बहते पानी में दरारें संस्मरण लेखिका देवी नागरानी जब यादों का मंजर आँखों में समाए: मैँ तो लिखती रही दास्तां मेरी, जो इसमें शामिल हो गई दास्तां तेरी, तो
बहते पानी में दरारें
जब यादों का मंजर आँखों में समाए:
मैँ तो लिखती रही दास्तां मेरी,
जो इसमें शामिल हो गई दास्तां तेरी,
तो तू ही बता ऐ खुदा,
इसमें क्या खता है मेरी…?
कुछ ऐसे ही जज़्बातों का निचोड़ है, देवी नागरानी जी की किताब, बहते पानी में दरारें…। अपनी यादों का मंजर आँखों में समाए जब वो लेखनी का जादू पन्नों पर बिखेरती हैं, तो ऐसा लगता है, मानो हर किरदार जिंदा होकर अपनी दास्तां कहने को बेचैन है। सुकून की छाँव तलाशते किरदार कभी अपनी बेचैनी में ही खुश नज़र आते हैं, तो कभी बेचैन किरदारों को अपने रेशमी मुलायम शब्दों की छाँव देकर देवी जी खुद उन्हें सुकून महसूस करने के लिए प्रेरित कर देती हैं।
तन्हाइयों में यादों का ताना-बाना बुनते-बुनते देवी जी ने कई पड़ाव पार किए हैं। हर पड़ाव पर अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाया है। एक जिम्मेदार बेटी, बहू, पत्नी, माँ, नानी, दादी, और तमाम रिश्तों को शिद्दत से जीते हुए बचपन की चंचल लड़की कहीं गुम हो गई है। कब, क्यों, कहाँ, कैसे का जवाब तलाशते हुए जब इसकी गहराई में जाने का प्रयास किया जाता है, तो वहाँ समझदारी के सैलाब को हथेली में समेटे एक नन्हीं गुड़िया नज़र आती है, जिसके दिल के किसी कोने में विस्थापन की अंतहीन पीड़ा है, तो कहीं ज़िंदगी के सफ़र पर चलते-चलते सँकरी या लम्बी पगडंडियों पर पड़ते नंगे पाँव से रिसते ज़ख्म हैं। जो एक नन्हीं बाला को एकाएक किशोरी से युवती और युवती से समझदार महिला में बदल देते हैं।
मैं पूरी ईमानदारी से कह सकती हूँ कि यदि लेखनी इनकी हमसफ़र, हमनवाज़, हमराज़ या हमदर्द ना होती तो देवी जी वास्तव में देवी जी ना होती। लेखनी इनकी हमसाया बनी और हमराही बनकर दोनों ने खालीपन का सफ़र इस तरह से पूरा किया कि वास्तव में ये सफर हम सभी के लिए एक दिशा बन गया। साहित्य जगत में एक नाम उभर आया- देवी नागरानी।
यह तो तय है कि ज़िंदगी के अलग-अलग दौर की बातों को कलम से कागज़ तक लाते-लाते देवी जी की आँखें यकीनन भर आई होंगी, पर उन्हें पढ़ते-पढ़ते जब मैंने अपनी आँखों से अक्षरों का धुँधलापन देखा… गालों पर आँसुओं का गीलापन महसूस किया… और जब उन्हें पोंछते हुए जलन का अहसास हुआ तब… तब हकीकत में मैं भी उनसे जुड़ती चली गई। फिर एक नहीं, दो नहीं, पूरी किताब पढ़कर ही सुकून मिला।
संवेदनाओं का सफर तय करते हुए कभी पितृदिवस के पुरोधा से रिश्ता जोड़ा तो कभी ममतामयी माँ का आलिंगन पाकर धन्य हुई। ताश के पत्तों की मानिंद कभी सांसारिकता के जाल में उलझी, तो कभी जिंदगी को हादसों का पुलिंदा मानकर जीवन सफर की नई सीख प्राप्त की। कभी डॉ. रमण ने आँखें गीली की, तो कभी अखबार वाले मूर्ति ने जीवनक्रम की सतत क्रमबद्धता का परिचय दिया। काजू-किशमिश ने मन को गुदगुदाया, तो अलौकिक स्पर्श से दर्शन जगत से रिश्ता जुड़ा और अलौकिक जगत की झीनी रोशनी से जगमगाई। ये तो कुछ नाम हैं… गुनगुनाने, सुकून पाने और तड़प में तड़पाने के कई अलग-अलग लेखों को देवी जी ने अपनी लेखनी में उतारा है।
देवी जी की लेखनी यूँ ही अनवरत चलती रहे… हमारा मार्ग प्रशस्त करती रहे… इन्हीं शुभवांछनाओं के साथ।
इति शुभ।
समीक्षक: भारती परिमल
T-3, 204, सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोध्या बायपास रोड,भोपाल – म.प्र. पिन – 462022, मोबाइल - +91 9617526440
संग्रह: बहते पानी में दरारें (संस्मरण), लेखिका-देवी नागरानी, साल--2019, Price Rs. 350, Pages: 128, Publisher: Hindi Sahitya Niketan, 16 Sahity Vihar, Bijnor, UP-246701, Girirajsharan Agrawaal, Ph: 07838090732,
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