पढ़ै सो पंडित होय

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व्यक्तित्व का गुरुत्वाकर्षण उसकी पोजीशन से नहीं बल्कि प्रैक्टिस से है, यह प्रैक्टिस ऊर्जा और गतिशीलता का एक अनंत केंद्र है ,जैसे नैमिषारण्य l

पढ़ै सो पंडित होय                     .


सृजन  की  कहानी  " न होने" से " होने" , की है, निराकार से साकार  होने की है lजीवन को सजाने और संवारने वाले कई कारक हैं परंतु इनमें संस्कार ( सजातीय) मार्गदर्शक तत्व है,  अगर संस्कार आधार स्तंभ है ,तो परंपराओं को मौसी भी कहा जा सकता है,  और परंपराओं में  यही पारस्परिक और पारंपरिक संबंध हैl

संस्कृति की संवाहक और पूरक केवल और केवल परंपराएं  ही हैl हालांकि   आवश्यक होने पर  हम, " आ  नो भद्रा..... "  को  भी  गुण दोष के आधार पर अपना  सकेंगे

गुरुजी का आश्रम

संस्कृति की पूरक परंपराएं हैं ,  गुरु शिष्य परंपरा एक स्थापित परंपरा है और परम पूजनीय है फिर भी गवाह है कि इसमें छल से ,बल से भी गुरु को डराने धमकाने की प्रक्रिया अपनाई गई  हैं, परंपराएं किस तरह की संवाहक होती हैं वह इस कहानी से संक्षेप में समझ लिया जाएl

गांव में एक  किन्हीं   गुरू जी का आश्रम था वह तलवारबाजी में बहुत बहुत पारंगत थे   और बहुत बहुत दूर  दूर तक इलाके में उनका नाम और प्रतिष्ठा   थी  l और   एक   युवक  पड़ोसी राज्य का    उनका  एक     शिष्य  हो गया l उसने संकल्प लिया,  कि गुरु जी गुरु जी हैं और  इनकी सेवा करें , तो इस तरह जब वो   तलवारबाजी  के गुर सिखाने लगे  वह रुचि पूर्वक विद्या ग्रहण करता रहाl

जब  वह सारी विद्या सीख गया तो उसने  बलपूर्वक गुरु जी को ही चुनौती दे डाली ,  आश्रम से उनकी नेम प्लेट उखाड़ कर कहा , कि  आप कहीं   और  अपना डेरा ले जाए और अपनी नेमप्लेट उसने लगा दी गुरु जी ने भारी विरोध किया,  आखिरकार गुरुजी ने उसकी चुनौती स्वीकार की,   अखाड़े में गुरुजी और शिष्य दोनों आए लेकिन   अनुभव  की पृष्ठभूमि में गुरु जी ने जो किया उसको जान लेना जरूरी है,  गुरुजी ने लोहार से 7 फुट लंबी तलवार की म्यान बनवाई लेकिन उसमें  तलवार नुमा चाकू बहुत छोटा तैयार करवा दिया और गुरु जी उसको  दिखा और लहराते  हुए उस  शिष्य  के  घर के दरवाजे से होकर निकल गए , अता पता करके  शिष्य  ने उसी लोहार से या अन्य लोहार से 7 फुट लंबी तलवार तैयार करवाई l इस पर आसपास के संभ्रांत लोग हैरान हो गए ,  की शिष्य को आखिर हो क्या गया है,  गुरुजी ने हिम्मत नहीं हारी और उसकी चुनौती स्वीकार कीl

ऐन वक्त पर तैयार हुए और उन्होंने 1 2 3 जैसे ही कहा गुरु जी ने तलवार   से   पलक  झपकते उसका काम तमाम कर दियाl

शिष्य तलवार को निकालने में उलझा रहाl
यह जो युक्ति है यह केवल गुरु के पास थीl

बिल्ली को शेर की मौसी कहा गया है एक तो इसलिए को उसने के शिकार के वक्त बिल्ली ने   शेरनी को पेड़ पर चढ़ना नहीं सिखाया,  अरे बिल्ली इस बात के लिए भी जानी जाती है कि वह दूध पिए कि नहीं    पिए,   पर  दूध  को   फैला  जरूर देगी l
पढ़ै सो पंडित होय

चीन और यूनान की सभ्यताओं के बाद,  भारत की सभ्यता विश्व प्रसिद्ध है l  भारत को यह गौरव हासिल है की  तक्षशिला और नालंदा के अलावा,  शास्त्रों की पढ़ाई के लिए बनारस व काशी एवं मथुरा इसके प्रमुख केंद्र रहे हैं l भारतवर्ष इसलिए कहा जाता है भारत का भू भाग कई अन्य देशों की   सीमाओं तक विस्तारित था और किसी भूभाग को और नाम से पुकारा गया और हिमालय की तलहटी में बसे इस भूभाग को भारतवर्ष के नाम से पुकारा गया lदुष्यंत  के पुत्र  के  नाम  पर  यह  देश  का   नाम  है 

कालड़ी  ( केरल) में  जन्मे   शंकराचार्य  जी  ने  सनातन  थर्मल   के  पुनर्निर्माण के साथ   राष्ट्रीय एकता  को  सुदृढ़  बनाया l  इसी   विचार  को   उन्नीसवीं  शती के उत्तरार्ध  में  कयी  संत  परंपराओं ने आगे  बढाया,   जिसके विषय में हमारे पूर्व राष्ट्रपति ने कहा  कि  यह  वेद रूपी वृक्ष  पर  नयी  कोंपल  हैं  और  श्री  विद्यानिवास  मिश्र  ने  कहा  कि  सनातन  संस्कृति   खंड  खंड  होकर  भी  अखंड  है lसनातन   का  अर्थ    सरल  शब्दों में '  "अधुनातन  ",  अर्थात   most   upto date  है  l यह  संस्कृति, यथा आवशयकता  स्व  प्रेरित  self  auto  motive   व self  propelled  है l केवल  जड़   विचारों  की  पोषक  नहीं   है  l

आखिर ऐसे मानक क्या है कि किसी संस्कृति को हम जीवंत करें हर सभ्य समाज में ऐसे कुछ मानक जरूर होते हैं जिसमें सभी और असभ्य के बीच की  विभाजन रेखा बहुत सुस्पष्ट होती है

1  पूर्वजों के प्रति श्रद्धा
2  महिलाओं का सम्मान,  इसमें उनके जन्म मरण रीति रिवाज शिक्षा पोषण रखाव सारी बात है शामिल
3  बच्चों का पालन पोषण, प्रीति से शिक्षा दीक्षा का प्रबंध,  यह तो आपको ज्ञात ही होगा हेलो अपने संपत्ति अपने पूर्वजों की आन बान और शान को अक्षुण्ण  रखता है वह सपूत कहलाने लायक होता है
4  समाज के प्रति उत्तर दायित्व एक व्यक्ति का समाज और देश के प्रति एक महती उत्तरदायित्व होता है जिसमें परमार्थ , कल्याण के काम शामिल है
5   पड़ोसी अपरिचित विदेशियों के साथ हमारा जो व्यवहार है वह यह प्रदर्शित करता है , जिसमें खानपान उठक बैठक बोलचाल आज शामिल है, या निर्धारित करते  हैं कि हम कितने सभ्य हैं   या बुद्धि  कितनी  प्रखर  है .

काशी में  पढा  , कभी, व्यक्ति   पारंगत  बनकर निकलता था उसको 4 विद्याओं में   वांग मय की जानकारी प्राप्त होती थी और वह विद्यार्थी  व्याकरण तर्कशास्त्र शास्त्र और न्याय शास्त्र में पारंगत होता था यद्यपि दो विद्या और भी थी लेकिन विधिवत अध्ययन कुछ विद्यार्थियों तक ही सीमित रहता था जैसे  तंत्र शास्त्र और ज्योतिष l  ज्योतिष में ही अंक- ज्यामिति आदि का समावेश था। 

सती के अंग जहां-जहां गिरे वह सभी स्थान भी शक्तिपीठ हैं  ( स्कन्द  पुराण),  ध्रुव, हरिश्चन्द्र  की कथाएँ भी  क्रमशः  भागवत पुराण  आदि  में   हैं,  जो  पूर्वजों  की  यादगार   हैं , जिसमें  हिंगलाज  बलूचिस्तान  व  गरुड़  का  मंदिर  इन्डोनेशिया में  हैं lलेकिन यह सभी सात्विक है, काम, तंत्र से प्रयोग के लिए इनको प्रयोग नहीं किया जाता
तामसी प्रयोग के लिए कामाख्या मायापुर शहडोल दतिया और दक्षिण भारत में 1, 2 स्थान है

व्याकरण में भाषा की शुद्धता उसके समुचित प्रयोग पर विशेष बल दिया जाता,  तारीख को हम तरह जान सकते हैं की अंग्रेजी में स्कोर और दूसरे शब्द अरगुमेंट से भी जाना जाता है  जबकि यह दोनों अलग-अलग हैं

व्याकरण का एक सर्व ज्ञात नियम यह है कि यदि कर्ता एकवचन है तो क्रिया भी एक वचन ही होगी वाक्य शुद्ध होगा लेकिन व्याकरण का नियम नहीं, तर्कशास्त्र के नियम के अनुसार अपने से बुजुर्ग लोगों को संबोधन किया जाता है तब  संबोधन   सम्मान जनक होता है तो क्रिया बहुवचन हो जाती है भले ही कर्ता एक वचन ही हो , जैसे पिता जी आ रहे हैं। 

ऐसे ही जब ब्रूटस ने तत्कालीन लोकप्रिय शासक सीजर को मारा , तो भीड़ को संबोधित करते हुए एक और तर्क अपने किये को ढकने के लिए खोज लिया उसका कहना था कि मित्र मुझे बहुत प्यारा था मित्र से भी ज्यादा मुझे देश प्यारा था, यह विशुद्ध तर्क है अथवा कह सकते हैं कि कुतर्क है , क्यों  कि परम प्रिय मित्र को भी मार दिया, लेकिन अपने कृत्य को छुपाने के लिए एक कुतर्क खोज लिया

भक्ति ज्ञान की बात करना और बात है, सूचना को ही ज्ञान बता देना और बात है, और ज्ञान को यथार्थ में समझ लेना एक पंडित अथवा विद्वान का ही काम हो सकता है

प्रेम कहने को बहुत ही आसान शब्द मालूम पड़ता है प्रेम को अध्यात्म में अलग तरह से निरूपित किया गया है शास्त्र, समाज अथवा साहित्य में इसकी सीमित रूप  से  परिभाषित है वह व्याख्या अध्यात्म में काम नहीं देती

इश्क़ मजाज़ी physical love  ( दो व्यक्तियों  के  बीच  आकर्षण, जो  शर्तों  से न बंधा हो  )से इश्क  हक़ीकी  spiritual  love  ,( जो  आत्मा का  परमात्मा  से  हो ) ,  बुल्ले शाह ने तो मक्का से भी ज्यादा महत्व  रांझे  के जन्म स्थल तख्त हजारा को दिया

कहने को तो निमाई ने बहुत लोगों से सुना होगा लेकिन उनको प्रेम की परिभाषा तर्क और कुतर्क के शब्द जंजाल में उलझी हुई मिली - 

किसे  समझ  आया  भला, 
प्रेम     नाम का   रोग  l
उलझ  उलझ  कर  रह  गये, 
सुलझे   सुलझे   लोग  ll
                              
अतः  वे और इंतजार नहीं कर सकते थे और ढोलक लेकर श्री कृष्ण के गुणगान में निकल पड़े l निताई , हरि   बोल
सनातन धर्म पर बहुत सुंदर काम   देश में  गाजियाबाद स्थित अभिनंदन शर्मा ने  शास्त्र ज्ञान.इन  पोर्टल पर किया है l https://anshulusa30.wixsite.com/vedasinlaymanlanguag ( अंशुल पांडेय जी के ट्वीट्स) anshulpandeyspiritual. 

ऐसा ही कुछ कुछ   क्लासिकल दर्शन  व न्याय   में हाल बनने की प्रक्रिया में पेशवा  राजा के यहां  न्यायाधीश बने राम शास्त्री प्रभुणे का था। सर्वोत्तम उदाहरण भारतीय संस्कृति में एक पुरुष का एक संपूर्ण राजनयिक का एक संपूर्ण सलाहकार का एक संपूर्ण सभी गृहस्थ का वह हमारे सामने इस युग का सर्वोच्च पुरुष चाणक्य है जिसने केवल असफलता, अपमान का घूंट पिया बल्कि सम्राट बनाने से लेकर मृत्यु तक त्याग ही त्याग सीखा , धीरज है उस बिरले पुरुष पर जिसने राजा बनाने के बाद भी कोई  और अथवा  किसी  भी  सुख की कामना नहीं की lसनातन धर्म में  , सिरे से नकारे  जाने पर भी,चारवाक  से  भी भेदभाव  नहीं  किया गया है, दो  तरह  के  व्यक्तित्व  भी   रहे, एक  वाल्मीकि जो  स्थाई रूप से  बदल गये  दूसरे  सोमनाथ चटर्जी  जो धुर साम्यवादी  थे और रहे  , लेकिन  क्षणिक रूप से  कांग्रेस के साथ हो लिए l

प्रकृति  में  सब  मिला जुला  भी है, साथ  ही  पृथक भी है   यह  वह    आटोमोटिव प्रोसेस है जो  आगे  भी  चले और  पीछे भी चल सकने में सक्षम है  , के वल  यह   है  समय  से  परे  और  समय  इसके  नियंत्रण में है

प्रकृति में  द्वन्द्व  है, अच्छे बुरे का, कर्ष विकर्ष का,  पर  यह  स्वयंसेवक   समन्वय  करती  है  यह  ठीक  फर्डिनेंड द  सौसुरे  की  बाइनरी  अपोजीसन  पर  है  कि  विरोध कहीं न कहीं  एक  दूसरे  की  अहमियत  बता  रहा  है  .   .... गुण  दोषमय  ,   परिहरि  वारि  विकार.. 
அழுக்காறு அவாவெகுளி இனாச்சொல் நான்கும்
இழுக்கா இயன்றது அறன்

Meaning: That conduct is virtue which are free from these four evils, which are malice, greed, anger and bitter speech.

( Tirukkural) 
मनुष्य इस  को  समझते हुए, नदी की तरह, नुकीले पत्थरों पर, उंचे नीचे  बहाव को झेलते हुए  , गंदगी और  कचरे  (  झूठ  एवं आडंबर)अपने ऊपर  फेंके जाने परंतु भी,  उसे  तलछट  करे l उसे  साथ  लेकर  न  बहे ll 

" हिसाब , न  बही, 
जो  ये  कहें ,सब  सही "
..... आंख मूंदकर   कभी  किसी की  बात  अंगीकार न करें, उन की भी  पड़ताल  करें l
वैदिक संस्कृति में यह सर्वविदित है   कि  "अहिंसा परमो धर्म, हिंसा धर्म सनातन :  " लोक संस्कृति में  स्थिति  असामान्य होने पर  लोक अभिरक्षा और लोक कल्याण के लिए शस्त्र उठाने को भी शास्त्रसम्मत मानती है  जब शत्रु अत्यंत आक्रामक और आक्रांता हो,  जैसा परशुराम जी ने किया   , सहने  की  भी  एक  सीमा  होती  है,  जब  यह   सीमा  का  अंत  हो  जाता है तब  दोगुने  वेग  से  हमला  कर्तव्य  बनता है l

व्यक्तित्व का गुरुत्वाकर्षण उसकी पोजीशन से नहीं बल्कि प्रैक्टिस से है, यह प्रैक्टिस   ऊर्जा और गतिशीलता का एक अनंत केंद्र है ,जैसे नैमिषारण्य l

संदर्भ:
1.Roots  by   K. Srinivasan, TTDevasthanam. 2019.
2.Sanatan Dharm  by  Benaras  Hindu College  Trust  , original  and  hindi  translation  by Pt. Ramswaroop Sharma  , 1914 , Moradabad. 
3.ShriramSharma  Achary, yug nirman yojana.



संपर्क  - क्षेत्रपाल शर्मा
म.सं 19/17  शांतिपुरम, सासनी गेट ,आगरा रोड अलीगढ 202001
मो  9411858774    ( kpsharma05@gmail.com )

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