खुश रहने का सबसे आसान तरीका हमेशा ख़ुश रहिये, मज़ा से तो कभी मिले कष्ट से भी जीवन को मस्ती से गुजारिये।तो जीवन है एक मोह का सागर हर-हाल में पार पाना है,
हमेशा खुश कैसे रहे
देखिए हम ये बात पूरी तरह से ख़ारिज करते हैं कि जो कुछ भी निकल रहा है वह हमारे जीवन से जुड़े पुरुषों और महापुरुषों की जीवन यात्रा का किस्सा है और यह किस्सा छोटा नहीं बल्कि बहुत ही मोटा और बड़ा है जिसे आप समझते हैं और जानते भी हैं। हमारे बाबू जी मतलब पितामह जी सकारात्मक रूप कहा करते थे कि सुनो एक बात जान लो बड़े रहोगे तो खड़े रहोगे और यदि कहीं से भी छोटे बने तो मटिया में बार-बार दबाये जाओगे इसका मतलब यही है कि हमें हमेशा उन्नत रहने का प्रयास करना चाहिये।
लेकिन हमारे राष्ट्र का इतिहास हो या विश्व का इतिहास आपने देखा ही है कि होड़ के चक्कर में लोग दूसरे का गोड़ काटने को तैयार रहे। यह स्थिति पहले भी थी, आज भी है और रहेगी भी, इसमें कोई संशय नहीं है।चाहे हम पूंजीवाद की लड़ाई लड़ी महाशक्तियों की ओर ध्यान दें या साम्यवादी चोंगा पहने चन्द जनों को समझें। सब सबके ऊपर रहने के लिए तत्पर हैं।
यह जो तत्परता है वह ज़रूरी नहीं कि किन्हीं दो महाशक्तियों या राष्ट्रों या राज्यों के बीच हो यह समाज के प्रत्येक वर्ग में दिखाई देता है। चाहे वह समाज जितना उन्नत या अवनत हो। हमारा तात्पर्य यह नहीं कि ये अच्छी दिशा की ओर कर रहे कार्यों को बताना, हमारे कहने का आशय यही है कि इनकी सोच बुरी है, मानवतावाद में कुरीतियां उत्पन्न करने वाली हैं, लोगों को ग़ुमराह करने वाली हैं आदि-आदि दृष्टांत देखने को मिलते ही रहते हैं।
कोई समाज की छोटी ईकाई परिवार में ऐसी होड़ में लगा है, तो कोई राष्ट्र का ठीकेदार बनने के लिए नेता लगा हुआ, तो समाज को शिक्षा की ओर उन्मुखीकरण के लिए ठग रह है तो कोई, स्त्री सम्मान को सुरक्षित करने के लिए विलासिता पूर्ण जीवन का आनंद ले रहा है, कोई गली के कूड़े को साफ़ करने के लिए कूड़ा ही फैला रहा है, तो उच्चपद की अभिलाषा के लिए नीच बनता जा रहा है, कोई ऐसे भी हैं कि गरीबों के लिए, किसानों के लिए, गाँव, शहर, आदि-आदि जगहों के विकास के लिए आये ग़रीबों, किसानों राष्ट्र सेवकों के धन से अपनी सेवा करवा रहा है, सबकुछ कुल मिलाकर जुलाकर करने का अभिप्राय यही है कि ऐसे लोग ही साथ होकर, रहकर, समझकर, अपनों का ही गला रेतने में लगे हैं। यह अच्छे, ईमानदार, सन्मार्गी लोगों पर कोई टिप्पणी नहीं, क्योंकि वो स्वयं प्रकाशपुंज हैं और उनको प्रकशित करना मतलब सूर्य को दीपक दिखाने जैसा दुस्साहस है, वो सदैव आदरणीय, वन्दनीय, स्मरणीय हैं।
अब इनकी मतलब बड़े लोगों की जो नीतियाँ भी हैं न वो प्रत्यक्ष रूप में तो हितकारी होती ही हैं और अप्रत्यक्ष रूप से देखा जाए न तो रे बाबा मतलब पूरा का पूरा अंधियार वाला मैटर समझ आता है और ऐसा वैसा यह अँधियारा नही है भाई इसमें जो गया समझो फिर गया मतलब, भानगढ़ के भूतहे के से भी ख़तरनाक है।
पहले तो उन्नति का मार्ग दिखाते हैं, लेकिन दिखाने में भाई बहुत ही माहिर होते हैं कब , कैसे आप पर चूना, थोप दें पता भी नही चलता है। ये हमारे बीच वाले चच्चा, साहिब, महाजन, सर, आदि-आदि होते हैं और इनका होना भी जायज़ है, भला पूछिये क्यों? क्योंकि उन्हें पता है कि हम भी इसी के लायक हैं, हम भी का मतलब दबने वाले हम लोग और जो नहीं हैं उनको लाइनिया में भी लाना इनके चुटकी भर का काम है दादा। तो फिर ऐसे ये हेल्प-पिया बनके आते हैं सेल्फ़-पिया बनके निकल्लेते हैं।
ठहरे बेचारे दबे, कुचले, प्रताड़ित लोग तो वो यही समझते हैं कि इसे तो हमें जनमसिद्ध अधिकार के रूप में समाज ने थोपा है तो चाहे सहर्ष हो या बग़ैर हर्षबा के स्वीकार तो करना ही पड़ेगा। अच्छा मान लीजिये इन सब में कोई बेचारा प्रकाशित बुद्धि वाला निकलता है तो उसे ऐसा तोड़ा मरोड़ा जाता है कि प्रेस करने पर भी सीधा नही हो पाता। अब यहाँ पर उनका रोल देखिए जिनके लिए वो खड़ा होता है, वो पहिले से ही ठाने हैं कि हम तो भाई मिट्टी के नीचे वाले मनई हैं तो काहे मुखर हों और इसी चक्कर में कौनौ बेचारे को सपोर्ट नहीं मिलता और वह भी अपने आपको सरेंडर कर देता है या करवा दिया जाता है।
तो हम यही सोच रहे हैं कि आख़िर कैसे यह ठीक होगा कि "हम बड़के हैं" वाले समझेंगे? इसका उपाय तो देखिए मरीज़ को ही खोजना पड़ेगा, तो वो काहे , तो वो इसलिए कि जिसके बवासीर होता है न तो वही उसकी पीड़ा जानता है और वही उसके उपचार की प्रक्रिया भी सीख लेता है । तो परिवार और समाज को और जागरूक तो बनना ही है उसके साथ-साथ कुछ करना भी है वो भी मिलजुलकर, वो भी यात्रा में आई व्यथा, बाधा आदि को भुलाकर, क्योंकि यही आगे चलकर हमारे राष्ट्र को राष्ट्र यह परिभाषा से और सुदृढ़ करेगा अब इसका मतलब यह नहीं कि राष्ट्र अभी राष्ट्र की परिभाषा में नहीं है, ऐसा नही है भाई अपना राष्ट्र तो बहुत ही बढ़िया है, लेकिन इसे न बहुत-बहुत-बहुत बढ़िया बनाना है, मतलब अंग्रेजी का तीसरा फ़ॉर्म। देखिए हमारे मुँह से अंग्रेजी भी शोभा नहीं देगी न कहे कि जब हम English बोलते हैं न बड़े लोग मतलब समझते हैं आप कि उनको भी आश्चर्य होता है। तो यह बात अंतिम में करने का मतलब यही है कि भाषागत हो रही कुरीति को भाई त्यागो और उसके सीखने की होड़ से बचो और अंतिम बात ये कि जेतना बढ़िया आप अपनी भाषा या बोली में बतिया या उसमें कुछ कर पाओगे वो थोपी या थोपाई भाषा में नहीं। मतलब यहाँ अपना किसी भाषा के प्रति अनादर वाला भाव नहीं बस यही है कि अपनी भाषा अपनी होती है और यही हमें शिखर की ओर ले जाती है।
हमेशा ख़ुश रहिये, मज़ा से तो कभी मिले कष्ट से भी जीवन को मस्ती से गुजारिये।
तो जीवन है एक मोह का सागर
हर-हाल में पार पाना है,
चाहे नौका मिली हो चरर-मरर
फ़िर उसी से जाना है
ख़तम नहीं बिन किये पार
तो मानो सर्वस्व लुटाना है
पथ की बाधा को आयुर्वेद वाली
मेडिसिन समझ खाना है
हर-क्षण इस जीवन के कष्ट भरे
पर उसको सहर्ष पार करना है।
- अजय शुक्ल
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