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श्रम की प्रतिष्ठा विनोबा भावे
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श्रम की प्रतिष्ठा निबंध का सारांश
विनोबा भावे जी का कहना है कि पृथ्वी शेषनाग के सर पर स्थित है। श्रम करने वाला मजदूर ही शेषनाग है। यदि मजदूर कार्य न करे तो पृथ्वी अर्थात पृथ्वी पर रहने वाले लोग जी नहीं सकते हैं। किसान ,भवन और सड़क निर्माता ,खानों में काम करने वाले इत्यादि सभी परिश्रमी मजदूर होते हैं। इन्ही पर पृथ्वी टिकी हुई है। अतः ये ही शेषनाग है। श्रद्धापूर्वक परिश्रम से पसीना बहाकर रोटी कमाने वाले लोग ही धर्म पुरुष या कर्मयोगी कहलाते हैं। कर्म में लगे लोगों को पापचिंतन का समय नहीं मिलता है ,अतः मजदूर ही सच्चे धार्मिक होते हैं।
यह सब होते हुए भी काम न करने वालों की देखादेखी मजदूरों में भी कुछ अवगुण आ गए हैं। आज का मजदूर कर्म की पूजा नहीं करता ,बल्कि विवशता के कारण उसे कर्म करना पड़ता है। सच्चा कर्म योगी मजदूर तभी बन सकता है ,जब वह कर्म को महत्व दे ,विवशता में कर्म न करे।
आज ग्रामीण लोग भी बच्चों को केवल नौकरी दिलवाने के लिए शिक्षा दिलाते हैं ,ज्ञानी बनने के लिए नहीं। काम के प्रति श्रद्धा का अभाव ग्रामीणों में भी दिखाई दे रहा है। मजदूर काम में गौरव अनुभव इसीलिए नहीं करता ,क्योंकि काम करवाने वाले कम से कम मजदूरी देकर अधिक से अधिक काम लेना चाहते हैं और मजदूरों को निम्न दृष्टि से देखते हैं। अतः एक मजदूर भी काम करने में गौरव अनुभव नहीं करता है। रामायण काम में भी मेहनत को हीन माना गया था ,जबकि कौशल्या ने कहा था - सीता को तो मैंने कभी दीप की बाती जलाने तक को नहीं कहा ,वह वन में कैसे रह सकेगी।"
राजसूय यज्ञ में युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण को कोई काम देने से इनकार इसीलिए कर दिया था क्योंकि वह उन्हें पूज्य समझता था। परन्तु वही श्रीकृष्ण ,जिन्होंने स्वयं जूठी पत्तले उठाने आदि का कार्य स्वीकार कर कर्म के गौरव को बढ़ा दिया।
हमारे समाज में ज्ञानी ,बूढ़े ,बच्चे ,व्यापारी ,वकील इत्यादि सभी शारीरिक श्रम से पृथक रखे जाते हैं। ऐसे श्रम को गौरव प्रदान नहीं किया जाता है। अतः श्रमिक भी श्रम अर्थात काम को हीन समझने लगता है। दिमागी काम करने वाले को अधिक वेतन दिया जाता है ,परन्तु शारीरिक श्रम वाला थोड़ा धन प्रदान करता है। महात्मा गाँधी तो दिमागी काम करते हुए भी शारीरिक श्रम किया करते थे। वे थोड़ी देर के लिए सूत काता ही करते थे। विनोबा जी का कथन है कि सभी को शारीरिक श्रम भी अवश्य करना चाहिए। तभी श्रम को गौरव प्राप्त हो सकता है।
पूर्वकाल में ज्ञानी ब्राह्मण त्यागी होता था ,वह धन के पीछे नहीं भागता था ,परन्तु आज ज्ञान देने वाला अधिक से अधिक धन की कामना करता है। कर्मयोग की महिमा अर्थात श्रम की प्रतिष्ठा स्थापित करने के लिए आवश्यक है कि दिमागी और शारीरिक श्रम के मूल्य में अधिक अंतर नहीं होना चाहिए। सभी को थोड़ा - थोड़ा शारीरिक श्रम अवश्य करना चाहिए और जो शारीरिक श्रम में ही लगे रहते हैं। उनका भी सम्मान होना चाहिए और उन्हें पारिश्रमिक पर्याप्त मिलना चाहिए।
श्रम की प्रतिष्ठा पाठ का उद्देश्य
श्रम की प्रतिष्ठा विनोबा भावे द्वारा रचित एक गहन गंभीर निबंध है। यह निबंध मानव समुदाय को प्रेरित करता है कि वह श्रम के महत्व को जीवन में उतार कर उसकी प्रतिष्ठा करे। आज की सबसे बड़ी आवश्यकता श्रम की पुनः स्थापना में निहित है तथा साथ ही मनुष्य को हर समय कुछ न कुछ करते रहना चाहिए नहीं तो उसमें बुरी वृत्तियाँ जाग सकती है। तब ये बुरी वृत्तियाँ उसका सम्पूर्ण जीवन नष्ट कर देगी। दिमागी काम करने वाले लोग समाज में ऊँचा स्थान प्राप्त करते हैं और उनको ऊँचा वेतन दिया जाता है। लेकिन जो शारीरिक श्रम करते हैं उन्हें नीचा समझा जाता है और उन्हें वेतन भी कम दिया जाता है। इस तरह हम श्रम का आदर नहीं करते हैं। हमें हर छोटे या बड़े कामों की इज्जत करनी चाहिए। यदि हम काम की इज्जत नहीं करते हैं तो बड़ा भारी धर्मकार्य खोते हैं। छोटे से छोटे काम का भी हमें महत्व समझना चाहिए। हमें उसे सम्मान देना चाहिए ,तभी श्रम की प्रतिष्ठा बढ़ेगी। इसमें धैर्य और कार्य प्रारम्भ करने की इच्छा होनी चाहिए। मालिक भी मजदूरों के साथ काम करे तो श्रम का महत्व और बढ़ जाएगा।
श्रम की प्रतिष्ठा पाठ के प्रश्न उत्तर
प्र. लेखक ने शेषनाग किसे कहा है और क्यों ?
उ. लेखक ने शेषनाग मजदूरों को माना है। ऐसे मजदूर जो दिन रात शरीर श्रम करके तरह तरह की पैदावार करते हैं। अगर इनका पैदा करने का आधार समाज को न मिले तो सब कुछ टूट फूट जाएगा। मजदूर ही पृथ्वी का आधार है। तथा इसी कारण भगवान् ने मजदूरों को कर्मयोगी की संज्ञा प्रदान की है।
प्र. भारत में लोग किस प्रकार का श्रम करते हैं और कहाँ ?
उ. भारत में लोग अधिकतर मजदूरी या श्रम का कार्य करते हैं। ये श्रम या मजदूरी अधिकांशत खेतों में ,रेलवे में ,कारखानों आदि में की जाती है। मजदूरी पूरी ईमानदारी से की जाती है इसी कारण ये लोग श्रम-योगी या कर्मयोगी कहलाते हैं।
प्र. लेखक ने किन लोगों के प्रति चिंता व्यक्त की है ?
उ. लेखक ने ऐसे लोगों के प्रति चिंता व्यक्त की है जो व्यर्थ में अपना समय गँवाते हैं। ऐसे लोग स्वयं तो बोझिल जीवन जीते हैं साथ ही दूसरों का भी जीवन बोझिल बना देते हैं। ऐसे लोगों के व्यवसनों से पूरा समाज प्रभावित होता है और मेहनत मजदूरी करने वाले भी बिना किसी कारण के दुःख पाने लगते हैं। अतः लेखक चिंतित होकर ऐसे लोगों के जीवन के खालीपन को टटोलना चाहता है।
प्र. मजदूर की मानसिकता कैसी बनती जा रही है ?
उ. आज मजदूरों की मानसिकता बदलती जा रही है। पहले मजदूर स्वयं भी श्रम पर विश्वास करते थे तथा यही चाहते थे कि उनके बच्चे भी उनकी तरह मेहनती बने। लेकिन आज के मजदूर बच्चों को पढ़ा लिखाकर नौकरी करवाना चाहते हैं। श्रम का महत्व अधिक होने के बाद भी आज के मजदूर यह नहीं चाहते हैं कि उनके बच्चे उनकी तरह दिन रात कष्ट उठाते हुए मेहनत मजदूरी करें।
प्र. आज की शिक्षा में क्या दोष आ गया है ?
उ. आज की शिक्षा में व्यवसाय प्रवेश कर चुका है। आज की शिक्षा नीति नौकरी की ओर प्रवृत्त करती है तथा साथ ही शिक्षा को आज बेचा और ख़रीदा जा रहा है। शिक्षा के इस रूप द्वारा कर्म योग की गरिमा और श्रम के महत्व को ठेस पहुँच रही है।
प्र. हमेशा मेहनत करने वालों के जीवन में पाप क्यों नहीं आ पाता है ?
उ. मजदूर दिन भर मेहनत करता है और अपने पसीने की कमाई की रोटी खाता है। जो व्यक्ति अपने पसीने की रोटी खाता है। वह धर्म पुरुष हो जाता है। उसके जीवन में पाप आसानी से प्रवेश नहीं कर पाता है। वह दिन भर काम करता है ,इसीलिए रात को थका -हारा सो जाता है। उसके पास पाप कर्म के लिए समय नहीं बचता है।
प्र. लेखक ने मेहतर को उपकारी क्यों माना है ? हमें उसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए ?
उ. मेहतर को अगर हम एक दिन की छुट्टी दें तो पूरा शहर गन्दा हो जाएगा। वह अगर सफाई न करे तो चारों तरफ बदबू फ़ैल जाए। इसीलिए मेहतर हमारे ऊपर उपकार करता है। इसीलिए उसे उपकारी कहा गया है। लेकिन हम उसे नीच मानते हैं। उसे न ही इज्जत देते हैं और न ही प्रतिष्ठा। हमें अपने इस व्यवहार को बदलना चाहिए। अपने उपकारी को इज्जत की दृष्टि से देखना चाहिए।
श्रम की प्रतिष्ठा पाठ के कठिन शब्द अर्थ
ध्यान - नज़र
जर्रा - जर्रा - छोटे टुकड़े
फाजिल - अधिक
गुंजाईश - संभावना
तालीम - शिक्षा
खटना - मेहनत करना
वृत्ति - स्वभाव
प्रतिष्ठा - इज्जत
शख्स - आदमी
आरिग्रही - दान का त्याग करने वाला
बाती - बत्ती
राजसूय यज्ञ - धार्मिक अनुष्ठान
नफरत - घृणा
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