सूरदास की काव्यगत विशेषताएँ surdas ki kavyagat visheshta Surdas ki kavya bhasha सूरदास का भाव पक्ष कला पक्ष सूरदास का वात्सल्य वर्णन काव्य भाषा
सूरदास की काव्यगत विशेषताएँ
सूरदास जी की काव्यगत विशेषताएँ सूरदास का श्रृंगार वर्णन सूरदास की काव्यगत विशेषताएं सूरदास के काव्यात्मक भाव पक्ष विशेषताएं surdas ki kavyagat visheshta सूरदास की कविताएं सूरदास के काव्य सूर काव्य की प्रासंगिकता सूरदास की काव्य कला सूरदास जी की काव्य भाषा है सूरदास जी की भाषा शैली सूरदास का भाव पक्ष कला पक्ष सूरदास का वात्सल्य वर्णन Surdas ki kavya bhasha - कोमल मधुर गीतों के रससिद्ध गायक ,तन्मय भक्त महाकवि सूरदास साहित्य गगन के सूर्य चाहे न भी हों ,हिंदी के सर्वश्रेष्ठ गीतकार अवश्य है। जिस समय हिन्दू जाति के नस नस में राजनितिक पराधीनता का जहर घर कर गया था ,लोग जीवन के प्रति उदासीन और अनास्थावान हो अपने संकीर्ण दायरे में सिमटते जा रहे थे ,चारों ओर निराशा का घना कुहरा जम गया था ,उस समय सूरदास ने अपने मार्मिक मधुर गीतों की रचना कर जीवन के प्रति आस्था जगाई ,हिम्मतपस्ती और कुंठा को दूर कर मानव ह्रदय में उत्साह और उमंग का संचार किया। कोई आश्चर्य नहीं ,इसीलिए भक्ति काव्य और संगीत के संगम पर बसा उनका पद साहित्य आज भी साहित्य का पावन तीर्थ माना जाता है।
सूरदास का वात्सल्य वर्णन
सूरदास ने जीवन के बहुमुखी विस्तार को अपनी कविता में भरने की कोशिश नहीं की है। उन्होंने कृष्ण के जीवन के गिने -चुने पक्षों को ही लिया है। पर इस सीमित क्षेत्र में उनकी सफलता असाधारण है। हिंदी के मूर्धन्य आलोचक आचार्य रामचंद शुक्ल ने उनके बारे में ठीक ही कहा है - वात्सल्य और श्रृंगार के क्षेत्रों में जितना अधिक उद्घाटन सूर ने अपनी बंद आँखों से किया उतना किसी और कवि ने नहीं। इन क्षेत्रों का कोना -कोना वे झाँक आये...... हिंदी साहित्य में श्रृंगार का रस राजत्व यदि किसी ने पूर्ण रूप से दिखाया तो सूर ने। "
सूरदास बाल मनोविज्ञान के गहरे पारखी थे। उन्होंने बालक कृष्ण की सुन्दरता का तो वर्णन किया ही है ,उसके साथ बालकों की चेष्टाओं ,उनके स्वभाव ,उनकी रूचि प्रवृत्ति आदि का भी इतना सटीक और मार्मिक वर्णन किया है कि इस क्षेत्र में विश्व का कोई कवि उनकी बरबरी नहीं कर सकता है। बालकों की स्पर्धा का यह कैसा सुंदर चित्र है -
मैया कबहुं बढ़ैगी चोटी।
किती बेर मोहि दूध पियत भइ यह अजहूं है छोटी॥
तू जो कहति बल की बेनी ज्यों ह्वै है लांबी मोटी।
काढ़त गुहत न्हवावत जैहै नागिन-सी भुई लोटी॥
काचो दूध पियावति पचि पचि देति न माखन रोटी।
सूरदास त्रिभुवन मनमोहन हरि हलधर की जोटी॥
कृष्ण अपने समवयस्क सखाओं के साथ खेलते हैं। संयोग से खेल में उनकी हार होती है। कृष्ण गोकुल के सबसे संपन्न गोप परिवार के बालक हैं ,उस पर भी माता को प्रौढावस्था में प्राप्त इकलौती संतान। ऐसे बालकों को स्वभावतः लाड प्यार कुछ अधिक ही मिलता है और वे दुलरुआ बन जाते है। कृष्ण का भी यही हाल है। वे खेल में हार कर भी दाँव देना नहीं चाहते है। मगर उनके हमजोली भला उन्हें क्यों माफ़ करने लगे। बालकों के इस क्षोभ को सूरदास ने बड़ी ही सजीवता से कलमबंद किया है -
खेलत मैं को काको गुसैयाँ ।
हरि हारे जीते श्रीदामा, बरबसहीं कत करत रिसैयाँ ॥
जात-पाँति हम ते बड़ नाहीं, नाहीं बसत तुम्हारी छैयाँ ।
अति धिकार जनावत यातैं, जातैं अधिक तुम्हारैं गैयाँ !
रुहठि करै तासौं को खेलै, रहे बैठि जहँ-तहँ सब ग्वैयाँ ॥
सूरदास प्रभु खेल्यौइ चाहत, दाउँ दियौ करि नंद-दहैयाँ ॥
सूर के वात्सल्य वर्णन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें ठेठ लोक जीवन का अंकन हुआ है। सूर के बालक कृष्ण राजकुमार नहीं है ,एक ग्रामीण बालक है - चंचल और शरारती ,उनके चित्रण में राजसी धाक नहीं है। इसीलिए उनके प्रति हमारी सहज सहानुभूति हो जाती है। सूर का वात्सल्य एकांगी भी नहीं है। यदि उसमें एक ओर बालक कृष्ण की मनोरम चेष्टाओं ,रसमयी क्रीडाओं और विविध मनोदशाओं का मार्मिक अंकन हुआ है तो दूसरी ओर मातृ ह्रदय के आगाध प्रेम ,उत्सुकता ,चिंता आदि की भी मनोहारी व्यंजन हुई है।
सूरदास का श्रृंगार वर्णन
वात्सल्य की भाँती ही श्रृंगार के क्षेत्र में भी सूर एकछत्र सम्राट है। उन्होंने कृष्ण तथा राधा एवं कृष्ण तथा गोपियों के प्रेम का विकास बड़े स्वाभाविक और क्रमिक ढंग से दिखाया है। इस प्रेम की उत्पत्ति में रूपलिप्सा और साहचर्य दोनों का योग है। एक दिन कृष्ण खेलते हुए यमुना तट पर पहुँच जाते है। संयोग से वहां उन्ही की समवयस्क बरसाने की राधा भी आई हुई है। उनकी आँखे बड़ी बड़ी है ,ललाट पर रोली का तिलक है। उसने नीले रंग की फरिय पहन रखी है। पीठ पर वेणी खेली रही है। सूर के बालक कृष्ण इस रूप पर रीझ जाते है। आँखें चार होती है और ठगौरी पड़ जाती है। राधा कृष्ण के प्रथम संलाप की विदाद्धता देखने लायक है -
बूझत स्याम कौन तू गोरी।
कहां रहति काकी है बेटी देखी नहीं कहूं ब्रज खोरी॥
काहे कों हम ब्रजतन आवतिं खेलति रहहिं आपनी पौरी।
सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी॥
तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी।
सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भुरइ राधिका भोरी॥
राधा कृष्ण के इस जेल खेल में ही इतनी बड़ी बात पैदा हो जाती है ,जिसे प्रेम कहते हैं। यह प्रेम जीवन के दैनिक कार्य व्यापारों के बीच - गाये चराने ,दूध दूहने आदि के क्रम में फूलता फलता रहता है। प्रकृति इस प्रेम के रूपक का रंगमंच बन जाती है। परिणामस्वरुप कृष्ण गोपियों के जीवन के ऐसे अभिन्न अंग बन जाते हैं ,जिनसे बिछुड़ने की कल्पना किसी को स्वप्न में भी नहीं होती और जब दुर्भाग्यवश वियोग झेलना पड़ता है तो ब्रज में आंसुओं की बाढ़ आ जाती है। राधा आंसुओं का ताजमहल बन जाती है ,पशु पक्षी उदास हो जाते हैं ,पेड़ पौधे फलना ,फूलना भूल जाते हैं ,यमुना विरह के ज्वर में जलकर काली पड़ जाती है -
देखियति कालिंदी अति कारी ।
अहो पथिक कहियौ उन हरि सौ, भई बिरह-जुर-जारी ।।
गिरि-प्रजंक तैं गिरति धरनि धँसि, तरँग तरफ तन भारी ।
तट बारू, उपचार चूर, जल-पूर प्रस्वेद पनारी ।।
बिगलित कच-कुस काँस कूल पर, पंक जु काजल सारी ।
भौरं भ्रमत अति फिरति भ्रमित गति, दिसि-दिसि दीन दुखारी ।।
निसि-दिन चकई पिय जु रटति है, भई मनौ अनुहारी ।
सूरदास-प्रभु जो जमुना-गति, सो गति भई हमारी ।।
सूरदास के भ्रमरगीत की विशेषता
सूरदास का भ्रमर गीत जहाँ दार्शनिक दृष्टि से निर्गुण ज्ञान पर सगुण भक्ति की विजय का आख्यान है ,वही साहित्यिक दृष्टि से विरह ,उपलभ्य और व्यंग की ऐसी अद्भुत त्रिवेणी है ,जिसमें अवगाहन कर मन प्राण तो पुलकित और पवित्र हो जाते हैं ,पर आँखों में सावन भादों की झड़ी लगी ही रहती है -
निसिदिन बरसत नैन हमारे।
सदा रहत पावस ऋतु हम पर, जबते स्याम सिधारे।।
अंजन थिर न रहत अँखियन में, कर कपोल भये कारे।
कंचुकि-पट सूखत नहिं कबहुँ, उर बिच बहत पनारे॥
आँसू सलिल भये पग थाके, बहे जात सित तारे।
'सूरदास' अब डूबत है ब्रज, काहे न लेत उबारे॥
सूरदास ने जानबूझकर भ्रमरगीत के सम्पूर्ण व्यंग वैदध्य और उपलभ्यपूर्ण संलापों के बीच से राधा को अनुपस्थित रखा है। संयोग काल की चपल ,नटखट और वाचाल किशोरी यहाँ आकर पूरी तरह मौन ,शांत तथा गंभीर बन जाती है। कृष्ण की जिस निष्ठुरता की चर्चा हज़ार हजार गोपियाँ हज़ार तरह से करती है ,उनके विरुद्ध वह एक शब्द भी नहीं कहती है। यहाँ तक कि जब उद्धव स्वयं राधा से सन्देश लेने के लिए उसके पास पहुँचते हैं तब भी उसके कंठ से वाणी नहीं फूटती है। कवि राधा को मौन रखकर स्वकीया की मर्यादा की रक्षा तो करता ही है ,साथ ही उसकी वेदना की अकथनीयता की भी मार्मिक व्यंजना करता है। इस अश्रु विगलित मूर्ति का जितना गहरा प्रभाव उद्धव के अनासक्त ह्रदय पर पड़ता है ,उतना गोपियों की सारी मुखरता और उपलंभों का भी नहीं पड़ा था। राधा के आंसुओं के प्रवाह में उनका ज्ञान गर्व बह जाता है। वे ज्ञानी से भक्त बन जाते है।
सूरदास की भाषा शैली
सूरदास ,ब्रजभाषा के बाल्मीकि माने जाते है। ब्रजभाषा का जैसा मधुर ,समर्थ और प्रांजल प्रवाह सूर की रचनाओं में दिख पड़ता है ,वह अभूतपूर्व है। सूरदास की साहित्यिक ब्रजभाषा में यत्र-तत्र फ़ारसी और संस्कृत के शब्दों का समावेश भी हुआ है। कहीं - कहीं शब्दों का तोड़ -मरोड़ भी हुआ है ,फिर भी भाषा का रूप अत्यंत सुडौल और परिमार्जित है। सूर ने ही सर्वप्रथम ब्रजभाषा के साहित्यिक रूप का प्रयोग किया है ,जिसमें एक साथ ही सरलता ,तरलता ,मधुरता और मार्मिकता भरी पड़ी है। भाषा में मुहावरों और कहावतों का भी प्रयोग हुआ है। सूर की शैली गीतकाव्य की मुक्तक शैली है। सूर की रचनाओं में वात्सल्य ,श्रृंगार तथा शांत रस का विशेष वर्णन हुआ है। कहीं कहीं हास्य और करुण रस के भी चित्रण मिलते हैं। सूर की रचनाओं में अनुप्रास ,यमक ,श्लेष ,उपमा ,रूपक ,उत्प्रेक्षा ,स्मरण आदि अलंकारों का विशेष वर्णन मिलता है। सूरदास जब अपने प्रिय विषय का वर्णन शुरू करते हैं तो मानों अलंकार शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे पीछे दौड़ा करते हैं। उपमाओं की बाढ़ आ जाती है ,रूपकों की वर्षा होने लगती है। संगीत के प्रवाह में कवि स्वयं बह जाता है ,वह अपने को भूल जाता है।
यद्यपि सूरदास ने जीवन के कुछ परिमित क्षेत्र को ही अपने काव्य का विषय बनाया है ,फिर भी अपने सीमित क्षेत्र के भीतर वे अपने भावों और रसों की अभिव्यक्ति में पूर्णतः सफल है। इसमें संदेह नहीं कि सूर में जितनी सहृदयता ,भावुकता और गहराई है उतनी अन्य किसी कवि में सर्वथा दुर्लभ है। शायद इन्ही विशेषताओं को लक्ष्य कर संगीत सम्राट तानसेन ने सूरदास के सम्बन्ध में कहा है -
किधौं सूर को सर लग्यो, किधौं सूर को पीर।
किधौं सूर को पद लग्यो, बेध्यो सकल सरीर॥
Ghananand ki kavykala
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