संत रामानंद का जीवन परिचय Sant Ramanand Ji Biography History संत रामानंद जी की जीवनी संत रामानंद जी का इतिहास व जीवन परिचय रामानन्द जी का सम्पूर्ण परि
श्रीरामानन्दाचार्य जयन्ती
संत रामानंद का जीवन परिचय Sant Ramanand Ji Biography History संत रामानंद जी की जीवनी संत रामानंद जी का इतिहास व जीवन परिचय रामानन्द जी का सम्पूर्ण परिचय रामानन्द जी के गुरु का नाम रामानन्द जी का सम्प्रदाय - तत्कालीन साधनामूलक कठोर और दक्षिण के आचार्यों के शास्त्र-सम्मत धार्मिक सिद्धांत के प्रतिकूल आध्यात्म या भक्ति के मार्ग को धर्म-जाति, वर्ण-लिंग आदि से मुक्त रखते हुए उसे सबके लिए सुगम कर उत्तर भारत में भक्ति के सरल सिद्धांत को प्रचारित करने वाले तथा तात्कालिक इस्लाम की प्रबल आँधी से व तैमुर के निर्मम आक्रमण से लेकर बाबर के आधिपत्य आक्रमण तक समूचे समाज में राजनीतिक और सांस्कृतिक पराभव के काल में भी भारतीय सांस्कृतिक के प्रबल रक्षक के प्रथम भक्त संतपुरुष ‘स्वामी रामानंदाचार्य’ ही थे। उन्होंने आज से कोई सात सौ वर्ष पहले ही आज की ‘हिंदी’ भाषा में अपने मतों को प्रचार कर उत्तर भारत में ‘भक्ति आंदोलन’ को एक मजबूत जनाधार प्रदान किया था। वह पहले ऐसे आचार्य थे, जिनके बारे में प्रचलित कहावत है – ‘द्रविड़ भक्ति उपजौ, लायो रामानंद’ यानी कि उत्तर भारत में वैष्णव भक्ति को प्रसारित करने का श्रेय मुख्यतः स्वामी रामानंदाचार्य को ही जाता है। स्वामी रामानंदाचार्य जी ने ‘रामानन्दी सम्प्रदाय’ (बैरागी सम्प्रदाय) का प्रचलन किया था।
स्वामी रामानंदाचार्य का जन्म माघ कृष्ण पक्ष सप्तमी, संवत 1356 (1299) को प्रयाग में एक कान्यकुब्ज आध्यात्म विचार वाले ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम ‘पुण्यसदन’ तथा माँ का नाम ‘सुशीला देवी’ था। उनकी माता नित्य ‘श्रीवेणीमाधव भगवान’ की पूजा किया करती थीं। कहा गया है कि एक दिन वे मन्दिर में श्रीवेणीमाधव भगवान को दर्शन करने गईं, तो वहीं उन्हें देववाणी सुनाई दी – ‘हे माता! तुम पुत्रवती हो।’ - और उनके आँचल में एक माला और दाहिनार्त शंख प्रकट हुआ। उस दिव्य परम प्रसाद को वह पाकर बहुत प्रसन्न हुईं और अपने पतिदेव को सारी बात बताई। फिर एक दिन माता ने देखा कि आकाश से एक दिव्य प्रकाश पुंज आ रहा है और वह दिव्य प्रकाश पुंज आकर उनके मुख में समा गया। तत्काल तो वह डरकर बेहाश हो गईं। पर होश आने पर वह अपने शरीर में एक अपूर्व शक्ति का संचार महसूस करने लगीं। शुष्लग्न में प्रात:काल में तेज-ओज आभा युक्त एक शिशु का अवतरण हुआ, पर सद्य प्रसूता को बिल्कुल पीड़ा न हुई। उस शिशु के शरीर पर कई दिव्य चिन्ह थे। माथे पर तिलक का निशान स्पष्ट था। कुलपुरोहित ने उस दिव्य बालक का नाम ‘रामानन्द’ रखा। बालक रामानंद के खेलने के समय अक्सर एक तोता रोजाना उसके पास आ जाता और ‘राम-राम’ शब्द रट लगाया करता था। वही ‘राम-राम’ का शब्द कालांतर में बालक ‘रामानंद’ के जीवन और भक्ति का आधार बन गया।
बाल्यवस्था से ही कुशाग्र बुद्धि के बालक रामानंद ने कई प्रकार के अलौकिक चमत्कार दर्शाने शुरू कर दिए। पाँच वर्ष की अल्पायु में ही बालक रामानंद पिता द्वारा सिखाये गए ग्रन्थों के सभी श्लोकों को याद कर लिये। फिर साल भर में ही बालक रामानन्द ने कई ग्रन्थों को भी कण्ठस्थ कर लिया। प्रयाग कुम्भ में विद्वानों की एक सभा हुई। उसमें सभी विद्वानों और भक्तों ने बालक रामानंद की प्रशंसा व आरती की। आठ साल की अवस्था में बालक का यज्ञोपवीत कराया गया। बचपन से ही आध्यात्म विचारों वाले माता-पिता ने बालक रामानंद को माघ शुक्ला द्वादशी के दिन विद्वान ब्राह्मणों के सलाह पर पलास का डंडा देकर काशी के पंचगंगा घाट के निकट स्वामी राधवानंद के ‘श्रीमठ’ में भेज दिया। इसी मठ में शिक्षा प्राप्त करते हुए रामानंद ने वेद, पुराणों और अन्य धर्मग्रंथों का सूक्ष्मता से अध्ययन किये तथा प्रकाण्ड विद्वान बन गए। इसी श्रीमठ में रहने के दौरान ही रामानन्द ने कठोर तपस्या भी की थी।
रामानंद जी अपने गुरु स्वामी राघवानंद से शिक्षा प्राप्त कर देश की यात्रा पर निकल गए। उन्होंने दक्षिण एवं उत्तर भारत के अनेक तीर्थ स्थानों की यात्रा की और समाज में फैली जाति-धर्म-संप्रदाय आदि सम्बन्धित विषमताओं को बहुत करीब से देखा। अतः उन्हें दूर करने के लिए मन में उन्होंने दृढ़ संकल्प कर लिया। उन्होंने भक्ति को ही मोक्ष का एक मात्र साधन के रूप में स्वीकार किया। कहा जाता है देश के भ्रमण के बाद जब रामानंद आश्रम में वापस गए तो उनके गुरु राघवानंद जी ने उन्हें आश्रम में प्रवेश नहीं करने दिए। उन्हें यह कहकर मना कर दिया कि - ‘तुम दूसरी जाति के लोगों के साथ भोजन किये हो, तुमने जाति मान-मर्यादा का ध्यान नहीं रखा। इसलिए अब तुम हमारे आश्रम में नहीं रह सकते हो।’
अपने गुरु के ऐसे कठोर वचनों को सुनकर स्वामी रामानंद को काफी गहरा आघात पहुँचा। उसी समय उन्होंने अपने गुरु के आश्रम को त्याग दिया और उन्होंने समाज में व्याप्त जाति-भेद का खुलकर विरोध करना प्रारम्भ किया। उन्होंने एकेश्वरवाद पर जोर देते हुए राम की भक्ति हेतु सामाजिक समानता पर विशेष बल दिया –
‘जाति पाती पूछे न कोई!
हरि को भजे सो हरि का होई!!’
स्वामी रामानंद जी ने ईश्वर के प्रति सच्ची भक्ति और मानव प्रेम सम्बंधित भक्ति के सरल मार्ग को प्रशस्त करते हुए भक्ति के क्षेत्र में वाह्याडाम्बरों का घोर विरोध किया। उन्होंने पंडितों की भाषा ‘संस्कृत’ के बदले बोलचाल की ‘जनभाषा’ को अपनाया और उसी में अपने उपदेश दिए, जिनसे प्रभावित होकर तत्कालीन जन साहित्य का विकास हुआ। इसी बोलचाल की जनभाषा को कालांतर में उनके शिष्यों ने अपनाया और साहित्य सहित आध्यत्म जगत में प्रसिद्ध हुए।
राम की सगुण भक्ति को समाज के सभी वर्गों तक पहुँचाने का प्रथम प्रयास स्वामी रामानंदचार्य जी द्वारा ही प्रशस्त हुआ। उन्होंने ने अपने जीवन काल में अनेकों दुखियों और पीड़ितों को अपने आशीर्वाद से ठीक किया। जिनमें राजकुमार का क्षय रोग, रैदास को दीक्षा, कबीर को आशीर्वाद और शिष्यत्व, नये योगी श्री हरिनाथ की पीड़ा-हरण, ब्राह्मण कन्या बीनी का उद्धार, गगनौढ़गढ़ के राजा पीपाजी को मंत्र दीक्षा देकर उन्हें वैष्णब सन्त बनाना आदि जैसी अनेकों चमत्कारिक घटनायें शामिल थीं। स्वामी रामानंदाचार्य जी ने धर्म प्रचार के लिए काशी से चलकर गगनौरगढ़, चित्रकूट, जनकपुर, गंगासागर, जगन्नाथपुरी आदि स्थानों की पैदल यात्रा की। उन्हीं के तपोबल के कारण आज ‘रामानंद सम्प्रदाय’ का विशाल पंथ वृक्ष पूरे देश भर में लहलहा रहा है।
यद्यपि दक्षिण भारत में आलवर संत और साहित्य में रामभक्ति का वर्णन 9 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ही प्रारंभ हो गया था। परंतु उत्तर भारत में इसका प्रचार मुख्यत: तेरहवीं शताब्दी में स्वामी श्रीरामानंदाचार्य के प्रयास से ही सम्भव हो पाया। फिर शीघ्र ही रामभक्ति की पावन सुरसरी देश के एक कोने से दूसरे कोने तक प्रवाहित होने लगी, जो सम्पूर्ण देश की एकता को आबद्ध करने में सहायक सिद्ध हुई। तत्पश्चात फिर सम्पूर्ण देश ही वैष्णव भक्ति (श्रीराम और श्रीकृष्ण) की जो अविरल धारा प्रवाहित हुई, जिससे सम्पूर्ण देश का कण-कण ही ‘हरेराम हरेकृष्ण’ की पावन ध्वनि से गुंजित हो गया। इसने भारतीय समाज में नवीन आशा, आत्म विश्वास तथा स्वाभिमान की भावना को जागृत की।
रामभक्ति के माध्यम से स्वामी रामानंदाचार्य जी ने सामाजिक विषमताओं और बाहरी आडम्बरों में जकड़े भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों में सामाजिक समरसता तथा समन्वय की भावना को पैदा कर देश में आत्मविश्वास और सामाजिक चेतना जनित नवजागरण जागृत की। कालांतर में उनकी रामभक्ति धारा दो धाराओं में प्रवाहित होकर समाज व देश को सिंचित करने लगी - एक निराकार निर्गुण रामभक्ति तथा दूसरी साकार सगुण अवतारी रामभक्ति के रूप में। एक का प्रतिनिधित्व किया महात्मा कबीर जैसे महान ज्ञानी संत ने ‘जात-पांत‘ पूछे न कोई, हरि को भजे सो हरि का होई’ का दिव्य संदेश देकर, तो दूसरे को व्यापक स्वरूप प्रदान किया गोस्वामी तुलसीदास जैसे मर्यादित भक्त संत ने ‘सिया राम मय सब जग जानी’ का अमृतपान कराकर। रामभक्ति सम्बन्धित ऐसे दिव्य शंखनाद समूचे समाज को जोड़ने का एक महामंत्र ही बन गया।
स्वामी रामानंदाचार्य जी ने रामभक्ति की पावन धारा को हिमालय के तप:स्थल से उतारकर गरीब और वंचितों के द्वार तक पहुँचाया, जिसमें भक्ति और साधना को नये आयाम प्राप्त हुए, जिसमें जाति प्रथा, सामाजिक विभेदता उत्प्लावित होकर दूर बह गए। फिर उन्होंने सभी जाति के लोगों को अपना शिष्य बनाया और स्त्रियों की दयनीय स्थिति को ऊपर उठाने के लिए ईश्वरीय आराधना का द्वार महिलाओं तक के लिए भी खोल दिया। स्वामी रामानन्दाचार्य के बारह प्रमुख शिष्य - धन्ना (जाट), सेनदास ( नाई), रैदास (चर्मकार), कबीर (जुलाहा), पीपा (राजपूत), भवानन्द, सुखानन्द, सुरानन्द, परमानन्द, महानन्द, पद्मावती (महिला), सुरसरी (महिला) थे।
स्वामी रामानंदाचार्य द्वारा स्थापित ‘रामानंद सम्प्रदाय’ या ‘रामावत संप्रदाय’ भारत के सबसे बड़े वैष्णवी सम्प्रदाय के रूप में जाना जाता हैं, जिनकी वर्तमान में 36 उपशाखाएँ हैं। इस सम्प्रदाय के भक्त, ‘संत बैरागी’ के नाम से जाने जाते हैं। इनके प्रमुख मठ वाराणसी, हरिद्वार, अयोध्या सहित सम्पूर्ण भारत में फैले हैं। स्वामी रामानन्दाचार्य जी की पवित्र चरण पादुकाएँ आज भी काशी स्थित ‘श्रीमठ’ में रखी हुई हैं, जो ‘रामानंद सम्प्रदाय’ का केन्द्रीय ‘आचार्यपीठ’ है।
स्वामी रामानंदाचार्य ने अपने उपदेशों के लिए जनभाषा हिंदी को ही प्राथमिकता दी है। उनके द्वारा रचित पुस्तकों की संख्या आठ बताई जाती हैं, जिनमें 6 पुस्तकें हिंदी भाषा में तथा 2 संस्कृत में लिखी गई थी। यथा - वैष्णवमताब्ज भास्कर:, श्रीरामार्चनपद्धति:, रामरक्षास्त्रोत, सिद्धांतपटल, ज्ञानलीला, ज्ञानतिलक, योगचिन्तामणि, सतनामी पन्थ आदि हैं।
स्वामी रामानंदाचार्य लगभग 112 वर्ष की दीर्घायु भक्तिमय जीवन यापन करते हुए वर्ष 1411 ईo में ‘राम-राम’ करते हुए सर्वदा के लिए श्रीराम में एकाकार हो गए। अगत्स्य संहिता में इनकी मृत्यु का वर्ष 1410 ईo बताया गया हैं।
(श्रीरामानन्दाचार्य जयंती, माघ कृष्ण पक्ष सप्तमी, 24 जनवरी, 2022)
- श्रीराम पुकार शर्मा,
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