बाढ़ प्रभावित इलाकों की दयनीय स्थिति लौटते मानसून ने एक बार फिर से देश में कहर मचाया है. उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक ज़ोरदार बारिश ने बाढ़ की स्थिति उत
बाढ़ प्रभावित इलाकों की दयनीय स्थिति
लौटते मानसून ने एक बार फिर से देश में कहर मचाया है. उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक ज़ोरदार बारिश ने बाढ़ की स्थिति उत्पन्न कर दी है. इससे पूर्व सावन के महीने में भी देश के अधिकांश हिस्सों में मानसून ने अपना रौद्र रूप दिखाया था. हालांकि बारिश, पानी और नाव अधिकांश लोगों को अच्छे लगते हैं. सावन की बारिश का इंतज़ार हर किसी को होता है, मगर जब नदियों का पानी उफान पर हो, साथ में सावन की बारिश हो और नाव सड़कों पर चल रहे हों, तो उस स्थिति में हम क्या कहेंगे? इस वर्ष ऐसी स्थिति देश के कई राज्यों में देखने को मिली थी. विशेषकर पूर्वी भारत के बिहार में इस वर्ष बाढ़ ने काफी तबाही मचाई है. राज्य के अधिकांश हिस्से जलमग्न हो गए थे. हालांकि बाढ़ का पानी उतर गया है लेकिन स्थिति अब भी दयनीय है.
बिहार के मशरक, पानापुर, तरैया, रिविलगंज, मांझी, दरभंगा और छपरा का लगभग एक ही हाल था. यहां बाढ़ की वजह से हर साल औसतन 16-25 जिले प्रभावित होते हैं. पिछले पांच साल के सर्वे के अनुसार 136 प्रखंडों के लगभग साढ़े चार हजार गांव हर साल बाढ़ की मार झेलते हैं. अनुमानतः 95 लाख लोग इसके शिकार होते हैं और सैंकड़ों लोग डूबने से अपनी जान गंवा देते हैं. लेकिन सरकारी प्रक्रिया की सुस्ती का आलम यह है कि आपदा प्रबंधन विभाग, बिहार सरकार को जब तक गांव के मुखिया मदद के लिए इन बाढ़ ग्रस्त लोगों की सूची बनाकर देते हैं, तब तक बाढ़ का पानी उतर चुका होता है.
छपरा शहर के मुख्यालय से सटा ऐसा ही एक गांव है 'नेवाजी टोला धर्मशाला'. यह गांव शहर के निचले इलाके में स्थित है. यहां सावन और भादो का समय लोगों के लिए बहुत कष्टकारी होता है. यह वह समय है जब बाढ़ और बारिश एक साथ जनमानस के जीवन को प्रभावित करते हैं. पूरा इलाका डूबने की वजह से लोग सड़क किनारे तिरपाल लगाकर ज़िंदगी जीने को मजबूर होते हैं. यहां बाढ़ की स्थिति कभी-कभी इतनी बदतर हो जाती है कि घर के अंदर घुटने से ऊपर पानी बहता रहता है और लोगों को चौकी के ऊपर दूसरी चौकी लगाकर रहना पड़ता है. स्त्री हो या पुरुष, नाव की डेंगी पर बैठकर शौच करते हैं. जो महिलाओं और किशोरियों के लिए सबसे असहज स्थिति होती है.
सबसे ज्यादा समस्या तब होती है, जब गांव में कोई महिला गर्भवती हो. बाढ़ की वजह से डॉक्टर उस इलाके में नहीं आना चाहते हैं. लोग जो बीच गांव में फंसे हैं, बांध टूटा है, चारो तरफ पानी है, वह खुद ही हर परिस्थिति का सामना करते हैं. उनके पास एकमात्र साधन 'नाव' होता है। कुछ दूर नाव से फिर पानी कम होने पर चौकी या खटिया पर उठाकर गर्भवती महिला को लेकर नजदीकी अस्पताल पहुंचते हैं. कोविड-19 के इस मुश्किल वक्त में जबकि दूसरी लहर के बाद तीसरी लहर का खतरा सर पर मंडरा रहा था, ऐसे में इन बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों के लोगों ने स्वयं को और परिवार के बुज़ुर्गों को इस महामारी से कैसे बचाया होगा, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है. कठिनाइयों और खाने की कमियों के बीच हर वर्ष इस क्षेत्र के लोगों को अपनी ज़िंदगी गुज़ारने पर मजबूर होना पड़ता है. क्योंकि सरकार नियमों का हवाला देकर इस क्षेत्र के लोगों को किसी भी प्रकार के नुकसान का मुआवज़ा नहीं देती है. लेकिन आर्थिक स्थिति कमज़ोर होने के कारण लोग यहां रहने को मजबूर हैं. उनके पास इतने पैसे नहीं हैं कि किसी ऊंचे स्थान पर ज़मीन खरीदकर घर बनवा सकें इसलिए हर साल बाढ़ की मार झेलते और बाढ़ जाने के बाद नए सिरे से तिनका-तिनका इकट्ठा कर अपनी झोपड़ी बनाते हैं.
इस संबंध में स्थानीय निवासी अशोक कुमार बताते हैं कि बाढ़ के समय कभी उनके पास खाने के लिए अनाज नहीं होता, तो कभी जलावन के लिए लकड़ी नहीं होती है. ऐसे में वह लोग एक ही समय का खाना खाते हैं. रात में इस उम्मीद से खाली पेट सो जाते कि शायद कल का दिन बेहतर हो. बाढ़ और बारिश के कारण बचे हुए अनाज और लकड़ी भी भींगकर बर्बाद हो जाते हैं. अशोक एक निपुण गोताखोर हैं. वह बाढ़ के समय लोगों की अनमोल जिंदगी बचाने का सराहनीय कार्य करते हैं. इसके साथ ही वह एक निपुण कलाकार भी हैं. बाढ़ के बाद की स्थिति के बारे में वह कहते हैं, "एक कलाकार के पास उसकी कला ही सबसे बड़ी धरोहर होती है. लेकिन पानी से मेरी पेंटिंग्स भी खराब हो जाती है। इसका मुझे सबसे ज्यादा दुःख होता है. बाकी सामान की बात करें तो लगभग 50 प्रतिशत समान ही हम वापस ले जा पाते हैं. एक जगह से दूसरी जगह ले जाने में कुछ टूट जाते हैं तो कुछ पानी से बर्बाद हो जाते हैं. इतना ही नहीं, हमारे कई सामान चोरी भी हो जाते हैं" एक रिपोर्ट के अनुसार बाढ़ के दौरान हर साल 130 करोड़ के आस पास निजी संपत्ति का नुकसान होता है. इस वर्ष बाढ़ से लगभग 3,763 करोड़ रुपयों का नुकसान हुआ है.
बाढ़ से हर साल होने वाली तबाही की चर्चा करते हुए 70 वर्षीय बुज़ुर्ग कहती हैं, "हमलोगों को बाढ़ की मार झेलते हुए 40-50 साल हो गए हैं. पहले हमारा गांव 'नेवजी टोला' कहलाता था, जो 2003 के आस-पास आई बाढ़ में विलीन हो गया. फिर यहां (नेवाजी टोला धर्मशाला गांव) आएं. यहां भी 4-5 साल हो गए, मगर हाल वही है. इतने सालों में कोई अंतर नहीं आया. मुखिया, सरपंच कोई भी मदद को आगे नहीं आता. कुछ समाजसेवी आते हैं, जो तिरपाल, चूड़ा, गुड़ देते, फोटो लेते, न्यूज बनवाते और चले जाते हैं। कोई हमारी बुनियादी समस्या का हल नहीं निकालता है. महिलाओं के लिए शौच या नहाने की कोई व्यवस्था नहीं होती। सरकार या कोई भी समाजसेवी यह नहीं सोचता कि गांव में इतनी महिलाएं हैं, लड़कियां हैं, उनके लिए एक सार्वजनिक शौचालय लगवा दें"
यूं तो बाढ़ एक प्राकृतिक आपदा है, इसलिए इसे रोका नहीं जा सकता है. लेकिन उचित नीतियां और समय पूर्व क्रियान्वयन से इसके प्रभाव और इससे होने वाले नुकसानों को कम ज़रूर किया जा सकता है. आवश्यकता यह है कि बाढ़ग्रस्त इलाकों को चिन्हित कर वहां रहने वाले लोगों को समय पूर्व बाढ़ के बारे में सूचित किया जाए ताकि वे अपने सामान को सुरक्षित स्थान पर रख सकें. साथ ही स्थानीय प्रशासन को बुनियादी सुविधाओं के साथ एक ऐसे उचित स्थान का निर्माण करने की ज़रुरत है, जिससे लोगों को दर-ब-दर भटकने की ज़रुरत न पड़े. बाढ़ के दौरान हर गांव में शौचालय, अस्पताल और राशन वितरण की उचित व्यवस्था की जानी चाहिए. इसके अतिरिक्त पानी निकासी में सुधार कर भी कई गांवों को जलमग्न होने से बचाया जा सकता है. बाढ़ आने से पूर्व लोगों की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति कर भी बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के लोगों को दयनीय स्थिति से बचाया जा सकता है. इसके लिए सरकार और स्थानीय प्रशासन के साथ साथ समाज को भी आगे आने की ज़रूरत है. यदि बाढ़ की समस्या स्थाई है तो उसका स्थाई निवारण संभव क्यों नहीं हो सकता? (चरखा फीचर)
- अर्चना किशोर
छपरा, बिहार
COMMENTS