हिंदी साहित्य में महिला आत्मकथा लेखन नारी आत्मकथाओं के बीच स्त्री के सफल एवं सशक्त रूप उभर कर एक नई स्थापना करने में सफल एवं सक्षम हुए हैं आत्मकथा
हिंदी साहित्य में महिला (स्त्री) आत्मकथा लेखन
भारतीय संस्कृति में मानव निर्माण के साथ दो जातियों का निर्माण हुआ। स्त्री एवं पुरुष। पूर्व में स्त्री पुरुष के समान अधिकार युक्त थी। काल के गर्भ से प्रणीत सत्य धीरे-धीरे स्त्री को कई सारे बंधनों में बांधता चला गया। भारतीय स्त्री जो उच्चतम संस्कृति की वाहक थी उसे पदच्युत कर दिया गया। खैर लंबे समय के इतिहास के सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में क्षरण के कई अध्याय सन्निहित है। मैं इसके विस्तार में नहीं जाकर मध्यकाल एवं परिवर्तित काल में स्त्री के स्थान में हुए निरंतर बदलाव एवं मानवी से इसके वस्तु या धन के रूप में परिवर्तित स्वरूप की ओर अपनी सोच को मोड़ती हूं तो पाती हूं कि एक-एक सीढ़ियां उतरते हुए स्त्री अपने पूर्व स्थापित सत्ता खोने लगी। इस बीच बाह्य आक्रमणों एवं बल प्रयोग ने अपनी मान्यताओं एवं बर्बरताओं के कारण हमारी सांस्कृतिक विरासत को चोट पहुंचाया। हम घूंघट, पर्दा, धर्म (स्त्री धर्म) के रूप में मानने एवं अपनाने हेतु बाध्य हुए। हम कोमलता, ममता, एवं शारीरिक क्षमता के आधार पर मूल्यांकित किए जाने लगे। इससे हमारा आत्मविश्वास कम हुआ और हमारा साहस टूटा। हमारा शौर्य क्षतिग्रस्त हुआ। हम गुलामी एवं पराधीनता के ग्रास बनने लगे। हमारा जीवन, हमारे भरण-पोषण के अधिकारी पुरुष के हाथों में पहुंचा और अपने लिए किसी तरह के निर्णय के अधिकारी नहीं रहे। मात्र कठपुतली बन कर रह गये।
मनुस्मृति के अनुसार भाई, पिता या पुत्र के संरक्षण में वयनुरूप जीने के लिए स्त्रियाँ सीमाबद्ध की गई। स्वाभाविक है इस पोंगापंथी विचारधारा में स्त्री का स्वतंत्र अस्तित्व कहां विकसित हो पाता। कोई भी स्त्री अपनी आत्मकथा कैसे लिख पाती। यह सोच भी उसके अंदर नहीं पनप सकता था। वैदिक काल के पश्चात् पौराणिक युग कथा कहानियों का युग रहा है। कई स्त्रियों की गाथाएं रची गई। साहस की कथा गाथा लिखी गई। पंचकन्या से लेकर दुर्गा स्वरूप की कहानी बनी लेकिन यह औरों के द्वारा लिखी गई। कोई स्त्री यह संरचना या आत्मलेखन की ओर शायद ही प्रवृत्त हुई हो। सर्वप्रथम आधुनिक युग के आरंभ में कहीं यह विचारधारा पनपती नजर आती हैं। स्त्रियां बहुत बाद में अपनी आत्मकथा लेखन में रुचि दिखाने की साहस कर पाई है। पुरुष आत्मकथा लेखन की भरमार के बीच स्त्री आत्मकथा लेखन का स्रोत कहीं दूर तक दिखाई नहीं देती है। बहुत खोज के बाद मुझे जानकी बजाज द्वारा लिखित ‘मेरी जीवन यात्रा’ (सन् 1956) के रूप में पहली स्त्री आत्मकथा के दर्शन हुए। वर्षों से कैद और सहिष्णुता पूर्वक जीवन जीने वाली स्त्रियां कलम पकड़ने के पश्चात् भी अपनी आत्मकथा लिखने से परहेज करती रहीं कि उनके मिजाज का निजत्व इस लेखन से सार्वजनिक हो जाएगा। इससे उन्हें पारिवारिक एवं सामाजिक क्षति उठानी पड़ेगी। धीरे-धीरे पुरानी मान्यताएं टूटती गईं। नए सामाजिक मूल्यों एवं मान्यताओं का निर्माण हुआ। इससे साहस संजोकर स्त्रियों के द्वारा आत्मकथा लेखन आरंभ हुआ और असूर्यपश्या सात-सात अवगुणों से आबद्ध, चूल्हे चौके के संग दुख-सुख का बंधन बांधने वाली, पति की मृत्यु पर सती हो जाने वाली, भीरू स्त्री इस परिवर्तित मूल्य बोध के प्रति जागरूक हुई और आधुनिक काल में अपने जीवन के संघर्ष को चित्रित करने लगी। मान्यताओं के टूटने पर महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति सजग होने लगीं। समाज की रूढ़िवादी मान्यताओं, रीति-रिवाजों और परंपराओं के बंधन से निकलने के लिए छटपटाहट बढ़ी। इन्होंने कलम को हथियार बनाया। बहुत सारी स्त्रियाँ कई क्षेत्र में कलम चलाने लगी।
अपने आत्मसंघर्ष को अपनी आत्मकथा में चित्रित करना भी आरंभ किया। मराठी, पंजाबी, बंगला आदि भारतीय भाषा में लिखित आत्मकथाओं से प्रभावित होकर हिंदी की लेखिकाएं भी आत्मकथा लेखन में प्रवृत्त हुईं। इस प्रकार आत्मकथा लेखन में कौशल्या बैसंत्री ‘दोहरा अभिशाप’ (1999), मैत्रेई पुष्पा ‘कंस्तूरी कुंडलि बसै’ (2002) एवं ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ (2008), प्रभा खेतान ‘अन्या से अनन्या’ (2007), रमणिका गुप्ता ‘हादसे’ (2005), सुशीला राय ‘एक अनपढ़ कहानी’ (2005), अनीता राकेश ‘संतरें और संतरें’ (2002), मन्नू भंडारी ‘एक कहानी यह भी’ (2007), कृष्णा अग्निहोत्री ‘लगता नहीं है दिल मेरा’ (2010) एवं ‘और.. और.. औरत’ (2011), सुशीला टाकभौरे ‘शिकंजे का दर्द’ (2011), ‘मेरी क़लम मेरी कहानी’ (2014), अमृता प्रीतम ‘रसीदी टिकट’, शिवानी कृत ‘सुनौ: तात यह गत मोरी’, पद्मा सचदेव कृत ‘बूंद बावरी’, चंद्रकिरण सौनरेक्सा कृत ‘पिंजरे की मैना’, रमणिका गुप्ता कृत ‘अपहुदरी’, निर्मला जैन कृत ‘जमाने से’ आदि आत्मकथाओं के माध्यम से महिलाओं ने अपनी करुणा व्यथा मानसिक घुटन एवं संघर्ष आदि को व्यक्त किया है।
इसी कड़ी में डॉ अहिल्या मिश्र कृत ‘दरकती दीवारों से झांकती जिंदगी’ सन 2021 में प्रकाशित हुई है। उपरोक्त उल्लेखित सभी नाम की आत्मकथा लेखिकाओं ने आत्म संघर्ष को पाठकों के समक्ष रखी है तो दूसरी ओर अन्य महिलाओं की जो समाज में अत्याचारों को सहकर भी चुप रहती है, अस्मिता को जगाती है, अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करती हैं। अहिल्या मिश्र की आत्मकथा के साथ एक बात लीक से हटकर हुई है कि यह अपने में औपन्यासिक तत्व को समाहृत किए हुए है। इसमें आत्मकथा के प्रमुख तत्वों के साथ उपन्यास के सभी तत्व भी समाहृत है। लेखिका का बचपन, गांव, सामाजिक जीवन, पारिवारिक परिवेश एवं संघर्ष से शक्ति प्राप्ति अंकित है। जीवन के सुख-दुख, विकास की दिशा में बढ़ते कदम पारंपरिक स्त्री संघर्ष, विरोध के स्वर, पिता-पुत्र-पति के साथ तारतम्य, उनका योगदान तथा बदलते परिवेश के साथ किए गए समझौतों का सत्य एवं तथ्यपरक चिंतन उकेरा गया है। वास्तव में आत्मकथा लेखन स्वयं के भीतर छिपे अदृश्य संसार को अपने संपूर्ण व्यक्तित्व के साथ उससे जुड़े समाज, सांस्कृतिक परिवेश सहित वस्तुनिष्ठ रूप से पूरी ईमानदारी के साथ पाठकों के समक्ष उद्घाटित करने की एक साहित्यिक विधा है।
भारतीय समाज पितृसत्तात्मक समाज एवं पुरुष वर्चस्ववादी रहा है। तदानुसार ही इसकी सामाजिक संहिताएं निर्मित है। महिला कथाकारों के अनुसार पुरुष वर्ग को हमारे सभी धर्म ग्रंथों में अपने पूर्ण स्वतंत्रता एवं सुविधानुरूप जीवन व्यतीत करने की आजादी प्रदान की गई है, वहीं स्त्रियों को पुरुषों के आदेशानुसार उनके प्रति पूर्ण समर्पण कर परतंत्रता की भावना को आत्मसात करते हुए जीवन यापन का निर्देश दिया गया है। इन नियमों के पालन हेतु स्त्रियों को बचपन से ही सहनशील होने की शिक्षा दी जाती है। इसके साथ ही उसे मानसिक रूप से पुरुषों द्वारा प्रत्येक शोषण को अपना भाग्य मानकर स्वीकारने तथा बिना शिकायत किए हुए जीने की सीख दी जाती है। यह तथ्य है जिसके कारण महिला सर्जनकारों में आत्मकथा लेखन में संकोच बना रहा। 20वीं सदी में तो कोई लेखन हुआ नहीं। स्वतंत्रता पश्चात भारत में केवल राजनैतिक स्तर पर ही नहीं सामाजिक सांस्कृतिक स्तर पर भी विस्तृत रूप से बदलाव की आंधी चली। आधुनिक शिक्षायुक्त समाज का एक बड़ा वर्ग विशेष रूप से युवा वर्ग ने सदियों से प्रचलित सड़ी गली मानसिकता के जर्जर नियम तथा रूढ़ियों के विरुद्ध अपनी लेखनी चलायी। इससे दबे-कुचले वर्ग को वाणी मिली तथा इसका साहित्य पर भी प्रभाव पड़ा। एक व्यापक स्तर पर महिला लेखिकाओं द्वारा सामाजिक वर्जनाओं को अनदेखा कर बिना किसी लाग लपेट के आपबीती को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने की पहल एक सामाजिक क्रांति के रूप में साहसिक पहल थी। इसके माध्यम से समाज, संस्कृति तथा धर्म के नाम पर किए जाने वाले अत्याचारों का पर्दाफाश तो हुआ ही साथ ही एवं सुसंस्कृत कहे जाने वाले लोगों के चेहरे से मुखौटा भी उतरा। निम्न वर्ग में व्याप्त रिश्तों का दुरुपयोग तो अशिक्षा के कारण बाहर आ जाता था। किन्तु मध्यम वर्गीय तथा उच्च वर्गीय समाज अपने आप में सीमित रहने के कारण ढक-तोपकर आगे बढ़ जाता है। स्त्रियों ने पूर्ण साहस से सत्य को उद्घाटित किया।
21वीं शताब्दी के आरंभ में स्त्री विमर्श साहित्य के केंद्र में रहा तथा इसका प्रभाव साहित्य की एक विधा पर दृष्टिगत हुआ। विशेषत: आत्मकथा लेखन पर। साहित्य के प्रत्येक विधा के साथ इस गहन विमर्श ने स्त्रियों को स्वयं की पहचान करवाई। समाज में उनके होने एवं अपने अस्तित्व से परिचित करवाया। पूर्व में स्त्री केवल मां, पत्नी, बेटी, भाभी, मौसी, चाची आदि संबोधनों से जानी जाती रही है। सिमोन द बाउवर की पुस्तक ‘द सेकंड सेक्स’ का उल्लेख यहाँ उचित होगा कि “औरत पैदा नहीं होती बना दी जाती है।” उसे दोयम दर्जे का माना जाता है। आधुनिक शिक्षा से पूरित आत्मनिर्भर स्त्रियों ने इन तथ्यों को गहनता पूर्वक समझा। अपनी आवाज बुलंद करने का साहस दिखाते हुए भोगे हुए यथार्थ का उसकी समूची पृष्ठभूमि एवं उत्तरदायी कारणों (सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक एवं मनोवैज्ञानिक) को ईमानदारी तथा तटस्थता सहित पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया। मन्नू भंडारी, मैत्रेयी पुष्पा, प्रभा खेतान, प्रो. निर्मला जैन, शीला झुनझुनवाला, अजीत कौर, रमणिका गुप्ता, कृष्णा अग्निहोत्री, कौशल्या बैसंत्री, चंद्रकिरण सौनरिक्शा, डॉ अहिल्या मिश्र आदि कुछ ऐसी लेखिका हैं जिनकी आत्मकथा में उपरोक्त तथ्यों के साथ-साथ नारी अस्मिता निज से वाद-विवाद, यौन सूचिता आदि प्रश्नों पर गहन विवेचन-विश्लेषण प्राप्त होता है।
विवेच्य लेखिकाओं की आत्मकथा में चित्रित नारी जीवन में पर्याप्त भिन्नता पाया गया है। स्वाभाविक है कि उनके जीवन का विभिन्न सांस्कृतिक, सामाजिक परिवेश से उनका संबंध है कुछ का जन्म ग्रामीण परिवेश में तो कुछ का जन्म कस्बों में तथा कुछ का महानगरों में हुआ। संबंधित परिवेश की विविधता एवं इससे संबंधित प्रभाव जीवन एवं लेखन में परिलक्षित होता है। साथ ही कुछ लेखिकाओं की आत्मकथा में पाश्चात्य संस्कृति एवं सभ्यता का भी व्यौरा मिलता है। यह उनके विदेश यात्राओं का प्रभाव है। निर्विवाद सत्य है कि सामाजिक आचार-विचार के साथ प्रत्येक देश, राज्य तथा क्षेत्र विशेष की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति होती है जो उसकी पहचान होती है एवं वही समाज उससे जुड़ी संस्कृति के साथ व्यक्ति के जीवन को प्रभावित तो करता ही है साथ ही उसकी मानसिकता को भी गहन रूप से प्रभावित करता है। सामाजिक तथ्यों के साथ उपरोक्त लेखिकाओं की आत्मकथा में एक तथ्य विशेष रूप से उभर कर सामने आया है - नारी शोषण। नारी अपने बाल्यावस्था में हो, किशोरावस्था में हो, युवावस्था में हो,अधेड़वास्था में हो या वृद्धावस्था में, पुरुष सत्तात्मक समाज हर स्थिति में उसके विविध आयामों में उसे शोषित करता रहता है। शारीरिक स्तर से लेकर मानसिक एवं भावनात्मक रूप से शोषण प्रमुख है।
उपरोक्त लेखिकाओं की आत्मकथाओं में नारियों के शोषण के दोनों रूप शारीरिक एवं मानसिक शोषण के साथ भावनात्मक शोषण का भी अति सूक्ष्मता पूर्वक चित्रण हुआ है । ऐसे शोषण का शारीरिक कोई लक्षण दिखाई नहीं देती है किंतु मन मस्तिष्क पर इसका गहन प्रभाव पड़ता है। मन्नू भंडारी की आत्मकथा “एक कहानी ऐसी भी” इसका जीवंत एवं साक्षात् उदाहरण है। सुप्रसिद्ध लेखक स्व राजेंद्र यादव से उनका प्रेम विवाह असफल सिद्ध हुआ। अपने पति से उन्हें जीवन पर्यंत बेवफ़ाई, तिरस्कार तथा अवहेलना मिला। प्रेम विवाह एक खोखला विवाह संस्कार बन गया। प्रेम हवा-हवाई होकर मात्र विवाह शेष रह गया था। दाम्पत्य जीवन के आरम्भ में ही उन्हें ‘समानांतर जीवन का सूत्र’ सिखा दिया गया। यानी कि छत एक ही होगा परंतु दोनों के अधिकार के क्षेत्र एक अलग अलग होंगे। मन्नू लिखती हैं - “प्रथम रात्रि को राजेंद्र जब मेरे पास आए तो उनके रंगों में लहू नहीं अपने किए का अपराध बोध था….. बिलकुल ठंढे और निरुत्साहित। और फिर यह ठंडापन हमारे सम्बंधों के बीच स्थायी बनकर जम गया।”
मन्नू जी पैंतीस वर्षों तक इस निर्जीव रिश्ते को ढोती रहीं। निरंतर तनाव ग्रस्त रहने के कारण उन्हें न्युरोलॉजिया के दर्दनाक दौड़े पड़ने लगे। ऐसी स्थिति में भी राजेंद्र यादव उनकी दर्द और तकलीफ़ को अनदेखा कर अपने मित्र एवं उसकी पत्नी के साथ एक गोष्ठी में जहाँ मन्नू जी भी आमंत्रित थीं जाने का कार्यक्रम बना लिए। उनकी असम्वेदनशीलता को उजागर करते हुए मन्नू जी लिखती हैं कि राजेंद्र जी उनसे कहने लगे “मन्नू नहीं जा रही है तो क्या हुआ…. मैं तो हूँ, देखिए तो क्या मौज करवाता हूँ .. और खूब मस्ती मारेंगे.. आप अपना कार्यक्रम बिलकुल कैंसिल नहीं करेंगी… मेरे छटपटाते मन पर मौज करेंगे, मस्ती मारेंगे जैसे शब्द खुदते चल रहे थे। और उससे उपजी तकलीफ़ आंसुओं में बहती चली जा रही थी। मन्नू जी प्रेरणा प्रोत्साहन के अभाव में कहानी लिखती हैं। वह कहानी छप जाती है। तब लेखिका मन्नू भंडारी को अपना एक अलग अस्तित्व नज़र आती है। ‘महाभोज’ और ‘आपका बंटी’ के लेखक से अपना अलग अस्तित्व का कर्म कर पाईं। इसी तरह की मानसिक त्रासदी से अजित कौर को भी दो चार होना पड़ा। एक सुशिक्षित पति जो कि पेशे से डॉ है उसका व्यवहार उनके प्रति असम्वेदनशील रहा है। अपने चरित्रहीन पति और ससुराल वालों को प्रसन्न करने का हर संभव प्रयत्न किया। किन्तु उनके व्यवहार में कोई अंतर नहीं आ पाया।
पति का घर त्यागने के पश्चात् कृष्णा अग्निहोत्री को महाविद्यालय में नौकरी मिली। वहाँ की महिला प्राचार्या उनकी नियुक्ति का आदेश देखते ही बोली- “तुम यहाँ क्यों आई? तुम्हें और कोई जगह नहीं मिली? इसी में अभी भी तुम्हारी भलाई है कि किसी और जगह चली जाओ।”
इसी तरह ‘पिंजरे की मैना’ में चंदकिरण सोनरिक्शा सास द्वारा एक अल्पायु बालिका वधू के शोषण को उद्घाटित करती हुई कहती हैं कि घर में बहू के आते ही सास ने उससे सौतेलेपन का व्यवहार शुरू कर दिया। मिसरानी छुड़ा दी गई। पाँच-छह व्यक्तियों का खाना वह बारह-तेरह वर्ष की बालिका बना लेती पर जो गाँव से समय-असमय आने वाले मेहमान थे उनके लिए सेरों आटे की रोटियाँ सेंकना उसके लिए कठिन हो जाता था। एक अन्य स्थान पर चंद्र किरण लिखती हैं कि उनके रिश्ते की एक बाल विधवा का पुनर्विवाह कराया गया। किन्तु उसके प्रति व्यवहार अति द्वेषपूर्ण रहा। वह हरदम उसे नीचा दिखाने के बहाने ढूँढती रहती। यहाँ तक कि बच्चों से उनकी जासूसी करवाती। उन्हें स्कूल तक जाने नहीं देती। इसी संबंध में बच्चा अपने पिता से क़हता है कि बाबूजी दादी ने मुझे चौकीदार बना दिया है मैं स्कूल का नागा कब तक करूँगा…. नई माँ दूध में पानी तो नहीं मिला रही है। मलाई छिपा कर तो नहीं रखती।” यहाँ यह सच सिद्ध होता है कि केवल पुरुष ही कटघरे में खड़े नहीं किये गये हैं। कई स्त्रियाँ भी भी इस घेरे में में आती हैं। आत्मकथा के विभिन्न प्रसंगों के बीच रिश्तों का विरोधी स्वरूप एवं स्त्री का स्त्री के प्रति द्वेष भी सामने आता है।।
मैत्रेयी पुष्पा अपने कॉलेज के समय की एक घटना स्मरण करती हुई बताती हैं कि “गरीब एवं गाँव से संबंधित होने के कारण कॉलेज में पढ़ने वाली अमीर घराने की लड़कियाँ उन्हें नीचा दिखाकर उनका आत्मविश्वास तोड़ने एवं दुख पहुँचाने के बहाने ढूंढती थी। एक दिन तो उनलोगों ने एक बेहद शर्मनाक घटना की रचना रच दी कि मैत्रेयी को अपने लड़की होने पर शर्म हुआ हुआ साथ ही रोना आया। वे रोती हुई उस कुर्सी के पास ठहर गई जहाँ से ये दाग लगे थे। किसी क्रूर लड़की ने कुर्सी पर लाल रंग ही उड़ेल कर लड़की होने का मज़ाक़ उड़ाया था”- कस्तूरी कुंडल बसै- मैत्रेयी पुष्पा।
कस्तूरी मैत्रेयी जी के माँ का नाम है। वास्तव में ‘कस्तूरी कुंडल बसै’ आत्म कथा उन्हीं के संघर्षों का लेखा जोखा है। कस्तूरी के पति का देहांत होने के बाद एक बाल विधवा द्वारा गोदी की बच्ची को पालना पहाड़ पर चढ़ने के समान था। समाज में पुरुषों की नज़र से अपने को बचाते हुए तथा बच्ची की रक्षा करते हुए, उसे शिक्षित करते हुए आत्म निर्भर बनाने के लिए किए जानेवाले प्रयास एवं संघर्ष की एक लम्बी शृंखला है जो कभी न ख़त्म होने वाले रास्ते पर जाती है।
कस्तूरी ने छोटी उम्र में जो दुःख झेले जीवन के कठिनतम परिस्थितियों ने उन्हें लड़ना सिखा दिया। उनका कथन है कि एक नारी तभी सम्मान प्राप्त करती है जब वह शिक्षित एवं आत्मनिर्भर हो। लेखिका का मानना है कि नारी का पढ़ा लिखा होने के साथ साथ गृहस्थ जीवन में संतुलन भी बनाने आना चाहिए।उसमें आत्म निर्भरता भी होना चाहिए जिसके आधार पर जीवन का निर्णय वह स्वयं ले सके। इनका मानना है कि पारिवारिक जीवन में जिम्मदारियों को निभाते हुए विकास करना ही जीवन की सफलता है। मनमानी करना नहीं।
मैत्रेयी जी ने अपने दूसरे उपन्यास ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ में अपने संपूर्ण जीवन को खोलकर इसके सभी पन्नों पर फैला दिया है। अलीगढ़ की भंटी बहू से लेकर मिसेज़ शर्मा से होते हुए मैत्रेयी पुष्पा बनने तक की कहानी है यह आत्मकथा। विवाह के पच्चीस वर्ष बाद लेखिका की पहली कहानी ‘आक्षेप’ साप्ताहिक में छपी तो मिसेज़ शर्मा से पूर्व मैत्रेयी पुष्पा का नाम पुनः सूर्य की भाँति चमकने लगा। फिर शुरू हुआ लेखिका का लेखन संघर्ष एवं अस्तित्व की तलाश। मैत्रेयी जी ने आत्मकथा में स्पष्ट किया कि चाक, अल्मा कबूतरी, अगन पक्षी, इदन्नमम जैसे उपन्यास क्यों लिखे। ‘कहे इश्वरी फाग’ लिखने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई। लेखिका के अनुसार “विवाह स्त्री के सुरक्षा का गढ़, संरक्षण का क़िला, शांति के नाम पर निश्चिंतता की सन्नाटे भरी गुफा और ग़ुलामी का आनंद।” लेखिका को पति सत्ता के क़िले में रहते हुए अपना लेखन कार्य छिपा कर करना पड़ता है। अस्तित्व की इस लड़ाई की खोज में पारिवारिक कलह के समक्ष अडिग अपने स्वत्व की खोज में लेखिका मानती है कि स्त्रियों का जन्म एक ऐसे पौधे के रूप में होता है जिन्हें हिलाने-डुलाने और विकसित करने के लिए हवा ज़रूरी है। लेकिन हमारे माली बने लोग कहते हैं बौनसायी रहा करते नहीं तो बढ़कर अपनी ख़ूबसूरती खो देते हैं।” लेखिका के अनुरूप भारतीय समाज में गृहस्थों के संस्कार जन्म से लेकर मृत्यु व पिंडदान तक पुत्रों से बंधा होता है। तीन पुत्रियों की माँ बनने के साथ अपमान एवं सन्नाटा का हृदय विदारक वर्णन लेखिका ने कियाहै।
रमणिका गुप्ता की आत्मकथा ‘कोयला खदानों,’ राजनीति तथा सड़क पर मजदूरी करने वाली स्त्रियों की दैहिक तथा मानसिक शोषण को उजागर करती है। निर्मला जैन की आत्मकथा पढ़े लिखे लोगों की सामाजिक विडंबना को सबके सामने लाती है साथ ही शिक्षण संस्थानों में चल रहे शिक्षकों एवं प्रशासन के आपसी घात-प्रतिघात से पाठक को रूबरू करवाती है। एक उच्च शिक्षा प्राप्त स्वाबलंबी स्त्री होने के उपरांत भी उनके जीवन में गुटबाजी एवं घटिया राजनीति के कारण चारित्रिक लांक्षण का सामना करना पड़ता है। उनके चरित्रहरण का प्रयास किया जाता है। तब उन्हें तत्कालीन कुलपति से सहायता हेतु प्रार्थना करती करनी पड़ती है। उन्हीं के शब्दों में - “भर्राई आवाज में इतना ही कह पाई, मुनीस भाई मेरी इज्जत बचाने के लिए आप क्या कर सकते हैं।” कहते हुए मेरी आंखें भर आईं।
मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा में स्त्रियों पर होने वाले यौन शोषण के कई उदाहरण मिलते हैं। बचपन में उसकी विधवा माता ग्राम सेविका की नौकरी के चलते उन्हें अपने पास न रखकर परिचित तथा संभ्रांत परिवारों में रखती है। उद्देश्य होता है कि वह वहाँ रहकर सुरक्षित रहेगी एवं शिक्षा प्राप्त कर सकेगी। किंतु उसका विश्वास तब खंडित होता है जब मैत्रेयी उन्हें अपनी आपबीती मर्मांतक शब्दों में लिखती है - “माता जी, वह मुझे रात भर सोने नहीं देता....मैं यहाँ नहीं रहूंगी। गांव भाग जाऊंगी। शहर के लोग कैसे हैं।” इसके पश्चात मैत्रेयी की माताजी उसे किसी दूसरे घर में रखती हैं। वहां इस घर का वृद्ध व्यक्ति उससे बलात्कार का प्रयास करता है किंतु उसके विरोध में कहीं से कोई आवाज नहीं उठाई जाती है। वास्तव में ऐसे बहुत सारे लोग मनुष्य के रूप में छुपे हुए भेड़िए हैं जो दोमुहा जीवन जीते हैं। बाह्य रूप से यह सभ्य तथा आदर्शवादिता स्वर निकालते हैं किंतु वास्तविक रूप से रक्षक ही भक्षक बनते हैं। बाल्यावस्था से ही शारीरिक शोषण का शिकार हुई रमणिका गुप्ता लिखती हैं कि उनका दैहिक शोषण बाहर वालों ने नहीं अपितु घर में रहने वालों ने तथा काम करने वालों ने किया। अभिजात्य परिवार में पली-बढ़ी रमणिका जी के माता-पिता अति व्यस्त जीवन जीते थे। बच्चों को नौकरी एवं अभिभावकों के सहारे छोड़ दिया गया। एक विश्वसनीय आर्य समाजी मास्टर को अपनी बेटियों की शिक्षा के लिए के पिता ने रखा किंतु वही रामणिका का शील हरण करने लगा। उन्हीं के शब्दों में देखें- “पापा जी और बिबी जी का कमरा अलग था। उन्हें मास्टर जी पर इतना विश्वास था कि देर रात तक उसे मेरे कमरे में रहने पर एतराज नहीं करते थे। मास्टर सारी रात मेरे कच्चे शरीर से खिलवाड़ करता रहा । मैं इतनी भयभीत थी न बोल सकती थी न रो सकती थी। मैं वही करती गई जो मास्टर कहता गया। फिर यह रोज का किस्सा हो गया।” प्रभा खेतान अन्या से अनन्या में लिखती हैं कि वे यहां 9 वर्ष की आयु में अपने ही घर में स्वयं अपने भाई द्वारा यौन शोषण का शिकार हुईं। विडंबना यह है कि दुष्कर्म कर्ता को सजा मिलने की जगह उन्हें ही चुप रहने की नसीहत दी गई। देखें उनके शब्दों में - “जब मैं 9 साल की थी तब घर में.... मैं एकदम चुप हो गई.... उस दिन दाई मां ने भी तो यही कहा था “काहू से न कहियो बिटिया, अपने पति से भी नहीं।” पर क्यों? उत्पीड़न के बावजूद औरत को खामोश रहने को कहा जाता है।
पुरुषों द्वारा नारी को मात्र भोग्या समझने या सामग्री समझने की मानसिकता सदियों से चली आ रही है। जन्म से ही उसे लड़के की तुलना में हेय समझा जाता है। उसकी अवहेलना की जाती है। बेटा के जन्म पर खुशी बेटी के जन्म पर दुख मात्र अनपढ़ लोगों का ही पूर्वाग्रह नहीं समाज का उच्च शिक्षित वर्ग भी इसी संकीर्ण मानसिकता का शिकार पाया जाता है। केवल पुरुष ही भारी शोषण के दोषी नहीं स्त्रियां भी उत्तरदायी होती हैं। कौशल्या बैसन्त्री अपनी मां का उदाहरण देते हुए कहती हैं कि उन्हें बेटा का बड़ा शौक था। हर प्रसूति के समय पुत्र की लालसा रहती थी। संतान लड़की पैदा होने पर मां बहुत उदास हो जाती। वे कहती थीं कि “जाओ उसे कूड़े में फेंक आओ” प्रभा खेतान लिखती हैं कि “अम्मा ने मुझे कभी गोद में लेकर चूमा नहीं। मैं चुपचाप घंटों उनके कमरे के दरवाजे पर खड़ी रहती। शायद अम्मा जी मुझे भीतर बुला लें। शायद अपनी रजाई में सुला लें। मगर नहीं। एक शाश्वत दूरी बनी रही हम दोनों के बीच।” कौशल्या बैसंत्री ने भी अपनी मां की कठोरता का वर्णन किया है। वे बात-बात पर बैसंत्री को पीटती थीं। एक बार तो इतना पीटा की पांव का अंगूठा घायल हो गया और अस्पताल ले जाना पड़ा।
यहाँ निर्मला जैन के लेखकीय क्षेत्र के एक अनुभव के माध्यम से पुरुष सम्पादकों की मानसिकता का उदाहरण प्रस्तुत है। हंस के सम्पादक राजेंद्र यादव अपने अहं तुष्टि के लिए जाने जाते हैं। उनकी ऐसी हरकतों पर मन्नू जी से गाहे-बगाहे उनकी कहा सुनी तो होती ही रहती थी। उन्होंने अपनी इन हरकतों से कई लोगों से नाराज़गी मोल ले ली थी। डॉ नगेंद्र उनमें से एक थे। नतीजा यह हुआ कि डॉ साहब भी उन्हें नाम से नहीं, अपशब्दों से नवाज़ा करते थे।
ऐसे ही एक प्रसंग में, मैंने हंस में कभी न लिखने की प्रतिज्ञा की थी। हुआ यह कि एक बार मैं और जैनेंद्र जी एक सेमिनार के लिए जम्मू विश्वविद्यालय में आमंत्रित किए गए। साथ में जैनेंद्र जी के साहबजादे प्रदीप जी भी थे। उस यात्रा के दौरान दो-तीन दिन लगातार उनका साथ बना रहा। उस बीच मेरे मन में उनके बारे में यह धरना और पुष्ट हो गई कि उनके व्यक्तित्व की बनावट ख़ासी जटिल है जिसे समग्रता में समझना आसान नहीं होता।
वापिस लौटकर मैंने उस अनुभव से प्रेरित होकर एक लेख लिखा जिसका शीर्षक था- ‘सिरा कहाँ है?’ राजेंद्र यादव बड़े उत्साह से उसे छापने के लिए तैयार हो गए। लेख छप गया। मैंने देखा, पर पढ़ने की ज़हमत नहीं उठाई। अंक मिलने के दो तीन दिन बाद अचानक राज़ी सेठ का फ़ोन आया। लेख उन्होंने खुद तो पढ़ ही लिया था, मुझसे बात करने के पहले अज्ञेय जी को भी पढ़वा दिया था। अज्ञेय जी की प्रतिक्रिया हुई थी: “ये तो कोई बहुत अच्छा काम नहीं किया निर्मला ने!” कुछ ऐसा ही महसूस किया था राज़ी ने भी। अज्ञेय जी से पुष्टि हो गई तो हिम्मत करके मुझे फ़ोन मिलाया। शुरुआत कुछ इधर- उधर की बातों से करके जैसे वे साहस जुटाती रहीं और फिर धीरे से बोलीं: आपका लेख पढ़ा ‘हंस’ में..” एक क्षण की चुप्पी के बाद जोड़ा उन्होंने : “वैसे आपने हिम्मत बहुत की।” मेरा चौंकना स्वाभाविक था। “ऐसी हिम्मत वाली क्या बात है उसमें।” मुझे जैसा लगा मैंने लिख दिया।” बात आगे बढ़ी: “ फिर भी हर कोई तो इस तरह लिखने का साहस नहीं कर सकता। अज्ञेय जी भी ताज्जुब कर रहे थे।” इस बार मेरा माथा ठनका। मैंने बात वहीं रोककर कहा कि “मैंने तो छपने के बाद पढ़ा ही नहीं है। एक बार पढ़के देखती हूँ, फिर तुमसे बात करूँगी।” संवाद वहीं ठप्प।
मैंने तुरंत हंस की ‘प्रति’ उठाई। लेख पढ़ते ही मेरे पाँव के तले की ज़मीन खिसक गई। राजेंद्र जी ने दो-तीन जगह कलम चला कर उसे ख़ासा कटखना और आपत्तिजनक बना दिया था। मैंने तुरंत फ़ोन मिलाकर जवाबतलबी की तो ठहाका लगाकर बोले: “अरे आपने क्या लिखा था, गुडी गुडी मज़ा तो अब आएगा जब लोग पढ़ेंगे। इतना अधिकार तो सम्पादक का होता ही है।” मैं फ़ट पड़ी: छापने या न छापने का अधिकार होता है। लेखक के बिना सहमति के कलम चलाकर तरमीम करने का नहीं। और जहाँ तक मज़ा आने का सवाल है, वह तो आना शुरू हो गया है। मेरी भर्त्सना शुरू हो गई है।” और मैंने उन्हें राज़ी अज्ञेय का प्रसंग सुना दिया। उनपर कोई असर नहीं हुआ इसका। वे उसी तरह ठहाका लगाते रहे। उनका ख़याल था कि पत्रकारिता में यह सब तो होता ही रहता है। इसमें इतना परेशान होने की कोई बात है ही नहीं।
संयोग से उन्हीं दिनों जैनेंद्र अस्वस्थ होकर अस्पताल पहुँच गए। मेरी अगली चिंता यह थी कि बीमारी की हालत में अगर किसी शुभचिंतक ने यह बात उन तक पहुँचा दी या स्वस्थ होने पर उन्होंने ‘हंस पढ़ लिया तो वे कितने आहत होंगे! मैंने अगला फ़ोन प्रदीप को मिलाकर उन्हें इस कांड से अवगत कराते हुए अनुरोध किया कि वे हंस की प्रति जैनेंद्र जी के हाथ न आने दें। मैंने राज़ी को भी इस स्थिति की जानकारी देकर अनुरोध किया की वे अज्ञेय जी को भी इस स्थिति से अवगत करा दें। ज़ाहिर है अज्ञेय जी ने अपनी मितभाषी स्वभाव के अनुरूप इतना ही कहा : “तो फिर इसमें निर्मला का क्या क़सूर है? पर राजेंद्र यादव को ऐसा करना नहीं चाहिए था।”
बात इतने पर ख़त्म नहीं हुई। मैंने राजेंद्र जी को इस प्रसंग पर एक लम्बा पत्र लिखा, यह इसरार करते हुए कि वे इसे ‘हंस’ में छापें, अन्यथा मैं पूरे ब्यौरे के साथ किसी और पत्रिका में छपवा दूँगी। पत्र की एक प्रति मैंने प्रदीप के पास भेज दी।
पत्र मिलते ही राजेंद्र जी के होश-फ़ाख्ता हो गए। वे स्वप्न में भी ऐसी पत्रिका की उम्मीद नहीं कर पा रहे थे। अपनी सम्पादकीय दादागिरी भुलाकर उन्होंने मुझसे मिलकर बात करने का आग्रह किया।?घर आए। देर तक मुझे इस बात के लिए क़ायल करने की कोशिश करते रहे कि मैं उस पत्र को छापने का इसरार न करूँ। जब तर्क-युक्ति से काम नहीं चला तो अपनी आदत के अनुरूप उन्होंने ठहाका लगाते हुए फ़रमाया : “अरे यार बस भी करो! अब हो गई गलती, तो क्या जान ही ले लोगी! लो पकड़ लिए तुम्हारे पैर। अब तो बख़्श दो। मैं अपने ढंग से छाप दूँगा। गलती का सुधार करते हुए” और यह कहते हुए उन्होंने सचमुच हाथ बढ़ाकर मेरे पाँव पकड़ लिये। ज़ाहिर है, इसके बाद कहने-सुनने लायक़ कुछ बचा ही नहीं। मैंने भरोसा किया, पर उन्होंने वायदे की औपचारिकता पूर्ति में जो दो पंक्तियाँ छापीं, उनका कोई अर्थ नहीं था। बस नतीजा यह हुआ कि मैंने ‘हंस’ में लिखना छोड़ दिया। (आत्मकथा पुस्तक से यह अंश उद्धृत किया गया है)
उपेक्षा का यह चक्र ही नहीं रुकता। जीवन पर्यंत गतिशील रहता है। हां रूप बदलते रहते हैं। नारी के शोषण दमन के विरुद्ध सबसे सशक्त शस्त्र शिक्षा को ही माना गया है। शिक्षा ही वह शस्त्र है जिसके माध्यम से नारी स्वाबलंबी, अपने अधिकारों के प्रति सजग तथा शोषण के विरुद्ध आवाज उठा सकती है। विवेच्य आत्मकथाओं के अनुशीलन के पश्चात चौंका देने वाले तत्वों का उद्घाटन होता है। यह सारे तथ्य वास्तव में गहन विश्लेषण की मांग करते हैं। इन पर विमर्श आवश्यक है। प्रभा खेतान ने ‘अन्या से अनन्या तक’ अपनी आत्मकथा में अपने जीवन सत्य का कठोर सामाजिक एवं पारंपरिक वर्जनाओं के भीतर पली-बढ़ी एक साधारण सी लड़की अपने बल पर एक सफल उद्योगपति तथा कलकत्ता चेंबर ऑफ कॉमर्स की प्रथम महिला अध्यक्ष बनती है। आर्थिक रूप से एक सफल एवं सशक्त स्त्री होते हुए भी वह भावनात्मक स्तर पर कमजोर साबित होती हैं। अपने जीवन के एकाकीपन को दूर करने हेतु डॉ सर्राफ के साथ तथा उनके परिवार के साथ 25 वर्षों के रिश्तों के पश्चात इस बेनाम रिश्ते से वे मात्र तिरस्कार बटोर पाती हैं। वे लिखती हैं कि “मैं अकेली थी। इतनी अकेली कि मैं किसी का रोल मॉडल नहीं बन सकी। कोई लड़की मेरे जैसी नहीं होना चाहिए। मेरी तमाम सफलताएं सामाजिक कसौटी पर पछार खाने लगती हैं। सारी उपलब्धियां अपनी चमक खो देतीं ..। जहां तनाव अधिक था कभी न खुलनेवाली गांठें थीं। डॉक्टर सर्राफ पर उनकी निर्भरता आत्ममानसिक रुग्णता बनने लगी। इसे वह सुरक्षा स्वरूप लेने लगी। डॉक्टर सर्राफ प्रेमी से अभिभावक बन गए। आय, व्यय बचत आदि का लेखा-जोखा बच्चों की तरह लेने और रखने लगे। किंतु इनको शक की नजरों से देखते हुए इनपर निगरानी भी रखने लगे। इस प्रकार वह स्वावलंबी होकर भी परावलंबी बनी रही। कृष्णा अग्निहोत्री की आत्मकथा से भी यह स्पष्ट होता है कि एक अच्छे परिवार की सुशिक्षित तथा आत्मनिर्भर नारी परायों के साथ-साथ अपनों द्वारा भी छली जाती है। उनका अपना भाई उन्हें पैतृक अधिकार से वंचित करता है। अपने चरित्रहीन आई पी एस पति द्वारा अमानवीय व्यवहार का शिकार बनती है। उच्च शिक्षा ग्रहण कर अपने पैरों पर खड़ी होने के पश्चात कार्यस्थल पर तिरस्कृत होना पड़ता है। पति से अलग रहने तथा जवान व सुंदर होने के कारण उन्हें स्वच्छंद प्रवृत्ति का माना जाता है और चारों ओर उपस्थित पुरुषों को लगता है कि वे सहज उपलब्ध होने वाली स्त्री है। 60 वर्ष की आयु में गोवा के रोहिताश्व चतुर्वेदी को अपना उपन्यास प्रकाशन हेतु देना था। उसने उनके सामने गोवा आकर अकेले में मिलने का प्रस्ताव रखा- “मेरी पत्नी यहां नहीं रहती है। गोवा में मैं बहुत अकेला हूं। इस उम्र में हम कुछ कर तो नहीं सकते पर साथ तो चाहिए।” यह उन्हीं का लेखन है। यानी स्त्री मात्र देह और दर्शनीय वस्तु भर है। पुरुष अकेली स्त्री को देखकर सभी सीमाएँ लांघने को उद्दत हो उठता है। इसे उजागर किया गया है।
पुरुषों द्वारा नारी को मात्र भोग्या या भोग की वस्तु समझे जाने के विषय में कृष्णा जी कहती हैं कि “सेक्स के अतिरिक्त भी स्त्री के सामने कई चुनौतियां रहती हैं। उसमें भी वह भागीदारी चाहती है। इसकी पूर्ति एक योग्य भाई, पति, बेटा या मित्र कर सकता है।” विवेच्य आत्मकथा में नारियों के शारीरिक शोषण के अलावा मानसिक शोषण का भी सूक्ष्मता पूर्वक चित्रण हुआ है। ऐसे शोषण का शरीर पर कोई चिह्न नहीं होता है या दिखाई देता है किंतु मन मस्तिष्क पर यह प्रभाव पड़ता है। मन्नू भंडारी की आत्मकथा ‘एक कहानी ऐसी भी’ इसका जीवंत उदाहरण है। राजेंद्र यादव से परिवार के विरोध के बावजूद भी प्रेम विवाह एवं इसकी असफलता के कारण पति की बेवफाई, तिरस्कार एवं अवहेलना की प्राप्ति होती है। प्रेम विवाह मात्र खोखला संस्कार सिद्ध होता है। इसमें प्रेम कहीं नहीं रहता।
अजीत कौर को भी मानसिक त्रासदी से गुजरना पड़ा है। एक सुशिक्षित डॉक्टर पति का व्यवहार उनके प्रति अति असंवेदनशील रहा है। अपने चरित्रहीन पति तथा ससुराल वालों को प्रसन्न रखने का उन्होंने हर संभव प्रयास किया। किंतु उनके प्रति उनके व्यवहार में कोई अंतर नहीं आता। एक बार वे बहुत बीमार हो जाती है। अपने पति से कहती है कि “मुझे संतरे ला दो या संतरे के लिए पैसे ही दे दो। डॉक्टर ने जूस पीने को कहा है।” बीमारी में उनसे सहानुभूति जताने के बजाय उनके पति ने कहा “जा अपने बाप के घर अगर संतरे चाहिए तो।”
‘पिंजरे की मैना’ में चंद्र किरण किरण सोन रिक्शा सास द्वारा एक अल्पायु बालिका वधू के शोषण को उद्घाटित करती हैं । ऊपर संदर्भित स्थिति में एक बालिका पर ढाए जानेवाले जुर्म एवं मानसिक त्रासद का विशद विवरण देती हैं। इसी में आगे के विवेचन को भी देखा जाना चाहिय। ऐसे कई पंक्तियों के बीच वे एक स्थान पर वह कहती हैं कि एक बाल विधवा का विवाह या पुनर्विवाह रचा गया किंतु उसकी सास का उसके प्रति बहुत ही दोषपूर्ण व्यवहार रहा। वह हर दम उसे नीचा दिखाने का बहाना ढूंढती रहती। यहां तक कि बच्चों द्वारा उसकी जासूसी करवाती। उन्हें स्कूल तक नहीं जाने देती। एक बच्चा अपने पिता से कहता है कि “बाबूजी दादी ने मुझे चौकीदार बना दिया है।” इन पंक्तियों को दुबारा रखने में मेरा मक़सद है कि स्त्री विमर्शों के इस भाव के द्वारा स्त्रियों के प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार का उल्लेख लगभग सभी आत्मकथाकारों ने किया है। पारिवारिक क्लेश की बात करें तो सर्वप्रथम सास-बहू, ननद-भाभी, देवरानी-जेठानी के रिश्तों पर उंगली उठती है। दांपत्य जीवन में दरारें औरत ही डालती है। वैसे भी ससुराल मैके के बीच आधिपत्य का दंश भी बहू को ही झेलना पड़ता है। ससुराल में मैके से जुड़ी स्त्री को कई बार सास एवं अन्य रिश्तेदारों के ताने झेलने या सुनने पड़ते हैं। स्त्री का अपना कोई व्यक्तित्व गिना ही नहीं जाता। यह भी कुछ आत्मकथाओं में पढ़ने को मिला। इससे उनके कोमल मन पर एक अतिरिक्त दवाब बनता है और वह बेचैन हो उठती है।
21वीं सदी के उत्तरार्ध के पश्चात उत्तर एवं पूर्वकालिक समय में एक आत्मकथा आई है। जिस पर पिछले कुछ समय से चर्चा चल रही है। डॉक्टर अहिल्या मिश्र कृत ‘दरकती दीवारों से झांकती जिंदगी’। यह आत्मकथा अभिव्यक्ति की सादगी, जीवन के प्रतिफल में जीया गया अनुभवों का खाड़ापन सार्वजनिकता और उत्तर देने की ताकत एवं साहस सार्थक अर्थों को प्रतिपादित करने की क्षमता भावों की संप्रेषनियता के साथ मानवीय मूल्यों को जीने की ललक सहित विभिन्न स्तरों पर संघर्ष, सामाजिक मान्यताओं को तोंड़कर नई स्थापना की शक्ति से लबालब, जीवंत एवं जोश से भरी आज की स्त्री का चित्रण है। परिवार, समाज एवं रिश्तों में बलिदान देने के बजाय रिश्तों की नई परिभाषागढ़ना ही इस उत्साही स्त्री की कहानी है। स्त्री शोषण, जमींदारी प्रथा, सीमाओं का बंधन तोड़ते हुए विकास के रास्ते पर बढ़ना यही लक्ष्य है उस स्त्री का। वर्ग भेद एवं इनके सामाजिक आचरण के साथ स्त्री शिक्षा को सर्वोच्च मान्यता देने वाली स्त्री की कहानी जीती एक स्त्री है। इस आत्मकथा में पितृसत्तात्मक समाज से उलझती अहिल्या संघर्षरत है। स्त्री स्वाभिमान हेतु संघर्ष के चरम भी दिखाई देता है। आत्मनिर्भरता का पाठ ही साहस एवं सफलता की क़ुंजी है। पति के साथ अनजान प्रदेश की यात्रा का साहस अदम्य है। पुनः साहित्यिक क्षेत्र में पुरुष वर्चस्व के बीच पहचान का संघर्ष एवं पुरुष साहित्यकारों की पिछलग्गू नहीं बनने पर उनके द्वारा दी गई संत्रास एवं दबाव को झेलने की क्षमता दिखाना आदि कई स्वरूप उभरकर सामने आए हैं। इस आत्मकथा के माध्यम से हम अहिल्या के मजबूत इरादे के साथ स्त्री उत्थान एवं दृढ़ता से सत्य कहने के साहस का संचार स्त्री के बीच फैलाते हुए पाते हैं। बहुत ही सकारात्मक भाव बनता दिखाई देता है। हां स्त्री का एक नया स्वरूप कहानी में दिखता है। भोजन बनाने की अक्षमता पुरुष सहयोग स्वसुर के रूप में तथा निडरता का व्यापक चित्रण मिलता है। एक वाक्य नारी के परिवर्तित मानसिकता का चित्रण करती है- “खोल अपनी धोती ले अपनी साड़ी आज से तेरा मेरा रिश्ता खत्म।” वह स्त्री इसके साथ ही मायका प्रस्थान कर जाती है। इस प्रकार शोषण के विरोधी स्वर एक स्तम्भ सा सामने खड़ा दिखाई पड़ता है। अभी इस आत्मकथा पर कई टिप्पणियां आ रही हैं। पाठक की रुचि बनी हुई है।
स्त्रियों द्वारा स्त्रियों के प्रति उपेक्षा पूर्ण व्यवहार का उल्लेख प्रायः सभी आत्मकथाओं में उभर कर आया है। नारी जीवन का विविधा पूर्ण चित्रण करती विवेच्य लेखिकाओं की आत्मकथाओं में एक तथ्य समान रूप से दृष्टिगोचर होता है वह है शोषण का प्रतिकार। देर अवश्य हुआ किंतु अब आधुनिक समय की स्त्रियों ने यह दिखा दिया है कि वे अब शोषण नहीं सहेंगीं। कौशल्या बैसंत्री ने 61 वर्ष की आयु में अपने पति को तलाक देकर जीना शुरु किया। कृष्णा अग्निहोत्री ने अपनी पुत्री सहित पति का घर त्याग दिया। अजीत कौर ने भी पति की अवहेलना के प्रतिउत्तर में अपनीदोनों बेटियों के साथ अलग जीवन जीने लगी। रमणिका गुप्ता अपनी शर्तों पर जीवन जीती रही। प्रभा खेतान विवाह संस्कार को खतरा बताते हुए अपने प्रेम को वरणकर जीवन जीती रहीं। निर्मला जैन भी राजनीति से उभर कर अपनी स्व पहचान बनाने में सक्षम रही। अहिल्या मिश्र अनजान स्थान पर अपने अस्मिता की स्थापना कर एक नई पहचान बना पाई है। उपरोक्त सभी आत्मकथाओं से गुज़रते हुए यह स्पष्ट होता है कि पुरुष वर्चस्व के क़ैद में जकड़ी स्त्री अपने स्वत्व के लिए अपने मान-सम्मान के लिए अपने अंतर्मन के स्त्री को प्रबल, सबल करती है। एवं उनका आत्मविश्वास एवं साहस उसे आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है।
इस प्रकार हम पाते हैं कि 21वीं एवं 22 वी सदी के आरंभिक दशकों में नारी आत्मकथाओं के बीच स्त्री के सफल एवं सशक्त रूप उभर कर एक नई स्थापना करने में सफल एवं सक्षम हुए हैं। ये सभी नारियां अपने अधिकारों के प्रति जागरूक एवं अपनी अस्मिता के लिए बड़ी चुनौती का सामना सामना करने से नहीं हिचकिचाती है। सभी स्वतंत्रता, स्वावलम्बन आत्मनिर्भरता एवं नारी अस्मिता को शिक्षा के साथ अर्थायित करती है।
संदर्भ:-
१. सभी विवेच्य आत्मकथाएँ
२. प्रभा खेतान - अन्या से अनन्या तक
३. मन्नू भंडारी - एक कहानी यह भी
४. मैत्रेयी पुष्पा - कस्तूरी कुंडल बसै, गुड़िया भीतर गुड़िया
५. निर्मला जैन - जमाने से हम
६.रमणिका गुप्ता - अपहुदरी
७. कौशल्या बैसंत्री - दोहरे अभिशाप
८. कृष्णा अग्निहोत्री - लगता नहीं है दिल मेरा
९. अजीत कौर - कूड़ा कबाड़
१०. चंद्रकिरण सौनरेक्शा - पिंजरे की मैना
११. डॉ अहिल्या मिश्र - दरकती दीवारों से झांकती ज़िंदगी।
- डॉ अहिल्या मिश्र
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