कैदी हिंदी कहानी डाक्टरनी के शब्द थप्पड़ की तरह थे । माँ का चेहरा बुझ गया । चेहरे पर आती जाती हर सिकन को मेरी आँखे किताब की तरह पढ़ रही थी ।
कैदी
डाक्टरनी के शब्द थप्पड़ की तरह थे । माँ का चेहरा बुझ गया । चेहरे पर आती जाती हर सिकन को मेरी आँखे किताब की तरह पढ़ रही थी । विचारो का बवंडर उनके चेहरे से गुजरने लगा । चेहरा स्याह हो चला था । निराशा , हताशा और खीज का मिश्रण चेहरे पर उभर आया था । मैंने द्रष्टी हटा ली । एक कड़वाहट सी अन्तरमन मे घुलने लगी । लगा जैसे झकझोर कर उन्हे जगा दूँ । चिल्ला कर कहूँ , “ माँ... आँखे खोलो । ” “जागो ! ..... जाग कर देखो । ” किन्तु उन्हे जगाना संभव नहीं था । मेरे लिए तो कभी नहीं था । माँ निर्जीव सी गलियारे की बेंच पर बैठ गयी । मैंने मुँह दूसरी ओर फेर लिया था ।
“आपको बुलाया है । ” एक वार्ड बॉय मेरे पास खड़ा था । माँ को उसी हालत मे छोड़ मैं ऑपरेशन थियेटर की ओर बढ़ गया । सफेद दरवाजो पर जड़े बड़े बड़े स्टील के हत्थों को धकेलते हुये मैने अन्दर प्रवेश किया तो देखा थियेटर के बाहर वाले कमरे मे एक पलंग पर नीरू को लिटाया गया था । पलंग के पास खड़ी नर्स दवाइयाँ सहेज कर रख रही थी । नीरू ने मुझे देखा । पीले पड़े चेहरे पर डबडबाई आँखें मुझे देखते ही बह निकली । उसने कुछ बोलना चाहा , लेकिन आँसुओ ने शब्दो को आने नहीं दिया। मैंने उसके हाँथ पकड़ लिए । मेरे हाँथो की थरथराहट महसूस करते ही बांध की रही सही दीवार भी टूट गयी । अश्रुओ का वेग बढ़ता चला गया । पास खड़ी नर्स सजग हो गयी । “रोइए मत , प्रोब्लेम होगा । ” नर्स कह रही थी , किन्तु भावनाओ की नदी किसी भी तटबंध को नहीं मान रही थी। मानती भी कैसे ? मन मे दबा जो बाहर आ गया था । वर्षो से परत दर परत जो गुथा था ....... खुल गया था ।
हेड नर्स आ चुकी थी । “ बेटी , सँभालो जरा । ” “ बेबी को फीडिंग मे प्रोब्लेम होगा । ” , हेड नर्स ने नीरू के माथे पर हाथ रखा । धीरे धीरे बाढ़ का वेग क्षीण होने लगा । शब्दों ने घाव पर फाहे का काम किया था कदाचित । देह का तनाव शिथिल पड़ गया । उसने मुँह दूसरी ओर कर लिया । भीगे कपोलो पर कंपन फिर भी शेष था । हेड नर्स ने मुझे दवाइयों और समान की सूची थमा दी ।“ कल आफ्टरनून के बाद वी विल शिफ्ट हर इन द वार्ड । ” , हेड नर्स ने जाते जाते कहा । सिजेरियन से थका तन पलंग पर निढाल हो चुका था । वह थक गयी थी । पलके मुँदी थी । उसके पास ही नवजात को रक्खा गया था । वही नवजात जिसने संसार मे आते ही अभी अभी एक वृद्धा को निष्प्राण सा कर दिया था । वो वृद्धा जो वर्षों से पोते की कामना मे न जाने किन किन मंदिरो पर माथा टेक रही थी। न जाने कौन कौन से पंडितो से पूजा करवा चुकी थी । वह वृद्धा जो दूसरी पोती स्वीकार नहीं कर पा रही थी । आँखों में अतीत का चित्रपट चलने लगा था ।
“ काली पंडित ने कहा है पुत्र रत्न का योग तो है , पूजा की सामग्री मै दे आयी हूँ ” । आँगन मे पैर रखते ही माँ ने घोषणा की थी । उनकी प्रसन्नता छुप नहीं रही थी । आवाज इतनी तेज कि भिंडी काटते हुये नीरू के हाथ रुक गए थे । नीरू के चेहरे पर खिन्नता कि कुछ लकीरे उभरी थी शायद ,लेकिन फिर उसने हठात चेहरा भावशून्य कर लिया । सर को और अधिक झुका लिया । हाथ फिर चलने लगे थे । “तुम भी माँ ... कुछ और काम नहीं है तुम्हे ? मैंने झल्लाते हुए कहा था । “ हाँ ... हाँ ... मैं तो हूँ ही खराब”। माँ का चेहरा तमतमा गया । “अरे... पहली बार मे लड़का हो जाता तो दूसरे मे यूँ जान साँसत मे न होती। लड़कियो का क्या है …… हैं तो पराई ही । शादी के बाद कौन सा अधिकार है उनपर ” ? माँ का पुराण शुरू हो गया ।
पन्नू तीन की थी तभी से माँ का दबाव बढ़ गया था। पोते का मोह मुखर हो उठा था । आए दिन बात छेड़ बैठती । नीरू ने यूनिवरसिटी से घर मे पाँव रक्खा और माँ अवसर ढूंढने लगती । नीरू अनमना जाती । बात को टाल देती या फिर अनसुना कर जाती । परन्तु कब तक टालती ? माँ के उलाहनो मे अब स्नेह की जगह झुँझलाहट का पुट आने लगा था । सामना कठिन हो चला था । काम मे गुथे हाथ रुक जाते । मात्रत्व उसका निजी निर्णय है । परिवार की आकांछाओ का उसकी निजता को रौंदना उचित है ?....... कितना उचित है यह दबाव ? विचारो की लौ सुलग उठती । किन्तु माँ से कहा जा सकता था यह सब ? नहीं …….! माँ से नहीं कहा जा सकता था । समाजिक परम्पराओ का निजी निर्णयो पर कितना अधिकार है ? यह यूनिवरसिटि मे बहस का विषय था । सामाजिक धरातल पर इसका स्थान नहीं था ।
“तुम माँ से बात करो ना”। एक मोटी सी किताब से नोट्स बनाते हुये कहा था उसने । यूनिवरसिटी के लैक्चरो की तैयारी अक्सर सोने से पहले पलंग पर ही होती थी । मैंने जरा चौंक कर देखा ।“किस बारे मे”। मैने लैपटाप बन्द कर दिया था । “मुझे दूसरा नहीं चाहिये”। नीरू ने मुझे देखते हुये कहा । मै मूक था । जानती थी वह । मुझे भी और माँ बाबू जी को भी । एक पति पुत्र के समक्ष कितना कमजोर है इतने वर्षो के दाम्पत्य जीवन ने यह बात भली भाँति समझा दी थी उसे । किन्तु क्या यह मौन एक पुत्र की कमजोरी भर था ?
उस दिन से बहस बढ़ गयी थी हम दोनों मे । “ लड़का हो या लड़की , फरक नहीं पड़ता मुझे । बस पन्नू के साथ चाहिए कोई”। मेरी दलीले खौलने लगती । वह अनमना जाती यह सब सुनकर “। “ केवल एक बच्चे वाले लोग भी हैं दुनिया में । ” तर्क उसके पास भी थे । “मेरी देह पर मेरा इतना अधिकार भी नहीं है ?....... बोलो ?” वह छटपटा उठती । अधिकार था ..... , सम्पूर्ण अधिकार था । क्या मेरा मन नहीं जानता था ? जानता था । स्वीकार्य था , किन्तु उसके तर्को के समक्ष मेरी आकांछाये खड़ी थी , दीवार की तरह ऊँची और ठोस । उसका कोई भी तर्क उस दीवार को लांघ नहीं पा रहा था ।उसकी झुँझलाहट बढ़ती जा रही थी । चेहरे पर हताशा और बेबसी का भाव स्थायी रहने लगा था अब । किन्तु क्यो नहीं चाहती थी वह दूसरा ? कहाँ था उसकी इस विचारमाला का उद्गम ? क्या वह अपने अधिकारो का प्रतिपादन चाहती थी या मूल्यों को जीने का हठ था यह ? शायद नहीं ......! फिर क्या था...... ? भय ....... ? हाँ... कदाचित भय ही था । उसने देखा नहीं था क्या........ रमा को ! कितनी खुश रहा करती थी रमा...... ! नौकरी प्राइवेट फर्म मे , पचास हजार रुपए महिना । टूर , कॉन्फ्रेंस, मीटिंग्स ... । “ अरे यार, साँस लेने तक फुर्सत नहीं है । ” कहती और फिर उसी साँस मे कह जाती “ लेकिन आजाद तो हूँ ....हर तरफ से ...स्पेशिसीली पैसे से... ”, आंखे चमक जाती थी रमा की ।“ इतना तो जमा कर ही लूँगी की ओल्ड एज मे वर्ल्ड टूर पर जाऊँ....वो भी अकेले ! ” कहते हुये खिलखिला पड़ती थी वह । रो रो कर रह जाती है बिचारी अब । आठवे महीने से जो ऑफिस छोड़ा तो पाँच साल हो गये , दुबारा नहीं पकड़ पायी थी नौकरी । जन्म लेते ही नाल कस गयी बच्चे के गले मे । बस … तब से डाक्टर, अस्पताल ..... घर .... बच्चा....। बताते बताते आँखे डबडबा जाती है , कुछ बच्चे के लिए और कुछ अपने लिए भी ...शायद । ...... या फिर श्रावनी ?
“माँ एक ही बस है” । नीरू ने ही कह दिया एक दिन । माँ सन्न रह गयी । दो दिन तक अन्न का एक निवाला नहीं लिया था उन्होने । उनके अग्निबाण हफ्तो तक बरसते रहे हम पर । पिताजी को भी खूब सुनाया उन्होने । कमाने वाली बहू वही जो लाये थे । तब मेरी इच्छा पर अपनी स्वकृति का वजन उन्होने ही रक्खा था । माँ को जरा भी नही भाया था मेरा वह फैसला । “ पैसे की कोई कमी है इस घर मे ? तुम्हारे बाबूजी की वकालत कम पड़ रही है या तुम कमा नहीं पा रहे हो ?”। अंगार दहक उठे थे उनकी जबान पर । “घर आँगन संभाल ले । रिश्तेदारी निभा ले , बहुत है। लड़के बच्चे संभालेगी या नौकरी करेगी । कुल उसे ही बढाना है अब ” । हाँ .... कुल बढाने के लिए ही तो आयी थी नीरू , माँ की दृष्टी मे ! और बाबूजी ? उनकी खुली सोच का दायरा इतना भी विस्तृत नहीं था कि एक पोती मे सिमट जाता । पोते कि आस उन्हे भी थी । एक दिन आफिस से घर आते ही बुलाया था उन्होने मुझे । माँ पीछे खड़ी थी उनके । “बहू से कह दो घर परिवार की आकांछाओ का बोझ इतना भी भारी नहीं है । अगर नौकरी का बोझ पारिवारिक दायित्व पर पड़ रहा है तो नौकरी छोड़ना उचित होगा । ” मुझसे जरा सख्त भाव से कहा था उन्होने । आवाज इतनी तेज कि नीरू के कान मे जा सके । निर्णय हो गया था ।
माँ आँगन मे लगे नल से हाँथ मुँह धो कर उनके कमरे मे जा चुकी थी ,परंतु उनकी आवाज अभी भी सुनाई पड़ रही थी । “ ..... लड़कियो से कभी बंश चला है। नई रीत ना चलाओ तुम लोग ” । नीरू भिंडी उठाकर रसोई मे जा चुकी थी । रसोई का हल्का फुल्का काम ही उसके हिस्से था अब । चौथा महिना जो लग चुका था ।
“ ये बखत लरिकय होई है .... देख लियो ...हाँ .. “। पड़ोस वाली चाची के शब्द माँ के होठो पर मुस्कान खींच देते । एक अबूझ विश्वास से खुश रहा करती थी माँ आजकल। दो ननदो की एकलौती भाभी नीरू । माँ ने खूब कोशिश की थी , मुझे एक भाई देने की । माँ बताती रहती थी पड़ोस वाली चाची को । वह तो शरीर ने साथ नहीं दिया।
“ माँ डाक्टर ने कहा है सोनोग्राफी के लिए , कल सुबह जाना पड़ेगा । ”, मैंने माँ को सूचित किया था , क्योकि फिर पन्नू को उन्हे ही संभालना था । घर पर हम दोनो के नहीं रहने पर माँ ही सँभालती थी पन्नू को । चाहे न चाहे नीरू की नौकरी के आधार का एक कोना पकड़ रक्खा था उन्होने । हाँ .... किन्तु बड़ी दी के विक्की या छोटी के परब के आते की पन्नू अपने ही घर मे हाशिये पर चली जाती थी । यह बात नीरू ने ही कही थी मुझसे , ....... आँखो मे उमड़ रहे पानी को छुपाते हुये । “सुनो , अपने बाबूजी से मिलकर जाना । ”, अगले दिन तड़के ही माँ ने कहा था । आवाज मे अजब सी कठोरता । मैने नीरू का चेहरा देखा , शिला सा सख्त हो चला था ....... अनुमानित लहर की प्रतिक्षा मे ! “ अपने राम चंदर डाक्टर का क्लीनिक खुला है आज , वही से करा लेना सोनोग्राफी । मैंने बात कर ली है ” , पिताजी ने बिना मुझे देखे ही कहा था । “ क्यो ? ” न जाने कैसे स्वतः निकल गया था मेरे मुँह से । माँ के चेहरे पर अचरज था ,मेरे सवाल पर । “वह देख लेंगे सब कुछ ” जवाब माँ ने ही दिया था । “ क्या देख लेंगे ?”, मैंने पूँछा । सवाल की आशा नहीं थी शायद माँ को ।उनके चेहरे पर खिन्नता उभर आई थी । इस से पहले माँ कुछ कहती पिताजी की आवाज गूँजी “ इस बार लड़की नहीं चाहिए । डाक्टर साहब सब देख लेंगे । ” टन्न... की आवाज करता वॉटर बटल नीरू के हाँथ से छूट गया था । वह अपने कमरे की तरफ चली गयी , लगभग भागती हुयी । विचार सुन्न हो चले थे । क्या कह रहे थे पिताजी ? इतना क्रूर ..... इतना निर्दय विचार ! “पिताजी !” मेरे सूखते गले से इतना ही निकल पाया था । शब्द छूटते जा रहे थे । आँखो के सामने बचपन वाले पिताजी खड़े हो गए थे । “ अरे बाबू छोड़ ना ..... उसमे भी जान है । ” एक नन्ही गौरैया मेरे हाथो मे कसमसा रही थी । “छोड़ दे बाबू ...मर जाएगी बेचारी !” होठ थरथरा आए । “पिताजी ?” मेरा गला रुँधा जा रहा था ।“ बाबू...छोड़ ना उसमे भी जान है ” पिताजी के शब्द गूंज रहे थे । मेरे मुँह से कुछ भी नहीं निकल पा रहा था । शब्द गले मे अटक गए थे। उसमे भी जान है ........पिताजी ..... मेरी संतान .....मेरी आने वाली संतान.... उसमे भी ...। मै गला फाड़ कर चिल्लाना चाह रहा था , किन्तु आवाज नहीं निकल पा रही थी । पिताजी कुर्सी पर बैठ गए थे । मैंने माँ की ओर देखा। उन्होने नजरे घूमा ली थी । वह खिड़की से बाहर देख रही थी ......शून्य मे । वही शून्य जो अब हम तीनों के बीच फैला था । मै अपने कमरे की ओर बढ़ गया था ।
“चलता हूँ माँ ” , मेरी आवाज से उनकी तंद्रा टूटी । दो बड़े बड़े सूटकेस और पन्नू के साथ मै और नीरू खड़े थे । माँ ने देखा और चौंक गयी । “कहाँ जा .... ” कहते कहते रूक गयी माँ । उत्तर मानो उन्हे मिल गया हो । “ मेरी संतान के लिए यहाँ कोई स्थान नहीं है माँ ...... जब हो जाए तब बुला लीजिए ”, भर्राई आवाज मे बस इतना ही निकल पाया मुँह से । पन्नू का हाथ पकड़े हुये मै घर से बाहर आ गया था ।खिड़की की ओर ढेखा तो माँ अब तक खिसकी से बाहर सून्य मे घूर रही थी, और पिताजी माँ की ओर। …..किसी सजायाफ्ता कैदी की तरह । हाँ..... कैदी ...सोच की जंग खाई जंजीरों मे बंधे दो कैदी ।
--------कंदर्प
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