हिन्दी के आंचलिक उपन्यास हिंदी के आंचलिक उपन्यासकार और उनके उपन्यास ratinath ki chachi nagarjun मैला आंचल आंचलिक उपन्यास रांगेय राघव नया चेतना स्तर
हिंदी के आंचलिक उपन्यासकार और उनके उपन्यास
हिन्दी के आंचलिक उपन्यास नागार्जुन के आंचलिक उपन्यास हिन्दी के आंचलिक उपन्यासकार कौन है Balchanama nagarjun nagarjun ratinath ki chachi nagarjun मैला आंचल आंचलिक उपन्यास Maila Anchal Fanishwar nath Renu हिंदी के आंचलिक उपन्यासकार और उनके उपन्यास हिंदी उपन्यास - स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात आंचलिक उपन्यासों की एक विशिष्ठ धारा का विकास हिंदी उपन्यास जगत की सर्वथा नवीन उपलब्धि है। आंचलिक उपन्यास में किसी जनपद या प्रदेश के अंचल विशेष की जनता की बोली ,उसके मनोभावों उसकी लोक संस्कृति ,तीज त्योहारों ,रीती रिवाजों ,परम्परा और धार्मिक नैतिक आचार विचारों ,संघर्षों ,स्थानीय विशेषताओं आदि का चित्रण होता है। हिंदी के आंचलिक उपन्यास हिंदी साहित्यकारों द्वारा जनपदीय विकास की आवश्यकता के अनुभव और कामना तथा जनपदीय विकास में उनके सहयोग पाने के प्रतीक है। आंचलिक उपन्यास एक अंचल विशेष के जीवन सत्यों एवं विकास संघर्षों को मूर्त सजीवता प्रदान करते हैं लेकिन उनमें पूरे राष्ट्र के जीवन सत्यों का चित्रण होता है। उनमें संकीर्णता नहीं होती है।
हिंदी के शुद्ध आंचलिक उपन्यास रचना का प्रारम्भ अभी कुछ वर्षों में ही हुआ है। अभी हिंदी में शुद्ध आंचलिक उपन्यास कम ही लिखे जाते है। परन्तु जो लिखे गए है ,उनमें जन मंगल की जनवादी चेतना अभिव्यक्त हुई है। हिंदी के प्रसिद्ध आंचलिक उपन्यासकार नागार्जुन ,फणीश्वरनाथ रेणु ,उदयशंकर भट्ट ,शिवप्रसाद मिश्र रूद्र ,रांघेय राघव और देवेन्द्र सत्यार्थी आदि हैं।
रांगेय राघव का सन १९५७ में कब तक पुकारूँ आंचलिक उपन्यास प्रकाशित हुआ है। इसमें राजस्थान में रहने वाली वही की एक करनट उपजाति के जीवन के जीवन का चित्रण गहरी संवेदना के साथ किया है। नागार्जुन ने अपने उपन्यासों में मैथिल अंचल विशेष के ग्रामीण जीवन ,रीति व्यवहार ,आदर्श विश्वास ,आस्था - अनास्था ,नैतिकता ,अनैतिकता ,समस्या संघर्ष ,ग्रामीण वातावरण आदि का सजीव चित्रण किया है। यह सब चित्रण वहां की बोली विशेष में होने के कारण अत्यंत चित्रोपम हो उठा है।
रतिनाथ की चाची (१९४८ ) में एक ग्रामीण विधवा की कष्टभरी कहानी है। साथ ही मिथिला के गाँवों का सामाजिक ,आर्थिक और सांस्कृतिक संघर्ष भी मुखर हो उठा है। बलचनमा (१९५२ ) भी विद्रोही भावना का प्रतिक है। नयी पौध (१९५३ ) में मैथिल ब्राह्मणों में प्रचलित रुपयें के लालच में लड़की को पशुतुल्य बेचने की तथा अन्य पारिवारिक कुरीतियों के विरुद्ध समाज की नयी पीढ़ी की उद्बुद्ध चेतना का चित्रण है। वरुण के बेटे में मछुआ जीवन के रीतिरिवाज ,आचार विचार ,समस्या संघर्ष आदि का चित्रण है। बाबा बटेश्वर नाथ (सन १९५४ ) का नायक कोई व्यक्ति न होकर गाँव का पुराना वटवृक्ष है। वह गाँव के उत्थान पतन की १०० वर्षों की कहानी सुनाता है। दुःख मोचन (सन १९५७ ) में किसान आन्दोलन का चित्रण हुआ है। नागार्जुन के आंचलिक उपन्यास यथार्थवादी ,शैली शिल्प तथा वस्तु चयन की दृष्टि से उपन्यास साहित्य को एक नया मोड़ प्रदान करते हैं तथा कथा के रूपों में वर्तमान जीवन को देखने का एक नया चेतना स्तर प्रदान करते हैं।
फणीश्वरनाथ रेणु के मैला आंचल सन १९५४ तथा परती परिकथा (सन १९५६ ) दो आंचलिक उपन्यास प्रकाशित हुए हैं। इन दोनों उपन्यासों की कथा पूर्णिया जिले के ग्रामीण क्षेत्र के लोक जीवन पर आधारित है। शिवप्रसाद मिश्र रूद्र की बहती गंगा (सन १९५२ ) उपन्यास ,उपन्यास कला के क्षेत्र में एक नया प्रयोग है। इसमें काशी नगरी के गत २०० वर्षों तक के लम्बे काल का चित्रण है। इसमें काशी नगरी का मस्ती भरा जीवन प्रवाह ,संस्कृति ,रहन - सहन ,वहां की बोली में चित्रित हुआ है। उदयशंकर भट्ट का सागर ,लहरे और मनुष्य (१९५५ ) में बम्बई में मछुआ जीवन का सुन्दर और कलात्मक चित्रण हुआ है। "लोक परलोक ' और शेष अशेष भी इसी परंपरा के उपन्यास है।
हिंदी में आंचलिक उपन्यास लिखने की प्रवृत्ति दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। देवेन्द्र सत्यार्थी के उपन्यास रथ के पहिये तथा ब्रह्मपुत्र आदि ,बलभद्र ठाकुर के उपन्यास आदित्यनाथ ,मुक्तावली तथा नेपाल की बेटी आदि आंचलिक उपन्यास है।
सन् १९५६ ई.और सन् १९६३ ई.में स्व.हिमांशु श्रीवास्तव द्वारा रचित और प्रकाशित क्रमशः दो चर्चित उपन्यासों ' लोहे के पंख' और ' नदी फिर बह चली'आंचलिक उपन्यासों के संदर्भ में अचर्चित और अपरिचित रहना इस लघु आलेख को एकपक्षीय विवेचना के रूप में रेखांकित किया जाना उचित है।
जवाब देंहटाएंकेशव प्रसाद मिश्र जी की प्रसिद्ध आंचलिक उपन्यास 'कोहबर की शर्त' की चर्चा उपेक्षित है। जिसपर 'नदिया के पार' फ़िल्म भी बनी।
हटाएंउदंत मार्तंड कलकत्ता से युगल किशोर दास ने 1826 में सुरु किया था।
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