भारतीय आम चुनाव 2004 2004 को वो चुनाव जब नहीं चला भा.ज.पा. का 'इंडिया शाइनिंग' नारा, सोनिया के इंकार के बाद मनमोहन बने पी.एम.
2004 को वो चुनाव जब नहीं चला भा.ज.पा. का 'इंडिया शाइनिंग' नारा, सोनिया के इंकार के बाद मनमोहन बने पी.एम.
साल 2004 के 14वें लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का 'इंडिया शाइनिंग' का नारा असफल रहा और कांग्रेस सत्ता में लौटी। कांग्रेस की जीत भा.ज.पा. के लिए करारा झटका थी क्योंकि साल 1999 में जीत के बाद पहली बार भा.ज.पा. केंद्र में पांच साल सरकार चलाने में सफल रही थी। भारतीय जनता पार्टी ने जहां 1999 का चुनाव 'विदेशी सोनिया' बनाम 'स्वदेशी वाजपेयी' पर लड़ा था, वहीं 2004 के आम चुनाव में पार्टी ने शाइनिंग इंडिया और फील गुड का नारा दिया, लेकिन चुनाव नतीजे आने पर कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर दिया।
इस चुनाव में कांग्रेस को 145 सीटें मिलीं। जबकि भा.ज.पा. के खाते में 138 सीटें आई। सी.पी.एम. के खाते में 43 सीटें गई और सी.पी.आई. 10 सीटें जीतने में कामयाब रही। बहुजन समाज पार्टी ने चुनाव में सबसे ज्यादा 435 उम्मीदवार खड़े किए थे। इनमें से 19 प्रत्याशियों ने ही जीत दर्ज की। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के 9 प्रत्याशी चुनाव जीते। कांग्रेस ने ब.स.पा., स.पा. और लेफ्ट फ्रंट के सहयोग से सरकार बनाई। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने पर इनकार करने के बाद, पूर्व वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। इस लोकसभा चुनाव में कुल 5,435 उम्मीदवार मैदान में उतरे थे। इनमें से 2385 निर्दलीय प्रत्याशी थे। कांग्रेस ने चुनाव में 417 उम्मीदवार उतारे थे। इनमें से 145 जीते। इस चुनाव में कांग्रेस को 26.53 फीसदी और भारतीय जनता पार्टी को 22.16 फीसदी मत मिले। भा.ज.पा. ने चुनाव में 364 उम्म्मीदवार खड़े किए थे। इनमें से 138 प्रत्याशियों को ही जीत नसीब हुई।
लखनऊ सीट से अटल बिहारी वाजपेयी की जीत हुई। वाजपेयी ने स.पा. की मधु गुप्ता को चुनाव हराया। रायबरेली से सोनिया गांधी ने समाजवादी पार्टी के अशोक कुमार सिंह को भारी मतों से चुनाव हराया। जबकि, अमेठी से राहुल गांधी चुनाव जीते। चुनाव में पीलीभीत से भा.ज.पा. के टिकट पर मेनका गांधी जीती, गोरखपुर से योगी आदित्यनाथ सांसद चुन गए। मैनपुरी से समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव ने ब.स.पा. के अशोक शाक्य को भारी मतों से चुनाव हराया। गुजरात की गांधीनगर सीट पर भा.ज.पा. के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कांग्रेस के जी.एम. ठाकोर को चुनाव हराया। महाराष्ट्र के बारामती में रा.कां.पा. के शरद पवार ने भा.ज.पा. प्रत्याशी को पराजित किया।
कांग्रेस को चुनाव में यू.पी. से 9 सीटें और बिहार से तीन सीटें मिलीं। आन्ध्र प्रदेश में कांग्रेस ने 29 सीटें और गुजरात में 12 सीटें जीतीं। दिल्ली में कांग्रेस के खाते में छह सीटें आईं। जबकि महाराष्ट्र में पार्टी ने 13 सीटें जीतीं। इसी तरह, भा.ज.पा. ने यू.पी. में सिर्फ 10 सीटें जीतीं और बिहार में पार्टी के खाते में पांच सीटें आई। गुजरात में भारतीय जनता पार्टी ने 14 सीटें और राजस्थान में 21 सीटें जीतीं। भा.ज.पा. ने कर्नाटक में 18 सीटें और मध्यप्रदेश में 25 सीटें जीतीं। अरुणाचल और असम में भा.ज.पा. ने दो सीटें और हरियाणा व हिमाचल में एक-एक सीट जीती। कांग्रेस ने असम में नौ सीटें और हिमाचल प्रदेश में तीन सीटें जीतीं। मध्य प्रदेश से कांग्रेस के खाते में सिर्फ चार सीटें गईं। पंजाब में पार्टी ने दो और उत्तराखंड से एक सीट जीती।
साल 2004 में 14वीं लोकसभा के लिए चुनाव हुए। इन चुनावों में हर किसी ने अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व में एन.डी.ए. सरकार बनने का अनुमान लगाया लेकिन चुनाव परिणामों ने हर किसी को हैरान कर दिया। रिजल्ट में यू.पी.ए. को सर्वाधिक 218 सीटें मिलीं। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार इतिहास रच चुकी थी। देश के पहले ऐसे गैरकांग्रेसी प्रधानमंत्री जिन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया हो, इसका सेहरा अटलजी के सिर पर बंध चुका था। अपने आखिरी कार्यकाल में अटल पूरी तरह अपराजेय दिख रहे थे। विपक्ष के पास उनके खिलाफ न कोई मजबूत मुद्दा था, न उनकी तरह का कोई करिश्माई व्यक्तित्व। आत्मविश्वास से लबरेज अटल सरकार ने समय से पहले चुनाव में जाने का फैसला किया। कहा जाता है कि 2003 के आखिर में राज्यों के विधानसभा चुनावों में बी.जे.पी. के शानदार प्रदर्शन को देखते हुए यह फैसला लिया गया। 2003 में बी.जे.पी. ने हिंदी पट्टी के 3 बड़े राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया। चुनाव से पहले सरकार का 'इंडिया शाइनिंग', 'भारत उदय' और 'फील गुड' नारा छा गया। 'रथयात्री' लाल कृष्ण आडवाणी एक बार फिर रथ पर सवार हुए और 'भारत उदय' रथयात्रा निकाली। लेकिन चुनाव हुए तो नतीजे राजनीतिक पंडितों को भी हैरान करने वाले थे।
करीब-करीब हर चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में अटल के नेतृत्व में फिर से एन.डी.ए. सरकार की भविष्यवाणी की गई थी, पर नतीजे इसके उलट रहे। बी.जे.पी. की अगुआई वाले एन.डी.ए. को शिकस्त झेलनी पड़ी। सोनिया गांधी के नेतृत्व में यू.पी.ए. सबसे बड़े गठबंधन के तौर पर तो उभरा लेकिन बहुमत से काफी दूर रहा। कुल 543 सीटों में से यू.पी.ए. को 218 सीटें ही मिलीं जो सामान्य बहुमत के लिए जरूरी सीटों से 54 कम थीं। हालांकि, लेफ्ट फ्रंट (59), समाजवादी पार्टी (35) और बहुजन समाज पार्टी (19) के बाहर से समर्थन से इसकी भरपाई हो गई और डॉक्टर मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यू.पी.ए. की सरकार बनी। इसके अलावा, इस चुनाव की एक खास बात यह भी थी कि पहली बार भारत में लोकसभा चुनाव में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन यानी E.V.M. से वोट डाले गए।
2004 के चुनाव नतीजे अप्रत्याशित रहे। अप्रत्याशित इसलिए कि सरकार के खिलाफ विपक्ष के पास न कोई बड़ा मुद्दा था और न अटल के कद का चेहरा। ज्यादातर चुनाव पूर्व सर्वेक्षण भी फिर से अटल सरकार की तरफ इशारा कर रहे थे। एन.डी.ए. की हार से खुद अटल भी हैरान थे। इसका खुलासा 11 साल बाद आई एक किताब में भी हुआ। रिसर्च ऐंड ऐनलिसिस विंग (R.A.W.) के पूर्व चीफ और अटल के कार्यकाल में कश्मीर मुद्दे पर उनके सलाहकार रहे ए. एस. दुलत ने 2015 में छपी अपनी किताब 'कश्मीर: द वाजपेयी इयर्स' में इसका जिक्र किया है। दुलत ने लिखा है कि जब 2004 चुनाव के नतीजों के बाद उन्होंने अटल से इसके बारे में पूछा तो वह हंसने लगे। हार से हैरान अटल ने दुलत से कहा कि यह तो उन (कांग्रेस) को भी नहीं मालूम कि यह क्या हुआ? उन्होंने कहा कि नतीजों से सिर्फ हम ही नहीं, बल्कि कांग्रेस भी हैरान है। उसी किताब में यह भी लिखा गया है कि अटल ने 2004 की हार के लिए 2002 के गुजरात दंगों को एक बड़ी वजह बताया। दुलत लिखते हैं, 'और बातों ही बातों में वाजपेयी ने कहा, शायद हमारे से गुजरात में गलती हो गई। इसके बाद वह थोड़े गंभीर और दुखी हो गए। उसके आगे मैंने उनसे कुछ नहीं पूछा।'
*चुनाव में फुस्स हुआ कथित 'फील गुड' फैक्टर :-
2004 आम चुनाव में बी.जे.पी. का कथित 'फील गुड' फैक्टर हवा हो गया। 1999 में 114 सीटों पर सिमटकर रह जाने वाली कांग्रेस 145 सीटों (26.53% वोट शेयर) पर जीत हासिल कर सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी। वहीं बी.जे.पी. 1999 की 182 सीटों से घटकर 138 (22.16% वोट शेयर) पर सिमट गई। कांग्रेस की अगुआई में यू.पी.ए. ने 218 सीटों पर जीत दर्ज की, जबकि एन.डी.ए. के खाते में 181 सीटें आईं जो पिछले चुनाव के मुकाबले 89 कम थीं। लेफ्ट फ्रंट का भी प्रदर्शन शानदार रहा और उसने 59 सीटों पर जीत हासिल की।
चुनाव बाद तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सबको तब हैरान कर दिया जब उन्होंने प्रधानमंत्री पद के लिए खुद की जगह डॉक्टर मनमोहन सिंह का नाम आगे बढ़ाया। यह अलग बात है कि बाद में उन पर 'रिमोट के जरिए सरकार' चलाने का आरोप लगा। माना जाता है कि सोनिया नहीं चाहती थीं कि बी.जे.पी. को उनके विदेशी मूल के मुद्दे को एक बार फिर से तूल देने का मौका मिले। ध्यान रहे कि 1999 में सोनिया गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर उनके विदेशी मूल के मुद्दे को लेकर कांग्रेस टूट गई थी और दिग्गज नेता शरद पवार ने कांग्रेस से अलग नैशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी नाम से नई पार्टी का गठन किया था। सोनिया का प्रधानमंत्री पद ठुकराने से भी कहीं ज्यादा हैरान करने वाला फैसला इसके लिए डॉक्टर मनमोहन सिंह का नाम बढ़ाना था। प्रणब मुखर्जी जैसे दिग्गज नेताओं पर सोनिया ने उन मनमोहन को तरजीह दी, जिनकी पहचान एक राजनेता की कम, अर्थशास्त्री के तौर पर ज्यादा थी। आर.बी.आई. के पूर्व गवर्नर और नरसिम्हा राव सरकार में वित्त मंत्री रहे मनमोहन सिंह हमेशा राज्यसभा के जरिए ही संसद पहुंचे। 1999 में वह दक्षिणी दिल्ली सीट से एक बार लोकसभा चुनाव लड़े जरूर थे, लेकिन उन्हें शिकस्त झेलनी पड़ी थी।
*यूपी में पस्त हुई बी.जे.पी., दक्षिण में पहली बार धमक :-
देश की राजनीति की बहुत हद तक दशा और दिशा तय करने वाले यू.पी. में बी.जे.पी. की करारी शिकस्त हुई। 1991 में राम लहर के बाद सूबे की सियासत में बी.जे.पी. का जो दबदबा कायम हुआ था, वह ध्वस्त हो गया। आलम यह था कि दिग्गज नेता मुरली मनोहर जोशी तक इलाहाबाद में हार गए। सूबे की सिर्फ 10 सीटों पर बी.जे.पी. जीत पाई। कांग्रेस को 9 सीटें मिलीं। पहली बार चुनावी समर में उतरे राहुल गांधी ने अमेठी से जीत हासिल की। सूबे में सबसे शानदार प्रदर्शन मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी का रहा, जिसने 35 सीटों पर जीत हासिल की। वहीं मायावती की बी.एस.पी. ने 19 सीटों पर कब्जा किया। दूसरी तरफ, कर्नाटक में बी.जे.पी. का प्रदर्शन काफी प्रभावशाली रहा। पहली बार किसी दक्षिणी राज्य में पार्टी का दबदबा दिखा। कर्नाटक की कुल 28 सीटों में से 18 पर कमल खिला, जबकि कांग्रेस के खाते में सिर्फ 8 और पूर्व पी.एम. एच. डी. देवगौड़ा की जे.डी.एस. को 2 सीटें आईं।
बी.जे.पी. के साथ-साथ उसके सहयोगियों को भी करारी शिकस्त झेलनी पड़ी। तमिलनाडु जैसे बड़े राज्य में A.I.A.D.M.K. खाता तक नहीं खोल पाई। यहां की 39 सीटों में से 35 सीटों पर यू.पी.ए. ने कब्जा जमाया, वहीं बाकी बची 4 सीटों पर लेफ्ट फ्रंट ने जीत हासिल की। कुछ ऐसा ही हाल आंध्र प्रदेश का भी रहा, जहां एन.डी.ए. को तगड़ा झटका लगा। सहयोगी टी.डी.पी. सिर्फ 5 सीटों पर जीत पाई। बिहार में भी एन.डी.ए. 11 सीटों पर सिमट गई। हालांकि, महाराष्ट्र और पंजाब में एन.डी.ए. का प्रदर्शन अच्छा रहा। महाराष्ट्र की 48 सीटों में से एन.डी.ए. को 25 और यू.पी.ए. को 23 पर जीत मिली। इसी तरह पंजाब की 13 में से 11 सीटें एन.डी.ए. की झोली में आईं।
पहले गैर-कांग्रेसी नेता के रूप में लगातार 5 साल सरकार चलाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी ने 2004 में इंडिया शाइनिंग का नारा दिया और इसके प्रचार में करोड़ों रुपए भी फूंक डाले, बावजूद इसके उनकी पार्टी को हार मिली | आखिर क्यों ? साल 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एन.डी.ए. सरकार ने सत्ता में वापसी के लिए इंडिया शाइनिंग का नारा दिया और इसके प्रचार अभियान के लिए करोड़ों रुपये खर्च करने और दुनियाभर में देश की छवि चमकाने के बावजूद आम चुनाव में हार मिली और वाजपेयी को सत्ता से बेदखल होना पड़ा | अति आत्मविश्वास में आने की वजह से सहयोगी दलों से बदले व्यवहार और लोगों की जमीनी हालत में बदलाव न होने के बावजूद इंडिया शाइनिंग जैसे अभियान चलाना, वाजपेयी सरकार की हार की दो मुख्य वजह माने जाते हैं |साल 2004 में आम चुनाव के पहले इंडिया शाइनिंग अभियान के पीछे बी.जे.पी. के तत्कालीन 'चाणक्य' प्रमोद महाजन की सोच मानी जाती है और इसे ग्रे वर्ल्डवाइड ऐडवर्टाइजिंग कंपनी के निर्विक सिंह के नेतृत्व में साकार किया गया था | इंडिया शाइनिंग के जरिए भारत को एक ओर उभरता और चमकदार देश बताया जा रहा था, तो दूसरी ओर जमीनी पर आंकड़े कुछ और ही कहानी कह रहे थे |
इस अभियान के पिछले तीन साल में भारत की जी.डी.पी. में बढ़त क्रमश: 4.4 फीसदी (2000-01), 6 फीसदी (2001-02) और 3.8 फीसदी (2002-03) ही थी | बी.जे.पी. ने इंडिया शाइनिंग के प्रचार पर करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाए | इस अभियान के द्वारा यह बताने की कोशिश की गई कि बी.जे.पी. सरकार में देश की काफी तरक्की हुई और लोगों के जीवन में भारी बदलाव आया है | लेकिन इंडिया शाइनिंग सिर्फ बड़े कारोबारियों और शेयर मार्केट को ही पसंद आया, जनता को नहीं | सच तो यह है कि अमीरों और गरीबों के बीच खाई बढ़ रही थी | बेरोजगारी चरम पर थी | गरीबों की हालत बेहद खराब थी | संयुक्त राष्ट्र मानव विकास सूचकांक में भारत और नीचे चला गया था | पेयजल, बुनियादी ढांचे, शिक्षा और बिजली जैसी मूल जरूरतों पर सरकारी खर्च घट रहा था |
*सहयोगी दलों से बेरुखी :-
'इंडिया शाइनिंग' के नारे से आत्ममुग्ध बी.जे.पी. ने 2004 के लोकसभा चुनाव से पहले अपने तीन ऐसे महत्वपूर्ण सहयोगी दलों से नाता तोड़ लिया था, जिन्होंने सन 1999 में उसे सत्ता में पहुंचाया था | उन क्षेत्रीय दलों के वोट बैंक की ताकत को बी.जे.पी. ने तब नजरअंदाज कर देने की गलती कर दी थी | इसका नतीजा यह हुआ कि अटल सरकार सन 2004 में सत्ता से बाहर हो गई | तब बी.जे.पी. अपनी जीत के प्रति इतना आश्वस्त थी कि उसने समय से पहले चुनाव करा लिया | बी.जे.पी. के बेरुखी की वजह से साल 2004 के आम चुनाव से पहले डी.एम.के., इंडियन नेशनल लोकदल और लो.ज.पा. जैसे दल एन.डी.ए. से बाहर हो गए | इन तीनों दलों के अलग हो जाने के कारण एन.डी.ए. को लोकसभा की 55 सीटों का नुकसान हो गया | 2004 में एन.डी.ए. को कुल 185 सीटें मिली थीं | इन दलों का साथ रहता तो उसे 240 सीटें मिल जातीं | बी.जे.पी. की सीटें भी 1999 के 182 के मुकाबले 2004 में घटकर 138 ही रह गईं | चुनाव के बाद खुद बी.जे.पी. नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि एन.डी.ए. अति आत्मविश्वास और 'इंडिया शाइनिंग' जैसे गलत नारों के चलते 2004 का आम चुनाव हारा | उन्होंने कहा कि अति विश्वास और इंडिया शाइनिंग जैसे गलत नारों का इस्तेमाल करने के कारण हम हार गए |
*गुजरात दंगे का भी हुआ नुकसान :-
साल 2002 में गुजरात में हुए दंगों का भी तत्कालीन एन.डी.ए. सरकार को नुकसान उठाना पड़ा | पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपनी आत्मकथा 'द कोअलिशन इयर्स 1996-2012' में लिखा है, 'गुजरात में 2002 में हुए दंगे अटल बिहारी वाजपेयी सरकार पर संभवत: सबसे बड़ा धब्बा थे और इसके कारण ही 2004 के लोकसभा चुनाव में बी.जे.पी. को नुकसान उठाना पड़ा था |' मुखर्जी ने लिखा, 'वाजपेयी एक उत्कृष्ट सांसद थे | भाषा पर उम्दा पकड़ के साथ वह एक शानदार वक्ता भी थे, जिनमें तत्काल ही लोगों के साथ जुड़ जाने और उन्हें साथ ले आने की कला थी | राजनीति में वाजपेयी को लोगों का भरोसा मिल रहा था और इस प्रक्रिया में वह देश में अपनी पार्टी, सहयोगियों और विरोधियों सभी का सम्मान अर्जित कर रहे थे | वहीं, विदेश में उन्होंने भारत की सौहार्द्रपूर्ण छवि पेश की और अपनी विदेश नीति के जरिए देश को दुनिया से जोड़ा |' मुखर्जी के अनुसार , 'एन.डी.ए. के इंडिया शाइनिंग अभियान का नजीता बिल्कुल उलटा निकला था और बी.जे.पी. में निराशा की लहर छा गई थी, जिसके कारण वाजपेयी ने दुखी होकर कहा था कि वह कभी भी मतदाता के मन को नहीं समझ सकते |' 2004 के आम चुनाव अक्टूबर में होने थे, लेकिन बी.जे.पी. ने मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में मिली जीत को देखते हुए छह महीने पहले ही चुनाव करा लिए थे | मुखर्जी ने कहा, 'महत्वपूर्ण राज्यों में जीत के कारण बी.जे.पी. में खुशी की लहर थी | हालांकि कुछ लोगों ने इन परिणामों को राष्ट्रीय रुझान समझने की भूल न करने की सलाह भी दी थी |'
चौदहवीं लोकसभा के लिए आम चुनाव 1999 में सितंबर-अक्टूबर के दौरान हुए थे। इस लिहाज से 14वीं लोकसभा के चुनाव 2004 में सितंबर-अक्टूबर के दौरान होना थे, लेकिन भा.ज.पा. और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एन.डी.ए.) के रणनीतिकारों ने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को निर्धारित समय से पांच महीने पहले ही चुनाव कराने की सलाह दे डाली। वाजपेयी को समझाया गया कि ‘फील गुड फैक्टर’ और अपने प्रचार अभियान ‘इंडिया शाइनिंग’ की मदद से एन.डी.ए. सत्ता विरोधी लहर को बेअसर कर देगा और स्पष्ट बहुमत प्राप्त कर लेगा। इस सोच का आधार यह था कि रा.ज.ग. शासन के दौरान अर्थव्यवस्था मे लगातार वृद्धि दिखाई दी थी और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के विनिवेश को पटरी पर लाया गया था। इसके अलावा भारतीय विदेशी मुद्रा भंडार भी बेहतर हालत में। उसमें 100 अरब डॉलर से अधिक राशि जमा थी। यह उस समय दुनिया मे सातवां सबसे बड़ा विदेशी मुद्रा भंडार था और भारत के लिए एक रिकॉर्ड था। सेवा क्षेत्र मे भी बड़ी संख्या मे नौकरियां पैदा हुई थीं। इसी सोच के बूते समय से पूर्व चुनाव कराने की घोषणा कर दी गई। 20 अप्रैल से 10 मई 2004 के बीच चार चरणों में लोकसभा के लिए चुनाव संपन्न हुआ।
*दो व्यक्तित्वों के बीच हुआ टकराव :-
1990 के दशक के अन्य सभी लोकसभा चुनावों की तुलना में इस चुनाव के दौरान दो व्यक्तित्वों (वाजपेयी और सोनिया गांधी) का टकराव अधिक देखा गया क्योंकि कोई तीसरा ठोस विकल्प मौजूद नहीं था। अधिकांश क्षेत्रीय दल भा.ज.पा. के साथ एन.डी.ए. के कुनबे में शामिल थे, हालांकि द्र.मु.क. और रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी गुजरात में मुसलमानों के नरसंहार के मुद्दे पर एन.डी.ए. से अलग हो चुकी थीं। दूसरी तरफ कांग्रेस की अगुवाई में भी राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी मोर्चा बनाने की कोशिश हुई, लेकिन यह कोशिश परवान नहीं चढ पाई। कुछ राज्यों में हालांकि स्थानीय स्तर पर कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियों में चुनावी तालमेल हो गया। बिहार में उसने लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल और रामविलास पासवान लोक जनशक्ति पार्टी के साथ, तमिलनाडु में एम.करुणानिधि की द्र.मु.क. और आंध्र प्रदेश तेलंगाना राष्ट्र समिति के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। यह पहला अवसर था जबकि कांग्रेस ने संसदीय चुनाव में इस तरह के तालमेल के साथ चुनाव लड़ा। वामपंथी दलों, विशेषकर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (मा.क.पा.) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भा.क.पा.) ने अपने प्रभाव वाले राज्यों पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल में अपने दम पर कांग्रेस और एन.डी.ए. दोनों का सामना करते हुए चुनाव लड़ा। पंजाब और आंध्र प्रदेश में उन्होंने कांग्रेस के साथ सीटों का तालमेल किया। तमिलनाडु में वे द्र.मु.क. के नेतृत्व वाले जनतांत्रिक प्रगतिशील गठबंधन में शामिल थे। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने कांग्रेस और भा.ज.पा. में से किसी के भी साथ न जाते हुए अकेले ही चुनाव लड़ा।
अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एन.डी.ए. ने इस चुनाव में अपनी सरकार की उपलब्धियों को तो लोगों के सामने पेश किया ही, साथ ही सोनिया गांधी के विदेशी मूल को भी कांग्रेस के खिलाफ मुख्य मुद्दे के तौर पर जोर-शोर से उठाया। दूसरी ओर कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने सूखे से निबटने में सरकार की नाकामी, किसानों की आत्महत्या, महंगाई आदि के साथ-साथ 2002 के गुजरात नरसंहार को एन.डी.ए के सरकार के खिलाफ मुद्दा बनाया।
एन.डी.ए. का नेतृत्व और उसके चुनावी रणनीतिकार सत्ता विरोधी लहर को थामने में नाकाम रहे। गुजरात के नरसंहार का दाग तो उसके दामन पर था ही, उसे सरकारी कर्मचारियों की पेंशन बंद करने, श्रम कानूनों में सुधार के नाम पर मजदूर और कर्मचारी विरोधी कानूनों को लागू करने और मुनाफा कमाने वाले सरकारी उपक्रमों को निजी हाथों में सौंपने जैसे अपने जनविरोधी फैसलों का भी खामियाजा भुगतना पड़ा। अटल बिहारी वाजपेयी का करिश्माई नेतृत्व भी काम नहीं आया। 13 मई को आए चुनाव नतीजों में भा.ज.पा. और एन.डी.ए. की हार हुई, हालांकि किसी भी पार्टी या गठबंधन को स्पष्ट बहुमत हासिल नहीं हुआ, लेकिन कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। वह अपने सहयोगी दलों तथा वाम मोर्चा, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बाहरी समर्थन के साथ सरकार बनाने में कामयाब हुई। कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को 218 सीटें प्राप्त हुईं, जबकि भाजपानीत रा.ज.ग. को महज 181 सीटें मिलीं। कांग्रेस को अकेले इस चुनाव में 141 सीटें मिलीं, जबकि भा.ज.पा. को महज 138 सीटें ही हासिल हो सकीं। इस चुनाव में इन दोनों ही पार्टियों को मिले वोटों के प्रतिशत में पिछले चुनाव के मुकाबले समान रूप से 1.60 प्रतिशत की गिरावट आई। कांग्रेस को कुल 13,83,12,337 (26.70) प्रतिशत वोट मिले जबकि भा.ज.पा. को मिले वोटों की संख्या 12,89,31,001 (22.16) प्रतिशत रही।
*सोनिया गांधी का प्रधानमंत्री बनने से इनकार :-
कांग्रेस ने चुनाव के बाद अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर औपचारिक रूप से संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यू.पी.ए.) का गठन किया और वामपंथी मोर्चा, समाजवादी पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी के बाहरी समर्थन से लोकसभा में कुल 335 सदस्यों का समर्थन जुटा कर सरकार बनाईं। यह पहला अवसर था जब कांग्रेस ने केंद्र में गठबंधन सरकार बनाई। चुनाव पूर्व कांग्रेस की ओर से सोनिया गांधी को ही प्रधानमंत्री पद का दावेदार माना जा रहा था, चुनाव नतीजों के बाद राष्ट्रपति ने भी सोनिया को ही सरकार बनाने का न्योता दिया, लेकिन सोनिया गांधी ने अप्रत्याशित रूप से प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर सभी को हैरान कर दिया। उन्होंने इस पद के लिए डॉ. मनमोहन सिंह का नाम प्रस्तावित किया। कांग्रेस और यू.पी.ए. के अन्य दलों ने भी सोनिया गांधी की इच्छा का सम्मान करते हुए मनमोहन सिंह को अपना नेता चुना और इस तरह वे प्रधानमंत्री बने।
*सोमनाथ चटर्जी लोकसभा अध्यक्ष बने :-
वरिष्ठ मा.क.पा. नेता सोमनाथ चटर्जी लोकसभा अध्यक्ष चुने गए। भारत के संसदीय इतिहास में यह लगातार चौथा अवसर था जब लोकसभा के अध्यक्ष पद बैठने वाला व्यक्ति सत्तारूढ़ दल का सदस्य नहीं था। इससे पहले 11वीं लोकसभा के दौरान 1996 में एच.डी. देवगौड़ा और आइ.के. गुजराल के नेतृत्व में बनी संयुक्त मोर्चा की सरकारों के समय भी लोकसभा अध्यक्ष का पद सरकार को समर्थन दे रही पार्टी को मिला था। उस वक्त कांग्रेस के पी.ए. संगमा अध्यक्ष चुने गए थे। उसके बाद 12वीं लोकसभा के दौरान 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी एन.डी.ए. सरकार के समय भी लोकसभा अध्यक्ष का पद सरकार को समर्थन देने वाली तेलुगू देशम पार्टी के जी.एम.सी. बालयोगी को मिला था। यह सिलसिला 1999 में 13वीं लोकसभा के दौरान भी बना रहा। उस समय यह पद भाजपा की सहयोगी पार्टी शिवसेना को मिला था और मनोहर जोशी लोकसभा अध्यक्ष चुने गए थे। 2004 में 14वीं लोकसभा में भी यह सिलसिला जारी रहा। लोकसभा अध्यक्ष चुने गए सोमनाथ चटर्जी की पार्टी माकपा कांग्रेस के नेतृत्व में बनी यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन दे रही थी।
*यू.पी.ए. सरकार के महत्वपूर्ण काम :-
डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यू.पी.ए. की सरकार पूरे पांच साल चली। इस सरकार ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून जैसी महत्वाकांक्षी योजना लागू की, जिससे ग्रामीण क्षेत्र की बेरोजगारी दूर करने तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती देने में काफी हद तक मदद मिली। इसी सरकार ने सूचना का अधिकार कानून भी लागू किया जिसके जरिए स्थानीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक भ्रष्टाचार के कई मामले उजागर हुए। इस सरकार के कार्यकाल के दौरान अर्थव्यवस्था की गाड़ी भी कमोबेश पटरी पर रही और औद्योगिक एवं कृषि उत्पादन के क्षेत्र में भी संतोषजनक प्रदर्शन रहा। महंगाई भी कमोबेश नियंत्रण में ही रही। इस दौरान एक उल्लेखनीय बात यह भी रही कि पी.वी. नरसिंह राव सरकार में वित्त मंत्री के रूप में उदारीकरण की आधारशिला रखने वाले डॉ. मनमोहन सिंह अपने प्रधानमंत्रित्वकाल की इस पारी में अपने मनमाफिक आर्थिक सुधार लागू नहीं कर पाए। इसकी अहम वजह यह रही कि उनकी सरकार वामपंथी दलों के समर्थन से चल रही थी और वाम दलों ने आर्थिक नीतियों के मामले में सरकार पर पूरी तरह अपना अंकुश रखा। वाम दलों और मनमोहन सिंह सरकार के बीच टकराव की नौबत 2009 के चुनाव से कुछ महीने पहले तब आई, जब अमेरिका के साथ परमाणु ऊर्जा को लेकर समझौता होना था। वामपंथी दल इस समझौते के सख्त खिलाफ थे जबकि मनमोहन सिंह ने इस समझौते को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। वे हर हाल में इस समझौते को मूर्तरूप देने पर आमादा थे। यहां तक कि समझौता न होने की स्थिति में वे प्रधानमंत्री पद छोडने के लिए भी तैयार हो गए थे। वे इस मामले में वाम दलों के दबाव में नहीं आए और आखिरकार वाम दलों ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। वामपंथी दलों के समर्थन वापस लेने के साथ ही मनमोहन सिंह की सरकार अल्पमत में आ गई, लेकिन उसने जोड़तोड़ के जरिए किसी तरह अपना बचा हुआ कार्यकाल पूरा किया। कांग्रेस के नेतृत्व में यह पहली गठबंधन सरकार थी और इसने अपना कार्यकाल पूरा किया था। इसी पूरी पृष्ठभूमि में हुआ पंद्रहवीं लोकसभा के लिए 2009 का आम चुनाव।
*चुनाव की मुख्य बातें :-
*१४वी लोकसभा के लिए जब चुनाव हुए तब साल था २००४ का । ये चुनाव ०४ दिन तक चले। २० एप्रिल से १० मई तक मतदान हुए। १४वी लोकसभा के लिए उस समय २८ राज्यों और ०७ केंद्रशासित प्रदेशों में ५४३ सीटों के लिए चुनाव हुए ।
*देश की १४वी लोकसभा १७ मई २००४ को अस्तित्व में आई ।
*१४वी लोकसभा के चुनाव हेतु ६,८७,४७३ चुनाव केंद्र स्थापित किए गए थे ।
*उस समय मतदाताओं की कुल संख्या ६७.१५ करोड़ थी ।
*उस समय ५७.९८ % मतदान हुए थे ।
*१४वी लोकसभा के लिए ५४३ सीटों के लिए हुए चुनाव में कुल ५४३५ उम्मीदवार चुनावी मैदान में थे जिन में से ४२१८ उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हुई थी।
*इस चुनाव में कुल ३५५ महिला उम्मीदवार चुनाव लड़ रही थी जिन में से ४५ महिला उम्मीदवार जीत दर्ज कराने में सफल हुई ।
*५४३ सीटों के लिए हुए इस चुनाव में ७९ सीटे अनुसूचित जाती के लिए और ४१ सीटे अनुसूचित जनजाती के लिए आरक्षित रखी गई थी ।
*१४वी लोकसभा के लिए हुए चुनाव में २३० राजनीतिक दलों ने भाग लिया था जिन में से राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की संख्या ०६ और राज्य स्तरीय राजनीतिक दलों की संख्या ५१ थी जबकि १४३ पंजीकृत अनधिकृत राजनीतिक दल भी इस चुनाव में अपनी किस्मत आज़मा रहे थे ।
*राष्ट्रीय राजनीतिक दलों ने कुल १३५१ उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतारे थे, जिन में से ५४१ उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हुई थी और राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के ३६४ उम्मीदवार जीत दर्ज कराने में सफल हुए थे । इस चुनाव में राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को कुल वोटों में से ६२.८९ % वोट मिले थे ।
*इस चुनाव में राजयस्तरीय राजनीतिक दलों ने कुल ८०१ उम्मीदवार खड़े किए थे। रिकॉर्ड के अनुसार इन ८०१ प्रत्याशीयों में से ४४० प्रत्याशीयों की ज़मानत ज़ब्त हुई थी और १५९ प्रत्याशी लोकसभा में पहुंचे थे। इस चुनाव में राजयस्तरीय राजनीतिक दलों को कुल वोटो में से २८.९० % वोट मिले थे।
*इस चुनाव में पंजीकृत अनधिकृत राजनीतिक दलों ने ८९८ उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतारे थे। इन ८९८ उम्मीदवारों में से ८६७ उम्मीदवार अपनी ज़मानत बचाने में भी विफल रहे जबकि केवल १५ उम्मीदवार लोकसभा तक पहुँचने में सफल हुए । इस चुनाव में पंजीकृत अनधिकृत राजनीतिक दलों को कुल वोटो में से ३.९६ % वोट मिले थे।
*इस चुनाव में कुल २३८५ निर्दलीय उम्मीदवार चुनावी मैदान में थे। इन २३८५ निर्दलीय उम्मीदवारों में से केवल ०५ उम्मीदवार जीत दर्ज कराने में सफल हुए थे। कुल वोटो में से ४.२५ % वोट निर्दलीय उम्मीदवारों ने प्राप्त किए थे जबकि २३७० निर्दलीय उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त होने का रिकॉर्ड मौजूद है।
*इस चुनाव में कांग्रेस सब से बड़े दल के रूप में सामने आया। ५४३ सीटों के लिए हुए इस चुनाव में कांग्रेस के ४१७ उम्मीदवार चुनावी मैदान में थे। इन में से १४५ उम्मीदवार जीत दर्ज करा कर लोकसभा पहुँचने में सफल हुए तो वही ८२ उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त होने का उल्लेख भी रिकॉर्ड में मौजूद है। इस चुनाव में कांग्रेस को कुल वोटो में से २६.५३ % वोट मिले थे।
*भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) दूसरा सब से बड़ा दल बन कर उभरा था। भारतीय जनता पार्टी ने कुल ३६४ उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतारे थे। इन ३६४ उम्मीदवारों में से ५७ उम्मीदवारों की ज़मानत जब्त हुई थी जबकि १३८ उम्मीदवार लोकसभा पहुँचने में सफल हुए थे। भारतीय जनता पार्टी को कुल वोटों में से २२.१६ % वोट मिले थे।
*सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि १४वी लोकसभा के लिए हुए इस चुनाव में १०,१६ ०८,६९,००० (१० अरब, १६ करोड़, ०८ लाख, ६९ हज़ार रुपये) रुपये की राशि खर्च हुई थी ।
*उस समय श्री टी. एस. कृष्णमूर्ती भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त हुआ करते थे, जिन्होंने ये चुनाव सफलतापूर्वक संपन्न कराने में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
*१४वी लोकसभा १८ मई २००९ को विसर्जित की गई।
*इस चुनाव के बाद १४वी लोकसभा के लिए ०२ और ०३ जून २००४ को शपथ ग्रहण समारोह आयोजित किया गया था।
*१४वी लोकसभा के सभापती पद हेतु ०४ जून २००४ को चुनाव हुए और श्री सोमनाथ चटर्जी को सभापती और चरणजीत सिंह को उपसभापती के रूप में चुना गया।
*१४वी लोकसभा के कुल १५ अधिवेशन और ३३२ बैठके हुई। इस लोकसभा में कुल २६१ बिल पास किए गए थे जिस का रिकॉर्ड मौजूद है।
*१४वी लोकसभा की पहली बैठक ०२ जून २००४ को हुई थी।
*१४वी लोकसभा की ५४३ सीटों के लिए हुए इस चुनाव में ३६४ सीटों पर राष्ट्रीय राजनीतिक दलों ने, १५९ सीटों पर राज्यस्तरीय राजनीतिक दलों ने, १५ सीटों पर पंजीकृत अनधिकृत राजनीतिक दलों ने जबकि ०५ सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की।
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