बाल श्रमिकों के परिवारों को सहायता राशि कई बच्चे खनन के अलावा पावरलूम और होटल उद्योग आदि से भी जुड़े हुए थे, लेकिन लॉकडाउन के दौरान ये सभी बंद थे. जिस
बाल श्रमिकों के परिवारों को सहायता राशि
मार्च 2020 में भारत में कोविड -19 महामारी की चपेट में आने के तुरंत बाद देशव्यापी तालाबंदी लागू होने से देश भर के उन लाखों श्रमिकों को अपने घरों को लौटने के लिए मजबूर होना पड़ा, जो आय या सामाजिक सुरक्षा से वंचित थे. हालांकि शहर से गांव लौटने के बाद भी उनकी परेशानी खत्म नहीं हुई. उनमें से कई परिवार गांव आने के बाद बेरोजगार हो गए. लॉकडाउन के चलते उन्हें किसी तरह का काम नहीं मिल रहा था. इनमें से ज्यादातर खेतिहर मजदूर थे लेकिन गर्म मौसम के कारण उन्हें खेतों में भी काम नहीं मिल रहा था. राजस्थान के अजमेर जिले का किशनगढ़ प्रखंड भी कोरोना से बुरी तरह प्रभावित था. लेकिन यहां समस्या अलग थी. खनन प्रभावित क्षेत्र होने के कारण यहां बाल श्रमिकों की संख्या भी काफी है. यहां हजारों बच्चे मार्बल फिनिशिंग यूनिट्स और माइनिंग सेक्टर में काम करते दिख जायेंगे. लॉकडाउन के कारण खनन और उससे संबंधित गतिविधियां भी ठप पड़ गई थीं, जिससे सैकड़ों बच्चे घर पर ही बैठे रहे. जो परिवार इन बच्चों की मजदूरी पर ही गुजारा करते थे, वे आर्थिक संकट से जूझने लगे. कई बच्चे खनन के अलावा पावरलूम और होटल उद्योग आदि से भी जुड़े हुए थे, लेकिन लॉकडाउन के दौरान ये सभी बंद थे. जिससे इन बाल बच्चों के घरों में खाने के संकट पड़ने लगे.
इस संकट काल में किशनगढ़ के अलावा तीन जिलों में कार्यरत एक गैर सरकारी संगठन ग्रामीण महिला विकास संस्थान ने ऐसे बच्चों के परिवारों की मदद करना शुरू किया. संगठन ने लॉकडाउन के दौरान 500 बाल मजदूरों के परिवारों की सूची बनाकर उनके बीच खाद्य सामग्री का वितरण किया. उक्त एनजीओ के संस्थापक शंकर रावत कहते हैं, “लॉकडाउन एक ऐसा समय था, जिसे हम कभी नहीं भूलेंगे. पहले लॉकडाउन के बाद जब मजदूर अपने घरों को लौटे तो कई संस्थाओं ने समाज के विभिन्न तबकों में खाद्य सामग्री बांटी, लेकिन कुछ दिनों बाद पता चला कि जो बच्चे खदानों और फैक्ट्रियों में काम करते हैं, उनकी तरफ न सरकार ने ध्यान नहीं दिया, न ही किसी एनजीओ ने और न ही साधन संपन्न लोगों ने उनके बारे में सोचा." शंकर आगे बताते हैं कि "उनके संगठन ग्रामीण महिला विकास संस्थान फिर इन बाल मजदूरों के परिवारों की एक सूची बनाई. चूंकि हमारा संगठन पहले से ही बाल श्रम पर काम कर रहा है, इसलिए ऐसी सूची बनाने में ज्यादा परेशानी नहीं हुई. उसके बाद संगठन की पांच टीमों ने 500 चयनित परिवारों को राशन पहुंचाना शुरू किया.
संस्था के एक अन्य सदस्य दीपक ने बताया कि इस राशन किट में प्रत्येक परिवार (औसतन पांच सदस्यों का परिवार) को 15 दिन का राशन दिया गया, जिसमें आटा, दाल, चावल, चीनी, मसाले और सब्जियां आदि शामिल थे. पहले लॉकडाउन के दौरान तीन महीने और दूसरे लॉकडाउन में भी लगातार तीन महीने राशन बांटा गया. इस तरह सूची में शामिल उन सभी परिवारों को छह माह में करीब दस बार राशन पहुंचाया गया. दिलचस्प बात यह है कि जीएमवीएस के संस्थापक शंकर सिंह रावत खुद बाल मजदूर थे. बचपन में वे एक पावरलूम फैक्ट्री में काम करते थे. शंकर कहते हैं, ''उस समय मैं 11-12 साल का था. मैंने 1990 से 1995 तक किशनगढ़ से 7 किमी दूर एक पावरलूम फैक्ट्री में काम किया था." शंकर कहते हैं कि "मुझे पावरलूम में एक बुनाई मशीन पर नौकरी मिल गई. जहां कपड़े सिलने के लिए धागे में रील भरने का काम था. 8 घंटे की शिफ्ट में दो हजार रिलें भरनी होती थी. इसके लिए 14.50 रुपये दैनिक वेतन मिलता था. ज्यादा पैसे कमाने के लिए मैं दो शिफ्ट में काम करता था. काम सीखने के बाद मैं पांचवें साल में सुपरवाइजर बन गया. तब मेरी तनख्वाह दस हज़ार रुपये प्रतिमाह हो गई थी.
वास्तव में अजमेर जिले में बाल मजदूरी एक बहुत पुरानी समस्या है. ज़िले के केकरी, श्रीनगर, भिनाई, दाता, नोलखा, महमी और किशनगढ़ के इलाकों में बच्चे खनन में पत्थर तोड़ते थे. इसके अलावा बड़ी संख्या में बच्चे होटलों और फैक्ट्रियों में भी काम करते हैं. शंकर रावत का कहना है कि इन क्षेत्रों में पिछले 5 वर्षों में 100 से अधिक बच्चों को बाल श्रम से मुक्त कराया गया है. संगठन ने अब तक 20,000 से अधिक बच्चों को बाल श्रम के दुष्चक्र से बचाया है. शंकर के अनुसार वर्ष 2000 में, भारत सरकार का श्रम मंत्रालय बाल श्रम को इस दुष्चक्र से बाहर निकालने और समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए एक परियोजना लेकर आया था. इस परियोजना के माध्यम से ऐसे बच्चों के लिए श्रमिक विद्यालय खोले गए. अजमेर जिले में ऐसे 20 स्कूल खोले गए. एक स्कूल में 50 बच्चे थे. इस परियोजना में बाल श्रमिक के रूप में काम करने वाले बच्चों को स्कूल में छात्रावास की सुविधा भी प्रदान की जाती थी और उन्हें 300 रुपये मासिक वजीफा भी दिया जाता था. इसके अलावा उनके लिए कपड़े और लंच आदि की भी व्यवस्था की गई थी. पहला स्कूल वर्ष 2000 में बवानी गांव में खोला गया था. अगले वर्ष तीन नए स्कूल नोलाखा, किशनगढ़ और मेहमी में खोले गए. इन स्कूलों में कुल 200 बच्चे थे, जो खनन का काम करते थे. इन स्कूलों में छात्रों को पांचवीं तक पढ़ाया जाता था. सरकार ने इस परियोजना को साल 2012 तक जारी रखा. इस प्रकार इन 12 वर्षों में 650 से अधिक बच्चे बाल श्रम के दलदल से बाहर निकले.
शंकर का कहना है कि इस परियोजना के अलावा उनका संगठन जीएमवीएस ने अपने निजी संसाधनों का उपयोग कर बाल श्रम के खिलाफ एक अभियान भी शुरू किया और अब तक 20,000 से अधिक बच्चों को बाल श्रम से मुक्त करने में सफल रहा है. वे सभी बच्चे पंचायतों के स्कूलों में जाते हैं जहां परियोजना चल रही थी. श्री दीपक का कहना है कि उक्त संस्था ने कोविड काल में राशन वितरण के साथ ही जरूरतमंदों को 30 लाख रुपये का सामान व नकद राशि का वितरण किया. यह पैसा क्षेत्र के फैक्ट्री मालिकों और हितग्राहियों से प्राप्त हुआ था. पहले लॉकडाउन के दौरान 1,500 परिवारों की सहायता की गई और दूसरे लॉकडाउन के दौरान लगभग 10,000 परिवारों की सहायता की गई. लेखक वर्क नो चाइल्ड्स बिजनेस के फेलो हैं. (चरखा फीचर)
- माधव शर्मा,राजस्थान
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