कोरोना का दंश कोरोना काल में समाज की शल्यक्रिया करता उपन्यास कोरोना की भयावह आक्रामकता प्रशासन की लापरवाही, भ्रष्टाचार, लोगों की असामाजिकता, लालच संवे
कोरोना का दंश - कोरोना काल में समाज की शल्यक्रिया करता उपन्यास
कोरोना शब्द सुनते ही आज भी लोगों के रौंगटे खड़े हो जाते हैं। लोग इतना युद्ध से नहीं डरते न किसी दंगे से और न खूंखार शेर से जितना कि कोरोना के वायरस से। ऐसा वायरस जो इतना छोटा कि नंगी आंखों से दिखाई भी नहीं देता लेकिन ताकतवर इतना कि सूमो पहलवानों को भी नहीं छोड़ा। कोरोना ने गरीब को घर वापसी मंे तकलीफ़ जरूर दी लेकिन उनकी जान नहीं ली उन पर हमला नहीं किया। हाँ उनको प्रशासन की लापरवाही ने भूखा प्यासा मार डाला।
कोरोना की भयावह आक्रामकता प्रशासन की लापरवाही, भ्रष्टाचार, लोगों की असामाजिकता, लालच संवेदनहीनता निजी अस्पतालों द्वारा की जाने वाली लूट आदि को देखकर एक सक्षम साहित्यकार चुप कैसे बैठ सकता है .महेंद्र अग्रवाल एक ऐसेे ही संवेदना सिक्त साहित्यकार हैं जो सामाजिक विसंगतियों पर खूब लिख रहे हैं।
अग्रवाल जी में साहित्य और विज्ञान का प्रभावकारी समिश्रण है।साहित्य भाव पक्ष को मजबूत करता है और विज्ञान यथार्थ की ओर ले जाता है। वह परीक्षण के उपरांत ही बात को सत्य मानता है। अर्थात उनके साहित्य में कोरी भावनायें नहीं रहतीं उनमें खुरदरे धरातल के खंड प्रखंड भी मिल जाते हैं।कोरोना अभी गया नहीं है।उसका भय भी अभी लोगों में विद्यमान है।ये दिल से व्यंग्यकार हैं।उनके उपन्यास हों या कहानी संग्रह बिना व्यंग्य का छौंका लगाये वे मानते ही नहीं। व्यंग्य साहित्य की एक सशक्त विधा है।व्यंग्य के माध्यम से बात पाठक के भेजे में सीधी चली जाती है और वह लेखक के मंतव्य को जल्दी समझ लेता है। व्यंग्य के कारण लेखन में चटपटापन भी आ जाता है। इसलिए लेखन पठनीय एवं रुचिकर हो जाता है। अग्रवाल जी ने अन्य उपन्यासों की तरह इस उपन्यास में भी सामाजिक विसंगतियों की अच्छी और सफल सर्जरी की है । कोरोना से लोग इतने डरे हुए हैं कि घर में यदि कोई बीमार है तो लोग उसे छू नहीं रहे हैं। दाह संस्कार भी करने से स्वजन डर रहे हैं। श्मशान में शवों के ढेर लगे हैं। बहुत ही वीभत्स मंजर है चारों ओर। ये सारे मंजर उपन्यास को प्रामाणिक बनाते हैं।कोरोना का दंश उपन्यास में अनेक कथायें और दृश्य हैं।कहीं राजनीति का विद्रूप चेहरा है,कहीं स्वास्थ्य विभाग का भयावह भ्रष्टाचार है अस्पतालों की अव्यवस्था है समाज की संवेदनहीनता है ,पारिवारिक रिश्तों के तार तार होते दृश्य हैं अफवाहों का गर्म बाजार है प्रशासन की बदहाली है और जनता की त्राहिमाम।
मजदूरों का पलायन पाठक के मन में करुणा उत्पन्न कर देता है।हजारों मजदूर भूखे प्यासे नंगे-उघारे रोज ही भिन्न भिन्न सड़कों पर और रेलवे लाइनों के सहारे भीषण गर्मी और लू मैं अपने घरों की ओर चल दिए।कुछ पहुंचे कुछ एक्सीडेंट के शिकार हो गये कुछ भूख से मर गये.कुछ साइकिल से हजारों कि मी की यात्रा तय कर रहे हैं। बड़ा ही खौफनाक मंजर सड़कों पर दिखता था।लेकिन इन मेहनतकश लोगों को कोरोना नहीं हुआ।ये प्रशासन की बदइंतजामी से मारे गये और अफसरों के भ्रष्टाचार ने इन्हें मार डाला-बहुत से मजदूर सड़क पर चलकर पुलिस के डंडे खाने और रास्ता भटकने के डर से रेल की पटरी के सहारे चल रहे थे। इनके पास किसी वाहन से यात्रा करने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं थे और न कोई भोजन व्यवस्था। ऐसे में सोलह यात्रियों का एक समूह दूसरे प्रदेश से अपने गृहप्रदेश में आने के लिए रेल की पटरियों के सहारे पैदल चला। रात होते ही थकान के कारण वहीं पर सो गया। एक मालगाड़ी ने उन सोते हुए मजदूरों को देर रात मौत की नींद सुला दिया। उनके शवों के पास बिखरी हुईं सूखी रोटियां उनकी जीवन गाथा कह रहीं थीं। पृष्ठ-71 ऐसे बहुत से मार्मिक चित्र उपन्यास में हैं।
कोरोना काल में प्रशासन लोगों को घर से निकलने नहीं दे रहा।गरीब जो रोज खाने कमाने वाले हैं उनका बहुत बुरा हाल था।लेकिन जिन प्रदेशों में चुनाव थे तो वहाँ कोरोना की गाइडलाइन्स का प्रशासन द्वारा ही धड़ल्ले से उल्लंघन हो रहा है।दल बदल करके सरकारें गिराईं गयीं और फिर खूब उपचुनाव भी हुए ।इससे कोरोना बेखौफ हो गया।चुनाव ड्यूटी वाले बहुत से कर्मचारी एवं जनता भी मारी गयी।शादी विवाह में अफरातफरी मची रही। प्रशासन के लोगों ने मनमानी की उन्हें परेशान किया। निर्धारित से अधिक संख्या में आने वाले मेहमानों के कारण दोनों पक्षों से मनमानी घूस ली गयी।
महेंद्र अग्रवाल के लेखन में व्यंग्य की धार बहुत तेज होती है।लाकडाउन में आनलाइन कवि सम्मेलनों की बाढ़ आ गयी थी।इन कवि सम्मेलनों और गोष्ठियों का शानदार चित्रण इस उपन्यास में मिलता है।इनमें व्यंग्य का चुटीलापन देखते ही बनता है-अनुभवी और व्यावसायिक कवि शायर बारबार पूछते-मेरी आवाज आ रही है मेरी आवाज ठीक आ रही है मेरी आवाज सही आ रही है आवाज कम तो नहीं है और नये नये प्रकट हुए परिचित मित्र के आनलाइन संदेश भेजने के बाद भी-कि हां आ रही है उनका पूछना बंद नहीं होता। पृष्ठ-46
महेंद्र अग्रवाल के इस उपन्यास में भी अन्य उपन्यासों की तरह कहावतों और मुहावरों का समुचित प्रयोग हुआ है।कहावतों और मुहावरों से भाषा की शक्ति में आशातीत बढ़ोतरी होती है।उसकी मारक क्षमता प्रभाव शाली हो जाती है और अर्थवत्ता का सौन्दर्य अनूठा हो जाता है।ऐसे अनेक चित्र इस उपन्यास में मौजूद हैं-महामारी जहाँ एक ओर गरीबों के लिए मुसीबत बनकर सामने आई, अधिकारियों और कर्मचारियों की तो जैसे लाटरी ही लग गई।पृष्ठ-5
उपन्यास के कुछ प्रसंग काल्पनिक होते हुए भी जीवंत लगते हैं। लेखन की यह कला लेखक को सिद्ध लेखक बनाती है।उपन्यास में अनेक कथ्य हैं लेकिन उन सभी में सही तारतम्य स्थापित है। कहीं भी अलगाव विलगाव नहीं है।भाषा और कथा में प्रवाह है.मौलिकता है।अनुभवों की निजता है।उपन्यास के सभी चित्र पाठकों को बांधकर रखते हैं,क्योंकि वे रुचिकर और देखे और भोगे हुए हैं।कुल मिलाकर उपन्यास समसामयिक एवं अपने इर्दगिर्द की समस्याओं से लबरेज है इसलिए वह पठनीय है। पाठकगण जरूर इसका स्वागत करेंगे और संबंधित लोग अपने बुरे आचरण को सुधारने के लिए प्रयत्न भी करें ताकि लेखक का उद्देश्य सफल हो ।
- डॉ अवधेश कुमार चंसौलिया
प्राध्यापक, हिंदी शासकीय महारानी लक्ष्मीबाई कला एवं वाणिज्य स्वशासी महाविद्यालय
ग्वालियर- 474009 मोबाइल-9425187203
डाॅ.महेंद्र अग्रवाल प्र सं 2021 पृष्ठ 172
मूल्य 350 रुपये संकल्प प्रकाशन विलासपुर
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