उपेक्षित राजभाषा अभिशप्त राजभाषा कर्मी हिन्दी भाषा को जनता की भाषा के रूप में भारत राष्ट्र की संवैधानिक राष्ट्रभाषा घोषित करने का प्रस्ताव पारित हुआ
उपेक्षित राजभाषा अभिशप्त राजभाषा कर्मी
देश स्वतंत्र हुआ पन्द्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस को और भारतीय गणतंत्र का संविधान स्वीकृत हुआ छब्बीस जनवरी उन्नीस सौ पचास ईस्वी में। इन दो ऐतिहासिक तिथियों के बीच चौदह सितंबर उन्नीस सौ उनचास भी एक राष्ट्रीय तिथि है जिस दिन हिन्दी भाषा को जनता की भाषा के रूप में भारत राष्ट्र की संवैधानिक राष्ट्रभाषा घोषित करने का प्रस्ताव पारित हुआ था; भारतीय संविधान सभा में, जिसके प्रस्तोता थे एक अहिन्दीभाषी दक्षिणी राज्य के सदस्य श्री गोपाल स्वामी आयंगर।
इससे इतना तो स्पष्ट है कि अहिन्दी भाषी राज्यों में भी अंतरप्रांतीय जनसंपर्क के लिए हिन्दी भाषा की उपादेयता सर्व स्वीकार्य एवं सर्वोपरि तथ्य है। तब से लेकर अबतक राजभाषा अधिनियम और नियम बनते गए, केन्द्रीय सरकार के कार्यालयों एवं उपक्रमों के लिए वार्षिक राजभाषा कार्यक्रम निर्धारित होता रहा, क ख ग क्षेत्रों में भाषाई आधार पर बांटे गए राज्यों में राजभाषा कार्यान्वयन को उच्चस्तरीय प्रशासनिक कार्य दायित्वों के तहत राजभाषा प्रचार-प्रसार के नाम पर क से कमाओ, ख से खाओ, ग से गाओ की तर्ज पर सेमिनार किया जाता रहा, राजभाषा कार्यान्वयन समितियों के तत्वावधान में पूरे तामझाम के साथ बंद कमरों में उच्चस्तरीय बैठकें आयोजित की जाती रही, राजभाषा पुरस्कार बांटे जाते रहे, हिन्दी भारती का प्रशस्ति गायन किया जाता रहा, किन्तु जन मन के कंठ में बसी हिन्दी सरकारी अमलों की लेखनी की नकेल पर विराजमान नहीं हो पाई।
या यूं कहिए कि राजनेताओं की तरह नौकरशाहों द्वारा भी जान बूझकर हिन्दी को धकियाया जाता रहा।अहिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी के प्रगामी प्रयोग की स्थिति का मुआयना करना तो वैसे भी बेईमानी होगी जहां हिन्दी को उत्सवी नहीं पवित्र मिशनरी उद्देश्य से ईमानदार प्रचार प्रसार की व्यापक कमी रही है। यह कथा तो उन तथाकथित राज्यों की है जिन्हें भाषाई तौर पर घोषित हिन्दी क क्षेत्र, अफसरानों की तर्क बुद्धि में कमाऊ चारागाह,साहित्य की कशीदाकारी में हिन्दी हृदय और मीडिया के शब्दजाल में काऊ बेल्ट माना गया है। जिसके आम चपरासी से लेकर खास अफसरशाह तक प्रात से रात तक की खिलखिलाहट से फुसफुसाहट तक,भजन-कीर्तन, रोजा-नमाज से लेकर प्रातराश, लंगर,इफ्तार, रात्रि भोज तक के सारे सफर हिन्दी में ही बुदबुदाते-बतियाते हुए ही तय करते हैं। हां यह हिन्दी क्षेत्र ही है जहां घर से देवालय तक, स्कूल से विश्व विद्यालय तक, कार्यालय से मंत्रालय तक घुन की तरह समायी साजिश-पालिटिक्स के तहत हिन्दी सबसे ज्यादा धकियायी,मुकियायी और उपेक्षित की जाती रही है। और इन सबके साथ सबसे अधिक उपेक्षित और अभिशप्त है सरकारी महकमों के किसी कोने- दड़बों में बैठे हिन्दी पदधारी जो हिन्दी अनुवादक, हिन्दी अधिकारी, राजभाषा प्रबंधक, हिन्दी प्राध्यापक, ट्रांसलेशन अफसर और न जाने कितने पदनामों से जाने जाते हैं। हिन्दी अधिकारी; पदनाम अनेक काम एक ही, पदसोपान अनेक अर्हता, शैक्षणिक योग्यता और भाग्य रेखा एक ही। हिन्दी पदधारी चाहे अराजपत्रित कर्मी हो या राजपत्रित अधिकारी उनका एक ही काम है राजभाषा कार्यान्वयन में प्रशासनिक अधिकारियों की सहायता करना। वह भी बेहथियार बिना किसी प्रशासनिक शक्ति के कवच कुंडल विहीन कर्ण जैसे हीनावस्था में होते हैं ये राजभाषा के गुल्म नायक।
हिन्दी पदधारी; शैक्षणिक योग्यता सर्वोपरि किन्तु कार्यालयीन स्थिति किरानियों से भी गिरी हुई, भारतीय गौ की तरह कातर, उपभोक्ता वस्तुओं के विज्ञापन की तरह अस्थाई होते हैं ये हिन्दी अधिकारी। जो हिन्दी कार्यान्वयन के सारे यश अपयश को समेटे हजार फन शेषनाग होकर भी सृष्टि पालक/कार्यपालक की निर्जीव शैया या चरण पादुका से अधिक कुछ भी नहीं होते। शैक्षणिक योग्यता एवं अर्हता के हिसाब से विश्व विद्यालय के सबसे बड़े डिग्रीधारी, पांडित्य के हिसाब से मंडन मिश्र और चाणक्य के विरादरी के, कार्य दायित्व के हिसाब से दिनकर और बच्चन के ध्वजधारी किन्तु पगार के हिसाब से किरानी के आसपास, प्रोन्नति के मामले में फिसड्डी (क्योंकि पद सोपान के क्रम में आगे पद रिक्त या सृजित नहीं होते), प्रशासनिक शक्ति के हिसाब से साहब के अरदली से तुच्छ प्रभावशाली, जिनका न कोई यूनियन होता है या अलग से कोई हितरक्षक संघ।जिसकी आवाज अवसर विशेष; हिन्दी पखवाड़ा आदि को छोड़कर न कभी मीडिया उठाती और न उपभोक्तावादी जन समूह की नजर में यह किसी काम का मुलाजिम समझा जाता। जब आप किसी को आदेश दे नहीं सकते, दफ्तर का चक्कर लगवा नहीं सकते, काम के फाइल दबवा नहीं सकते,घूस ले नहीं सकते और जनता को फायदा पहुंचाने की गारंटी दे नहीं सकते तो फिर सरकारीमुलाजिम कैसा?
वैसे सार्वदेशिक स्तर पर इस विरले सरकारी मुलाजिम के उत्पादन की एकमात्र फैक्टरी है- कर्मचारी चयन आयोग। जिसकी सीमित उत्पादन क्षमता के मद्देनजर विभिन्न मंत्रालय/विभाग द्वारा आयोग के निर्धारित नार्म पर विभागीय/
अंतर्विभागीय कर्मचारियों के बीच से नियुक्ति/ प्रति नियुक्ति के शर्त पर चयनित कर लिए जाते हैं-ये आवश्यक सरकारी बला/अनुत्पादक बल/गृह मंत्रालय का बलाधिकृत खुफिया। दोनों ही स्रोतों से प्राप्त उत्पाद (हिन्दी अनुवादक) आरंभ में राव मैटेरियल हीं होते हैं, खालिस अकादमिक उच्च योग्यताधारी। जिसे खरपाक ईंटों में ढालने का कार्य करती है देश की एकमात्र संस्था-केन्द्रीय अनुवाद ब्यूरो। पहले स्रोत से चयनित हिन्दी पदधारियों की स्थिति स्थाई रूप से इस वर्ग हेतु चयनित होने के कारण कुछ हद तक ठीक होती है किन्तु दूसरे स्रोत यानि विभागीय प्रोन्नति/प्रति नियुक्ति तदर्थ रुप से होने के कारण अस्थाई/प्रोन्नति विहीन ये सरकारी कर्मी अंत तक अपने को सांप छछूंदर की स्थिति में पाते हैं।
जो अपने ही विभाग में हिन्दी के किसी पद; अनुवादक या अधिकारी के भी संभालते ही खुद को ब्याहता से वैसी सार्वकालिक विधवा की विपदा में घिरे पाते हैं, जिनके पर कुतर दिए जाते हैं, घुंघराली केश राशि कपच दी जाती है; प्रति नियुक्ति दर स्थानापन्न नियुक्ति अनुमोदित कर्मचारी उपलब्ध होने तक-स्थाई कभी नहीं, काल बद्ध प्रोन्नति तक से वंचित, प्रोन्नति के सारे कपाट बंद और अपेक्षा की जाती उनसे भारतीय संस्कृति का अपेक्षित ज्ञान; एम ए हिन्दी या अंग्रेजी या संस्कृत तथा स्नातक स्तर पर अंग्रेजी या हिन्दी का अध्ययन अथवा स्नातकोत्तर किसी विषय में पर स्नातक स्तर पर हिन्दी/ अंग्रेजी का आवश्यक अध्ययन अथवा एम ए हिन्दी/अंग्रेजी, स्नातक स्तर पर अंग्रेजी/हिन्दी माध्यम से उत्तीर्ण इसके अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं की जानकारी के साथ संस्कृत एवं संस्कृति का विशेष अध्ययन सहित शोध/लेक्चरशीप योग्यता धारियों को प्राथमिकता जैसे लंगोटीमार लंबी योग्यता धारियों के बीच से चयनित कर्मचारियों को ढेर सारे शर्तों में बांधकर हिन्दी अनुवादक/हिन्दी अधिकारीबनाया जाना, फिर केन्द्रीय अनुवाद ब्यूरो से सेवा कालीन अनुवाद प्रशिक्षण दिलाकर खरपाक ईंटों में झमाकर ढालना, वर्षों तक अनुमोदित कर्मचारी की उपलब्धता होने के बहाने पदधारी को अस्थाई बनाए रखना।
अस्थाई पद धारण की वजह से काल बद्ध प्रोन्नति से वंचित रखकर वर्षों तक एक ही वेतनमान में बंधुआ मजदूर जैसा खटते रहने की नियति, ऊपर से अगले पद सोपान में पदों की कमी, इत्तफाक से कभी पैरेंट विभाग में कोई उपरला हिन्दी का पद रिक्त भी हुआ तो क्या? उसे तो रिक्त ही रह जाना है क्योंकि आप निचले पद संवर्ग में संपुष्ट ही नहीं किए गए हैं। ऐसी स्थिति में हिन्दी लाइन में प्रोन्नति की गुंजाइश कहां? फिर तो आप सेवानिवृत्त हो जाते हैं जहां के तहां। अस्तु इतनी दास्तान काफी है हिन्दी सेवा में जुटे अभिशप्त राजभाषा कर्मियों के भविष्य बखान के लिए। इससे तो अच्छी थी हिन्दी कर्मी बनने के पूर्व की उनकी क्लर्क की सेवा जिसमें वह स्थाई भी था,काल बद्ध प्रोन्नति भी थी, जनता और चपरासियों से मिलने वाली सलामी भी, संचिका दबाने बढ़ाने की नोचा नोची भी, घूसखोरी के लत में पड़े हुए के लिए बहती गंगा में हाथ धोने का अवसर भी था।
तुर्रा यह कि जब आप इस प्रोन्नति विहीन हिन्दी सेवा से पुनः विभाग की अपनी पूर्व सेवा में वापसी की अर्जी देते हैं तो हिन्दी सेवा कार्य की प्रतिबद्धता के बहाने आपको हिन्दी कार्य में लगाए रखने की कार्यालय टिप्पणी दी जाएगी और यदि मनसा वाचा कर्मणा हिन्दी कार्य करते हुए हिन्दी लाइन में समायोजन या प्रोन्नति का निवेदन करते हैं तो प्रशासनिक विंग के बड़ा बाबू द्वारा नियमों के खजाने से वैसा नियम/रुलिंग कोट कर दिया जाएगा कि आप न घर के रहेंगे न घाट के। फिर यदि आप किसी हिन्दी विरोधी कारिंदे के इब्लीसी चंगुल में फंस गए, जैसा कि आमतौर पर हर विभाग के प्रशासनिक लिंक में एक दो हुआ ही करता है, तो आपके जीते जी आपकी कब्र खोदी जाएगी। आप और दुखी हो जाएंगे। खुदा/भगवान की दुआ कृपा के बिना हिन्दी लाइन में कुछ भी हासिल करना संभव नहीं है।
- विनय कुमार विनायक,
दुमका, झारखंड-814101
सर, आपका लेख बहुत अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंआपने पहले पेरा में कहा है कि हिंदी को संवैधानिक तौर पर राष्ट्र भाषा की मन्यता दी गई है। ऐसा नहीं है। न ही हिन्दी और न ही कोई और भाषा कभी भी भारत की राष्ट्र भाषा बन सकी।
14 सितंबर 1949 को हिन्दी भारत संघ की राजभाषा चुनी गई, राष्ट्र भाषा नहीं। जिसका आपने लेख में अन्यत्र उल्लेख किया है। कृपया आवश्यक सुधार कर लीजिए।