कुरुक्षेत्र महाकाव्य का उद्देश्य कुरुक्षेत्र शीर्षक काव्य का उद्देश्य निष्काम कर्मयोग को प्रोत्साहन देना पलायनवाद का विरोध करना अत्याचारी के विरुद्ध
कुरुक्षेत्र महाकाव्य का उद्देश्य
कुरुक्षेत्र महाकाव्य का उद्देश्य कुरुक्षेत्र शीर्षक काव्य का उद्देश्य kurukshetra mahakavya ka uddeshya in hindi रामधारी सिंह दिनकर जी के ह्रदय में समाज के शोषित वर्ग और दलितों के प्रति सदैव सहानुभूति रहा। उनका ह्रदय वर्तमान युग की अनेक परिस्थितियों से प्रभावित रहा और अनेक समस्याएँ उनके ह्रदय को मथती रही है। ये समस्याएँ अनेक हैं - पूंजीपतियों द्वारा शोषण की समस्या ,राजतन्त्र की समस्या ,शासकों तथा शासितों की समस्या ,अन्याय और अनीति को दूर कर वास्तविक शांति की समस्या ,पलायनवाद और निवृत्ति को दूर करके प्रवृत्ति और कर्मण्यता की समस्या आदि कवि के ह्रदय को प्रभावित करती रही। उनके सम्बन्ध में दिनकर जी की अपनी निजी मान्यताएँ थी। जिनके आधार पर वे उनका हल प्रस्तुत करना चाहते थे। उन्होंने भीष्म और युधिष्ठिर के वार्तालाप के द्वारा इन समस्याओं पर प्रकाश डाला है। इन समस्याओं पर वैसे भी कहा जा सकता था किन्तु तब काव्य का रूप न रहता है। कवि ने अपने विचारों को काव्यात्मक रूप देने के लिए ही युधिष्ठिर और भीष्म को माध्यम बनाया है। द्वापर के अंत में संसार के समक्ष जो समस्याएँ थी ,वे आज भी है। अतः उन समस्याओं पर प्रकाश डालने के लिए दिनकर जी ने कुरुक्षेत्र की रचना की है। महाभारत की कथा को दोहराना मात्र उनका उद्देश्य नहीं है। कुरुक्षेत्र के निवेदन में दिनकर जी ने अपने उद्देश्य को स्पष्ट रूप से प्रकाशित कर दिया है -
'कुरुक्षेत्र की रचना भगवान व्यास के अनुकरण पर नहीं हुई है और न महाभारत को दुहराना ही मेरा उद्देश्य था। मुझे जो कुछ कहना था ,वह युधिष्ठिर और भीष्म का प्रसंग उठाये बिना भी कहा जा सकता था ,किन्तु तब यह रचना ,शायद प्रबंध काव्य के रूप में न उतर कर मुक्तक बनकर रह गयी है।
कुरुक्षेत्र की रचना में दिनकर जी का उद्देश्य रहा है। अनेकों तत्कालीन जटिल समस्यायें ,जो उनके मस्तिष्क में थी ,उनको सुलझाना। इसके लिए कुछ माध्यम चाहिए था ,जो उन्हें महाभारत की युद्धोपरान्त घटना कुरुक्षेत्र के रूप में मिल गया। उन्हें अनुभव होने लगा कि युद्ध की सभी समस्याओं की जड़ है। उन्होंने निवेदन में इसे स्वीकार करते हुए लिखा है -
'बात यो हुई कि पहले मुझे अशोक के निर्वेद आकर्षित किया और कलिंग विजय कविता लिखते - लिखते मुझे ऐसा लगा ,मानों युद्ध की समस्या सारी समस्याओं की जड़ है। "
समाधान युद्ध द्वारा संभव
दिनकर जी का कुरुक्षेत्र में दृढ विश्वास सा दिखाई पड़ता है कि अनेक समस्याओं की उत्पत्ति और समाधान युद्ध के द्वारा ही संभव है। युद्ध विध्वंश भी करता है और निर्माण भी। मनुष्य अपने स्वभाव से युद्ध नहीं चाहता ,किन्तु जटिल परिस्थितियां उनको युद्ध में भाग लेने के लिए विवश कर देती है। सामाजिक विषमता ,अन्याय ,अनीति और कुछ लोगों ये स्वार्थ की भावना के त्याग युद्ध अनिवार्य हो जाता है क्योंकि अन्यायी और अत्याचारी त्याग ,क्षमा ,त्याग और आत्मबल के सामने नहीं झुकते। वे तो शक्ति और शस्त्र से ही दबाये जा सकते हैं। वास्तविकता यह है कि आत्मा का संग्राम आत्मा से और देह का संग्राम देह से जीता जाता है। अतः अन्यायी के प्रति अहिंसा ,सहिष्णुता ,क्षमा और त्याग व्यर्थ है ,उसके प्रति विद्रोह छोड़ना ही आवश्यक है।
दिनकर जी ने यह स्वीकार किया है कि युद्ध संहारक है। अतः वह निद्य कार्य है। परन्तु प्रश्न है कि इसका उत्तरदायित्व किसके ऊपर है - इसका दायित्व किस प्रकार होना चाहिए। ? उस पर जो अनीतियों के जाल बिछाकर प्रतिकार को आमन्त्र देता है ? या उस व्यक्ति पर जो जाल को छिन्न भिन्न कर देने को आतुर है। "
दिनकर जी का कुरुक्षेत्र यह स्पष्ट करता है कि अन्याय के विरुद्ध युद्ध छेड़ना पाप न होकर पुण्य कार्य है। इसकी पुष्टि भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को दिए गए उपदेशों में होती है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि दिनकर जी के कुरुक्षेत्र की रचना में निम्नलिखित उद्देश्य थे -
- निष्काम कर्मयोग को प्रोत्साहन देना
- पलायनवाद का विरोध करना
- अत्याचारी के विरुद्ध शस्त्र उठाकर उसके दमन के लिए उत्तेजना करना।
- साम्यवाद के द्वारा वास्तविक शान्ति की स्थापना करना।
- दंभ ,शोषण ,अन्याय और अत्याचार को यदि शान्ति के उपायों से न हटाया जा सके तो उनको बलपूर्वक हटाने के लिए सुदृढ़ संगठन बनाना।
अपने इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए दिनकर जी के कुरुक्षेत्र की रचना की है ,जिसमें उनको पूर्ण सफलता मिली है।
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