द कश्मीर फाइल्स - फिल्म समीक्षा फिल्म की सभी घटनाओं/ विचारों से भले ही शत प्रतिशत मेल न भी खाते हों तो भी एक बार इस फिल्म को अवश्य देखा जाना चाहिए
कश्मीरी पंडितों के नरसंहार की बेबाक कहानी बयां करती है फ़िल्म - द कश्मीर फ़ाइल्स !
कश्मीर की खूबसूरत वादियों को देखकर कभी मुगल बादशाह जहांगीर ने कहा था-
ग़र फिरदौस बर रुए ज़मीं अस्त
हमीं अस्तो, हमीं अस्तो, हमीं अस्त.
(अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है, तो यहीं है, यहीं है, यहीं है।)
ये बात शत- प्रतिशत सत्य भी थी, लेकिन इंसानियत के दुश्मनों ने इस धरती की खूबसूरती को अपने नापाक इरादों के कारण खून से बार-बार लाल किया है। एक तो देश विभाजन के समय जहां दोनों ओर जिस तरह खून की होली खेली गई उससे तो सभी वाकिफ हैं और उस पर कई कहानियां, उपन्यास और फिल्में भी बन चुकी हैं, लेकिन आजाद देश में 1990 में भी एक कत्लेआम कश्मीर में हुआ उसके बारे में देश-दुनिया को बहुत कम पता है। उस समय कश्मीरी पंडितों के साथ भीषण अत्याचार हुआ और सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतारा गया, इस तरह की चर्चा हम गाहे-बगाहे सुनते रहे हैं। इधर 11मार्च 2022 को एक फ़िल्म रिलीज हुई है- दि कश्मीर फ़ाइल्स, जिसके निर्देशक हैं विवेक रंजन अग्निहोत्री ।
इस फ़िल्म में कश्मीरी पंडितों पर हुए जुल्म या यूं कहें नरसंहार को बड़ी साफ़गोई से दिखाया गया है। 1990 के दौरान कश्मीर में जेहादियों ने एक नारा बुलंद किया था-रालिव,गालिव या जालिव जो दरअसल कश्मीरी हिंदुओं को संबोधित था यानि कि एक अल्लाह को मानो यानि धर्म परिवर्तन करो या फिर यहां से भाग जाओ अन्यथा मरने के लिए तैयार हो जाओ और इस नारे पर जेहादियों ने अमल भी करना/करवाना शुरू कर दिया था।
इस फ़िल्म के केन्द्र में एक परिवार को दिखाया गया है, जिसमें एक बुजुर्ग के जवान बेटे को गोलियों से भून दिया जाता है और उसकी पुत्रवधू पर शारीरिक अत्याचार होता है तथा मासूम बच्चे को भी नहीं बख्शा जाता।
इस फ़िल्म के प्रमुख कलाकारों में शामिल हैं- मिठुन चक्रवर्ती,अनुपम खेर,दर्शन कुमार, पल्लवी जोशी,चिन्मय माण्डलेकर,भाषा सुंबली तथा अन्य।ये फिल्म एक जेएनयू के छात्र कृष्णा पंडित (दर्शन कुमार) के कश्मीर पहुंचने से शुरू होती है जिसे उसके दादा पुष्कर नाथ (अनुपम खेर) द्वारा ये बताया गया था कि उसके मां-बाप की मौत सड़क दुर्घटना में हो गई थी।
जेएनयू की एक प्रोफेसर राधिका मेनन (पल्लवी जोशी) विश्वविद्यालय के छात्रों का ब्रेनवाश इस तरह करती है कि हिंदुस्तान कश्मीर पर जुल्म ढा रहा है और उन्हें चाहिए आजादी, आजादी और आजादी और सभी छात्र जिनमें कृष्णा पंडित भी है इससे प्रभावित हो जाते हैं कि कश्मीर में कश्मीरी पंडितों पर कोई जुल्म नहीं हुआ बल्कि वे लोग स्वयं ही पलायन कर गए थे।इस बात को उसके दिलो- दिमाग पर और पुख्ता करने के लिए उसे कश्मीर भेजती है प्रोफेसर राधिका मेनन आतंकवादी से सफेदपोश बने बिट्टा कराटे के पास और वो उसे इस धारणा पर लगभग यकीन ही करा देता है। वहां से वापस आने पर उसकी अपने दादा पुष्कर नाथ से काफ़ी बहस होती है।अब दादा उस दौर में घटी घटनाओं की सभी पेपर कटिंग और सारी जानकारी भरी कश्मीर फ़ाइल उसे देता है तथा और विस्तार से सत्य उद्घाटित करता है तब उसे यकीन हो जाता है कि कश्मीरी पंडितों का नरसंहार हुआ था और खुद उसके मां-बाप भी उसी का शिकार हो गए थे ।
इस फ़िल्म में असल मोड़ तब आता है जब जेएनयू में छात्र संगठन का चुनाव है और छात्रों का बड़ा समावेश है जहां प्रोफेसर राधिका मेनन द्वारा अध्यक्ष पद के लिए प्रस्तावित नाम है उसी कृष्णा पंडित का। कृष्णा पंडित धुआंधार भाषण देते हुए काश्मीर के पौराणिक और सांस्कृतिक महत्व पर पहले अपनी बात रखता है कि यही वो धरती है जहां आयुर्वेद,योग, पतंजलि, नाट्य शास्त्र, उपनिषद्,तथा शिव, सरस्वती, शंकराचार्य आदि हुए हैं और वहां के इन तथ्यों के साथ ये भी उजागर करता है कि किस तरह कश्मीरी पंडितों का नरसंहार हुआ है तो सभी हतप्रभ हो जाते हैं और प्रोफेसर राधिका मेनन भी अवाक् होकर शब्दहीन हो जाती है।
एक साक्षात्कार में पल्लवी जोशी कहती हैं कि इस फिल्म में उसने एक नकारात्मक भूमिका निभाई है और मैं चाहती हूं कि मेरे पात्र से लोग नफ़रत करें लेकिन सच सामने आना ही चाहिए।
इस फ़िल्म के कलाकारों में मिथुन चक्रवर्ती और अनुपम खेर तो खैर मंजे हुए कलाकार हैं ही दर्शन कुमार और पल्लवी जोशी ने भी अपने शानदार अभिनय द्वारा किरदारों को जीवंत कर दिया है। इन सबके अलावा जो महिला भुक्तभोगी होती है और उसे अपने अभिनय से जिसने जान डाल दी है, वो कलाकार है- भाषा सुंबली! भाषा सुंबली रंगमंच की अच्छी कलाकार हैं तथा फ़िल्म छपाक में भी शानदार अभिनय किया था, वहीं वे फिल्म के सह-निर्देशन से भी जुड़ी हैं।
गौरतलब है कि इसके अलावा उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि भी ख़ास है। उनके पिता एक चर्चित हिंदी कवि, एक्टिविस्ट तथा कश्मीर संत्रास के लिए न्याय की गुहार लगाने वाली संस्था "पुनन कश्मीर" के संयोजक भी हैं तथा उनका परिवार स्वयं भी भुक्तभोगी है। इसी विषय पर उनकी एक लम्बी कविता - जवाहर टनल काफ़ी चर्चा में रही थी और उनका नाम है - अग्निशेखर! भाषा सुंबली की मां भी कवि कथाकार हैं और नाम है- क्षमा कौल! भाषा सुंबली के अभिनय की खूब चर्चा हो रही है।
इस फिल्म के प्रदर्शित होते ही दर्शकों की भीड़ हर दिन बढ़ने लगी है महज 14 करोड़ से बनी ये फिल्म संभव है एक सौ करोड़ की कमाई का आंकड़ा कुछ समय में ही छू ले।अब तो इस फ़िल्म को कई राज्यों में टैक्स फ्री भी कर दिया गया है, जिनमें शामिल हैं- उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, हरियाणा, गुजरात,गोवा, त्रिपुरा,उत्तराखंड तथा बिहार।इस फिल्म की सफलता का आलम यह है कि जहां तकनीकी रूप से यह फिल्म 650 स्क्रीन पर रिलीज हुई थी वहीं अब इसे बढ़ाकर 2000 कर दिया गया है।
इस फ़िल्म को लेकर इसके निर्माता निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री ने एक पत्रकार सम्मेलन में बताया कि उन्होंने तथा उनकी कलाकार पत्नी पल्लवी जोशी ने कश्मीर से विस्थापित होकर देश विदेश के अलग-अलग हिस्सों में रह रहे सीधे तौर पर मुक्त भोगी ( फर्स्ट हैण्ड विक्टिम) लगभग 700 लोगों से बातचीत की वीडियो रिकॉर्डिंग की है और उसके आधार पर इस फिल्म के दृश्य फिल्माए गए हैं । इसमें महज सामाजिक या कानूनी कारणों से भले ही नाम बदल दिए गए हों लेकिन घटनाएं शत- प्रतिशत सही हैं इसके लिए भले ही देश दुनिया के किसी भी फोरम पर मुझसे प्रश्न किए जाएं और मैं बतौर सबूत सभी वीडियो पेश कर सकता हूं।इस फिल्म की प्रशंसा देश-विदेश में लगभग हर तबके के लोग कर रहे हैं।
इस फिल्म में दिखाई गई घटनाओं के लिए दोषी कौन हैं उन्हें तो चिन्हित किया ही जाना चाहिए इसके साथ ही इस तरह की घटनाओं को घटने देने के लिए या फिर रोकने में ढुलमुल रवैए के लिए जो भी राजनीतिक ताकतें जिम्मेवार हैं या जिन्होंने अब तक कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिए कोई सकारात्मक कोशिश नहीं की उनका चरित्र भी उजागर होना चाहिए।
इस फिल्म की सभी घटनाओं/ विचारों से भले ही शत प्रतिशत मेल न भी खाते हों तो भी एक बार इस फिल्म को अवश्य देखा जाना चाहिए, क्योंकि कश्मीरी पंडितों के नरसंहार की बेबाक कहानी बयां करती है फ़िल्म - द कश्मीर फ़ाइल्स!
- रावेल पुष्प
वरिष्ठ पत्रकार/समीक्षक
नेताजी टावर ,कोलकाता-700047.
मो. 9434198898
ईमेल: rawelpushp@gmail.com
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