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दान बल कविता रामधारी सिंह दिनकर
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दान बल कविता का सारांश मूल भाव
प्रस्तुत पाठ या कविता दान-बल , कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी के द्वारा रचित है। इस कविता में कवि के द्वारा दान के महत्त्व को वर्णित किया गया है। कवि दिनकर जी का मानना है कि दान एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, जब वक़्त आने पर सभी को नष्ट होना ही है तो क्यों न उससे पहले औरों के लिए उपयोगी अंग-उपांगों का दान करके मुक्ति भी पा ली जाए और श्रेय भी अर्जित कर लिया जाए। कवि अपनी बातों पर बल देते हुए कहते हैं कि प्रकृति का कार्य-व्यापार दान पर चलता है...।।
दान बल कविता का भावार्थ व्याख्या
जीवन का अभियान दान-बल से अजस्र चलता है,
उतनी बढ़ती ज्योति, स्नेह जितना अनल्प जलता है।
और दान में रोकर या हँसकर हम जो देते हैं,
अहंकारवश उसे स्वत्व का त्याग मान लेते हैं।
यह न स्वत्व का त्याग, दान तो जीवन का झरना है,
रखना उसको रोक मृत्यु के पहले ही मरना है।
किस पर करते कृपा वृक्ष यदि अपना फल देते हैं ?
गिरने से उसको सँभाल क्यों रोक नहीं लेते हैं ?
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी के द्वारा रचित कविता दान-बल से उद्धृत हैं, जिसमें कवि दिनकर जी ने दान के महत्त्व पर प्रकाश डाला है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि दिनकर जी कहते हैं कि जीवन का अभियान लगातार दान-बल के भाव से ही चलता है तथा यही सुखी जीवन का आधार है। किसी के प्रति प्रेम व स्नेह जितना अधिक जलता है, उतना ही प्रेम रुपी ज्योति बढ़ती ही चली जाती है। कई बार ऐसा भी होता है कि जब किसी वस्तु का रोकर या हँसकर दान देते हैं तो अपनी अहंकार की भावना के कारण हम यह मान लेते हैं कि हमने अपना कोई चीज़ दान कर दिया है। जबकि ऐसी सोच रखने के बजाए हमें अहंकार से दूर रहना चाहिए और ख़ुशी-ख़ुशी दान करने के भाव से आगे आना चाहिए।
अंतिम चार पंक्तियों के माध्यम से कवि दिनकर जी कहते हैं कि दान देने का भाव अपने अंदर रखना कुछ त्याग करना नहीं है। बल्कि दान तो जीवन का झरना स्वरूप है, दान रुपी झरना निरंतर बहते रहना चाहिए। कवि कहते हैं कि यदि आप दान के भावों से ख़ुद को मुक्त रखते हैं तो यह मृत्यु से पहले ही मरने के समान है। जिस प्रकार वृक्ष अपना फल स्वयं के पास न रखकर हमें देने की जिम्मेदारी को निभाता है, उसी प्रकार मानव को भी अपने जीवन में दान देने का भाव रखना चाहिए। अर्थात् जिस प्रकार वृक्ष अहंकार नहीं पालता, उसी प्रकार हमें भी अहंकारी भाव नहीं रखना चाहिए।
ऋतू के बाद फलों का रुकना डालों का सड़ना है,
मोह दिखाना देय वस्तु पर आत्मघात करना है।
रहें डालियाँ स्वस्थ और फिर नए-नए फल आएँ।
सरिता देती वारि कि पाकर उसे सुपूरित वन हो,
बरसे मेघ, भरे फिर सरिता, उदित नया जीवन हो।
आत्मदान के साथ जगजीवन का ऋजु नाता है,
जो देता जितना बदले में उतना ही पाता है।
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी के द्वारा रचित कविता दान-बल से उद्धृत हैं, जिसमें कवि दिनकर जी ने दान के महत्त्व पर प्रकाश डाला है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि दिनकर जी कहते हैं कि जिस तरह मौसम के बीत जाने अर्थात् अनुकूल समय के गुजर जाने पर वृक्ष पर लगे फल सड़ जाते हैं तथा उनका कोई लाभ शेष नहीं बच जाता, ठीक उसी तरह दान दी जाने वाली वस्तु पर मोह दिखाना स्वयं को मारने के समान है। कवि कहते हैं कि इसलिए वृक्ष अपने फलों का दान कर देते हैं, ताकि उसके रेशों में कीड़े न लग जाएँ तथा डालियाँ स्वस्थ रहें और उस पर नए-नए फल आएँ। अतः वृक्ष के समान मानव को भी अपना सकारात्मक स्वभाव रखना चाहिए।
अंतिम चार पंक्तियों में कवि दिनकर जी कहते हैं कि जिस तरह सरिता अर्थात् नदी पानी देने का स्वभाव रखती है, जिस पानी को प्राप्त करके वनों में हरियाली छा जाती है, वर्षा होने लगती है, नदियाँ पुनः जलमग्न हो जाती है और नए जीवन का उदय होता है। ठीक उसी तरह स्वयं का दान देना भी संसार रूपी जीवन से सीधा नाता है। अर्थात् सरिता (नदी) की तरह ही मानव को भी दान करना चाहिए। क्योंकि जो जितना देता है, बदले में वह उतना ही पाता है।
दान जगत का प्रकृत धर्म है, मनुज व्यर्थ डरता है,
एक रोज़ तो हमें स्वयं सब-कुछ देना पड़ता है।
बचते वही, समय पर जो सर्वस्व दान करते हैं,
ऋतू का ज्ञान नहीं जिनको, वे देकर भी मरते हैं।
भावार्थ - प्रस्तुत पंक्तियाँ रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी के द्वारा रचित कविता दान-बल से उद्धृत हैं, जिसमें कवि दिनकर जी ने दान के महत्त्व पर प्रकाश डाला है। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि दिनकर जी कहते हैं कि दान देना तो प्रकृति का धर्म है, मानव व्यर्थ में ही डरता रहता है। एकदिन मृत्यु आने पर मनुष्य को ख़ुद का भी दान देना पड़ता है। कवि दिनकर जी कहते हैं कि जो मनुष्य स्वयं के प्रति मोह नहीं रखता और समय पर अपना सबकुछ दान कर देता है, वह बच जाते हैं। जो मनुष्य ऋतु (मौसम) का ज्ञान नहीं रखता और अहंकार से घिरा रहता है, वह देकर भी मर जाता है। अतः मनुष्य को अपने जीवन में दान देने का भाव रखना चाहिए।
दान बल रामधारी सिंह दिनकर कविता के प्रश्न उत्तर
प्रश्नोत्तर
प्रश्न-1- हम दान को क्या मान लेते हैं ?
उत्तर- प्रस्तुत कविता के अनुसार, हम दान को अपना अहंकार मान लेते हैं।
प्रश्न-2- नदी जल का दान क्यों करती है ?
उत्तर- प्रस्तुत पाठ के अनुसार, नदी जल का दान वनों व वृक्षों को हरियाली से संपन्न करने के लिए करती है।
प्रश्न-3- मृत्यु से पहले व्यक्ति कब मरा माना जाता है ?
उत्तर- मृत्यु से पहले व्यक्ति तब मरा माना जाता है, जब वह दान देने की भावना को रोक कर रखता है।
प्रश्न-4- तरु फलों का त्याग क्यों कर देते हैं ?
उत्तर- तरु फलों का त्याग इसलिए कर देते हैं, ताकि मौसम बदलने पर तरु नए फल प्राप्त कर सके।
प्रश्न-5- दान को जीवन का झरना क्यों कहा गया है ?
उत्तर- दान को जीवन का झरना इसलिए कहा गया है, क्योंकि झरना निरंतर बहते और गतिमान रहने का प्रतिक है, झरने के समान हमें भी जीवन को गतिमान रखने के लिए दान करना चाहिए।
प्रश्न-6- जिन्हें ऋतु का ज्ञान नहीं उनका क्या होता है ?
उत्तर- प्रस्तुत पाठ के अनुसार, जिन्हें ऋतु का ज्ञान नहीं होता वह देकर भी मर जाता है अर्थात् भाव दान करने से ही मानव गतिमान रहता है।
प्रश्न-7- दान में अहम कब और क्यों आ जाता है ?
उत्तर- प्रस्तुत पाठ के अनुसार, दान में अहम (अहंकार) तब आ जाता है, जब मानव दान को अपना त्याग मान लेता है। जबकि दान तो जीवन रूपी ज्योति बढ़ाती है।
प्रश्न-8- दान को जीवन का प्रकृत धर्म क्यों कहा गया है ?
उत्तर- प्रस्तुत कविता के अनुसार, दान देना तो प्रकृति का धर्म है, मानव व्यर्थ में ही डरता रहता है। एकदिन मृत्यु आने पर मनुष्य को ख़ुद का भी दान देना पड़ता है। कवि दिनकर जी कहते हैं कि जो मनुष्य स्वयं के प्रति मोह नहीं रखता और समय पर अपना सबकुछ दान कर देता है, वह बच जाते हैं। जो मनुष्य ऋतु (मौसम) का ज्ञान नहीं रखता और अहंकार से घिरा रहता है, वह देकर भी मर जाता है। अतः मनुष्य को अपने जीवन में दान देने का भाव रखना चाहिए।
व्याकरण-बोध
प्रश्न-9- नीचे लिखे शब्दों के दो-दो पर्यायवाची लिखिए -
उत्तर- निम्नलिखित उत्तर है -
मृत्यु – काल, मौत
वृक्ष – दरख्त, पेड़
स्वस्थ – तंदरुस्त,
सरिता – नदी, तटिनी
वारि – जल, पानी
जगत – दुनिया, संसार
मनुज – मनुष्य, मानव
अभियान – कार्यवाही, मुहिम
रोज़ – हरदिन, प्रतिदिन
वन – कानन, जंगल
प्रश्न-10– नीचे दिए गए अनेकार्थी शब्दों का अलग-अलग अर्थों में वाक्य-प्रयोग कीजिए -
उत्तर- निम्नलिखित उत्तर है -
मत – (रोकना) – उस जगह पर मत जाओ।
मत – (राय) – तुम अपना मत रखो।
पर – (पंख) – पक्षी अपने पर के सहारे उड़ते हैं।
पर – (ऊपर) – वह पलंग पर सो रहा है।
जग – (संसार) – तुम जग में ऊँचा नाम करो।
जग – (पानी का जग या मग) – जग में पानी भर लाओ।
फल – (परिणाम) – परिश्रम करो, पर फल की प्रतीक्षा मत करो।
फल – (खाने वाला फल) – रोज़ फल खाने की आदत डालो।
मान – (अहंकार) – नश्वर शरीर पर अधिक मान मत करो।
मान – (सम्मान) – उदय का समाज बहुत मान है।
दान बल रामधारी सिंह दिनकर कविता के शब्दार्थ
अजस्र – लगातार
अभियान – मुहिम, व्यवस्थित आंदोलन
स्वत्व – अपना
अनल्प – अधिक
देय – जो देने योग्य हो
आत्मघात – स्वयं को मारना
रेशों – वनस्पतियों में पाया जानेवाला सूत जैसा इकहरा द्रव
वारि – जल, पानी
कीट – कीड़े-मकोड़े
सुपूरित – अच्छी तरह भरा हुआ
जगजीवन – संसार रूपी जीवन
ऋजु – सीधा
प्रकृत – प्रकृति से उत्पन्न, प्रकृति के अनुरूप, स्वाभाविक
सर्वस्व – सब कुछ।
आत्मा दान के साथ जगजीवन का रीजन आता है का भाव स्पष्ट कीजिए
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