चने के पौधे की तरह ना तो उसके शरीर पर फलफूल थे ना हरी भरी पत्तियॉं । शरीर अब ठूंठ बन गया था। सुबह गांव के लोगों ने उस ठूठ को उठाया और उसका अंतिम संस्क
फसल और ठूंठ
आज भी कोई नहीं आया .अपनों की राह देखते देखते उसकी ऑंखे पथरा सी गई थी। बेबसी लिये वह बड़बड़ती हुई टूटे हुए दरवाजे से लकडी के सहारे अन्दर चली गई । छोटी सी कदकाठी , हाथ में लाठी , बिखरे सफेद बाल, चेहरे पर झूर्रियॉ , पोपला मुॅंह शरीर पर साडी के नाम पर चिथड़ों का डेरा, बस यही तो है उसके पास। खेत के नाम पर एक बंजर जमीन का टूकडा है उसका लेकिन खेती करने वाला कोई नहीं। 05 बेटे है उसके लेकिन उनसे कोई सम्पर्क नहीं था जाम्बूडी का सब मजदूरी करने गुजरात गये थे ,सालों गुजर गये आये नहीं । सुना है वहीं घर बनाकर रहने लग गये है। अपनों को देखने की चाहत उसे अब तक स्वर्ग जाने से बचाकर रखे हुए है। गांव में एक ही घर था जहां से शाम को रसोई घर से धूंआ नहीं उठता था। गांव वाले कभी-कभी जाम्बूडी को चने या आटा दे जाते थे जिसे जाम्बूडी पानी में पका कर खा लेती थी। थोडी जमीन थी उसके पास लेकिन खेती करने के लिये शरीर ना था।
दिसंबर का महीना । गांव में चारों तरह खेतों में गेहूं ,चने की फसल छोटी-छोटी कोपले लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने के लिये बढ़ रह है, जाम्बुडी इन्हें देखकर इतनी खुश होती जैसे उसी की फसल तैयार हो रही हो। लेकिन शाम होते ही जाम्बूडी को खेतों की ठण्डक चुभने लगती । गर्म कपडे तो दूर पहनने के लिये दो फटी साडी जिन्हें जोड-जोड कर पहनती थी और अब तो उम्र के साथ सूई में धागा भी ना जाता । ठिठूरती हुई पूरानी फटी मैली सी गोदड़ी पर जाम्बूडी ने अपने जीवन की सारी नीन्द समर्पित कर दी थी। आधी गोदडी पर सोती और आधी को अपने ऊपर ढक लेती थी। लेटे-लेटे जाम्बूडी टूटी हुई खपरेल में से आती हुई चांद की रोशनी को देखकर गहरी सौंच में डूब गई । एक गहरी सॉंस लेकर उसने अपने अतीत की किताब को बंद किया।
आज सुबह से ही जाम्बुडी में नई स्फूर्ति थी।सुबह-सुबह वह घर के आंगन में जमीन कुरेदने लगी। कुछ समय पश्चात् वह भीतर गई । जाम्बूडी ने आलिये में रखे एक मैले से कपड़े की पोटली को खोला । सम्पत्ति के नाम पर एक कटोरी चने जाम्बुडी की पोटली में थे । चने देखकर वह फिर किसी सोंच में पड़ गई । उसमें से आधे चने लेकर वह फिर आंगन में आई और उसने खुशी-खुशी मिट्टी में चने बौं दिये यह सौंचकर की कभी ना कभी तो उसकी फसल तैयार होगी और वह बड़े चॉंव से अपने चने खायेगी।
दिन बीतेे।जाम्बूडी ने देखा उसके चने नई कोंपलों के साथ उसके सामनें खुशी का इजहार कर रहे है । जाम्बूडी अपनी फसल पर कभी पानी डालती तो कभी उन्हें अपने हाथों से सहलाती। चने के पौधों में अब फूल आने लगे और फूल के बाद दाने भरने लगे। जाम्बूडी की खुशी का ठिकाना न रहता। वह उन पौधों को अपने बच्चों की तरह सहलाती उनसे बतियाती।
एक दिन जाम्बूडी के पांचों बेटे आये। जाम्बूडी की ममता हिलोरे लेने लगी। उसे लगा अब उसके बेटे उसे अपने साथ ले जायेंगे। अब वह इस एकान्तवास में नहीं रहेगी। पोते-पोतियों को अपने हाथों से खाना खिलायेगी। लेकिन जाम्बूडी के सपने माटी के खिलौनों की भॉति टूट गये उसके बेटो ने कुछ कागजों पर उसके अंगूठे के निशान लिये और जाने लगे जाम्बुडी ने मिन्नते की साथ ले जाने की लेकिन उन्होंने उसे दुत्कार कर दूर कर दिया। जाम्बूडी दहलीज पर खडी रह गई। उसकी मोतियाबिन्द वाली ऑखों से मोती टपकने लगे। हाथ कंपकपां रहे थे। डबडबाई ऑखों से उसनेे देखा की उसकी फसल कोई बकरी बड़े चॉव से खा रही थी। जाम्बुडी सब तरह से लूट ली गई । कुछ नहीं बचा उसके पास। लेकिन उसकी ऑखे अब भी खुली थी और वह अपनी चने की फसल के बचे हुए ठूठ को एकटक देखी जा रही थी। अब चने के पौधे की तरह ना तो उसके शरीर पर फलफूल थे ना हरी भरी पत्तियॉं । शरीर अब ठूंठ बन गया था। सुबह गांव के लोगों ने उस ठूठ को उठाया और उसका अंतिम संस्कार कर दिया।
- अक्षय महोदिया
झाबुआ, जिला झाबुआ ,मध्यप्रदेश
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