समाज, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका सभी को यह जवाब देना होगा कि आखिर नारी की अस्मिता और कितनी तार तार होगी?
कब रुकेगा दुष्कर्म का सिलसिला ?
यूपी के लखीमपुर में अनुसूचित जाति की दो नाबालिग बहनों के साथ दुष्कर्म और हत्या के मामले ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि नारी आज भी सुरक्षित नहीं है. घर की चारदीवारी से लेकर बाहर तक विकृत मानसिकता के दरिंदे बेख़ौफ़ घूम रहे हैं और किसी भी नारी को अपनी हवस का शिकार बना रहे हैं. दरिंदगी की सीमा इस तरह की पार कर चुके हैं कि 70 साल की बुज़ुर्ग से लेकर दो साल की मासूम तक सुरक्षित नहीं है. न तो गांव सुरक्षित है और न ही दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में महिलाओं की इज़्ज़त महफूज़ है. आज़ादी के बाद से लेकर आज तक कोई ऐसा दिन नहीं है जब देश का कोई समाचारपत्र बलात्कार की ख़बरों के बिना प्रकाशित हुआ हो.
टीवी और अखबारों में बलात्कार की आठ दस घटनाएं तो हमें रोज अपनी जिंदगी में देखने को ही मिल जाती हैं. किसी न किसी बहाने नाबालिग के साथ दुष्कर्म की घटनाएं आम हो गई हैं. आंकड़े बताते हैं कि 2018 में देश में हर चौथी दुष्कर्म पीड़िता नाबालिक थी, जबकि 50 फीसद से ज्यादा पीड़िताओं की उम्र 18 से 30 साल के बीच थी. वहीं लगभग 94 प्रतिशत मामलों में आरोपी पीड़िता का परिचित, परिवार का कोई सदस्य, दोस्त, सह जीवन साथी अथवा ऑफिस का कोई कर्मचारी था.
आंकड़ों की भयावता यह बताती है कि हर बीस मिनट में एक महिला के साथ दुष्कर्म होता है या वह बलात्कार जैसी ही किसी हादसे से गुजरती है. कुछ मामलों में यह सामने आया है कि ऐसा घिनौना अपराध करने वाला कई बार परिवार का वह बुज़ुर्ग होता है जिसके पास बच्ची को सबसे अधिक सुरक्षित समझा जाता है.
दुष्कर्म से महिलाओं को केवल शारीरिक क्षति ही नहीं पहुंचती है बल्कि वह मानसिक रूप से भी उसे गहरी चोट पहुंचती है. इस प्रकार के कई मामलों में देखा गया है कि दुष्कर्म के बाद महिला विशेष रूप से किशोरियां विक्षिप्त हो जाती है. वह हर जगह स्वयं को असुरक्षित महसूस करने लगती है. वह स्वयं को घर में महीनों कैद कर लेती है. ऐसे में उसे मनोवैज्ञानिक की ज़रूरत होती है, जो उसे इस त्रासदी से निकालने में मदद करते हैं.
लेकिन सवाल यह उठता है कि ऐसी कितनी पीड़िता है जिसे इस प्रकार की सहायता मिल पाती है? खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में दुष्कर्म पीड़िता के लिए कई प्रकार की परेशानियां बढ़ जाती हैं. समाज जहां उसके ही चरित्र का हनन शुरू कर देता है वहीं इस मुश्किल घड़ी में लोकलाज के नाम पर घर वाले भी उसका साथ छोड़ देते हैं. हालांकि यह वह वक़्त होता है जब पीड़िता के साथ मज़बूती से खड़ा होना चाहिए ताकि वह मानसिक रूप से इस मुश्किल घड़ी का सामना कर सके.
अफ़सोस की बात यह है कि 21वीं सदी में समृद्ध भारत का दावा करने वाला यही समाज एक दुष्कर्म पीड़िता का साथ देने की जगह उसे मानसिक रूप से और भी तोड़ देता है. घर से लेकर बाहर तक जहां उसके चरित्र पर ही सवाल उठाया जाता है वहीं अस्पताल और पुलिस प्रशासन तक उसके साथ बुरा व्यवहार करता है. इसके कारण पीड़िता की मानसिक स्थिति और भी ज़्यादा खराब हो जाती है जिससे वह अपनी पूरी जिंदगी सामान्य तरीके से जी नहीं पाती है. यही कारण है कि कई बार ऐसे अपराधी अदालत से बरी हो जाते हैं या उन्हें उतनी सजा नहीं मिलती है जो उनके अपराध की गंभीरता को साबित करे.
आमतौर पर दोषी को कम से कम दस साल की सजा दी जाती है. कई बार यह देखा गया है कि दबंग किस्म का अपराधी या तो पीड़िता को डरा धमका कर अदालत में केस साबित नहीं होने देता है या फिर जेल से छूटने के बाद फिर से ऐसे अपराध को करता है. दरअसल बलात्कार जैसे घिनौने अपराध को रोकने के लिए अदालत और विधायिका को कई बदलाव करने की ज़रूरत है क्योंकि आज यह एक गंभीर संकट बन चुका है. आंकड़े बताते हैं कि देश में दिन प्रतिदिन बलात्कार के केस बढ़ते ही जा रहे हैं, हालांकि इस जघन्य अपराध को रोकने के लिए सरकार भी कोशिश कर रही है.
निर्भया केस के बाद इस अपराध के दोषियों के खिलाफ कानून और भी सख्त कर दिए गए हैं, लेकिन फिर भी आंकड़े थमने की जगह बढ़ते ही रहे हैं. इसके पीछे कई कारण हैं जो इस अपराध को बढ़ावा देता है. जहां सामाजिक रूप से इसके विरुद्ध जागरूकता बढ़ाने की आवश्यकता है वहीं राजनीतिक रूप से भी इसमें कुछ बेहतर करने की ज़रूरत है क्योंकि हाल के दशकों में देखा गया है कि देश के कुछ राजनीतिक दल बलात्कार की घटना को गंभीरता से लेने की जगह उसमें केवल अपनी राजनीतिक रोटियां सेकते हैं. पीड़िता को न्याय दिलाने की जगह उसे वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करते हैं. वहीं कुछ राजनीतिक दलों का इस कदर नैतिक पतन हो चुका है कि वह पीड़िता और अपराधी में धर्म और जाति का चश्मा लगा लेते हैं.
हमारे भारत देश में नारी को देवी के समान समझा जाता है लेकिन कुछ लोगों की बुरी मानसिक स्थिति की वजह से बलात्कार जैसे गंभीर अपराध रुकने की जगह बढ़ते ही जा रहे हैं. दरअसल यह एक ऐसा केस है जो केवल कठोर कानून बनाने से नहीं रुकेगा बल्कि इसके लिए जागरूकता बढ़ाने की ज़रूरत है. पुरुषों को बचपन से नारी का सम्मान सिखाने और उसके प्रति अच्छे संस्कार बनाने की ज़रूरत है. इसे जहां स्कूल सिलेबस के रूप में जोड़ने चाहिए वहीं परिवार के अंदर भी ऐसे संस्कार को बढ़ावा देने की आवश्यकता है.
केवल एक वकील का इस प्रवृति के अपराधी का केस लड़ने से इंकार करना समस्या का पूरी तरह से हल संभव नहीं है बल्कि अपराधी के घर वालों का भी आगे बढ़ कर उसे कड़ी से कड़ी सजा दिलाने की मांग शायद इस अपराध को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. अन्यथा दुष्कर्म के यह आंकड़े ऐसे ही बढ़ते रहेंगे. अब वक्त आ गया है कि समाज, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका सभी को यह जवाब देना होगा कि आखिर नारी की अस्मिता और कितनी तार तार होगी? (चरखा फीचर)
- प्रेरणा,दिल्ली
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