड़ा, वही भव्य ललाट, वही काली तिरछी भौहें, वही सिर के बाल। सब कुछ तो वही हैं। बस उसकी आँखें पहले जैसी नहीं, बल्कि आज वाली थीं, उज्जवल सफ़ेद रंगों से घिरी हुई गाढ़ी काली चमकती हुई सी आँखें थीं। कुछ समय तक तो श्रीनिवास को अपनी स्थिति का कुछ बोध ही नहीं रहा। पर जब सचेत हुआ, तब कुछ आश्चर्य से बोला, - “माता जी! यह तो मेरा चित्र है। बस आँखें मेरी पहले वाली नहीं, बल्कि अभी वाली हैं। माता जी! बहुत ही आश्चर्यजनक बात है। मैं इस अंचल में पहली बार आया हूँ, और मेरा यह चित्र आपके पास पहले से ही मौजूद है। माता जी! मैं इस रहस्य को समझ नहीं पा रहा हूँ। आखिर बात क्या है?”“बेटी साध्वी! मेहमान के रूप में पधारे श्रीनिवास के लिए कुछ नाश्ता-पानी लेकर आओ।” – बालिका साध्वी अपनी माता की आज्ञा पाकर भीतर के कमरे चली गई। इधर सिद्धिमा देवी श्रीनिवास के हाथ से उसके चित्र को प्रेमपूर्वक लीं और उसे ममत्व भाव से अपने आँचल से पोंछ कर उस चित्र की आँखों पर स्नेहपूर्वक स्पर्श करते हुए कुछ अवरुद्ध कंठ से बोली, - “ये आँखें मेरी बड़ी बेटी ‘उपु’ अर्थात उपासना की हैं, जो लगभग पाँच महीने पहले ही हम सब को बिलखते हुए छोड़कर इस संसार से सदा के लिए चली गई।” – सिद्धिमा देवी का कंठ अवरुद्ध होने लगा था। तब तक साध्वी एक प्लेट में घर में ही बने कुछ पकवान लेकर पहुँची और उसे पास के टेबल पर रख दी। फिर वह एक गिलास पानी भी लाकर वहीं टेबल पर रख दी। और अब वह अपनी माँ से सट कर बैठ गई। माँ को रोते देख फूल की पंखुड़ियों सा प्यारा उसका चेहरा भी रूआँसी होने लगा। माँ के हाथ को पकड़ कर उनके आँखों से ढुलकते आँसू को अपनी कोमल हथेली से पोंछने लगी और माँ को चुप कराने लगी। थोड़ी देर में स्थिति सामान्य हो गई। तब सिद्धिमा देवी श्रीनिवास को प्लेट से कुछ लेने के लिए इशारा की। श्रीनिवास प्लेट में पड़े एक बिस्कुट को उठाया, उसे मुँह में रख कर उसके एक टुकड़े को आहिस्ते-आहिस्ते चबाने लगा।
“माता जी! यह सुनकर मुझे बहुत दुःख हुआ। पर बातें मेरी समझ में अब भी न आईं। आपके घर में मेरा यह चित्र और आँखें आपकी दिवंगत बेटी उपासना की।” – उसने आश्चर्य से परन्तु अपनी उधार स्वरूप प्राप्त आँखों को जिज्ञासापूर्ण उनके चहरे पर केन्द्रित कर दी।
“मैं बताती हूँ।” – कह कर वह अपने स्थान से उठीं और श्रीनिवास के चित्र को लेकर आगे बढीं। श्रीनिवास भी कुर्सी पर ही बैठे हुए कुछ उसी दिशा में मुड़ कर उन्हें देखने लगा। सिद्धिमा देवी दीवार से लगे टेबलनुमा एक ताक के पास पहुँची और वहाँ पहले से ही सफेद फूलों के हार से सुसज्जित उनकी उपासना के चित्र के बगल में ही श्रीनिवास के उस चित्र को रख दी। फिर श्रीनिवास को सम्बोधित करते हुए बोली, - “यही थी, मेरी बेटी उपासना। उसी ने तुम्हारी यह चित्र बनाई है।”
श्रीनिवास के हाथ से बिस्कुट का टुकड़ा अचानक प्लेट में ही गिर पड़ा। झट कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और तुरंत उस ताक के पास पहुँचा।
आश्चर्य! दोनों चित्रों में चित्रित आँखें एक जैसी ही हूँ-बहू, एक सी ही हैं। एक सी ही नहीं, बल्कि एक ही तो है I श्रीनिवास अपनी आँखों पर जोर देते हुए बार-बार ताक पर रखे उन दोनों चित्रों को देखने लगा।
“माता जी! यह कैसे सम्भव है? मैं इस क्षेत्र के लिए अपरिचित हूँ I आज पहली बार मैं आपके इस शहर में आया हूँ I कभी आपकी दिवंगत बेटी उपासना से मैं मिला नहीं। फिर उन्होंने मुझसे ही मिलता-जुलता यह चित्र कैसे बना डाला? बड़े ही आश्चर्य की बात है?”- श्रीनिवास आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा।
“बेटे! यही बात तो हम सब को अब तक आश्चर्य में डाली हुई है। मेरी बेटी उपासना किसी से भी मिलना-जुलना बहुत ही कम करती थी। पढ़ाई के प्रति उसकी बहुत रूचि थी। वह अपनी सभी परीक्षाओं में उत्कृष्ट अंकों से सफलता प्राप्त की थी। उसके पिता की मृत्यु के उपरांत वही हमारे जीवन का आधार थी। उसकी इच्छा प्रशासनिक अधिकारी बनने की थी और वह उसी मार्ग पर आगे बढ़ भी रही थी। पर शायद ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। वे तो उसके भाग्य में कुछ और ही लिख चुके थे। और एक दिन संध्या के समय वह अपने पुस्तकालय से पढ़ाई करके लौट रही थी कि एक अनियंत्रित गाड़ी ने उसे धक्का मार दी। फिर वह सौ फिट गहरी खाई में जा गिरी। उसके सिर पर गहरी चोट लगी थी। लगातर तीन दिन तक तो वह अस्पताल में बेहोश ही पड़ी रही। उसके होश आने के साथ ही हमारी उम्मीदें भी बढ़ीं। पर शायद उसे अपनी मृत्यु का पूर्वाभास हो गया था।
और अगले दिन ही सुबह अस्पताल से मेरी लाडली उपासना की मृत्यु की कठोर खबर आई। हम दोनों अपने एक पड़ोसी के साथ अस्पताल पहुँचें। वहाँ हमें उसकी अंतिम इच्छा सम्बन्धित उसकी एक चिट्ठी मिली, जिसमें वह अपने अंगों को किसी जरूरतमंद को दान करने की इच्छा व्यक्त की थी। उसने बहुत ठीक ही किया। हमने उसकी अंतिम इच्छा का सम्मान किया। आज वह अपने नेक कार्यों के कारण ही कम से कम दूसरों के रूप में इस जग में जीवित तो है।” – कहते-कहते सिद्धिमा देवी उसी ताक को पकड़ कर रोने लगीं।
बेचारी साध्वी भी अपनी माँ से लग कर सुबकने लगी थी और घर में आया मेहमान श्रीनिवास भी अपने आप को काबू न कर पा रहा था। तीनों के ही हृदय में उमड़ते दुख के बादल आँसू के रूप बरस कर कुछ देर में जाकर शांत हो गए। कभी-कभी हवा के झटके से एक-आध बूँदें गिर ही जाती थीं। श्रीनिवास सिद्धिमा देवी के कंधे को आहिस्ते से सहारा देते हुए उन्हें पुनः लाकर कुर्सी पर बैठा दिया। साध्वी के कोमल गाल पर ढुलकते मोती सदृश अश्रूकण को उसने बड़ी कोमलता से पोंछा। फिर आहिस्ते से सिद्धिमा देवी के हाथों को अपने हाथ में लिये उनके पैरों के पास बैठ कर विनती भरे स्वर में कहने लगा, - माँ जी! मैं उपासना जी को नमन करता हूँ। उनकी मानवताजन्य कार्यों को नमन करता हूँ। मेरा रोम-रोम उनके उपकार तले दबा हुआ है। मैं आजीवन उससे मुक्त नहीं हो सकता हूँ और न होना ही चाहता हूँ। माता जी! मैं स्वर्गीय उपासना जी की भांति आपलोगों के जीवन में कुछ सहायक बन पाऊँ, वहीं मेरे जीवन के लिए सबसे बड़ा सम्मान होगा। माता जी! आप लोग मेरे साथ मेरे घर पर चलिए। आपलोग को मैं किसी भी तरह की कोई तकलीफ न होने दूँगा। आजीवन मैं आपका सेवक बनकर आपकी सेवा ही करता रहूँगा।” – श्रीनिवास की आँखों से झर-झर आँसू बह रहे थे। वह उनके हाथों को अपने आँखों से लगाये उनके उत्तर की प्रतीक्षा में उनके पैरों के पास ही बैठा टुकुर-टुकुर उन्हें देख रहा था।
"पर बेटे! यहाँ पर हमारा घर-द्वार है। सबसे बड़ी बात है कि इस घर में मेरे स्वर्गीय पति और स्वर्गीय उपासना से जुड़ी सभी यादें जहाँ-तहाँ बिखरी पड़ी हैं। क्या तुम चाहते हो, कि उन्हें भूला दूँ? नहीं बेटे, नहीं। हमारे अपने हाल पर ही हमें छोड़ दो। बस कभी-कभार मिलने आते रहना, तुम्हारे माध्यम से मैं अपनी उपासना को कभी-कभार देख लिया करुँगी। जाओ बेटे, तुम अपने माता-पिताजी के प्रति अपने फर्ज को पूरा करो। हमारे लिए कोई चिंता मत करो। हम साध्वी सहित उपासना की याद में जी लेंगे।" - सिद्धमा देवी सिसकते हुए कही।
"माता जी! मैं भी इस संसार में अब अकेला ही हूँ। जिस दुर्घटना में मेरी आँखें चली गई थीं, उसी दुर्घटना ने मेरे सिर पर से मेरे माता जी और पिताजी की छाया को हमेशा के लिए छीन लिया। मैं अभागा अपाहिज बन कर अस्पताल में पड़ा रहा और पुत्र होने के फर्ज का भी निर्वाहन न कर सका। उन्हें अपने एकमात्र पुत्र का कंधा तक नसीब न हो सका। उनकी मुखाग्नि भी मेरे दूर के एक रिश्तेदार ने दी थी। माँ जी, आप लोगों से मिलने के पहले तक मेरे जीवन का कोई उद्देश्य न रह गया था। कई बार तो मुझे घोर निराशा भी हुई थी। मुझे अपना ही जीवन बोझ-सा प्रतीत होने लगा था। पर मुझे खय्याल आया, इस नेत्र प्रदानकर्ता का, जिसने बिना किसी स्वार्थ के ही मुझे ये अनमोल नेत्र प्रदान किये हैं। फिर मुझे भी अपने जीवन का परम उद्देश्य मिल गया, दूसरे के दुख में सहायक बनने का। अब तो आपके रूप में मुझे अपनी बिछुड़ी माँ भी मिल गई और साध्वी के रूप में छोटी प्यारी-सी बहना। ईश्वर ने एक द्वार तो बंद किया, पर दूसरा द्वार भी जरूर खोल दिया है। आप लोग मेरे साथ मेरे घर पर मेरे परिजन बनने के लिए चलिए।" - श्रीनिवास ने बड़ी कातरता के साथ कहा।
पर सिद्धिम देवी अपने घर-द्वार तथा अपने पति और पुत्री उपासना की यादों को छोड़कर कहीं और जाने से साफ ही मना कर दी। परन्तु माता के हृदय में वात्सल्यता की संभावना तो रहती ही है। आर्द्रता की एक पतली-सी धारा उनमें भी बह चली। उसे क्या नाम दिया जाये, - ‘वात्सल्यता या फिर स्वार्थ’? पर ये दोनों भाव तो दोनों के लिए आवश्यक थे। प्रेम और उत्तरदायित्व रुपी जल तथा खाद्य को प्राप्त कर दोनों के मुरझाये जीवन फिर से लहलहा सकते हैं। फिर श्रीनिवास कुछ दिनों के लिए अपने घर पर गया और अपनी सारी सम्पति को बेचकर अल्मोड़ा के इस नए घर-परिवार का वह एक समर्पित सेवक बन गया।
और फिर एक दिन -
“मम्मी! देखो न, उपु भैया, मुझे पढ़ने नहीं दे रहे हैंI मुझे कितना चिढ़ा रहे हैं।”
“नहीं माँ, देखो, यह पगली मेरा क्या हाल की है? यह लाड-प्यार में बिगड़ती जा रही है। इसके लिए अब एक लंगड़ा दूल्हा खोज कर लाउँगा।”
फिर श्रीनिवास आगे-आगे और उसके पीछे-पीछे साध्वी अपनी कापी को ही मोड़ कर बनायी बेलनकार डंडे लेकर दौड़ पड़ी I सिद्धिमा देवी जो रसोई बनाने में लगी हुई थी, हाथ में कलछुल को ही लेकर ही निकलीं, कि छोटे-बड़े दोनों बच्चें खिलखिलाते हुए बाहर की ओर भागे। वह दीवार की ताक तक पहुँची, जहाँ से उनकी बेटी उपासना चित्र में बैठी यह दैनिक मनोरंजन देख रही थी। आज माँ को उसकी उपासना हँसती-मुस्कुराती हुई जान पड़ी। प्रसन्नता से उनकी आँखें भी भर आईं। वहीं खड़े-खड़े अपने आँचल से अपनी आँखों को पोंछने की कोशिश की। उनके दोनों बच्चें उनके पास आये और दोनों ओर से उनकी आँखों से बहते आँसू को पोंछने लगे। श्रीनिवास व्यग्र होकर कहा - “माँ जी! अब इन आँखों में इन आँसुओं का क्या प्रयोजन?”
मम्मी! मैंने तो तुम्हें झूठ कहा। भैया, मुझे जरा-सा भी परेशान नहीं करते हैं। ये उपु भैया तो मुझे बहुत प्यार करते हैं, उपासना दीदी की तरह। तुम मत रो।”
“धत् पगली! ये तो तुम दोनों के प्यार-दुलार को देख कर ख़ुशी के रूप में अनायास ही आँखों से आँसू निकल आये हैं। देख तो आज उपासना भी कितनी खुश लग रही है।”- सिद्धिमा देवी दोनों के सिर पर मातृत्व भाव से प्यारपूर्ण अपनी हथेलियों को रख कर बोली।
(वसंत ऋतु, माघ शुक्लपक्ष पूर्णिमा तिथि, शनिवार, विक्रम संवत् 2077, 27 फरवरी, 2021)
बहुत ही सुंदर
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