अलविदा, मेरे प्यारे बेटे! बरसात का मौसम हो चला था। सूखे दरख़्त पानी की आस लगाए अब भी ऊपर टकटकी लगाए खड़े थे। पूरे चार बरस हो आए थे आख़िरी मानसून आए हुए,
अलविदा, मेरे प्यारे बेटे!
बरसात का मौसम हो चला था। सूखे दरख़्त पानी की आस लगाए अब भी ऊपर टकटकी लगाए खड़े थे। पूरे चार बरस हो आए थे आख़िरी मानसून आए हुए, कारण भी लगभग तय ही था, फैक्ट्रियों और कोंक्रीट के महल खड़े करने के लिए जंगल और पहाड़ काटने से वातावरण का संतुलन जो बिगड़ गया था। अपने रसूखदार होने का दंभ भरते हुए माटी का सीना चीरकर पी गए थे सारा पानी वो कमबख्त, जो अपने आपको सर्वोपरि मान बैठे थे।
“अब कैसी रही? अरे, अब कैसी रही बोलो, जब प्रकृति माँ ने तुम्हें तुम्हारी अदनी सी असली औकात दिखा दी…” एक गाँव के सूने आँगन में खड़ा बूढ़ा पेड़, जो कई दशकों के सावन देख चुका था, अपना ग़ुस्सा निकालते हुए चिल्ला रहा था, “…अबे मुफ्त में मिला, तो सारा कुछ अपनी बपौती समझ बैठे थे बे, तुम साले दोगले इंसान। अब कहाँ बचा है खुद तुम्हारे लिए, जो तुम हमें पिला दोगे बे, क्यों? आओ, घटिया सोच रखने वालों, कहाँ भाग गए हो लालचियों, अपनी-अपनी आलीशान कोठियों को छोड़कर, पानी की तलाश में?”
“दादाजी, क्या हुआ दादाजी?” पास ही पड़े एक बीज ने आतुर होकर पूछा, जिसकी अभी तक कोंपल भी नहीं फूट पाई थी।
“लगता है, अब मेरा भी अंतिम समय आ गया है बेटे…” बूढ़ा पेड़ दम भरते हुए बोला, “…निर्लज्ज और एहसान-फरामोशों को जरा भी दया नहीं आई थी और बड़ी-बड़ी मशीनों से काट डाला था मेरे अपनों को, जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी उन शैतानों के लिए बलिदान कर दी थी। अरे, क्या कुछ नहीं किया था हमने? तुम्हें खेलने दिया, झूलने दिया, मीठे-मीठे फल दिए, छाव दी और तो और तुम्हारे आलीशान घरों को सजाने-संवारने तक के लिए हमने अपने आपको कुर्बान कर दिया था।”
“ये बलिदान क्या होता है दादाजी?” नन्हें बीज ने उत्सुकतापूर्वक पूछा।
“किसी खास उद्देश्य से अपने आपको पूरी तरह से अर्पण कर देना ही बलिदान कहलाता हैं, मेरे बेटे…” बूढ़ा पेड़ रूंधे गले से समझा रहा था, “…हम अपने जन्म से लेकर मरण तक निस्वार्थ भाव से सेवा करते रहते हैं; अपना प्रेम लुटाते हैं। माटी में अपने आप को न्योछावर कर बूढ़े होने तक बलिदान करना ही तो हमारा एकमात्र धर्म है बेटे।”
“और मनुष्यों का धर्म क्या है दादाजी, सिर्फ हमें काटना और अपना मतलब पूरा करना?” भोला बीज निराश मन से पूछ बैठा।
“नहीं, नहीं बेटे, समय कभी भी एक जैसा नहीं रहा। कभी हमारे पूर्वजों को पूजने और सहेजने वाले लोग भी हुआ करते थे…” बूढ़े पेड़ ने अपनी भूली बिसरी पुरानी यादों पर से मिट्टी साफ करते हुए बताया, “…बहुत पहले की बात हैं, तब मेरी नन्हीं कोंपल ही फूटी थी बस, मैंने देखा कि इस घर के मालिक सहित पूरे गाँव के लोग नए-नए कपड़े पहने, ढ़ोल-नगाड़ों के साथ नाच-गाना कर रहे थे और हमारे आजू-बाजू घूम-घूम कर कुछ रीति-रिवाज कर हर्षो-उल्लासित हो खुशियाँ बाट रहे थे। वे लोग बड़े आनंदित रहते थे और हमें अपनी जान से भी ज्यादा चाहते थे, फिर कुछ सालों बाद ऐसा युग आया कि पेड़ों-पौधों ,जंगलों सहित नदी-तालाब और यहाँ तक कि जमीन को भी कुछ मुट्ठीभर अमीरों को कौड़ियों के दाम बेच दिया गया; कुछ निजीकरण जैसा शब्द बोलते थे उसे। फिर उन सूट-बूट वालों ने, न रात देखा न दिन और झोंक दी अपनी पूरी ताकत हमें जड़ से उखाड़कर बड़ी-बड़ी फैक्टरियाँ और आलीशान कालोनियां बनाने में। बेटा, मैंने और अपने परिवार ने इतना काला धुंआ पिया है कि हम अंदर से बिल्कुल काले और खोखले हो गए हैं। कई दफा प्रकृति माँ ने अपना रौद्र रूप भी दिखाया, लेकिन इन जाहिल-गवारों ने, प्रकृति को पूजने और सहेजने वालों के साथ-साथ स्वयं हमें भी खत्म कर दिया।”
“दादाजी संभालिए अपने आप को, आप गिर रहे हैं।” बीज ने चिंतित होते हुए कहा, तो बूढ़ा पेड़ नम आँखों से बीज को निहारता हुआ बोला, “मेरे आखिरी शब्द हमेशा याद रखना बेटे, अगर जी पाओ, तो खुब फलना और फूलना। अपने नैसर्गिक धर्म का पालन करते हुए बलिदानी होने की पराकाष्ठा को पार कर जाना, लेकिन कभी भी मनुष्य जाति पर न तो भरोसा करना और न ही कभी उपकार करना। तुझे अपना ख्याल खुद ही रखना होगा बेटे, अब कोई नहीं आएगा तुझे सहेजने, तुझे पूजने। अलविदा, मेरे प्यारे बेटे, अलविदा।”
स्रोत :- यह कहानी “आभासी प्रतिबिम्ब” पुस्तक से ली गई हैं।
रचनाकार :- कपिल सहारे
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