सुबह का टुकड़ा आज फिर, टूटी हुई सुबह का टुकड़ा, खड़ा हो गया आकर सामने, करने लगा सवाल, क्यों तोड़ा मुझे वक्त की शाख से! लम्हा बन रह गया हूं,
सुबह का टुकड़ा
खड़ा हो गया आकर सामने,
करने लगा सवाल,
क्यों तोड़ा मुझे वक्त की शाख से! लम्हा बन रह गया हूं,
बहरूपिया बना दिया मुझे!
गहरी सांस लेकर फिर बोला,
ओह! अब ढलना होगा दोपहर में, सर्दी भी बहुत है!
बेहाल सर्दी और ठिठुरता तन!
बेहाल सर्दी और ठिठुरता तन लेकर,
कैसे जाऊंगा शाम की बज़्म में!
कैसे जाऊंगा शाम की बज़्म में!
कर रही होगी इंतज़ार जो,
फैलाकर शामियाना अपना,
भरने को बेकरार अपनी बाहों में;
मैं भी उठकर बैठ गई थी
हक- बक,आंख मलते!
क्या सच ही टूट गया है सुबह का टुकड़ा!
जो, कल लड़ रहा था मुझसे,
रात बनकर!
सवालों पर सवाल थे,
मेरे और वक्त के अस्तित्व पर भी; और अब खुद हैरान है!
दिन की तरह ठिठुरन और
शाम के आमंत्रण पर परेशान हो रहा है;
कल कह रहा था मुझसे!
जीवन एक संघर्ष है,
इंतज़ार का कोई आयाम नहीं होता,
बता रहा था भोलेपन से मुझे, अनछुए शाश्वत;
आज खुद ही हार आया है दिन-रात के चक्र की घिर्री पर,
रुआंसा है बहुत,
शायद पछतावा है उसे,
कल रात की बातों पर कि जो- दिखा रहा था मुझे-
हर रात की होती है सुबह,
मैंने तो देखी थी, बल्कि
मैंने तो देखी है,
कि- हर रात की होती है सुबह,
और हर रात लाती है जवाबों के लिबास सुबह बनकर,
मैंने देखी नहीं थी ऐसी रात,
जो बन आए जवाब,
भोर में ढल कर;
हजारों रातें,
जिनके पास सवालों के साये हैं, जो डराते हैं ज़्यादा,
जब पहनते हैं लिबास रात का, और भयावह हो जाते हैं,
फिर सुबह का इंतज़ार भी नहीं होता ।
लम्हा है जानती हूँ,
ढल जाएगा दिन में, फिर शाम में, और फिर वही रूप लेकर,
रूबरू होगा मुझसे,
रात में ।
अंततः रात दिन और सुबह,
आयाम ही तो हैं वक्त के,
जिसकी हर टिक-टिक पर,
एक दिन तो कट जाता है,
पर अस्तित्व के प्रश्न मौन हो, झूलते रहते हैं,
वक्त के इन्हीं आयामों में,
और रूबरू होते हैं हर पल,
उन्हीं रूपों, उन्हीं पर्यायों,
और उन्हीं सवालों में मुझसे, बार-बार, हर बार ।।
भरने को बेकरार अपनी बाहों में;
मैं भी उठकर बैठ गई थी
हक- बक,आंख मलते!
क्या सच ही टूट गया है सुबह का टुकड़ा!
जो, कल लड़ रहा था मुझसे,
रात बनकर!
सवालों पर सवाल थे,
मेरे और वक्त के अस्तित्व पर भी; और अब खुद हैरान है!
दिन की तरह ठिठुरन और
शाम के आमंत्रण पर परेशान हो रहा है;
कल कह रहा था मुझसे!
जीवन एक संघर्ष है,
इंतज़ार का कोई आयाम नहीं होता,
बता रहा था भोलेपन से मुझे, अनछुए शाश्वत;
आज खुद ही हार आया है दिन-रात के चक्र की घिर्री पर,
रुआंसा है बहुत,
शायद पछतावा है उसे,
कल रात की बातों पर कि जो- दिखा रहा था मुझे-
हर रात की होती है सुबह,
मैंने तो देखी थी, बल्कि
मैंने तो देखी है,
कि- हर रात की होती है सुबह,
और हर रात लाती है जवाबों के लिबास सुबह बनकर,
मैंने देखी नहीं थी ऐसी रात,
जो बन आए जवाब,
भोर में ढल कर;
हजारों रातें,
जिनके पास सवालों के साये हैं, जो डराते हैं ज़्यादा,
जब पहनते हैं लिबास रात का, और भयावह हो जाते हैं,
फिर सुबह का इंतज़ार भी नहीं होता ।
लम्हा है जानती हूँ,
ढल जाएगा दिन में, फिर शाम में, और फिर वही रूप लेकर,
रूबरू होगा मुझसे,
रात में ।
अंततः रात दिन और सुबह,
आयाम ही तो हैं वक्त के,
जिसकी हर टिक-टिक पर,
एक दिन तो कट जाता है,
पर अस्तित्व के प्रश्न मौन हो, झूलते रहते हैं,
वक्त के इन्हीं आयामों में,
और रूबरू होते हैं हर पल,
उन्हीं रूपों, उन्हीं पर्यायों,
और उन्हीं सवालों में मुझसे, बार-बार, हर बार ।।
- पुष्पलता शर्मा 'पुष्पी'
रचनाकाल- वर्ष 2011
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