नर हो न निराश करो मन को कविता की व्याख्या सारांश प्रश्न उत्तर

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नर हो न निराश करो मन को कविता की व्याख्या सारांश प्रश्न उत्तर nar ho na nirash karo man ko bhavarth question answer summary explanation कविता का अर्थ

नर हो न निराश करो मन को मैथिलीशरण गुप्त कविता


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नर हो न निराश करो मन को कविता का सारांश मूल भाव 

प्रस्तुत कविता नर हो न निराश करो मन को , कवि मैथिलीशरण गुप्त जी के द्वारा लिखित है। यह कविता मनुष्य को कर्मशील बनने की प्रेरणा दे रही है। अपने गौरव व स्वाभिमान की रक्षा करते हुए मनुष्य को सदा अच्छे कर्म करना चाहिए। यह कविता संघर्ष के क्षणों में हमें सम्बल प्रदान करती है। यह कविता मानव को मानव होने का एहसास दिलाता है। नर हो न निराश करो मन को प्रेरणादायक कविता है। यह कविता निराश व्यक्ति के जीवन में आशा का संचार करती है। इस कविता में कवि ने मानव को कहा है कि तुम मानव हो, तुम्हें इस बात का ज्ञान होना चाहिए, मानव होने पर गर्व होना चाहिए | इसलिए इस संसार में आए हो तो कुछ ऐसा काम करो जिससे पूरी दुनिया में तुम्हारा नाम हो। सही समय का उपयोग करो और संसार को सपना ना समझो, अपना रास्ता स्वयं चुनो | इस संसार में तुम्हारी जरूरत की सभी चीजें हैं तुमसे तुम्हारा अस्तित्व कहाँ दूर जा सकता है। इसलिए उठो और सफलता प्राप्त करो, तुम्हें अपने मानव होने का गर्व होना चाहिए | तुम ऐसा कर्म करो कि मरने के बाद भी तुम्हारा नाम गूँजता रहे। इस कविता से मनुष्य होने का सही अर्थ मिलता है, यह कविता मानव जीवन के अस्तित्व को उजागर करती कविता है...|| 

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नर हो न निराश करो मन को कविता की व्याख्या भावार्थ 


कुछ काम करो, कुछ काम करो,
जग में रहके निज नाम करो | 

नर हो न निराश करो मन को कविता की व्याख्या सारांश प्रश्न उत्तर

यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो,
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो | 
कुछ तो उपयुक्त करो तन को,
नर हो न निराश करो मन को || 

भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ  नर हो न निराश करो मन को  कविता से लिया गया है, यह कविता कवि मैथिलीशरण गुप्त जी के द्वारा रचित है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि तुम मानव हो, अपने मन को निराश मत करो। कुछ काम करो। कुछ ऐसा काम करो, जिससे इस संसार में तुम्हारा नाम हो। तुम्हारा जन्म किस लिए हुआ है, इसे समझो, और जीवन को बैठकर बेकार में मत गंवाओ। इस शरीर का कुछ तो उपयोग करो। हे मानव, तुम अपने मन को कभी निराश मत करो | 

संभलो कि सुयोग न जाए चला,
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला | 
समझो जग को न निरा सपना,
पथ आप प्रशस्त करो अपना |
अखिलेश्वर हैं, अवलंबन को,
नर हो, न निराश करो मन को || 

भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ  नर हो न निराश करो मन को  कविता से लिया गया है, यह कविता कवि मैथिलीशरण गुप्त जी के द्वारा रचित है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि अच्छा अवसर हाथ से निकल जाए,  इससे पहले सम्भल जाओ। अच्छा उपाय कभी व्यर्थ नहीं होता। इस संसार को कल्पना समझ कर मत जिओ। अपना रास्ता खुद बनाओ। तुम्हें सहारा देने के लिए ईश्वर हैं। तुम मानव हो, हे मानव तुम अपने मन को निराश मत करो | 

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ,
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ | 
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो,
उठके अमरत्व विधान करो | 
दवरूप रहो भव कानन को,
नर हो न निराश करो मन को || 

भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ  नर हो न निराश करो मन को  कविता से लिया गया है, यह कविता कवि मैथिलीशरण गुप्त जी के द्वारा रचित है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि हे मानव जब तुम्हें इस संसार के सभी साधन प्राप्त हैं तो तुमसे तुम्हारा अस्तित्व कहाँ दूर जा सकता है। तुम अपने आत्मबल रूपी अमृत को पी जाओ अर्थात् अपने जीवन में उसका उपयोग करो उठो और उठकर अमरत्व के नए नियम लिखो। सफलता प्राप्त करो इस संसार रूपी जंगल में तुम चिंगारी की तरह फैल जाओ तुम मानव हो, हे मानव, अपने मन को निराश मत करो | 

निज गौरव का नित ज्ञान रहे,
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे | 
मरणोत्‍तर गुंजित गान रहे,
सब जाय अभी पर मान रहे | 
कुछ हो, न तजो निज साधन को
नर हो, न निराश करो मन को || 

भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ  नर हो न निराश करो मन को  कविता से लिया गया है, यह कविता कवि मैथिलीशरण गुप्त जी के द्वारा रचित है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि तुम मानव हो तुम्हें अपने गौरव का हमेशा ध्यान होना चाहिए | तुम अपने होने के महत्व को समझो ऐसे कर्म करो कि मृत्यु के बाद भी हमारा यश गान होता रहे। चाहे सब कुछ मिट जाए लेकिन हमारा आत्मसम्मान नहीं मिटना चाहिए। चाहे कुछ भी अड़चन आ जाए लेकिन अपने कर्म का त्याग मत करो। हे मानव,  तुम अपने मन को निराश मत करो | 

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नर हो न निराश करो मन को प्रश्न उत्तर

 
बहुवैकल्पिक प्रश्न 
प्रत्येक प्रश्न के लिए चार विकल्प दिए गए हैं। सही विकल्प का चयन करके बॉक्स में लिखें --- 

1.इस कविता में कवि मनुष्य को क्या बनने की प्रेरणा दे रहा है ? 

(क) स्वाभिमानी
(ख) अखिलेश्वर
(ग) कर्मशील
(घ) नर

उत्तर- (ग) कर्मशील

2.कवि मनुष्य को कहाँ पर रहकर अपना काम करने को कहता है ? 
(क) निज 
(ख) जग
(ग) स्वर्ग
(घ) अकाश

उत्तर- (ख) जग

3.मनुष्य को क्या निराश नहीं करना चाहिए ? 
(क) काम 
(ख) जग 
(ग) निज
(घ) मन

उत्तर- (घ) मन 

4.मनुष्य को स्वयं अपना पथ क्या करना चाहिए ? 
(क) व्यर्थ
(ख) प्रशस्त
(ग) साधन
(घ) गुंजित

उत्तर-  (ख) प्रशस्त

5.सुधा किसे कहा जाता है ? 

(क) जग
(ख) अवलम्बन
(ग) कर्मशील 
(घ) अमृत

उत्तर- (घ) अमृत

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लिखित
1. इस कविता में कवि क्या प्रेरणा देना चाह रहा है ? 

उत्तर-इस कविता में कवि मनुष्य को कर्मशील बनने की प्रेरणा दे रहा है | 

2.कवि किस बात को समझने की बात कहता है ? 

उत्तर- कवि मानव जीवन के अर्थ को समझने की बात कहता है | कवि कहता है कि मानव जीवन तुम्हें क्यों मिला है इसे समझो इसे व्यर्थ ना जाने दो | 

3.कवि इस जग के बारे में क्या कहता है ? 

उत्तर- कवि इस जग के बारे में कहता है कि इस जग को कल्पना ना समझो अपना रास्ता स्वयं चुनो | 

4.कवि किसका अवलंब लेने को कह रहा है ? 

उत्तर-कवि भगवान का अवलंब लेने को कह रहा है | 

5.हमें इस संसार से क्या-क्या प्राप्त है ? कवि क्या ग्रहण करने को कहता है ? 

उत्तर- हमें इस संसार से सारे साधन प्राप्त हैं, कवि उन साधनों का उपयोग कर आगे बढ़कर सफलता ग्रहण करने को कहता है | 

6.कवि किस बात का ध्यान रखने के प्रति सावधान करता है ? वह किस बात को सर्वोपरि मानता है ? 

उत्तर-कवि इस बात का ध्यान रखने के प्रति सावधान करते हैं कि हे मानव तुम्हें मानव होने का गर्व होना चाहिए, इस बात का हमेशा ध्यान होना चाहिए तुम्हें मानव होने के महत्व को समझना चाहिए | कवि कर्म को ही सर्वोपरि मानते हैं | 

7.इस कविता का मूल भाव स्प्ष्ट करो | 

उत्तर- यह कविता मनुष्य को कर्मशील बनने की प्रेरणा दे रहा है। अपने गौरव व स्वाभिमान की रक्षा करते हुए मनुष्य को सदा अच्छे कर्म करना चाहिए इस कविता में स्पष्ट बताया गया है। यह कविता संघर्ष के क्षणों में हमें सम्बल प्रदान करती है। यह कविता मानव को मानव होने का एहसास दिलाता है। नर हो न निराश करो मन को प्रेरणादायक कविता है | 

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भाषा संरचना
1. दो-दो पर्यावाची शब्द लिखिए --- 

उत्तर-  निम्नलिखित उत्तर है - 

• ईश्वर - भगवान, अखिलेश्वर
• सुधा - अमृत, अमिय
• नर- मनुष्य, आदमी
• पथ - रास्ता, मार्ग
• जग - संसार, दुनिया
मैथिलीशरण गुप्त

2. कवि ने तत्सम शब्दों का भी प्रयोग किया है --- 

उत्तर- निम्नलिखित उत्तर है - 

• व्यर्थ -  बेकार
• प्रशस्त - रास्ता
• अवलंबन  - सहारा
• अखिलेश्वर - भगवान
• मरणोत्तर - मरने के बाद
• अमरत्व - अमरता

3. विलोम शब्द लिखिए --- 

उत्तर- निम्नलिखित उत्तर है - 
• जन्म - मृत्यु
• उपयुक्त - अनुपयुक्त 
• सदुपाय - दुरूपाय 
• ज्ञान - अज्ञान
• मान - अपमान
• सुयोग - वियोग 

4. उपसर्ग-प्रत्यय अलग करके लिखिए --- 

                       उपसर्ग            प्रत्यय

• सुयोग                सु                योग
• अवलंबन          अव               लंबन
• अमरत्व            अम               रत्व
• गुंजित               गुन               जित

5. सन्धि --- 

'मरणोत्तर' शब्द 'मरण + उत्तर' से मिलकर बना है |  स्वर सन्धि में अ + उ मिलकर 'ओ' हो जाता है | 

जैसे - सूर्य + उत्सव = सुर्योत्सव 

निम्नलिखित शब्दों में सन्धि कीजिए --- 

उत्तर - निम्नलिखित उत्तर है - 

• सूर्य + उदय = सूर्योदय
• भाग्य + उदय = भाग्योदय
• गणेश + उत्सव = गणोत्सव
• पूर्व + उत्तर = पूर्वोत्तर


'अखिलेश्वर' शब्द ' अखिल + ईश्वर ' से मिलकर बना है। इसमें 'अ + ई ' मिलकर 'ए' हो गया है। 

जैसे - दिन + ईश = दिनेश

निम्नलिखित शब्दों का सन्धि विच्छेद कीजिए --- 

उत्तर- निम्नलिखित उत्तर है - 

• सुरेश - सुर + ईश
• गणेश - गन + ईश
• रामेश्वर - राम + ईश्वर 
• नरेश - नर + ईश

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नर हो न निराश करो मन कविता के शब्दार्थ 


• जग - संसार
• अर्थ - मतलब से
• उपयुक्त - ठीक
• सुयोग - अच्छा अवसर
• सदुपाय - अच्छा उपाय
• पथ - रास्ता
• अखिलेश्वर - भगवान
• अवलम्बन - सहारा
• सत्व - अस्तित्व
• सुधा - अमृत
• अमरत्व - अमरता
• भव - संसार
• गौरव - सम्मान
• मरणोत्तर - मरने के बाद
• निज - अपना
• व्यर्थ - बेकार
• तन - शरीर
• निरा - केवल
• तत्व - चिजें, सार
• स्वत्व - अपनापन
• दवरूप - जंगल में लगने वाली आग
• कानन - जंगल
• मान - सम्मान, आदर
• गुंजीत - गूँजता हुआ   | 

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