पति द्वारा पत्नी के सम्मान के वचन महिलाओं के विरुद्ध समाज का दृष्टिकोण आज भी नहीं बदला है. घर की चारदीवारी के अंदर होने वाली हिंसा को न केवल पारिवारिक
नहीं बदला है घरेलू हिंसा का स्वरूप
21वीं सदी का वैज्ञानिक युग कहलाने के बावजूद ऐसा कोई दिन नहीं गुज़रता है जब देश के समाचारपत्रों में महिला उत्पीड़न विशेषकर घरेलू हिंसा की ख़बरें प्रकाशित नहीं होती हैं. हाई सोसाइटी से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक महिलाओं के खिलाफ हिंसा और उत्पीड़न के मामले सामने आते रहते हैं. मैदानी इलाकों से लेकर पहाड़ी राज्यों तक यह सिलसिला जारी है. ऐसे ही बहुत से मामले पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में भी देखने को मिलते हैं. वास्तव में राज्य भर में महिला उत्पीड़न के मामलों में लगातार बढ़ोतरी देखने को मिल रही है. यदि केवल महिला घरेलू हिंसा के मामलों पर नजर डालें तो प्रदेश में प्रतिदिन 60 महिलाएं इसका शिकार होती हैं. इसी वर्ष फरवरी महीने के पहले 20 दिनों में महिला उत्पीड़न के कुल 2041 शिकायतों में से 1210 शिकायत केवल घरेलू हिंसा से ही जुड़ी थी. वहीं जनवरी महीने में आई कुल 2780 शिकायतों में से 1670 घरेलू हिंसा और दिसंबर 2020 में आई कुल 2712 शिकायतों में से 1585 शिकायतें केवल घरेलू हिंसा से संबंधित थीं. यह वह आंकड़ा है जो घर की चारदीवारी से बाहर निकल कर थाने में दर्ज कराई जाती है. इनमें से कई महिलाएं शिकायतें दर्ज करवाने के लिए थाने तक नहीं पहुंच पाती हैं.
राज्य के बागेश्वर जिला स्थित कपकोट ब्लॉक के असों गांव में भी घरेलू हिंसा के कई मामले सामने आ रहे हैं. लगभग 3000 की आबादी वाले इस गांव में घरेलू हिंसा के मामले आए दिन देखने को मिलते हैं. जहां महिलाएं घर पर अपने पति की मार-पीट और गाली गलोच की शिकार होती हैं. लेकिन वह इसकी शिकायत करने के लिए पुलिस स्टेशन तक भी नहीं पहुंच पाती है. वैवाहिक जीवन और बच्चों की खातिर वह इसे बर्दाश्त करती रहती है. जिसे पितृसत्तात्मक समाज उसकी कमज़ोरी समझ कर इस हिंसा को मौन समर्थन देता है. हालांकि हिंसा करने वाले घर के पुरुष यह बात भूल जाते हैं कि जो वह मारपीट अपनी पत्नी के साथ कर रहे हैं, इसका नकारात्मक रूप से प्रभाव बच्चों के मन मस्तिष्क पर किस प्रकार पड़ेगा? इस संबंध में गांव की एक किशोरी अक्षिता (बदला हुआ नाम) का कहना है कि मेरे घर में आए दिन मेरे पिता मेरी मां के साथ न केवल झगड़ा करते हैं, बल्कि अक्सर उनके साथ गाली-गलोच और मारपीट भी करते हैं. उनके इस झगड़े का सीधा असर मेरी पढ़ाई पर पड़ता है. मैं जब भी पढ़ने बैठती हूं तो मुझे मम्मी की पिटाई याद आ जाती है और मैं अपनी पढ़ाई पर फोकस नहीं कर पाती हूं, मैं चाह कर भी अपना दिमाग पढ़ाई में नहीं लगा पाती हूं.
वहीं गांव की एक महिला देवती देवी (बदला हुआ नाम) घरेलू हिंसा से जुड़ी अपनी आपबीती बयां करते हुए बताती है कि उनकी शादी 15 साल की उम्र में हो गई थी, और वह तभी से घरेलू हिंसा का शिकार होती आ रही हैं. उन्होंने कहा कि मारपीट तो उनके जीवन का हिस्सा बन चुका है. कई बार पति ने मारपीट करने के बाद मुझे जिंदा जलाने की भी कोशिश की थी, लेकिन मैं बच गई. एक दिन उन्होंने मेरे मुंह पर तकिया रख कर मुझे जान से मारने की कोशिश भी की. इसी प्रकार की हिंसा का शिकार गांव की एक अन्य महिला खष्टी देवी (बदला हुआ नाम) भी हुई हैं. उनका कहना था कि मैंने शादी के बाद से एक भी दिन रोटी का टुकड़ा सुख से नहीं खाया है. मैंने घरेलू हिंसा से मुक्ति पाने के लिए आत्महत्या भी करने की भी कोशिश की थी. घरेलू हिंसा का शिकार गांव की लगभग हर औरत हो रही है. इस संबंध में गांव की एक अन्य महिला पुष्पा (बदला हुआ नाम) का कहना है कि उच्च शिक्षित होने के बावजूद मैं भी घरेलू हिंसा का शिकार होती रही हूं.
इस संबंध में सामाजिक कार्यकर्ता नीलम ग्रेंडी का कहना है कि घरेलू हिंसा, नारी सुरक्षा से जुड़ा एक गंभीर मुद्दा है. यह विषय जब देश की आबादी की गरिमा से संबद्ध हो तो मामला और भी विचारणीय हो जाता है. देश आजादी के 75 वर्ष में कदम रख चुका है. महिलाओं की सुरक्षा और नारी शक्ति को लेकर अक्सर बड़ी बड़ी बातें की जाती हैं. लेकिन हकीकत इसके विपरीत है. खासकर ग्रामीण इलाकों और उत्तराखंड के दूर दराज़ पहाड़ी क्षेत्रों में जहां महिलाएं घरेलू हिंसा का लगातार शिकार हो रही हैं. विडंबना यह है कि मीडिया की नज़रों में भी यह ख़ास मायने नहीं रखता है. यही कारण है कि यह सुर्खियां बनने की जगह अखबार के किसी कोने में दब कर रह जाती है.
दरअसल मानव अधिकारों पर आधारित संविधान के होते हुए भी महिलाओं के विरुद्ध समाज का दृष्टिकोण आज भी नहीं बदला है. घर की चारदीवारी के अंदर होने वाली हिंसा को न केवल पारिवारिक मामला कह कर दबा दिया जाता है, बल्कि पीड़ित महिला को भी इसकी शिकायत करने से रोका जाता है, जो किसी भी सभ्य समाज के विकास के लिए उचित नहीं है. पति द्वारा किये जाने वाली हिंसा के लिए पत्नी को ही ज़िम्मेदार ठहराने वाली मानसिकता को बदलने की ज़रूरत है. इस सामाजिक समस्या के निदान के लिए स्वयं समाज को आगे आने की ज़रूरत है. शादी के समय अग्नि के सामने दिए गए पति द्वारा पत्नी के सम्मान के वचन को सही अर्थों में समझने और समझाने की ज़रूरत है. (चरखा फीचर)
- दिया आर्य ,असों, कपकोट
बागेश्वर, उत्तराखंड
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