आसक्ति और अनासक्ति के बीच झूलता हुआ एक वृद्ध आसक्ति का त्याग ही अनासक्ति कहलाता हैं अनासक्त का अर्थ हैं, कोई पूर्वाग्रह नहीं होना भगवान से सम्बन
आसक्ति और अनासक्ति के बीच झूलता हुआ एक वृद्ध
जब मैं उत्तराखंड में फारेस्ट अफसर था तब मुझे एक योगी और दार्शनिक के आश्रम में जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जब मेंने उनके आश्रम में प्रबेश किया बोह अपने शिष्यों को बता रहे थे , " आप लोग अपने अपने साइज का पांच फिट गहरा गड्डा खोद लें। उसमे लेट जाएं । अपने ऊपर मिटटी डाल लें और कल्पना करे कि आप मर गए हैं। जिसमें लेटे हैं बोह आपकी कब्र हैं । आपकी आत्मा दूर खड़ी यह सब देख रही हैं। आपके प्रिय ,अप्रिय जिनके साथ आप इस लोक में जिए , जिनके साथ आप इस लोक में बंधे रहे , आपके माता ,पिता ,बहिन, भाई, चाचा , चाची , ताऊ ताई, मित्र,गुरु पत्नी बच्चे और अन्य लोग जिनसे आपका परोक्ष या आ परोक्ष रूप से सम्बन्ध रहा बोह सब आप पर मिट्टी डाल रहे हैं। आप सांस रो किये या सांस रोकने की कोशिश कीजये और महसूस कीजिए उस बिरह के दर्द को जो आपके साथ हो रहा हैं। इस संसार से जाने का दुःख | अपनों से दूर जाने का दर्द और फिर कभी ना मिलने का दर्द , फिर कभी बात ना करने का दर्द। जो बहुत सारा रुपया पैसा आपने इकट्टा किया उस को इसी दुनिया में छोड़ने का दर्द। जो बड़े बड़े और आलीशान घर आपने बनाये उनको छोड़ने का डर और आपके कुछ काम अधूरे रह गए उस को पूरा ना कर पाने की पीड़ा का दर्द।कुछ ऐसे लोग भी होंगे जिनसे आप जिंदगी भर लड़ते रहे होंगे ,जिन को देख कर आपकी भौंह तन जाती होंगी। जो आपको असभ्य लगते होंगे और आप सोचते होंगे कि इनकी शक्ल कब दिखनी बंद होगी। सोचो सोचो अब आपको कैसा महसूस हो रहा हैं। बोह इस दुनिया में जीवित हैं और आप जा रहे हैं। अपने इस दर्द को बढ़ने दीजिये और इसे इसकी पराकाष्ठा तक बढ़ने दीजिये और तब आप खुद को ईश्वर के समीप महसूस करेंगे और जीवन के नए मायने , जीवन के लिए नए शब्द का अविष्कार कर सकेंगे। आपका यह दर्द ,भय और निराशा अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच कर धीरे धीरे नीचे की और जाने लगेगा और आपको एक अजीब सुख का अनुभव होगा। आपको लगेगा कि जिन रिश्ते को आप इतना महत्व देते रहे बोह सब बेमानी थे। और साथ में जिन लोगो से आप लड़ते रहे ,गालियां बकते रहे , उनको कोसते रहे बोह सब भी बेमानी था।
बास्तब में दर्द और दुःख से कोई बच नहीं पाया हैं। जीवन और दर्द एक दूसरे के पूरक हैं। धार्मिक मान्यताओं के हिसाब से कहा जाता हैं कि भीष्म पितामह ने सूर्य उत्तरायण यानी कि मकर संक्राति के दिन 58 दिनों तक बाणों की शैया पर रहने के बाद अपने वरदान स्वरूप इच्छा मृत्यु प्राप्त की। भीष्म को अर्जुन तीरों से छेद देते हैं। वे कराहते हुए नीचे गिर पड़ते हैं। जब भीष्म की गर्दन लटक जाती हैं |अर्जुन ने आंखों में आंसू लिए उनको अभिवादन कर भीष्म को बड़ी तेजी से ऐसे 3 बाण मारे, जो उनके ललाट को छेदते हुए पृथ्वी में जा लगे। बस, इस तरह सिर को सिरहाना मिल जाता हैं। इन बाणों का आधार मिल जाने से सिर के लटकते रहने की पीड़ा जाती रही।
भीष्म ने शर शैया पर लेटे हुए पूछा श्रीकृष्ण से कि हे मधुसूदन मेरे ये कौन से कर्मों का फल हैं जो मुझे बाणों की शैया मिली? तब श्रीकृष्ण ने कहा, पितामह आप अपने पिछले जन्म में जब एक राजकुमार थे तब आप एक दिन शिकार पर निक ले थे। उस वक्त एक करकैंटा एक वृक्ष से नीचे गिर कर आपके घोड़े के अग्रभाग पर बैठा था।भीष्म ने आपने अपने बाण से उठाकर उसे पीठ के पीछे फेंक दिया, उस समय वह बे रिया के पेड़ पर जाकर गिरा और बे रिया के कांटे उसकी पीठ में धंस गए। करकैंटा जितना निकलने की कोशिश करता उतना ही कांटे उसकी पीठ में चुभ जाते और इस प्रकार करकैंटा अठारह दिन जीवित रहा और यही ईश्वर से प्रार्थना करता रहा, 'हे युवराज! जिस तरह से मैं तड़प-तड़प कर मृत्यु को प्राप्त हो रहा हूं, ठीक इसी प्रकार तुम भी होना।'
जैन धर्म में ऐसी मान्यता हैं कि जब कोई व्यक्ति या जैन मुनि अपनी जिंदगी पूरी तरह जी लेता हैं और शरीर उसका साथ देना छोड़ देता हैं तो उस वक्त वो संथारा ले सकता हैं|.संथारा को संलेख ना भी कहा जाता हैं. संथारा एक धार्मिक संकल्प हैं. इसके बाद वह व्यक्ति अन्न त्याग करता हैं और मृत्यु का सामना करता हैं.इस उपवास में व्यक्ति धीरे-धीरे खाना पीना छोड़ देता हैं और जब तक उपवास रखता हैं जब तक मौत न आ जाए. जैन धर्म में प्राचीन काल से अब तक ये प्रथा चली आ रही ह|
कर्म के प्रतिफल , दुःख और कष्ट से कोई नहीं बच पाया हैं। भगवान श्रीकृष्ण को श्राप देने बाली गांधारी की मृत्यु जंगल में आग से हुई। भीम द्वारा अपमानित महसूस किया जाने पर गांधारी और धृतराष्ट्र ने बानप्रस्थ जाने का निर्णय लिया। उम्र अधिक हो जाने के कारण , जंगल की आग से अपने आपको बचा नहीं पाए और मृत्यु को प्राप्त हो गए।
शुरूआती जिंदगी हमारी भी ठीक ही थी। गाव से शहर आ गए। ईश्वर की किरपा से दो बेटे हो गए। पढ़ लिख कर एक दिल्ली में सेटल हो गया और एक अमेरिका में।अमेरिका बाले बेटे से खटास बढ़ती गयी। बोलचाल धीरे धीरे कम होती गयी और फिर समाप्ति पर आ गयी। अब तो यह भी याद नहीं हुई की आखरी बार कब उससे बात हुई थी।
दिल्ली में बीस बी फ्लोर पर दूसरे बेटे का दो कमरों का मकान हैं। सेवा निवृत्ति के बाद जो पैसा मिला और बरेली में जो छोटा सा घर था ,उस को बेच कर जो पैसा आया बोह बेटे को दे दिया और हम पति पत्नी रहने के लिए बेटे के पास आ गए । रात को ड्राइंग रूम में अपना बिस्तर लगा लेते थे। कुछ समय तो ठीक रहा , फिर चीजें बद से बदतर होने लगी। पत्नी जी का स्वर्गवास हो गया। अब उनकी बहुत याद आती हैं। पहले खाने की चीजें उनसे मांग लेते थे। दिल की बात उनसे कर लेते थे। अब बस चुपचाप बैठे रहते हैं। जो मिल जाता हैं , खा लेते हैं। उम्र भी अब अस्सी साल की हो गयी हैं। दिल की बीमारी , मधु मेह , घुटनों में दर्द और पता नहीं कितनी बीमारी हो गयी हैं। चलना मुश्किल हो जाता हैं और कमर में बेडसोल हो गए हैं। जिनसे खून रिसता रहता हैं , कभी कभी तो ऐसा लगता हैं कि महाभारत के अश्वत्थांमा अपने माथे पर खून से रसते हुए जख़्म लिए दर्द की पराकाष्ठा को झेलते हुए और अमरता को कोसते हुए में ही बोह अश्वत्थांमा हूं।
एक दिन बेटे की बहू ने बेटे से कहा," पिता जी के ड्राइंग रूम में रहने से बहुत असुविधा होती हैं। पूरे दिन लेटे रहते हैं। ऊपर से बेड सोल के कारण एक हल्की सी बदबू का अहसास होता हैं। ड्राइंग रूम में जब कोई आता हैं तब बड़ा बुरा लगता हैं। किंयो ना हम छत पर एक टिन डाल कर और एक वाश रूम बना कर ऊपर पापा जी को शिफ्ट कर दें। और अब हम ड्राइंग रूम से छत पर बने टिन शेड में आ गए हैं । जिंदगी में पहली बार अहसास हुआ कि औलाद से ज्यादा जरूरी अपना घर होना हैं।
बेटे के घर के पास डी डी ऐ द्वारा अधिग्रत की हुई जमीन पड़ी हैं जो अब जंगल में तबदील हो गयी हैं। अब बहा सूखी सूखी झारिया और सूखे पेड़ हैं । एक पेड़ जो पूरी तरह सूखा हैं उस पर एक बड़ा सफ़ेद रंग का का फूल लगा हैं। में बहुत आश्चर्य में हूं कि जब सब कुछ सूखा हुआ हैं ये फूल हरा भरा किंयो हैं
अपनी जिंदगी अनासक्ति से चल रही थी |जिंदगी से कोई लगाव ना था और हम धीरे धीरे मौत का इन्तजार कर रहे थे। लेकिन इस सफ़ेद फूल ने हलचल मचा दी हैं | जून का महीना हैं और दिल्ली में बे हताशा गर्मी और आंधी बहुत तेज चल ती हे। एक अजीब सा बिचार मन में आता रहता हे कि या तो यह फूल पेड़ से गिर जायेगा या फिर यह सूख जायेगा। सुबह उठ घबराहट होती हैं और यह देखने के लिये कि फूल अपनी डाल पर हे या नही |में तेजी से बहार भागता हूं। रात में सोते हुए भी उसी फूल के बारे में सोच ता रहता ह। में समझ नही पा रहा हूं कि फूल के प्रीति मेरी आसक्ति किन्यो हो रही ह। अनासक्ति के बीच यह आसक्ति कहाँ से आ गयी। मुझे लगता हे कि इस संसार में बिना लगाव के जीना सम्भव नही हे। लेकिन हम सांसारिक लगाव को कम से कम कर सकते ह। आसक्ति के कारण हम विषयों के अधीन हो जाते हैं।ऋषि-मुनियों या संत-संन्यासियों की सांसारिक पदार्थों में आसक्ति नहीं होती।
श्री कृष्ण ने अर्जुन को श्रीमदभगवद गीता में समझाते हुए कहा हैं की आसक्ति के कारण हम विषयों के अधीन हो जाते हैं। यहाँ आसक्ति के कई कारण हो सकते हैं और विषय का अर्थ कामना या इच्छा होती हैं। कर्मयोग फल की आसक्ति के त्याग को कहता हैं। जिससे मनुष्य भयमुक्त हो जाता हैं और मनुष्य सुखी हो जाता हैं। आसक्ति का अर्थ हैं किसी वस्तु के प्रति विशेष रुचि, मोह या आकर्षण होना। जब मनुष्य में ये दोष होते हैं तब उसमे आसक्ति की उत्पन्न हो जाती हैं। जैसे की मोह, लगाव या स्नेह, चाह या इच्छा प्रेम (लेकिन निस्स्वार्थ प्रेम के त्याग की आवश्यकता नहीं हैं) फल की इच्छा या कर्मो का परिणाम की चिंता ऋषि-मुनियों या संत-संन्यासियों की सांसारिक पदार्थों में आसक्ति नहीं होती। ज्ञानी जन संसार में बिना किसी फल की चिंता किये बिना कर्म करते हैं। क्युकी उन्हें पता हैं कर्म का फल उनके हिसाब या उनकी इच्छानुसार मिल भी सकता और नहीं भी।
जब कर्म के फल की इच्छा, मोह या आसक्ति रखते हैं तो अंत में भारी दुःख सहना पड़ता हैं। उदाहरण के लिए राम और भरत सम्राट के बेटे हैं, किन्तु महल-अटारी से उन्हें कोई आसक्ति नहीं। दोनों ही मह लो के सुख त्याग कर भी सुखी रहते हैं। क्युकी सुख की परिभाषा मनुष्य का अपना मन तय करता हैं। जिस पर क़ाबू करने पर मनुष्य हमेशा के लिए सुखी हो जाता हैं। जो मूर्ख मनुष्य तीव्र आसक्ति रखता हैं, वह जीते जी पृथ्वी पर नरक जैसा जीवन जीता हैं।
वास्तव में आसक्ति का त्याग ही अनासक्ति कहलाता हैं। और दिन प्रतिदिन अपने कर्म में सुधार करते हुए अर्थात कर्तव्य का पालन करते हुए धर्म का पालन करे। अनासक्त का अर्थ हैं, कोई पूर्वाग्रह नहीं होना । परिस्थिति के अनुसार जो उचित हैं, वह कर दें और आगे बढ़ जाएं ।मनुष्य की प्रसन्नता या सुख का मूल कारण अनासक्ति ही हैं। विरक्ति का अर्थ हैं संसार में रहकर भी संसार की जगह सीधा भगवान से सम्बन्ध से जोड़ना। अर्थात अनासक्ति के साथ साथ ह्रदय में भगवान और सभी जी वो के प्रति निस्स्वार्थ प्रेम का होना। जब मनुष्य अनासक्ति के कारण सुखी हो जाता ,तभी वो भगवान की भक्ति कर सकता हैं। दुखी मनुष्य कभी भक्ति नहीं कर सकता। अनासक्ति का पालन करते करते मनुष्य के अंदर विरक्ति पैदा होती हैं। अर्थात संसार में अनासक्ति और विधाता से सीधा सम्बन्ध विरक्ति या वैराग्य कहलाती हैं। इसलिए साधु जन संसार के भौतिक सुख को त्याग कर वैराग्य को धारण करके हमेशा प्रसन्न रहते हैं, सुखी रहते हैं।
अब में कोशिश कर रहा हूं कि फूल के प्रीति मेरा लगाव कम हो .
- अशोक कुमार भटनागर ,
रिटायर वरिष्ठ लेखा अधिकारी ,
रक्षा लेखा विभाग , भारत सरकार
उत्कृष्ट रचना
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