श्यामवर्ण लड़का धूप में और सांवला लग रहा था। इस समय उसकी काया पूर्णतया कृष्णमय हो गई थी। वह उस भरी दुपहरी में पीत एवं काले रंग का कृष्ण ही दिख रहा था
वृन्दावन के वे दो पंछी
ऐसा क्या हुआ? क्यों छोड़ आए तुम सब? क्या तुम्हें कलकत्ता कतई याद नहीं आता? " कालियादेह की वह दोपहरी मुझे आज भी याद है।दो पंछी से वे किसी डाल डाल पात पात पर डोल रहे थे। यूं लग रहा था मानो राधा कृष्ण ही हों। वह उसे कह रहा था कि ये कालियादेह है, वृन्दावन का वह पावन स्थल जहां आज से ५००० वर्ष पूर्व वासुदेव श्री कृष्ण ने कालिया नाग का वध किया था। और यह है ५००० वर्ष पुराना कदंब का वृक्ष जिस पर से चढ़कर उन्होंने जमुना में छलांग लगाई थी और जिस दिव्य वृक्ष पर आज भी शोभायमान है उनके पद चिन्ह, देखो तो, देखो ज़रा, ज्यों का त्यों मिलता है वह तने के रूप में ढला हुआ कलश, जिस में गरुड़ देव के अमृत उड़ेलने के पश्चात यह वृक्ष कभी मुरझाया नहीं, आज भी हरा भरा है।" वह लड़का उस लड़की को कालियादेह के बारे में ये सब बातें बता रहा था। और मैं सोच रही थी कि ये वृक्ष नहीं अपितु साक्षात श्री कृष्ण हैं। शायद वह लड़की भी उसे वासुदेव श्री कृष्ण ही समझे बैठी थी जो उस दुपहरी में उस वृक्ष को आलिंगन कर, चूम चूम कर आंसू बहा रही थी। और वह लड़का जो अपनी वाणी से उसके उस चंचल स्वप्न को हिलोरे दे रहा था। वह जो श्याम वर्ण का एक अनूठा युवक था । दोनों दो प्रेम में पड़े पंछियों की भांति उस वृक्ष के इर्द गिर्द अपनी रचनात्मक स्मृतियों का घोंसला बुन रहे थे ।
मैं, गोपाल सखी आज से कई वर्ष पूर्व आगरा से वृन्दावन आ गई थी और फिर यहीं की होकर रह गई। सखी संप्रदाय के बारे में शायद ही आपने कभी सुना हो। इस संप्रदाय में हम जैसी कई सखियां हैं। जो देह से तो पुरुष थीं किंतु मन में किशोरी जी के असीम प्रेम और सेवा भावना के वशीभूत, वेशभूषा से स्त्री हो गईं। मैंने भी कई वर्ष अपने गुरु के सानिध्य में रहने के पश्चात फिर श्रृंगार की दीक्षा ली। अब मैं कई वर्षों से सखी रूप में माथे पे तिलक, हाथों में कंगन और साड़ी पहने किशोरी जी की सेवा में मग्न हूं, विलीन हूं । किंतु उस दिन कालियादेह में मेरे समक्ष कुछ विचित्र घटा जिसे मैं आज दिन तक भुला नहीं पाई।
कालियादेह के समीप वह इस श्यामवर्ण लड़के के साथ मुझे नज़र आई। पता नहीं किस प्रांत की वह श्वेत हंस सी कन्या थी और श्यामवर्ण सा वह लड़का जो आंखों पर ऐनक लगाए उस श्वेत हंस सी लड़की की अपने फोन में तस्वीरें खींच रहा था।आधुनिक काल के ये दो पंछी पर फिर भी मुझे इनमें कुछ अलग ही रस दिख रहा था। मुझे इनमें द्वापर के गोप गोपी दिख रहे थे। उस नितंबिनी के ये गज गज लंबे बाल, गोरा रंग, गोल चेहरा, बड़ी बड़ी मृगनयनी सी आंखें, वह कन्या मुस्कुरा मुस्कुरा कर उस वृक्ष से सटक कर उससे तस्वीरें खिंचवा रही थी। और वह लड़का अपने मुस्कुराते चेहरा, श्याम वर्ण, आंखों पर ऐनक के साथ साथ धैर्यता का दुर्लभ गहना पहने उसकी एक एक तस्वीर बड़े प्रेमपूर्वक खींच रहा था। उस लड़के में वाचालता के साथ साथ एक विचित्र ठहराव भी था। और थी एक दुर्लभ सजगता कुछ भिन्नता इस जगत से, कुछ असामान्यता जो मुझे उसकी ओर आकर्षित कर रही थी।उन्होंने शायद ही मुझे उस कदंब के वृक्ष के नीचे बैठे देखा हो। किंतु मेरी नज़र तो उनसे मानो हट ही नहीं रही थी। मुझे यूं लग रहा था जैसे साक्षात देवलोक से गोप गोपी पधारे हों। हां, उनकी वेशभूषा अवश्य कुछ पश्चिमी थी। जहां उस लड़के के माथे पर चंदन का सा तिलक था जो उसकी नाक से दो तंग एवम समानांतर रेखाओं की भांति होता हुआ उसके माथे तक जाता था वहीं उसके नाक के ऊपर एक तुलसी के आकार का चंदन से ही बना हुआ चिन्ह भी था।उसने जींस और सूती कुरता पहन रखा था और कंठ में तुलसी की माला भी धारण कर रखी थी। उस लड़के ने ब्राह्मणों जैसी टिकी भी रखी थी । वहीं दूसरी ओर उस कन्या ने एक सूती कुरता और तंग चूड़ीदार पजामी पहन रखी थी, उसके लंबे लंबे, काले केश खुले थे और कानों में झूमते हुए मोर पंखी झुमके उसके केशों में बार बार फंस रहे थे। मैं यह दृश्य देख गदगद हो रही थी ।
उनकी हंसी ठिठोली की आवाज़ें मानो द्वापर में जमुना किनारे क्रीड़ाएं करते गोप गोपियों की हों । मैं यह दृश्य देख ही रही थी और सोच रही थी कि ये सुनिश्चित ही प्रेमी प्रेमिका होंगे । अभी मेरे मन में ये विचार चल ही रहे थे कि अचानक वे वहां से जाने लगे। मेरे मन में उन्हें जानने की उत्सुकता थी। मैं जानना चाहती थी कि वे कौन लोग हैं, मैं जानती थी कि वृंदावन की पावन रज पर कुछ भी सामान्य घटित नहीं हो सकता। यहां पर आए प्रत्येक व्यक्ति का कुछ न कुछ संघर्ष रहा होता है जिसमें से वह विजयी होकर आध्यात्म के पथ को चुनता है।
वृंदावन असामान्य अनुभवों एवम चमत्कारों की नगरी है। ये पृथ्वीलोक का अंश नहीं अपितु आप ही वैकुंठ है। ये ८४ कोस का दायरा पृथ्वी लोक से बाह्य एक अद्भुत नगरी है। इन्हीं विचारों को लिए मैं उन्हें जानने के उद्देश्य से मैं उनकी दिशा में चल दी। वे दोनों एक सफेद रंग की दोपहिया वाहन पर सवार थे। किंतु उनके मुड़ने की दिशा से ही मैंने अंदाज़ा लगा लिया था कि ये अब मदन मोहन को जायेंगे।
कालियादेह से बाईं ओर की पक्की सड़क लेने पर मदन मोहन मंदिर आता है। सनातन गोस्वामी द्वारा निर्मित मदन मोहन मंदिर कोई साधारण मंदिर नहीं है। इसका इतिहास बहुत ही रोमांचक एवम दुर्लभ है। मुझे स्वयं भी मदन मोहन के दर्शन को कुछ समय हो चला था। वृंदावन की गलियों से होती हुई मैं भी शिखर दोपहरी में मदन मोहन की ओर चल दी। वहां वह कन्या अपने जूते उतार कर खड़ी थी और पांव जलने की बात कर रही थी। वह लड़का मुस्कुराता हुआ उसे सांत्वना दे रहा था और उसे सौभाग्यशाली बता रहा था कि उसे कृष्ण की नगरी में आकर कुछ पीड़ा हुई।" पीड़ा का अपना मूल्य है। तुम सौभाग्यशाली हो जो तुम्हें इस प्रकार का कष्ट सहने को मिल रहा है।" "ऐसा क्या?", उस लड़की ने उससे पूछा। मैं उस लड़के की इन बातों से सहमत थी और मन ही मन उसे एक बुद्धिजीवी एवम आध्यात्मिक और ऊंचे स्तर की आत्मा मान रही थी। उसका दृष्टिकोण आज कल के युवकों जैसा नहीं अपितु बहुत ही निराला एवम विरला प्रतीत हो रहा था। मैं उसकी बात से सहमत थी कि वृन्दावन का अनुभव चेतना के लिए जितना मधुर होता है उतना ही सांसारिक दृष्टि में कष्टदायी भी रहता है। किंतु सच्चे भक्त को ही इन बातों का अर्थ समझ में आता है। यह लड़का अवश्य ही असाधारण था। इसका जीवन कदापि सामान्य नहीं हो सकता। अब मेरी इस युवक में और भी रुचि बढ़ती जा रही थी। वह कौन था, कहां से आया था ? कुछ २५ से ३० वर्ष के करीब उम्र होगी इसकी। पर मानो जीवन को करीब से देखा हो। इतनी अल्प आयु में ही समझ लिया हो। ऐसा लग रहा था कि मानो जीवन के यथार्थ से पूर्ण रूप से अवगत हों। किंतु ऐसा क्या घटित हुआ था इस लड़के के साथ जो ये यहां इस लड़की को समस्त तीर्थस्थलों के बड़े श्रद्धापूर्वक दर्शन करवा रहा था। और क्या ये वाकई ही प्रेमी प्रेमिका थे। यदि ऐसा था तो ये एक दूसरे से किस प्रकार का प्रेम करते थे? क्योंकि भक्ति में बहने वाली आत्माएं स्वत: ही कृष्ण को अपना सर्वस्व मान लेती हैं। फिर उनके लिए जीवन के अन्य रस, रस हीन हो जाते हैं। उनके भीतर बहने वाले भक्ति रस के अमृत का ही पान करने को शायद मैं उनकी दिशा में अग्रसर हो रही थी। यही प्राय: मेरी उनमें रुचि का भी कारण था।
मदन मोहन मंदिर के पिछली ओर है सूर्य कुंड । वहां के दर्शन कर अब वो दोनों, मंदिर की निचली गली से होते हुए गुरुकुल की ओर चल दिए। मौन धारण करते हुए उन्होंने वहां माथा टेका। अब वह लड़का उसको मदन मोहन की ओर मुख करके १०८ बार महामंत्र का जाप करने को कहने लगा। "अपनी उंगलियों पर गिनो। जब तुम पांच बार इस हाथ पर गिनती कर लोगी तो तुम १०० बार जाप कर चुकी होगी।" लड़की ने कुछ चकित होकर लड़के की ओर देखा और कहने लगी "अरे एक हाथ पर तो केवल चौदह बार पाठ हो सकता है"। लड़का भी कुछ अचंभित हुआ और उससे पूछने लगा, "वो कैसे?" उनके बीच गिनने के संदर्भ में कुछ बात चीत हुई जिसके उपरांत लड़के ने कहा, "ठहरो मैं तुम्हें बताता हूं। वह अब अपना दायां हाथ उसके सामने उठा कर बोला। एक उंगली को एक खंबे की तरह देखो। देखो इस पर चार क्षैतिज लकीरें हैं । इस एक लकीर को एक बार गिनो। इन चार क्षैतिज लकीरें को पांचों उंगलियों से गुणा करो।" इस पर वह मुस्कुराने लगी और कहने लगी "समझ गई परंतु ऐसे तो बहुत समय लग जायेगा । मैं तो गाते हुए जाप करती हूं ।" फिर उसने महामंत्र को गाकर सुनाया। "अरे इसे तो कीर्तन कहते हैं । तुम बस जाप करो।" और फिर वह लयबद्ध होकर धीमी आवाज़ में जाप करने लगी। उसे तकरीबन बीस मिनट लगे। और उन बीस मिनट में उनके करीब केवल दो प्राणी आए।
एक तो उस वृक्ष पर बैठा काला कौवा जिसे वो जाप करते करते देख रही थी और शायद कोई दिव्य आत्मा समझ रही थी। और दूसरा मैं। जिसे अचानक लगा कि वहां वानरों के होते हुए उस लड़के की आंखों पर लगी ऐनक और उस लड़की के कुर्ते की दाहिनी जेब में से झांकता फोन खतरे में हो सकता है। इसी कारणवश मैंने उनकी ओर कुछ कदम बढ़ाए और बिना कुछ कहे अपनी उंगलियों के इशारे से अपनी बात समझा दी। मैं उस लड़की के जाप में अपने कहे हुए शब्दों से कोई विघ्न नहीं डालना चाहती थी। और न ही इस शांत वातावरण में शब्दों द्वारा कोई सेंध लगाना चाहती थी। यदि कोई शब्द उस पवित्र भूमि में सुशोभित हो रहे थे तो वे थे उस कन्या के मुख से निकलते हुआ महामंत्र या फिर गुरुकुल के मुख्य द्वार पर बरामदे में बैठे कुछ शिष्य जो अपने गुरु से आध्यात्मिक ज्ञान ले रहे थे।
लड़के ने बिना कुछ पूछे अपनी आंखों से ऐनक हटा कर अपने जेब में रख ली और लड़की ने भी निशब्द अपना फोन निकालकर उसकी हथेली में दे दिया। इस शांत वातावरण में अचल, स्थिर कृष्ण में लगे उनके दो से एक होते मन महासागर में एक सीपी की भांति सुंदर लग रहे थे। कुछ देर जाप करने के पश्चात उस लड़की ने उसकी ओर देखा । उनके बीच की आपसी समझ को शायद ही शब्दों की आवश्यकता थी। दोनों बिना कुछ कहे वहां से जाने लगे। कुछ कदम बढ़ाने पर उस लड़के ने उससे पूछा, " अब कहां जाना पसंद करोगी?" वह कुछ देर तक चुप रही। मानो महामंत्र के दिव्य प्रकाश को अपने भीतरी कोषों में समा रही हो, अंकुरित कर रही हो उसे अपनी आत्मा की क्यारियों में । जूते पहन के फिर वे दोनों वहां से निकल गए।
उसी वृक्ष के नीचे बैठकर मैंने भी कुछ समय एकाग्रता से कृष्ण का मनन किया और उन दो हंसों के जोड़े के लिए सुख एवम शांति की कामना की। बाकी का दिन मैंने अपने आश्रम में ठाकुर जी एवम स्वामिनी की सेवा में बिताया।
२
मेरा आश्रम केशी घाट के समीप है। वहीं से कुछ दूरी पर होती है हर संध्या, रास। रास में भाग लेने वाले गोप गोपियों को देख मुझे फिर से उनकी याद आ गई। उनके बारे में जानने की उत्सुकता मुझे अभी भी थी। मैं उन्हें फिर से मिलना चाहती थी।
देखना चाहती थी श्याम वर्ण के उस लड़के को एवम श्वेत हंस सी दिव्य उस कन्या को। किंतु मैं यह नहीं जानती थी कि मेरी यह कामना श्री कृष्ण अतिशीघ्र ही पूरी करेंगे ।अगले दिन वृंदावन परिक्रमा मार्ग से होती हुई मैंने चीर घाट पर रुकने का फैसला किया। चीर घाट से जमुना का दृश्य अद्भुत दिखता है। यूं लगता है मानो चंचल सूर्य की किरणें यमुना के सलवटों पर सर रख कर विश्राम की मुद्रा में हों। किंतु आज इस दृश्य से भी अद्भुत था मेरा उन पंछियों को फिर से एक बार देखना।
जहां मैं केशी घाट पर बने एक लाल पत्थर के टीले पर बैठी माला पर जाप कर रही थी और वहीं दूसरी ओर ईश्वर का करतब तो देखो कि उसी के निकटतम टीले के ऊपर मुझे वह लड़की गोल गोल घूमती दिखी। उसे देख मुझे ऐसा लगा मानो धरा अपनी ही धुरी पर घूम रही हो। वह उस श्याम वर्ण लड़के को जिसकी कांति उस समय सूर्य की भांति थी उसे खुद को कैमरे में रिकॉर्ड करने को कह रही थी। अब वो अचानक चक्कर खा कर गिरने लगी थी कि उस लड़के ने एकाएक उसका हाथ थाम लिया । दोनों ने फिर टीले की सीढ़ी पर बैठकर एक ही बोतल से बारी बारी पानी पिया । वे दोनों मेरी दाएं ओर की सीढ़ियों पर आकर बैठ गए। वह उससे अचानक पूछने लगी," ऐसा क्या हुआ? क्यों छोड़ आए तुम सब? क्या तुम्हें कलकत्ता कतई याद नहीं आता? " उस समय मुझे यूं लगा मानो ये सवाल कृष्ण ने उसके मुख से मेरी ही जिज्ञासा को शांत करने हेतु पुछवाया है । वह लड़का मंद सा मुस्कुराया और बोला," तुम जानती हो पगली, जिस जीवन को लोग रिटायरमेंट के बाद जीते हैं मैं उसे अभी जी रहा हूं। मैं क्यों कलकत्ता को याद रखूंगा।"
इस पर वह लड़की उससे कुछ अनभिज्ञ कुछ अप्रभावित सी लगी। वह फिर बोली," पर फिर भी तुम्हें नहीं लगता कि तुम अपनी जिम्मेवारियों से भाग रहे हो? तुम्हारा कुछ कर्तव्य है अपने माता पिता के प्रति?" उस कन्या का ये सवाल मुझे अपने युवा काल में ले गया। यही सवाल जो मुझसे आज से तीस वर्ष पूर्व लेने आए मेरे कई रिश्तेदारों ने किया था? और ये सवाल जो सन्यास लिए या गृहस्थ त्यागे अमूमन सभी से किया जाता है।
वह फिर बोला "तुम मेरे हालात को नहीं जानती पगली। मुझे वृंदावन से प्रेम हो गया है। कलकत्ता तो निरी कलह है, और वृन्दावन है प्रेम की नगरी।"मैं ये जवाब सुन कर मन ही मन मुस्कुराया। उस पल में मेरी उस लड़के से एक विचित्र सा सौहार्द स्थापित हो गया था। किंतु वह लड़की, वह लड़की तो मानो ज़िद्द पर उतर आई थी । वो कहां मानने वाली थी, वह और भी स्पष्टवादी हो गई । वह कहने लगी"और तुम्हारी मां?उनका क्या?" वह लड़का समझ गया कि उसके सवालों से अब पिंड छुड़ा ना इतना आसान नहीं। वह भी अब बेझिझक उससे सब कहने लगा था। वहीं धूप भी अब अपने पहले चरम पर पहुंच रही थी। टीले का लाल पत्थर तप रहा था। मौसम भी गर्म हो रहा था। मुझे पहली बार लगा कि वे एक दूसरे को शायद ही पहले से जानते होंगे। वे अवश्य कुछ समय पहले ही एक दूसरे से मिले हैं। वे एक दूसरे के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानते।
"मां कुछ लालची हैं। वह तब तक खुश हैं जब तक मैं उन्हें पैसा भेजता रहूं। तुम मानोगी आज मुझे टीवी नहीं चल रहा था इसके लिए फोन कर रही थीं। " लड़के ने एक कुटिल हंसी हंसते हुए कहा।" और किससे कहेंगी? तुम हो न उनके पुत्र। तुम्हें ही तो कहेंगी।" श्यामवर्ण लड़का अब कुछ गंभीर हो गया " तुम शायद सही कहती हो। पर मुझे जज करने से पहले तुम जरा मेरे सत्य को जान लो।" वह लड़की बोली, " क्या है तुम्हारा सत्य? मैं भी सुनना चाहूंगी।" उस लड़के ने एक लंबी सांस लेकर सब कहना शुरू किया। इस पल में मुझे लग रहा था कि जैसे प्रभु ने मेरी जिज्ञासा को ही शांत करने हेतु उन्हें मेरे निकट भेजा है और नियति जानबूझ कर इस वार्तालाप को मेरे कानों तक पहुंचा रही है।
वह लड़का उस लड़की से कहने लगा," मेरा जन्म कलकत्ता के एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ। किंतु मेरे माता पिता की आपस में कभी नहीं बनी। वे अक्सर दिन रात झगड़ा किया करते थे। मेरे पिता को बहुत धन खर्चने की आदत थी। इसी अपव्यय की वजह से वह कई लोगों के कर्जदार भी हो गए। आजीवन मैंने साहूकारों के गुंडों को घर पर उन्हें मारने के लिए आता देखा है। ये सब कई वर्षों तक चला।"
इस पर भी वह लड़की शून्य में देखती रही। मानो लड़के की इन बातों का उसकी सेहत पर कोई असर न पड़ रहा हो। किंतु उसका शून्य में देखना एकाएक समाप्त हो गया जैसे ही वह अपनी मां के बारे में बोला," मां ने भी आवेश में आकर खुद को जला डाला। वे सत्तर फीसदी जली हुई हैं ।" लड़की के चेहरे पर मुझे पहली बार आत्म ग्लानि दिखी। उसने संवेदनशील होकर उसकी ओर देखा किंतु वह लड़का बिना विराम के कहता रहा, " मां भी अत्याधिक क्रोध में आ जाया करती थीं । एक रोज़ उन्हें इतना क्रोध आ गया कि उन्होंने खुद को जला डालने की धमकी तक दे दी। पिता ने भी उस दिन उन्हें उकसाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी । उन्हें लगा था कि वे ऐसा कुछ नहीं करेंगी। पर वे कहां जानते थे कि किसी भी चीज़ की अति बुरी होती है। मां ने क्रोध में आकर अपने ऊपर तेल छिड़क लिया और गैस जला दी। मेरी उम्र उस समय महज़ पांच वर्ष की था। किंतु यह दृश्य आज तक मेरी आत्मा को झिंझोड़ देता है।"
"मुझे याद है आग की वह भयानक लपटें। और मेरे पिता का एकाएक आंगन में से भरी हुई बाल्टी से उन पर पानी डालना। पर मां तब तक ७० फीसदी जल चुकी थी। उनका बचना नामुमकिन था। यहां तक कि डॉक्टर्स ने भी जवाब दे दिया था। वे बार बार पानी मांगती थीं किंतु उन्हें पानी नहीं दिया जाता था । फिर कुछ समय के बाद उनकी श्वास को न चलता देख उन्हें मृत घोषित कर दिया था। यहां तक कि उन्हें शवगृह तक में रख दिया गया था। किसी कारण उन्हें करीब तीन दिन उस में रखा गया था। पर शायद उनकी अभी पृथ्वी पर यातना सहनी बाकी थी। उनके अभी श्वास बाकी थे। ये तो उन्हें वहां से निकलने पर पिता ने देखा कि उनकी मद्धम सी सांस चल रही हैं। मां को शवगृह में बीता समय एक अत्याधिक ठंड के रूप में याद आता है। यहां तक कि वे यम से मिलने की भी बात कहती हैं। वे सुनाती हैं कि कुछ लोग वहां बैठे थे जो कि अपने सामने किसी प्रकार का कोई बहीखाता खोलकर बैठे थे। मुझे देखते ही वे आपस में बात करने लगे कि ये किसे उठा लाए? इसे वापस छोड़ कर आओ। इसका अभी समय नहीं आया है। ये सब बचपन में सुनकर मुझे बहुत अजीब लगता था।
कई दिन तक फिर मां को आइना नहीं दिखाया गया। हमें डर था कि वे ये सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाएंगी। फिर एक रात अचानक वो बाथरूम की ओर गईं और बाथरूम के शीशे में उन्होंने स्वयं को देख लिया और चीख पड़ी। वही बात हुई जिस बात का हम सब को डर था। उन्हें सदमा लग गया।
उस अवस्था में जी पाना किसी के लिए भी कठिन हो जाता है। उनके लिए भी सब बहुत कठिन हो गया । वह स्वयं को स्वीकार नहीं कर पा रही थी। उनका क्रोध और भी बढ़ गया था। पिता को भी इस बीच कोई और पसंद आ गई थी। दिन प्रतिदिन उनके बीच का विवाद बढ़ते ही जा रहा था। इस दौरान मां की भी उनके पिता के मित्र में रुचि हो गई थी। शायद उन्हें उनमें वह स्वीकृति मिल रही थी जो वे मेरे पिता में ढूंढती थीं। ये दोस्ती अस्वस्थ थी। उनके बीच अवैध संबंध बन रहे थे। और मेरे बड़े भाई को भी ये सब समझ में आ रहा था। जिसने उस मौके का नाजाएज फायदा उठाना शुरू कर दिया और मां का आर्थिक शोषण करना शुरू कर दिया। पिता को कुछ ना कहने के लिए उनसे मोटी रकमें वसूल करनी शुरू कर दी। मां भी समय टालने के लिए उसे वो सब दे देती जिसकी वह मांग करता। ऐसा करते करते उसे शराब और नशे की बुरी लत लग गई। अब वह नशाखोर है। उसे हाल ही में एक नशामुक्त केंद्र में रखा गया था। कुछ ही दिन पहले वो घर आया है। दिन रात घर में क्लेश करता है। घर घर नहीं किंतु चिड़िया घर है। अब तुम कल रात की बात ही देख लो जब आज सुबह मां का फोन आया था कि घर का टीवी खराब हो गया है तो मैं कहीं पूछ बैठा कि वो कैसे? और वो भी बोल पड़ी कि कल रात भयानक झगड़ा हुआ जिसकी भेंट घर का टीवी चढ़ गया। अब देखो मैं तो वहां नहीं हूं फिर भी ये सब हो रहा है वहां पर।"
" क्या मतलब। तुम नहीं हो फिर भी ये सब हो रहा है? " लड़की ने पूछा, जो अब तक ये सब सन होकर सुन रही थी। वह अब तक उसकी बात बिना बाधा डाले सुन रही थी। शायद वह उसके जीवन अनुभव को पूर्ण रूप से समझना चाहती थी और उसे भय था कि उसके मध्य में कोई भी रुकावट या उसका पूछा कोई भी सवाल उसे अभिज्ञ एवम सचेत कर सकता है और उसे उसके पथ से भटका सकता है।
लड़का अब आंखों में चमक लिए उस हंस सी लड़की की ओर मुंह करके बोला, " आज से दो वर्ष पूर्व मैंने अपनी इच्छानुसार एक आदिवासी लड़की से विवाह कर लिया था।" इतना सुनते ही वह लड़की अचानक खिलखिला कर हंस दी और कहने लगी, " तुम लोग विवाह भी करते हो? मुझे तो लगा था शायद आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करते हो।" इस पल वह लड़का बिना कुछ कहे उसकी आंखों में देखता रहा। उसके चहरे पर लड़की की नादानी का भाव स्पष्ट हो रहा था। वह काफी चंचल थी। दुनियावी बातों से दूर। शायद कृष्ण को ही अपना सब कुछ मान बैठी थी। किंतु मैं भी तो ऐसी ही थी। हम सब ऐसे ही तो थे। किसी न किसी रूप में हम कृष्ण से जुड़े थे। अंतर केवल इतना था कि कोई उन्हें सखा रूप में चाह रहा था जैसे कि ये श्यामवर्ण लड़का तो कोई उन्हें प्रेमी समझ बैठी थी जैसे कि ये श्वेत हंस सी लड़की। और कोई उन्हें अपनी स्वामिनी का स्वामी समझ बैठी चरणों की दासी बन बैठी थी जैसे कि मैं। हम सब एक ही तो थे। शायद हमारी आत्माएं भी एक ही थी जो अपने भीतर राधा कृष्ण संजोए बैठी थीं या फिर ये कहें कि जो राधा कृष्ण के ही भीतर थीं। उन्हीं का अंश थीं। तभी तो हम सब एक दूसरे से जुड़े थे। एक दूसरे की पीड़ा को महसूस कर पा रहे थे और शायद ये जो अलग अलग देहों का अंतर दिखाई पड़ रहा था वह केवल सतह पर ही था। भिन्नता केवल एक मिथ्या थी, एक कल्पना सी। यथार्थ तो यूं कहें कि एक ही था।
चुप्पी तोड़ कर वह फिर एक बार अपनी बात कहना शुरू हुआ " मैं इस संस्था के साथ उत्तर पूर्व के एक आदिवासी क्षेत्र में कार्य कर रहा था जब मेरी मुलाकात सुलोचना से हुई। वह तलाकशुदा थी और साथ ही उसकी एक चार साल की बच्ची भी थी।उसकी बच्ची ने कभी अपने पिता नहीं देखे थे । हुआ ये कि एक रोज़ उसकी बच्ची जब मुझसे मिली तो मुझे ही उसने पापा कह दिया। उसे लगा कि कई वर्षों के बाद उसके पिता घर आए हैं । ना जाने इतने सालों में सुलोचना ने उसे क्या कहा था । क्या कह कर उस छोटी सी बच्ची की अपने पिता के प्रति जिज्ञासा को शांत किया था। कैसे उत्तर देती होगी उसके पिता के बारे में पूछे उन प्रश्नों के?
सुलोचना और मैं अब तक अच्छे दोस्त बन चुके थे। ना जाने क्यों हमने भी उस बच्ची की त्रुटि को सुधारा नहीं किंतु उसकी त्रुटि को किस्मत का एक सुनहरा स्ट्रोक समझ लिया। हम दोस्त से ज्यादा बन चुके थे। हम एक दूसरे के सबसे अच्छे दोस्त ही नहीं किंतु प्रेमी प्रेमिका हो चुके थे। अब हम एक दूसरे के संग विवाह के बंधन में बंधना चाहते थे। किंतु मैं ये जानता था कि कलकत्ता में रहने वाला मेरा परिवार हमारा यह कुटुंब कभी स्वीकार नहीं करेगा। किंतु मेरा मन तो मानो सुलोचना को छोड़ कर जाने को कतई राज़ी नहीं था। पिछले तीस वर्षों में वह पहली ऐसी सुंदर घटना थी जो मेरे साथ घटी थी। मैं उसके संग एक सुंदर, अनमोल जीवन की कामना करने लगा था। मैं जीवन में पहली बार सुखी गृहस्थ जीवन जीने को तत्पर था। शायद उसी के स्वप्न भी बुनने लगा था। ये गृहस्थी का सुख, वैवाहिक आनंद किसे कहते हैं ? क्यों सभी देवी देवता भी विवाह को पवित्र मानते हैं। क्यों भक्ति संतों ने भी विवाह का कभी बहिष्कार नहीं किया किंतु उसे अपनाया ? क्यों ये कहा जाता है धार्मिक ग्रंथों में कि विवाह का प्रथम उद्देश्य है मन की शांति। प्रेम तथा अन्य चीज़ें तो उसके फलस्वरूप ही हैं किंतु सर्वप्रथम है शांति जो कि आज तक मेरे जीवन से लुप्त थी। ये सब मैं महसूस करना चाहता था। मेरे माता पिता के विफल विवाह के बावजूद मैं विवाह से कभी निराश नहीं हुआ था।
फिर क्या था मैंने उससे चुपके से विवाह कर लिया। किंतु ये खबर मेरे परिवार से ज़्यादा दिन तक न छुपा सका। वे मेरे खून के प्यासे हो गए। मेरे पिता ने तो यहां तक धमकी दे रखी है कि जिस दिन उन्होंने मुझे देखा तो देखते ही गोली मार देंगे। मैंने उन्हें कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा है। समाज में उनकी प्रतिष्ठा को ताड़ ताड़ किया है।"
इस पर वह श्वेत हंस सी लड़की एक दम बोल पड़ी," कैसी विडंबना है। वे तुमसे यह सब कहते हैं जिन्होंने तुम्हें कभी शांति से नहीं जीने दिया जैसे वो मुझे विवाह करने को मजबूर करते हैं जिन्होंने जीवन भर मेरे सामने विवाह जैसे अंजुमन को गालियां दी। उसे जीवन की सबसे बड़ी त्रुटि बताई। मेरा मन ऊबा दिया। अब न तो मुझमें साहस है न ही ऊर्जा किसी रिश्ते में बंध कर उसे निभाने की। मैं जीवित हूं यही कृष्ण का चमत्कार है। ". इस पर वह लड़का कुछ ना कह कर केवल मुस्कुराया और फिर कहने लगा, " मेरी तो कृष्ण से यही प्रार्थना है कि किसी तरह वे भी वृंदावन आ जाएं । और देखें यहां का असीम सौंदर्य। सार्थक करें अपना जीवन, ब्रज की रज को माथे से लगा कर।"
"तो क्या तुम इस बीच कभी सुलोचना को लेकर घर नही गए?" उस लड़की ने पूछा। " हां मैं सुलोचना को लेकर एक बार घर गया था किंतु मां ने उसके साथ कई दिन तक दुर्व्यवहार किया था। वह उसे चिंकी और बदसूरत कह कर बुलाती थी। बस फिर एक दिन मैंने भी अपना धैर्य पूरी तरह से खो दिया। मैं सुलोचना और गौरांगी को लेकर सदा के लिए वृंदावन आ गया। और तब से हम यहीं पर खुशी खुशी अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं।" यह सब सुनते हुए मैं उस लड़की के चेहरे पर एक अलग ही सुकून देख पा रही थी। ऐसा लग रहा था मानो उसे कोई आशा की किरण दिखाई दे रही हो। उनकी बातचीत से ही स्पष्ट था कि वह अविवाहिता थी और फिर भी ज़िंदगी के वो थपेड़े सह चुकी थी जो प्राय: औरतें विवाह के पश्चात सहती हैं। वहीं धूप भी अब कुछ मद्धम पड़ रही थी। उस तेज धूप की किरणों ने उस श्वेत हंस सी कन्या के गालों का रंग माणिक कर दिया था। ऐसे में वह साक्षात राधा रानी की सुंदर छटा बिखेर रही थी। वह साक्षात राधा रानी ही दिख रही थी। वहीं दूसरी ओर वह श्यामवर्ण लड़का धूप में और सांवला लग रहा था। इस समय उसकी काया पूर्णतया कृष्णमय हो गई थी। वह उस भरी दुपहरी में पीत एवं काले रंग का कृष्ण ही दिख रहा था।
- मनीषा मनहास
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